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सोमवार, 31 अगस्त 2009

"आह! कहीं मैं और कहीं तू" : पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की जादू वाली दूसरी ग़ज़ल


आप ने कल पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की जादू वाली पहली ग़ज़ल "खुल कर बात करें आपस में" पढ़ी।  कुछ पाठकों ने कहा ग़ज़ल ही जादू भरी है, कुछ पाठकों ने पूछा, ये जादू का रहस्य क्या है?  जादू का रहस्य तो मैं भी तलाशता रहा।  बावज़ूद इस के कि मेरे पास जादू वाली दूसरी ग़ज़ल थी, मैं इस में सफल नहीं हो सका।  फिर से यक़ीन साहब की शरण ली गई।  वे अब भी बताने को तैयार नहीं।  कहते हैं, पाठक खुद तलाश करें तो कितना अच्छा हो।  जादू इन दोनों ग़ज़लों में छुपा है।  संकेत दिए देता हूं, जो  ग़ज़ल के नीचे छपे चित्रों में छिपा है। मैं तो अब भी तलाश कर नहीं पाया।  शायद आप तलाश लें। तलाश लें तो मुझे भी टिप्पणी में बताएँ। वर्ना अपने यक़ीन साहब तो हैं हीं, कल उन की फिर से शरण लेंगे। 
 

आह! कहीं मैं और कहीं तू
- पुरुषोत्तम 'यक़ीन' -
 

नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू आकाश है और ज़मीं तू

वो अपने मतलब के संगी
उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू

दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
कैसे कह दूँ माहजबीं तू

तू यह कैसे सह लेता है
आह! कहीं मैं और कहीं तू

तेरे दिल की बात न जानूँ
मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं* तू

कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
आ कर मेरे बैठ क़रीं* तू

कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
चुप ही रहना दोस्त हसीं तू



मकीं* = निवास,   क़रीं*  = निकट
 

चित्र संकेत -

रविवार, 30 अगस्त 2009

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की जादू वाली पहली ग़ज़ल "खुल कर बात करें आपस में"

मेरे शायर दोस्त पुरुषोत्तम 'यक़ीन' से आप सब परिचित हैं। आज रविवार की शाम अचानक वे आए, बहुत देर बैठे। खूब बातें हुईं। कहने लगे -तुम्हें दो जादू वाली ग़ज़लें देता हूँ।  मैं ने पूछा -जादूवाली ग़ज़ल का क्या मानी? वो मैं बाद में बताऊंगा। पहले इन दोनों ग़ज़लों को 'अनवरत' पर छापो। मैं ने कहा -समझो छाप दी, तुम जादू बताओ। नहीं बताउंगा। जब तक छप नहीं जाएंगी और खुद कम्प्यूटर पर नहीं पढ़ लूंगा, नहीं बताउंगा।  
मैं ने बहुत कहा, पर उन्हों ने जादू नहीं बताया।  अड़ गए, सो अड़ गए। शायर जो ठहरे। खैर, मैं पहली ग़ज़ल छाप रहा हूँ। ध्यान से पढ़ें। दूसरी ग़ज़ल भी कल शाम तक जरूर छाप दी जाएगी। मुझे तो इन ग़ज़लों में कोई जादू नज़र नहीं आया। आप को आए तो जरूर बताइगा। वरना दोनों ग़ज़लें छप जाने के बाद 'यक़ीन' साहब से ही पूछेंगे जादू क्या है? 
एक बात और वे अपना नया फोटो भी लाए थे। उसे भी देखिए, मूँछें मुड़ा कर कितने खूबसूरत लग रहे हैं?
खुल कर बात करें आपस में
<>  पुरुषोत्तम 'यक़ीन' <>

तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम
तू बादल तू सबा तू शबनम

छल करते हैं अपना बन कर
मेरे साथी मेरे हमदम

तेरे मुख पर तेज है सच का
तेरे आगे सूरज मद्धम

दर्दे-जुदाई और तन्हाई
क्यूँ न निकल जाता है ये दम

कोई नहीं है तुझ बिन मेरा
कह तो दे इतना कम से कम

खुल कर बात करें आपस में
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम
1

शनिवार, 29 अगस्त 2009

पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे; पाठक अपनी रिस्क पर पढ़ें

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती है, जनतंत्र में  आ कर मिली है। कुछ प्रतिबंध भी हैं, लेकिन उन की परवाह कौन करता है? मैं रेलवे की बुक स्टॉल पर सब से ऊपर रखा अखबार देखता हूँ। शीर्षकों में वर्तनी की तीन अशुद्धियाँ दूर से ही दिख गई हैं। मैं अखबार खरीद लेता हूँ। देखना चाहता हूँ अखबारों की दुनिया में आखिर नया कौन आ गया है? मैं एक दो और किताबें खरीदता हूँ, लेकिन देख लेता हूँ कि उन में तो वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हैं।

पहले तो कोई किताब खरीदना ही नहीं चाहता। हर कोई मांग कर या मार कर पढ़ना चाहता है। एक दो घंटे में पढ़ी जा सकने वाली किताब क्यों खरीदी जाए? पढ़ने के बाद रद्दी जो हो जाती है। फिर खरीदे तो कम से कम ऐसी तो खरीदे जिस में वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हों। हमने वर्तनी की अशुद्धियों वाली किताबें कम ही देखी हैं। कभी किताब छापने की जल्दी में अशुद्धियाँ रह जाती हैं। उन का शुद्धिपत्र अक्सर किताब में विषय सूची के पहले ही नत्थी होता है। मूर्ख  हैं वे, जो अशुद्धियों की सूची इस तरह किताब के पहले-दूसरे पन्ने पर चिपका कर खुद घोषणा कर देते हैं कि किताब में अशुद्धियाँ हैं। वे तो किताब पढ़ने वाले को पढ़ने पर पता लग ही जाती हैं। हर पाठक को लेखक की संवेदना का ख्याल रखता है। वह लेखक-प्रकाशक को कभी नहीं बताता कि उस की किताब में  गलतियाँ हैं, बस इतना करता है कि उस लेखक प्रकाशक की किताब खरीदना बंद कर देता है। भला पैसे दे कर गलतियों वाली किताब खरीदने में कोई आनंद है?
ब्लागिंग मजेदार चीज है। इसे पढ़ने के लिए खरीदना नहीं पड़ता। बस यूँ ही नेट पर लोग पढ़ लेते हैं। यहाँ कुछ भी लिख दो, वह जमा रहता है, तब भी, जब कोई पढ़े और तब भी जब कोई न पढ़े। यहाँ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। ब्लागर वर्तनी की अशुद्धियों से बे-चिंत हो कर टाइप कर सकता है, और प्रकाशित भी कर सकता है। हिन्दी में तो यह काम और भी आसान है। राइटर में वर्तनी की अशुद्धियाँ बताने वाला टूल ही गायब है। हिन्दी को उस की जरूरत भी नहीं है। लोग उस के बिना भी अपनी संवेदनाओं को ट्रांसफर कर सकते हैं।  वे लोग निरे मूर्ख हैं जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धियाँ जाँचने के टूल बनाते हैं। 
प्राइमरी की छोटी क्लास में वर्तनी की एक अशुद्धि पर डाँट मिलती थी। पाँचवी तक पहुँचते-पहुँचते वह मास्टर जी के पैमाने से हथेली पर बनी लकीर में बदल गई। मिडिल में पहुँचते पहुँचते हम वर्तनी की अशुद्धियों को देखने से वंचित हो गए। वे किसी किताब में मिलती ही नहीं थी। आठवीं के विद्यार्थी छुपा कर कुछ छोटी-छोटी किताबें लाते थे और दूसरों को पढ़ाते थे। सड़क पर बैठा बुकसेलर उन किताबों को के जम कर पैसे वसूल करता था। उन में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं  की अभिव्यक्ति वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ होती थी। छात्र अक्सर वर्तनी की अशुद्धियाँ पढ़ने के लिए ही उन किताबों को पढ़ते थे और मध्यान्ह नाश्ते के लिए घर से मिले पैसे आठवीं के उन विद्यार्थियों को दे देते थे। 
हर पाठक को लेखक की संवेदनाओं का पूरा खयाल रखना चाहिए। चाहे वह किताब में हो, अखबार में हो, इंटरनेट के किसी पेज पर हो या फिर ब्लागिंग में हो। कोई ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिस से कोई मासूम लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचे, पाठक की संवेदना को पहुँचे तो पहुँचे। अब कोई भूला भटका अगर टिप्पणी से लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचा भी दे तो उसे जरूर एक आलेख लिख कर पाठकों को आगाह कर देना चाहिए कि आइंदा वे टिप्पणी कर के ऐसा न करें। पाठक की संवेदना का क्या ?  उसे चोट पहुँच जाए तो इस की जिम्मेदारी लेखक-ब्लागर की थोड़े ही है। पाठक खुद चल कर आता है, पढ़ने के लिए। उसे किसने पढ़ने का न्यौता दिया?  अब वह आता है तो अपनी रिस्क पर आता है, पढ़ने से उस की संवेदनाओं को पहुँचने की जिम्मेदारी लेखक-प्रकाशक की थोड़े ही है। 
अब हम वकील हैं, सलाहकारी आदत है। कोई उस के लिए पैसे ले कर आता है तो तत्पर हो कर करते हैं। पर जब कोई नहीं आता है तो आदतन बाँटते रहते हैं। इसलिए इस आलेख के उपसंहार में भी एक सलाह दिए देते हैं, वह भी बिलकुल मुफ्त। इस से आप की संवेदनाओं को चोट पहुँचे तो इस की कोई गारंटी नहीं है। आप चाहें तो इस आलेख को यहीं पढ़ना छोड़ सकते हैं। 
(सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं) 
सलाह ............
जो हर लेखक को अपनी किताब के पहले पन्ने पर और हर ब्लागर को ब्लाग के शीर्षक के ठीक ऊपर यह  चेतावनी टांक देनी चाहिए....
"इस ब्लाग में वर्तनी की अशुद्धियों से किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी"
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गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मुन्नी पोस्ट, मुन्नी कविता, 'मम्मी इतना तो बतला दो' पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

 पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की इस मुन्नी कविता और आप के बीच से अब मैं हटता हूँ। 
आप पढ़िए.....
मम्मी इतना तो बतला दो
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

बिस्कुट तो ले आते पापा
गोदी नहीं बिठाते पापा

मम्मी इतना तो बतला दो
कब आते, कब जाते पापा
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सोमवार, 24 अगस्त 2009

गणेशोत्सव या भारतीय लोक जीवन की झाँकी

गणेश चतुर्थी हो चुकी है।  विनायक गणपति मंगलमूर्ति हो कर पधार चुके हैं।  पूरे ग्यारह दिनों तक गणपति की धूम रहेगी। गणपति के आने के साथ ही देश भर में त्योहारों का मौसम आरंभ हो गया है जिसे देवोत्थान एकादशी तक चलना है। उस के उपरांत गंगा से गोदावरी के मध्य के हिन्दू परंपरा का अनुसरण करने वाले लोगों को चातुर्मास के कारण रुके पड़े शादी-ब्याह और सभी मंगल काज करने की छूट मिल जाएगी।  प्रारंभ तो कल हरितालिका तीज से ही हो चुका है। वैसे भी गणपति के आने के पहले शिव और पार्वती का एक साथ होना जरूरी था। इसलिए यह पर्व एक दिन पहले ही हो लिया।  इस दिन मनवांछित वर की कामना के लिए कुमारियों ने निराहार निर्जल व्रत रखे और जिन परिवारों में किसी अशुभ के कारण श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन नहीं हुआ वहाँ रक्षाबंधन मनाया गया।

आने वाले दिन तरह व्यस्त होंगे। हर नए दिन एक नया पर्व होगा।  ऋषिपंचमी हो चुकी है। फिर सूर्य षष्ठी, दूबड़ी सप्तमी और गौरी का आव्हान, और गौरी पूजन, राधाष्टमी और गौरी विसर्जन, नवमी व्रत, और दशावतार व्रत और राजस्थान में रामदेव जी और तेजाजी के मेले होंगे, जल झूलनी एकादशी होगी। फिर वामन जयन्ती और प्रदोष व्रत होगा और अनंत चतुर्दशी इस दिन गणपति बप्पा को विदा किया जाएगा। अगले दिन से ही पितृपक्ष प्रारंभ हो जाएगा जो पूरे सोलह दिन चलेगा। तदुपरांत नवरात्र जो दशहरे तक चलेंगे। फिर चार दिन बाद शरद पूर्णिमा, कार्तिक आरंभ होगा और  दीपावली आ दस्तक देगी। दीपावली की व्यस्तता के बाद उस की थकान उतरते उतरते देव जाग्रत हो उठेंगे और फिर शादी ब्याह तथा दूसरे मंगल कार्य करने का वक्त आ धमकेगा।

 इन सभी त्योहारों का भारत के लोक जीवन से गहरा नाता है। गणपति के आगमन से इन का आरंभ हो रहा है सही ही है वे प्रथम पूज्य जो हैं। लेकिन गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं। 
 गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

'ब्रज गजल' का परी हमकू * पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

आप के प्रिय शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' ने उर्दू और हिंदी के अतिरिक्त ब्रज भाषा में भी रचनाएँ की हैं। मूलतः करौली जिले के निवासी होने के कारण ब्रज उन की स्थानीय बोली है। पढ़िए उन की एक ब्रज ग़ज़ल


'ब्रज ग़ज़ल'
का परी हमकू
  •    पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
हँसौ, कै रोऔ, कै मुस्काऔ, का परी हमकू
करेजा फारि कै मरि जाऔ, का परी हमकू

गरज है कौन कू अब न्ह्याऊँ, जाऔ लम्बे परौ
कितउँ ते आऔ, कितउँ जाऔ, का परी हमकू

जु तुम ते काम हौ हमकू, ऊ तौ निकरि ही गयौ
अब अपनी ऐंठ में बल खाऔ, का परी हमकू

फिकर में देस की चाहौ तौ राति कारी करौ
कै खूँटी तानि कै सो जाऔ, का परी हमकू

कोई कू चाहौ तो तिलफाऔ, जान ते मारौ
कोई पे चाहौ तरस खाऔ, का परी हमकू

हमहिं तौ दिल्ली के बँगलन में जा कै र्हैनौ है
तुम अपने गाम पे इतराऔ, का परी हमकू

तुम्हारौ देस है, तुम जाय लूटि कै खाऔ
कै नित्त भूके ई सो जाऔ, का परी हमकू

हमारौ का है यहाँ, आप तौ मजे से रहौ
कबर ‘यक़ीन’ की खुदबाऔ, का परी हमकू
***************************************

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'

भारतीय जनता पार्टी के दो पुरोधा अडवाणी और जसवंत (जिन में से एक निकाले जा चुके हैं) जिन्ना को सेकुलर कह चुके हैं, तो कोई तो वजह होगी। नेहरू पर उंगली उठाने से नेहरू की सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा? उन पर पहले भी बहुत उंगलियाँ उठती रही हैं, और उठती रहेंगी।  यह एक खास राजनीति की जरूरत भी है।  फिर यह भी है कि गलतियाँ किस से नहीं हुई?  कौन घुड़सवार है जो घोड़े से नहीं गिरा?  मशहूर उक्ति है कि 'गिरता है शह सवार ही मैदाने जंग में'।  जो मैदाने जंग में ही नहीं हो वही नहीं गिरेगा।  बाद में लड़ने वालों पर उंगलियाँ भी वही उठाता है।  

गलती तो बहुत बड़ी भारतीय साम्यवादियों से भी हुई थी।  वे अपने ही दर्शन को ठीक से नहीं समझ कर मनोवाद के शिकार हुए थे। सोवियत संघ और मित्र देशों का पक्ष ले कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम से अपने को अलग कर लेने की गलती के लिए उसी सोवियत संघ के और विश्व साम्यवाद के सब से बड़े नेता  स्टॉलिन ने भी उन्हें गलत ठहराया था।  उस के बाद भी उन्हों ने कम गलतियाँ नहीं की हैं।  कभी वामपंथी उग्रवाद के बचकानेपन के और कभी दक्षिणपंथी अवसरवाद के शिकार होते रहे हैं और आज तक हो रहे हैं। 

लेकिन आज जसवंत ने मुर्दे को कब्र से निकाला है तो यह आसानी से फिर से दफ़्न नहीं होने वाला।  नेहरू के साथ पटेल पर भी उंगली उठी और पटेल को अपना आदर्श मानने वाले गुजरात में जसवंत की पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई। चाहे वे नेहरू हों, या फिर पटेल, या फिर कथित सेकुलर जिन्ना, इन के राष्ट्र प्रेम पर उंगली उठाना इतना आसान तो नहीं है। गलतियाँ तो ये सब कर सकते थे और उन्हों ने कहीं न कहीं की ही हैं। लेकिन आजादी के इन दीवानों से ये गलतियाँ क्यों हुई? इस समय में क्या इस की तह में जाना जरूरी नहीं हो गया है? मेरी समझ में तो इस बात की खोज और विश्लेषण होना चाहिए कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं जिन के कारण इन तीनों से और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख धारा से ये गलतियाँ हुई कि जिन्ना उस मुख्य धारा से अलग हुए। देश बंट गया। यहाँ तक भी जाना प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होगा कि उन परिस्थितियों को उत्पन्न होने देने के लिए जिम्मेदार शक्तियाँ कौन सी थीं? उन शक्तियों का क्या हुआ?  वे  शक्तियाँ आज कहाँ हैं? और क्या कर रही हैं?

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

'गीत' बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...

अनवरत पर अब तक आप ने पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की ग़ज़लें पढ़ी हैं।  ‘यक़ीन’ साहब ने सैंकड़ों ग़ज़लों के साथ गीत और नज्में भी कम नहीं लिखी हैं। यहाँ प्रस्तुत है उन का एक मासूम गीत ..............

'गीत'

बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ...
  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई ....


बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

दिन वो गुड़ियों के, वो बेतकल्लुफ़ जहाँ
मिलना खुल के वो और हँसना-गाना कहाँ

हाय बेफ़िक्र भोले ज़माने गए
इक झिझक बेक़दम, बेज़ुबाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

बस ज़रा बात पर कट्टी कर लेना फिर
चट्टी उँगली भिड़ा बाथ भर लेना फिर

रूठने के मनाने के दिन खो गए
सामने उम्र की हद अयाँ आ गई ...
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....

रोज़ मिलते थे हम
साथ रहते थे हम
बीच में ये जवानी कहाँ आ गई .....

बात करते थे
घुट-घुट के पहरों कभी
ये बला कौन-सी दर्मियाँ आ गई .....


पढें और प्रतिक्रिया जरूर दें।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

मिथ्या साबित आजादी और जनता के सपने


आजादी की बासठवीं वर्षगाँठ है। गाँव-गाँव में समारोह हो रहे हैं। शायद वही गाँव ढाणी शेष रह जाएँ, जहाँ कोई स्कूल भी नहीं हो। अपेक्षा की जा सकती है कि जहाँ अन्य कोई सरकारी दफ्तर नहीं होगा वहाँ स्कूल तो होगा ही। नगरों में बड़े बड़े सरकारी आयोजन हो रहे हैं। सरकारी इमारतें रोशनी से जगमगा रही हैं। कल रात नगर के प्राचीन बाजार रामपुरा में था तो वहाँ सरकारी इमारत के साथ दो अन्य इमारतें भी जगमगा रही थीं। पूछने पर पता लगा कि ये दोनों जगमगाती इमारतें मंदिर हैं और जन्माष्टमी के कारण रोशन हैं। जन्माष्टमी को जनता मना रही है। आज नन्दोत्सव की धूम रहेगी। कृष्ण जन्म भारत में जनता का त्योहार है। इसे केवल हिन्दू ही नहीं मना रहे होते हैं। अन्य धर्मावलम्बी और नास्तिक कहे-कहलाए जाने वाले लोग भी इस त्योहार में किसी न किसी रुप में जुटे हैं। जन्माष्टमी को कोई सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं है। क्यों है? इन दोनों में इतना फर्क कि हजारों साल पुराने कृष्ण से जनता को इतना नेह है। आजादी की वर्षगाँठ से वह इतना निकट नहीं। वह केवल बासठ बरसों में एक औपचारिकता क्यों हो गया है?

कल दिन में मुझे एक पुराना गीत स्मरण हो आया। 1964 में जब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे विद्यालय ने इसी गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की थी, जिस में मैं भी शामिल था। गीत के बोल आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। बहुत बाद में पता लगा कि यह गीत शील जी का था। इस गीत में आजादी के तुरंत बाद के जनता के सपने गाए गए थे। आप भी देखिए क्या थे वे सपने? ..........

आदमी का गीत
-शील

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।।

सौ-सौ स्वर्ग उतर आएँगे,
सूरज सोना बरसाएँगे,
दूध-पूत के लिए पहिनकर
जीवन की जयमाल,
रोज़ त्यौहार मनाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे।

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

सुख सपनों के सुर गूंजेंगे,
मानव की मेहनत पूजेंगे
नई चेतना, नए विचारों की
हम लिए मशाल,
समय को राह दिखाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।

एक करेंगे मनुष्यता को,
सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए, बदल
देंगे तारों की चाल,
नया भूगोल बनाएँगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

इस गीत में शील जी के देखे सपने, जो इस देश का निर्माण करने वाली मेहनतकश किसान, मजदूर और आम जनता के सपने हैं, नवनिर्माण का उत्साह, उल्लास और उत्सव है। जनता कैसा भारत बनाना चाहती थी इस का ब्यौरा है।  लेकिन विगत बासठ वर्षों में हमने कैसा भारत बनाया है? हम जानते हैं। वह हमारे सामने प्रत्यक्ष है। जनता के सपने टूट कर चकनाचूर हो चुके हैं।  चूरा हुए सपने के कण तो अब मिट्टी में भी तलाश करने पर भी नहीं मिलेंगे।

क्या झूठी थी वह आजादी?  और यदि सच भी थी, तो हमारे कर्णधारों ने उसे मिथ्य करने में कोई कोर-कसर न रक्खी थी। आज देश उसी मिथ्या या मिथ्या कर दी गई आजादी का जश्न मना रहा है। वह जश्न सरकारी है या फिर उस झूठ के असर में आए हुए लोग कुछ उत्साह दिखा रहे हैं। करोड़ों भारतीय दिलों में आजादी की 62वीं सालगिरह पर उत्साह क्यों नहीं है। इस की पड़ताल उन्हीं करोड़ों श्रमजीवियों को करनी होगी, जिन के सपने टूटे हैं।  वे आज भी यह सपना देखते हैं। उन्हों ने सपने देखना नहीं छोड़ा है।  इन सपनों के लिए, उन्हें साकार करने के लिए, एक नई आजादी हासिल करने के लिए एक लड़ाई और लड़नी होगी। लगता है यह लड़ाई आरंभ नहीं हुई। पर यह भ्रम है। लड़ाई तो सतत जारी है। बस फौजें बिखरी बिखरी हैं। उन्हें इकट्ठा होना है। इस जंग को जीतना है।

मिथ्या की जा चुकी आजादी की सालगिरह पर, हम मेहनतकश, अपने सपनों को साकार करने वाली एक नयी आजादी को हासिल करने के लिए इकट्ठे हों।  ऐसी आजादी के लिए, जिस का सपना इस गीत में देखा गया है।  जिस दिन हम इसे  हासिल कर लेंगे।  आजादी के जश्न में सारा भारत दिल से झूमेगा। भारत ही क्यों पूरी दुनिया झूम उठेगी।

आजादी के इस पर्व पर,  
नयी और सच्ची आजादी के लिए शुभकामनाएँ!

