@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नाटक
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सोमवार, 21 सितंबर 2009

कुछ संवाद 'गटक चूरमा' नाटक से .....

- अपने वो वकील साहब हैं न?
- कौन?
- अरे ! वो ही, जो 'तीसरा खंबा' पे कानूनी बात बतावत हैं, और 'अनवरत' पर भी न जाने क्या क्या लिक्खे हैं।
- हाँ, हाँ वही न, जो सिर से गंजे हो कर भी 'शब्दों का सफर' में सरदार बने बैठे हैं?
- हाँ, वो ही।
- वो दो दिन से कुच्छ भी ना लिख रहे, अनवरत खाली पड्यो है।
- क्या? दो दिन में लिखने को कुच्छ ई ना मिल्यो उन को? आज तो बड़्डे-बड्डे मौके थे जी। एक तो पाबला जी को जनम दिन थो, दूजो करीना कपूर को, तीजो ईद को। कच्छु नाहीं तो मुबारक बाद ही लिक्ख मारते!
-एक दिन तो निकल गयो, शिबराम जी की नाटकाँ की किताबाँ का लोकार्पण में।
-आज दफ्तर में काम करने बैठ गए जी, फेर साम को कोई से मिलने-जुलने निकल गए जी। अब खा पी के लोकार्पण हुई किताब बाँच रहे हैं।
- कौन सी किताब बाँच रिये हैं जी?
- वो, ही जी, का कहत हैं उसे ..... "गटक चूरमा"।
- अब ये गटक चूरमा  का होवे जी?
- य्हाँ तो किताब और नाटक को नाम है जी। पर जे एक चूरन होवे, जो मुहँ में फाँके तो खुद बे खुद पानी आवे और गले से निच्चे उतर जावे।
- वो तो ठीक, पर ई किताब में का लिक्खो होगो?
- चल्ल वा वकील साब से ही पूच्छ लेवें।
- चल!
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- वकील साब! गटक चूरमा पढ़ो हो। कच्छु हमें ही सुना देब, दो-च्चार लाइन।
- तो सुनो.....


भोपा और भोपी, वे ही जो राजस्थान में फड़ बांच सुनावें। रामचंदर के गांव बड़ौद पहुंच गए हैं। जबरन रामचंदर के बेटी जमाई भी बन लिए। अब रामचंदर ले जा रहा है उन्हें अपने घर। रास्ते में कुत्ता भोंकता है।
रामचंदर-  तो ..... तो....... (कहते हुए पत्थर मार कर कुत्ते को भगाता है और कहता है) मेहमान हैं, नालायक कोटा से आए हैं ... (फिर भोपा-भोपी से मुखातिब हो कर) कुत्ते हैं, नया आदमी देखते हैं तो भोंकते हैं। कुत्ते तो कोटा में भी भोंकते होंगे।
भोपी- ना, हमारे यहाँ तो काटते हैं, फफेड़ देते हैं, पेट में चौदह इंजेक्शन लगें। नहीं तो कुत्ते के साथ ही जै श्री राम!
भोपा- नही, ये तो झूठ बोलती है। हमारे यहाँ तो कुत्ते दुम हिलाते हैं और पैर चाटते हैं।
भोपी- चाटते हैं, पर बड़े लोगों के। छोटे लोगों को देख कर तो ऐसे झपटते हैं जैसे पुलिस।
भोपा- ऐ भोपी, तू पालतू कुत्तों की बात कर रही है और यहाँ बात चल रही है गली मोहल्ले के कुत्तों की। समझती नहीं है क्या।
रामचंदर- सच कहते हो भाई। उन कुत्तों की तो किस्मत ही निराली है, जो कोठी-बंगलों में रहते हैं। किसन बता रहा था कि बड़े ठाट हैं भाई उन के। हम से तो वे कुत्ते ही बढ़िया।
भोपा- बढ़िया? पाँचों अंगुली घी में...।
भोपी- अरे! मेरे राजा, पाँचों नहीं दसों अंगुलियाँ घी में। साहब और मेम साहब अपने हाथों मालिस करें, नहलावें-धुलावें, बाथरूम, टॉयलट करावें...।
भोपी- (रामचंदर से) मतलब टट्टी पेशाब करावें।
(रामचंदर हँसता है)
भोपी- फस्सकिलास खाना खिलाएँ और गद्दों पर सुलाएँ।
भोपा- और झक्क सैर कराने ले जाएँ।
भोपी- आगे आगे कुत्ता और पीछे-पीछे साब।
भोपी- वाह! क्या दृश्य बनता है।
पता नहीं चल पाता कि इनमें कुत्ता कौन है और साहब कौन...।
(भोपा और रामचंदर ठठा कर हँस पड़ते हैं)
-बस भाई इत्ता ही। वकील साब बोले। आगे या तो किताब खुद बाँचो या फिर कहीं नाटक खेला जाए तो देखो। नहीं तो किताब मंगाओ और खुद खेलो।


भोपा-भोपी
और अंत में-
सब से पहले टिप्पणीकारों, फिर गैरटिप्पणीकार पाठकों और फिर ब्लागर भाइयों को ईद-उल-फित्र की बधाई और शुभकामनाएँ। 
राम! राम!
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शनिवार, 19 सितंबर 2009

अपना मुख जन-गण की ओर -शिवराम


 आज  शिवराम के नाटकों की दो पुस्तकों 'गटक चूरमा' (मूल्य 35 रुपए) और 'पुनर्नव' (मूल्य 50 रुपए) का लोकार्पण है। इन में सम्मिलित सभी नाटक खेले जा चुके हैं और उन का नाटकीय आवश्यकताओं के अनुसार पुनर्लेखन भी हुआ है।  सभी नाटक किसी भी नाटक रूप में खेलने के लिए आदर्श हैं। मैं चाहता था कि इस अवसर पर इन नाटकों के बारे में कुछ लिखूँ। जब मैं उन्हें इस हेतु फिर से पढ़ने बैठा तो लगा कि उन पर कुछ लिखने से बेहतर होगा कि 'गटक चूरमा' की भूमिका में लिखा गया शिवराम का आलेख यहाँ प्रस्तुत करना अधिक प्रासंगिक होगा।  उसे ही बिना किसी टिप्पणी के यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ......

हिन्दी जगत की सक्रिय नाट्य संस्थाओं की सब से बड़ी समस्या कोई है तो वर्तमान  संदर्भों में प्रासंगिक नाटकों की।  नाटक कम लिखे जा रहे हैं। पुराने नाटकों की प्रासंगिकता कम दिखाई देती है। दूसरी भाषाओं से अनुवाद अपनी जगह पर है, पर अपनी भाषा में रचे गए नाटकों का दर्शकों के साथ जो सांस्कृतिक तादात्म्य बनता है वह अनुदित नाटकों का नहीं बनता इसलिए यह भी हो रहा है कि नाट्य दल इम्प्रोवाइजेशन पद्धति से किसी एक थीम या आईडिया पर सामूहिक रूप से आलेख तैयार करते हैं और इस तरह नाटकों के अभाव की पूर्ति करते हैं। लेकिन समर्थ लेखक द्वारा नाट्य रचना का सृजन भिन्न प्रकार की रचना प्रक्रिया है, जीवनानुभव, जीवन दर्शन और मानवीय संवेदनाओं के क्रिया व्यापार के बेहतर समुच्चय की संभावना वहाँ अधिक बनती है। प्रस्तुति के लिए तैयारियों के दौरान निर्देशक और कलाकारों का व्यवहार मंच की आवश्यकतानुसार  उस समृद्ध करता ही है, लेकिन यदि उन के पास 'थीम' या 'आईडिया' के बजाय नाटक-रचना उपलब्ध हो और वे उस पर काम शुरू करें तो यह उन के लिए भी अधिक सुविधाप्रद रहता है और बेहतर नाट्य प्रस्तुति के लिए भी अधिक उपयुक्त रहता है। जाहिर है हिन्दी में वर्तमान सामाजिक यथार्थ पर आधारित नाटकों की जरूरत है।

जो लोग सामाजिक दायित्वबोध से संचालित हैं और जनता के बीच सास्कृतिक-सामाजिक आंदोलन निर्मित किए जाने के पक्षधर हैं, उन्हें कलाओं और साहित्य की जनोन्मुखी विधाओं और प्रवृत्तियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।  अभिजनोन्मुखी साहित्यिक सांस्कृतिक मठाधीशों की दुनिया जनोन्मुखी कला कर्म का उपहास और तिरस्कार करेगी ही, उन्हें अपने काम में लगे रहने दें। भविष्य उसी कला कर्म का है, सार्थकता उसी कलाकर्म की है जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करता है। अपना मुख जनगण की ओर रखता है।

नाटक एक ऐसी विधा है जो काव्य भी है और कहानी भी।  मंच पर प्रस्तुति के समय तो सभी कला विधाएँ उस के साथ समुच्चित होने लगती हैं। अतः यह कविता या कहानी से कम महत्वपूर्ण विधा नहीं है। बल्कि अधिक महत्वपूर्ण है। नाट्य रचना कठिन काम है, कविता या कहानी से अधिक कठिन है। वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में उस का कम मान है तो यह अभिजनोन्मुखता की प्रवृत्तियों के वर्चस्व के कारण है। जिन्हें अभिजन समाज की सेवा चाकरी में अपने कला कर्म को परोसना है और उन से प्राप्त इनामों-इकरामों से जीवन यापन करना है वे अपने इस चारण-विदूषक-चाटुकार कर्म में लगे रहें और कुंठित हो हो कर भूलुंठित होते रहे, उन के दिए ताजों-भूषणों से अलंकृत हो हो कर दुमें ऊँची कर-कर के ऐंठते-गुर्राते रहें। ऐसे लोगों को ठेंगा दिखाओ और हो सके तो इन बेचारों पर दया करो, लेकिन जो साहित्य और कलाओं को मनुष्य के सांस्कृतिक उन्नयन की साधना मानता है और इस हेतु जन-गण को समर्पित है उन की दुनिया अलग है, उन का मार्ग अलग है। कठिनाई तब होती है जब दोनों दुनियाओं में स्थान बनाने की आकांक्षा उछल-कूद करती है। इस दुविधा से मुक्त होना चाहिए। या तो इस और या उस ओर। तिकड़मों, हुक्मरानों की कृपाओं, संसाधनों के बल पर पाए प्रचारों से कुछ समय के लिए अपनी श्रेष्ठता का भ्रम पैदा किया जा सकता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया अंततः वही बचता है, जिसे लोक सहेजता है।

नाटक, गीत, पोस्टर, चित्रकला, आदि जन सांस्कृतिक अभियान के प्रमुख अंग हैं।  हमें इन्हें पुष्ट और समृद्ध करना चाहिए।

ये नाटक ऐसी ही जरूरतों के अंतर्गत लिखे गए हैं। इस संग्रह में चार नाटक हैं; 'गटक चूरमा', 'हम लड़कियाँ', 'बोलो-हल्ला बोलो' और 'ढम ढमा ढम ढम'। 'दुलारी की माँ', एक गाँव की कहानी' और 'रधिया की कहानी' नाटकों को भी मैं इस में शामिल करना चाहता था लेकिन ये तीनों नाटक अलग अलग पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और अभी उपलब्ध भी हैं, इस लिए फिर इन्हें इस संग्रह में शामिल करने का इरादा छोड़ दिया।

ये नाटक मेहनतकश अवाम की जिंदगी, उन की समस्याओं और साम्राज्यवादी भू-मंडलीकरण के यथार्थ से रूबरू होते हैं और दर्शकों को रूबरू कराते हैं। इन्हें नुक्कड़ों, चौपालों, खुले मंचों और रंगमंच पर सभी रूपों में खेला जा सकता है।

'अभिव्यक्ति' नाट्य एवं कला मंच कोटा ने इस पुस्तक के प्रकाशन में दायित्वपूर्ण सहयोग किया है।  सच तो यह है कि मेरे नाटकों को इस संस्था से सम्बद्ध रंगकर्मियों ने मुझ से अधिक जिया है। मैं उन के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।  मैं उन सभी मित्रों और निर्देशकों का आभारी हूँ, जिन्हों ने  इस हेतु प्रेरणा दी और सहयोग किया। उनि सभी रंग संस्थाओं और रंग कर्मियों का भी मैं आभारी हूँ। जिन्हो ने इन नाटकों की प्रस्तुतियाँ दी और इन्हें जन-नाटक बनाया।

मुझे विश्वास है कि जनता के बीच सक्रिय जनोन्मुखी रंगकर्मी इन नाटकों को उपयोगी पाएँगे।

इन नाटकों के गैर व्यावसायिक मंचन के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यक नहीं है। मंचन की सूचना् देंगे तो अच्छा लगेगा।
-शिवराम



दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।

  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

शिवराम की दो और नाट्य पुस्तकें पुनर्नव और गटक चूरमा


हिन्दी नाटक के क्षेत्र में शिवराम जाने माने नाटककार हैं। उन्हों ने नाटक केवल लिखे नहीं है, उन्हें खेला है और जनता के बीच जा कर खेला है।  यह कहा  जा सकता है कि उन्हों ने नाटकों को खेलने  के लिए ही लिखा है। उन  के नाटक केवल रंगमंच के नाटक नहीं हैं। वे जनता के नाटक हैं। जनता उन के नाटकों को देखती है और उन पर प्रतिक्रिया भी करती है। उन के नाटकों की चेतना जनता को अन्याय और शोषण के विरुद्ध संगठित होने और संघर्ष करने की प्रेऱणा देती है। जब उन्हों ने पहले पहल नाटक खेले और खान मजदूर उन के पास आ गए कि नाटक बता कर संगठित होने का संदेशा तो दे दिया लेकिन अब हमें संगठित होने का तरीका भी बताइए। खैर उस वक्त तो उन्हों ने मजदूरों को पास के नगर के ट्रेड यूनियन नेताओं के हवाले कर दिया। लेकिन जल्दी ही उन के अपने विभाग के कर्मचारियों ने उन्हें पकड़ा तो विभाग से  सेवा निवृत्ति के बाद भी उन से पीछा नहीं छूटा है।

शिवराम की छह पुस्तकें पहले आ चुकी हैं। जिन में जनता पागल हो गई है, घुसपैठिए, दुलारी की माँ, एक गाँव की कहानी, राधेया की कहानी नाटकों की पुस्तकें हैं तथा सूली ऊपर सेज सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक है। पिछले ही महीने उन के नाटक जनता पागल हो गई है के हाड़ौती अनुवाद जनता बावळी होगी का लोकार्पण हुआ है।  जनता पागल हो गई है उन का वह नाटक है जिस ने उन्हें न केवल हिन्दी प्रदेशों में अपितु संपूर्ण भारत और विदेशों तक में पहुँचाया। इस नाटक को लगभग सभी भारतीय भाषाओं में खेला जा चुका है। राज की बात यह कि इस बन्दे ने भी उस नाटक में एक खासमखास भूमिका  अनेक बार अदा की है।



अब इस बार उन के नाटकों की दो पुस्तकें पुनर्नव और गटक चूरमा बोधि प्रकाशन ने एक साथ प्रकाशित की हैं। 20 सितम्बर को अभिव्यक्ति नाट्य़ मंच और 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच कोटा ने इन दोनों पुस्तकों का लोकार्पण समारोह आयोजित किया है। पुनर्नव में तीन जनप्रिय कहानियों के नाट्य रूपांतरण हैं। जिन में मुंशी प्रेमचंद की ठाकुर का कुआँ, सत्याग्रह और ऐसा क्यूँ हुआ हैं,  तो रिज़वान जहीर उस्मान की खोजा नसरूद्दीन बनारस में और नीरज सिंह की क्यो? उर्फ वक्त की पुकार शामिल हैं। दूसरी पुस्तक में उन के चार मौलिक नाटक गटक चूरमा, बोलो- हल्ला बोलो!,  ढम, ढमा-ढम-ढम और हम लड़कियाँ शामिल हैं।



लोकार्पण समारोह में 'विकल्प' के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बी.आर.ए. विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर बिहार के विभागाध्यक्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि' मुख्य अतिथि हैं एल.एस. कॉलेज मुजफ्फरपुर बिहार की डॉ. मंजरी वर्मा विशिष्ट अतिथि हैं, अतुल चतुर्वेदी मुख्य वक्तव्य देंगे. समारोह की अध्यक्षता डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी और संचालन महेंन्द्र नेह करेंगें। इस समारोह में समकालीन परिस्थितियों और नाटकों पर अच्छा विमर्श होने की संभावना है।
लोकार्पण समारोह की रिपोर्ट और दोनो पुस्तकों का परिचय अनवरत आप को पहुँचाएगा।