यादवचंद्र पाण्डे |
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का द्वितीय भाग यहाँ प्रस्तुत है, मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
मुक्ति पर्व
भाग द्वितीय
पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा .....
या फिर
मुझे फुसलाते हो
कि मैं
अपनी बिरादरी से
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर
पर्दा डालेंगे !
लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक् थू -- ह !
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
अब आगे पढ़ें .......
तुम कौन हो ?
मेरे सिर पर
यह प्यार भरा हाथ
क्यों फेर रहे हो ?
...... ........ ........
हाथों का यह स्पर्श
...... ........ ........
उफ, याद नहीं आता..... !
हाँ,
बचपन में
जेलर के चुपके
एक दिन
मेरी माँ ने भी
ऐसा ही
ऐसा ही था वह स्पर्ष !
जब कि
जेलर ने
माँ से
मुझे छीन लिया
और मैं
साइबेरिया
अण्डमान
मडागास्कर
भेज दिया गया
काठ के लम्बे - चौड़े
बक्सों में बन्द कर
मुझे समुद्र की
लहरों में फेंक दिया गया
और मेरी माँ
..... ..... ..... .....
कुछ याद नहीं आता
..... ..... ..... .....
कौन हो तुम
ओ घनी दाढ़ी वाले
महाकाय, निर्भय पुरुष !
तुम कौन हो ?
तुम भीगी - भीगी आँखों से
मुझे क्यों देख रहे हो ?
अपने विशाल वक्ष में
चिपका कर
मुझे क्यों भींच रहे हो
ओ दिव्यचेता !
तुम चाहते क्या हो ?
मेरे पाँवों में पैकर
और हाथों में
बेड़ियाँ हैं,
मैं तुम्हारा
क्या स्वागत करूँ ?
मेरी हर साँस
मेरे लिए
नागन बन गई है,
सूरज - चांद - तारे भी
खुफिया बन कर
मेरी हर हरकत पर
नजर रखते हैं
मैं तुम्हारी क्या सुनूँ ?
मेरे जीवन का
हर चरण, छन्द
हर ध्वनि, अर्थ
हर राग - विराग
मेरा उल्टा बिम्ब है
मेरी हर इकाई को ले कर
चाहे जितने फार्म बन जाएँ
लेकिन उन में
मेरा अपना कुछ नहीं,
जेलर का अपना है
मेरा सपना
जेलर का सपना है
तुम्हारा स्नेह - स्पर्श
शीतल हो कर भी
मेरे शब्द - ज्ञान द्वारा
मुझे जला रहा है
ओ अमृत पुरुष !
तुम्हारे चरक - सुश्रुत
की हर खुराक
मेरे व्याधि अनल में
तेल ही डालेगी
मेरे सिर से
अपने हाथ हटा लो
ओ युगाधार !
इस यज्ञ में
अब और घृत मत डालो
मेरे खून से तर
फटे - चिटे वस्त्रों को
सूलियों के नीचे से
ला - ला कर
यहाँ अम्बार
क्यों लगाते हो ?
महाबाहो !
आखिर तुम
चाहते क्या हो ?
मुक्ति ?
लेकिन किस की ?
उस वर श्रेष्ठ की
जो हमारे
दुश्मन की कारा में
आज
चार हजार वर्षों से
कैद है
और जिस के बिना
कवि की कविता
आज तक
अनब्याही है ?
लेकिन
तुम नहीं जानते
अब वह वेश्या है !
मुझ से छीन कर
फिरदौसी ने
उसे जेलर की
कोठरी में नचाया
कालिदास, बाणभट्ट
भवभूति ने
उसे नंगा नचा कर
जेलर से पैसे कमाए
उस के शास्त्रों में
नाम कमाया,
होमर
और उस के ईलियड से पूछो
उस के सामने
मुझ पर हंटर बरसाये जा रहे थे
मेरी चमड़ी उधेड़ी जा रही थी
और वह
मुझ से आँख चुराये
अपना श्रंगार कर रही थी
शास्त्रों के मंगलाचरण
और भरत वाक्य पढ़ कर देख लो
वह हँस - हँस कर
मुझे शान्त रहने का
आदेश दे रही थी,
कभी जेलर के साथ
कभी उस के भगवान के साथ
(पता नहीं
भगवान क्या था
कैसा था
मैं ने उसे
नहीं देखा
लेकिन, हर सुबह - शाम
मैं जेलर की
कोठरी के सामने
बने एक विशिष्ट मकान में
लाया जाता था
और मुझे
समझा कर
भय - त्रास दिखा कर
उस भगवान पर
यकीन कराया जाता था)
रंगरेलियाँ मनाती रही,
मुझे छोड़ कर
वह
हर शख्स के साथ जाती रही
जो मुझे मारता था
मेरा खून बहाता था
मुझे खाना नहीं देता था
मुझे रोने नहीं देता था
या मेरी बेड़ियों को
मजबूर हो कर देखता था
और मेरे घर की
औरतों को
सामान कह कर बेच देता था
और यह कविता ---
वेश्या है !
...... ........ ........
हाथों का यह स्पर्श
...... ........ ........
उफ, याद नहीं आता..... !
हाँ,
बचपन में
जेलर के चुपके
एक दिन
मेरी माँ ने भी
ऐसा ही
ऐसा ही था वह स्पर्ष !
जब कि
जेलर ने
माँ से
मुझे छीन लिया
और मैं
साइबेरिया
अण्डमान
मडागास्कर
भेज दिया गया
काठ के लम्बे - चौड़े
बक्सों में बन्द कर
मुझे समुद्र की
लहरों में फेंक दिया गया
और मेरी माँ
..... ..... ..... .....
कुछ याद नहीं आता
..... ..... ..... .....
कौन हो तुम
ओ घनी दाढ़ी वाले
महाकाय, निर्भय पुरुष !
तुम कौन हो ?
तुम भीगी - भीगी आँखों से
मुझे क्यों देख रहे हो ?
अपने विशाल वक्ष में
चिपका कर
मुझे क्यों भींच रहे हो
ओ दिव्यचेता !
तुम चाहते क्या हो ?
मेरे पाँवों में पैकर
और हाथों में
बेड़ियाँ हैं,
मैं तुम्हारा
क्या स्वागत करूँ ?
मेरी हर साँस
मेरे लिए
नागन बन गई है,
सूरज - चांद - तारे भी
खुफिया बन कर
मेरी हर हरकत पर
नजर रखते हैं
मैं तुम्हारी क्या सुनूँ ?
मेरे जीवन का
हर चरण, छन्द
हर ध्वनि, अर्थ
हर राग - विराग
मेरा उल्टा बिम्ब है
मेरी हर इकाई को ले कर
चाहे जितने फार्म बन जाएँ
लेकिन उन में
मेरा अपना कुछ नहीं,
जेलर का अपना है
मेरा सपना
जेलर का सपना है
तुम्हारा स्नेह - स्पर्श
शीतल हो कर भी
मेरे शब्द - ज्ञान द्वारा
मुझे जला रहा है
ओ अमृत पुरुष !
तुम्हारे चरक - सुश्रुत
की हर खुराक
मेरे व्याधि अनल में
तेल ही डालेगी
मेरे सिर से
अपने हाथ हटा लो
ओ युगाधार !
इस यज्ञ में
अब और घृत मत डालो
मेरे खून से तर
फटे - चिटे वस्त्रों को
सूलियों के नीचे से
ला - ला कर
यहाँ अम्बार
क्यों लगाते हो ?
महाबाहो !
आखिर तुम
चाहते क्या हो ?
मुक्ति ?
लेकिन किस की ?
उस वर श्रेष्ठ की
जो हमारे
दुश्मन की कारा में
आज
चार हजार वर्षों से
कैद है
और जिस के बिना
कवि की कविता
आज तक
अनब्याही है ?
लेकिन
तुम नहीं जानते
अब वह वेश्या है !
मुझ से छीन कर
फिरदौसी ने
उसे जेलर की
कोठरी में नचाया
कालिदास, बाणभट्ट
भवभूति ने
उसे नंगा नचा कर
जेलर से पैसे कमाए
उस के शास्त्रों में
नाम कमाया,
होमर
और उस के ईलियड से पूछो
उस के सामने
मुझ पर हंटर बरसाये जा रहे थे
मेरी चमड़ी उधेड़ी जा रही थी
और वह
मुझ से आँख चुराये
अपना श्रंगार कर रही थी
शास्त्रों के मंगलाचरण
और भरत वाक्य पढ़ कर देख लो
वह हँस - हँस कर
मुझे शान्त रहने का
आदेश दे रही थी,
कभी जेलर के साथ
कभी उस के भगवान के साथ
(पता नहीं
भगवान क्या था
कैसा था
मैं ने उसे
नहीं देखा
लेकिन, हर सुबह - शाम
मैं जेलर की
कोठरी के सामने
बने एक विशिष्ट मकान में
लाया जाता था
और मुझे
समझा कर
भय - त्रास दिखा कर
उस भगवान पर
यकीन कराया जाता था)
रंगरेलियाँ मनाती रही,
मुझे छोड़ कर
वह
हर शख्स के साथ जाती रही
जो मुझे मारता था
मेरा खून बहाता था
मुझे खाना नहीं देता था
मुझे रोने नहीं देता था
या मेरी बेड़ियों को
मजबूर हो कर देखता था
और मेरे घर की
औरतों को
सामान कह कर बेच देता था
और यह कविता ---
वेश्या है !
...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी
सूचना -
मित्रों ! कुछ कारणों से एक-दो दिन या कुछ अधिक अंतर्जाल संबंध विच्छेद रहेगा। आप को अनवरत के अगले अंक की प्रतीक्षा करने के लिए कष्ट उठाना पड़ेगा।
5 टिप्पणियां:
अद्भुत!!
कारागारों का निर्मम शारीरिक और मानसिक एकान्त। प्रवाहमयी।
मार्मिक ,अवकाश के बाद मिलते हैं !
सुन्दर !
पढ़ रहा हूँ द्विवेदी जी .. गज़ब का प्रवाह है ।
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