@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वो राहतों के ख़्वाब दोस्तो सलीब हो गये

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

वो राहतों के ख़्वाब दोस्तो सलीब हो गये


णतंत्र दिवस की पूर्व संध्या है। हमारे गणतंत्र ने जहाँ से अपना सफर आरंभ किया था वहाँ से अब वह बहुत दूर निकल आया है। क्या थे हालात और क्या हैं हालात। देखिए पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की इस नज़्म के आईने में ........

नज़्म
                    - पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

वो राहतों के ख़्वाब दोस्तो सलीब हो गये
यहाँ तो अब हवाओं के ही रुख़ अजीब हो गये


हुई सहर तो कैसा सुर्ख़-सुर्ख़ आफ़्ताब था
कि पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा शादमाँ गुलाब था
चहक उठीं थीं बुलबुलें, महक उठी थी नस्तरन
कि शबनमी फ़ज़ाओं में लहक उठा चमन-चमन
खुली जो आँख धूप में तो सब ग़रीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।

सितारे तोड़ लाऐंगे घरों से सब निकल पड़े
तरक्क़ियों के दश्त में सफ़र पे हम भी चल पड़े
मुहब्बतों के काफ़िले मगर बिखर-बिखर गये
रिफ़ाक़तों की मंज़िलों की राह तक बिसर गये
जो हमसफ़र थे कूच पर वही रक़ीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।

लो काली-पीली आँधियों में आस्माँ ही खो गया
उजाला हर दिशा में तीरगी के बीज बो गया
ज़मीने-दिल से ख़्वाहिशों की रुत नज़र चुरा गई
लो वक्फ़े-फ़स्ले-ज़ुल्म वो शबे-सियह भी आ गई
‘यक़ीन’ अज़ाबों, लानतों के दिन क़रीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।


--- भारत के जन-गण को गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएँ --- 






7 टिप्‍पणियां:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

आपको भी....गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएँ ---... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा नज्म रही पुरुषोत्तम यकीन जी की.

गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएँ.

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

यहाँ तो अब हवाओं के ही रुख़ अजीब हो गये..
vaah,kya khna hai.शुभकामनाएँ.

उम्मतें ने कहा…

"हुई सहर तो कैसा सुर्ख़-सुर्ख़ आफ़्ताब था"

नज़्म से जुगलबंदी करती तस्वीर लगा कर गणपर्व में रूमानियत भर दी ...भला कौन 'यक़ीन' करेगा कि आप चौव्वन पार और हम भी कहीं करीब ही हैं ! अनंत शुभकामनायें !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बेहतरीन, गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.

रामराम.

राज भाटिय़ा ने कहा…

गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाऎँ

शरद कोकास ने कहा…

इस नज़्म को पढ़वाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद