मैं 2004 से एक बुजुर्ग महिला का मुकदमा लड़ रहा हूँ। उन के पति ने अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए एक और मकान बनाया था। उसे एक फर्म को किराए पर दे दिया। फिर फर्म के एक पार्टनर के भतीजे ने उसी नाम से एक फर्म और रजिस्टर करवा ली। मूल फर्म तो शहर से कारोबार समेट कर चल दी और भतीजा उस मकान में पुरानी फर्म का साइन बोर्ड लगा कर नई फर्म का कारोबार करता रहा। महिला ने मकान खाली करने को कहा तो भतीजे ने खाली करने से मना कर दिया। महिला की उम्र 73 वर्ष की थी और बीमार रहती थी तो उस ने अपने बेटे को मुख्तार आम बनाया हुआ था वही मुकदमे को देखता था। मुकदमे में 2010 में निर्णय हुआ और मकान खाली करने का निर्णय हो गया। तब तक महिला की उम्र अस्सी के करीब हो गई। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ नागरिकों के मुकदमे वरीयता से निपटाने का स्थाई निर्देश दे रखा है लेकिन इस के बावजूद प्रक्रिया की तलवार का लाभ उठाने में कोई भी वकील नहीं चूकता। पेशी पर कोई न कोई बिना किसी आधार के कोई न कोई आवेदन प्रस्तुत होता। मैं तुरन्त उसी वक्त उस उत्तर देता। तब भी बहस के लिए अगली तिथि दे दी जाती। आदेश होने पर उच्च न्यायालय में उस की रिट कर दी जाती। इसी तरह तीन वर्ष गुजर गए।
महिला का पुत्र नरेश इतना मेहनती कि वह हर पेशी के पहले मेरे दफ्तर आता मुकदमें की तैयारी करवाता और पेशी के दिन सुबह अदालत खुलते ही अदालत में उपस्थित रहता। आज उसी मुकदमे में पेशी थी और हम सोचते थे कि आज बहस सुन ली जाएगी।
मुझे कल रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह उठा तो निद्रालू था। मैं प्रातः भ्रमण निरस्त कर एक घंटा और सोया। फिर भी तैयार होते होते मुझे देरी हो गई। मैं नौ बजे अदालत पहुँचा और जाते ही अपने सहायकों और क्लर्क से पूछा कि नरेशआया क्या? लेकिन उन्हों ने मना कर दिया। मुझे आश्चर्य था कि आज उस का फोन भी न आया, जब कि वह इतनी देर में तो चार बार मुझे फोन कर चुका होता। मैं ने तुरंत उसे फोन किया। फोन उस की बेटी ने उठाया। मैं ने पूछा नरेश कहाँ है। बेटी ने पूछा - आप कौन अंकल? मैं ने अपना नाम बताया तो वह तुरन्त पहचान गई और रुआँसी आवाज में बोली कि पापा जी को तो कल रात हार्ट अटैक हुआ और वे नहीं रहे।
मैं जब अदालत के इजलास में पहुँचा तो आज विपक्षी और उन के वकील पहले से उपस्थित थे। जब कि आज से पहले कभी भी वे अदालत द्वारा तीन चार बार पुकारे जाने पर भी नहीं आते थे। मैं ने अदालत को कहा कि बहस सुन ली जाए। तब विपक्षी ने तुरन्त कहा कि आज बहस कैसे होगी नरेश का तो कल रात देहान्त हो गया है। मैं ने उन्हें कहा कि नरेश इस प्रकरण में पक्षकार नहीं है उस की मृत्यु से यह मुकदमा प्रभावित नहीं होता इस कारण से बहस सुन ली जाए। लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि केवल कल कल ही न्यायालय और खुले हैं उस के बाद एक माह के लिए अवकाश हो जाएगा। मैं निर्णय नहीं लिखा सकूंगा। इस लिए जुलाई में ही रख लेते हैं। मैने विपक्षी उन के वकीलों को उन के द्वारा मेरी पक्षकार के पुत्र की मृत्यु के आधार पर पेशी बदलने पर बहुत लताड़ा लेकिन वे अप्रभावित रहे। न्यायालय को भी कहा कि वह प्रथम दृष्टया बेबुनियाद आवेदनों की सुनवाई के लिए भी समय देता है जिस के नतीजे में मुकदमों का निस्तारण नहीं होता और न्यायार्थी इसी तरह न्यायालयों के चक्कर काटते काटते दुनिया छोड़ जाते हैं। लेकिन न तो इस का प्रतिपक्षी और उन के वकीलों पर इस का कोई असर था और न ही अदालत पर। मुकदमे में दो माह आगे की पेशी दे दी गई।
आज से 34 बरस पहले जब मैं वकालत के पेशे में आया था तो सोचा था मेरा पेशा उन लोगों को न्याय दिलाने में मदद करने का है जो समाज के अन्याय से त्रस्त हैं। जब भी मैं किसी व्यक्ति को अपनी मदद से न्याय प्राप्त करने में सफल होते देखता तो प्रसन्न हो जाता था। लेकिन इन 34 बरसों में न्याय की यह दुनिया इतनी बदल चुकी है कि अदालतों पर काम का चार गुना बोझा है। कोई न्यायाधीश न्याय करना भी चाहे तो समय पर नहीं कर सकता। जब वह कर पाता है तब तक न्यायार्थी दुनिया छोड़ चुका होता है या फिर उस की कमर टूट चुकी होती है। अब तो एक नए न्यायार्थी के मेरे पास आते ही यह सोचना पड़ता है कि इसे क्या कहा जाए। मैं आकलन करता हूँ तो अधिकांश मामलों में पाता हूँ कि न्याय प्राप्त करने में इसे जितने कष्ट न्यायार्थी को उठाने पड़ेंगे उस से तो अच्छा यह है कि वह इन बांझ अदालतों से न्याय की आस ही न लगाए।
22 टिप्पणियां:
क्या कहूँ ... :(
ऐसे में हताशा ही तो होगी
यह बेहद शर्मनाक वाक्या है.. पढ़कर मन कड़वा हो गया.. अफसोस तो नहीं लेकिन हिकारत और गुस्सा का एहसास जरूर हो रहा है। लानत है ऐसी व्यवस्था पर...
यही हिंदुस्तान की दशा है....उसपर न्यायालय में देरी तो हमेशा ही होती रही है...एक वकील भी कई बार चाह कर भी कुछ नहीं करता...दरअसल स्थिती यह है कि आप काम बिगाड़ना चाहें तो बड़ी आसानी से बिगाड़ सकते हैं..किसी को तबाह कर सकते हैं..पर कुछ भला करना चाहे तो कभी नहीं कर सकते। कितना भी दांव लगा लें...सरकारी चीजें जल्दी नहीं सुधरने वाली।
बेहद तकलीफदायक घटना है, नरेश जी की आत्मा को शांति मिले. इसिलए लोग कोर्ट-कचेहरी के चक्कर में नहीं पड़ते
बेहद तकलीफदायक घटना है, नरेश जी की आत्मा को शांति मिले. गुरुदेव जी, आपने सच ही कहा है कि इन बांझ अदालतों से आम आदमी न्याय की आस ही न लगाए।
उपरोक्त लेखक निर्भीक (पूर्व में सिरफिरा) यहीं कहेगा कि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी और जज भारत देश के संविधान को ना मानते हुए सिर्फ महिलाओं के मामलों में संज्ञान लेकर वाहवाही लूटने के साथ ही भेदभाव करते हुए भारत देश के आम आदमी के टैक्सों मिले पैसों की सैलरी और सुविधा लेने वाले "जोकर" है. जिन्हें देश के संविधान से कोई मतलब नहीं है कि आम आदमी को न्याय मिले या ना मिले. वो बस दौलत और सुविधाओं की हवस के पुजारी है.
इसी पोल-पट्टी के कारण अन्याय को संरक्षण मिलता है और न्याय दुत्कार खाता है .आदर्श-हीनता के मूल में यह एक बड़ा कारण है.
nishabd hun
ab aagae kyaa hotaa blog par jarur suchit karae us maa kae liyae dukhi hun
मुकदमे के निपटान की समय सीमा तय हो अधिकतम दो साल-हर लेवल पर बिना किसी अपवाद के.
अदालतों के भी टार्गेट फिक्स हों.
आबादी के हिसाब से स्वत: सैंक्शन हो न्यायालय और उनके कर्मचारियों, अधिकारियों की.
वाकई अफ़सोस की बात है, मगर इस ओर ध्यान देने के लिए ना तो किसी के पास समय है और ना ही इच्छा।
speechless.
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
दुनिया में न्याय नहीं है.
न्याय के लिये एक नई दुनिया दरकार है.
vakil to isikaran amir ho raha hai.bina kisi thos karan ke tarikhe badh rahi hai
काफी दिनों तक मैं भी न्यायाधीशों को देव तुल्य समझने की भूल करता रहा !
.
.
.
दुखद है यह... पर सर, न्याय प्रक्रिया को सुलभ, सहज और शीघ्र करने के जो भी प्रयास करने की कोशिशें होती हैं उसमें सबसे ज्यादा अड़चनें भी अधिवक्ता संघों द्वारा ही डाली जाती हैं...
...
ऐसे मे लोग कानून हाथ में न लें तो क्या करें।
अफ़सोसजनक!
भारत में यदि पुलिस और अदालतें सुधर जाएँ, तो यह वापस सोने की चिड़िया कहलाए, परंतु दुर्भाग्य!
log nayayalay par kuchh nahi kahte.. par wahan bhi bahut dhandhli hai..
जो अदालतों के चक्कर काट चूका हो वो ही इस दर्द को समझ सकता हैं...
सचमुच भारतीय अदालतें बाँझ हैं, जहाँ कोई परिणाम नहीं मिलते. सुन्दर आलेख, सच्चाई से कटुता को उकेरा है.
दुखदायी प्रकरण , आभार आपका !
एक टिप्पणी भेजें