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

मृत्यु के नृत्य के घुंघरुओं की आवाज

शोषण, दमन और उत्पीड़न से जन्मे विद्रोह का रंग कैसा हो सकता है? आप पचास रंगों का अनुमान लगा सकते हैं। लेकिन मेरा मत है कि वह श्याम के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता।   प्रकाश खा जाने वाला कैसे कोई भी रंग उपजा सकता है। शोषण, दमन और उत्पीड़न का स्रोत ही श्याम जन्मता है। यही श्याम  उसे चुनौती देता है। इसी श्याम रंग कृष्ण भी हैं।  उस के जन्मने  के पहले ही घोषणा हो जाती है ....... ऐ! आतताई! तू अपनी ही सहोदरा को सताए है।  अब ले,  उसी की कोख से तेरी मृत्यु जन्म ले  रही है।
प्रकाश निगलने वाले के पास दृष्टि नहीं होती। लेकिन आहट सुनने के लिए कान होते हैं, जिन में घंटियाँ बजने लगती हैं। उसे सब दिशाओं से नृत्य करती मृत्यु के घुंघरुओं की आवाज आती सुनाई देने लगती है। वह  उस अंधे की तरह तलवार चलाने लगता है, जिसे सब ओर से खतरा है। दमन बढ़ता है। स्वयं को बचाने के लिए वह अपना हर दांव खेलने लगता है। वह एक-एक कर नवजातों को मारने लगता है। लेकिन अपनी मृत्यु को छू तक नहीं पाता। उस की मृत्यु जन्म लेती है, और उस के आस-पास ही पनपने लगती है।
कृष्ण जन्मता है, वंशी की धुन छेड़ता है तो  कण-कण नृत्य करने लगता है। यह नृत्य जहाँ उन के लिए जीवन है, दमनकारी के लिए मृत्यु की आहट वह उसे नष्ट कर देना चाहता है। लेकिन वह नष्ट हो सकता है, भला? वह तो जैसे-जैसे तलवार चलती है विकसित होता है, युवा होता है। उस के विरुद्ध चला गया हर दाँव असफल हुआ जाता है।  दमनकारी उसे नष्ट करना चाहता है, लेकिन निकट आने से भय लगता है। उस का संधान किया हर शस्त्र परास्त होता जाता है। यहाँ तक कि उस के तरकस में अब कोई दूर-मारक तीर बचता ही नहीं। अब आमने सामने के द्वंद्व युद्ध के अलावा कोई उपाय ही नहीं रहा।  फिर भी वह खुद चल कर उस के नजदीक नहीं जाना चाहता।  उसे आमंत्रित करता है। कृष्ण यही तो चाहता है। श्याम अपने सखाओं को साथ लिए पूरी अल्हड़ता के साथ चल देता है।  द्वंद्व युद्ध के लिए।  श्याम जानता है, दमन, शोषण और अत्याचार का अंत अब निकट है, उन के स्रोत ने अपनी मृत्यु को आमंत्रित किया है। वह यह भी जानता है कि वहाँ श्याम के स्वागत की तैयारियाँ  कैसी हैं?
 साक्षात काल बना चला आता है, कृष्ण।  परकोटों और दुर्दांत रक्षकों से घिरा शत्रु, उस के हर पग से कांप उठता है।  श्याम के जन्मने का कारण वही है, श्याम को उसने खुद ही बुलाया है।  लेकिन उसे खुद तक नहीं पहुँचने देने की सारी योजनाएँ भी तैयार हैं। वह चाहता है कृष्ण की मृत्यु हो जाए और वह अमर। लेकिन यह संभव कहाँ।  एक-एक कर हर अवरोध धराशाई होता है। वह सोच पाए कि अब  कृष्ण को कैसे रोका जाए? कृष्ण उस की गर्दन तक आ पहुँचा। 
अंत हुआ, शोषण, दमन और अत्याचार का, यह सब सोचते हैं।  लेकिन कृष्ण नहीं। वह तो धरती पर अभी बहुत जीवित है। वह चल पड़ता है। आगे और आगे, वहाँ, जहाँ अभी बहुत सा शोषण, दमन और अत्याचार शेष है। पालक माता उस की प्रतीक्षा में है। प्रेम उस का  बाट जोह रहा हैं।  पर उसे कहाँ विश्राम इस सब  के लिए। वह तो अब युद्ध भूमि में है। उसे तो अब किसी पार्थ का सारथी बनना है। उसे तो अभी घोषणा करनी है ..........
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य स्वात्मानं सृजाम्यहम।।

कृष्ण जन्म के पर्व पर सभी को 
हार्दिक शुभकामनाएँ!

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

'सुनामी बच्ची' कविता 'यादवचंद्र'

दिवंगत श्रद्धेय  यादवचंद्र जी की एक कविता 'मेरी हत्या न करो माँ' आप अनवरत पर पहले पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए उन की एक और कविता ......

सुनामी बच्ची

  • यादवचंद्र
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना माँ-बाप, गाँव-घर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना देश-जाति, धर्म-ईश्वर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
राग-विराग, नेह-संवेदना
नहीं जानती सुनामी बच्ची
शुभ-अशुभ, सुन्दर-असुन्दर
उस के होठों पर चुपड़ी है
मौत-सी सख्त बर्फ
नहीं जानती सुनामी बच्ची
दूध और जहर का फर्क

जब गर्भ में थी-
भूडोल  के पालने पर डोलती रही
जब जानलेवा दरारों ने उगला....
तो दूध के लिए
ज्वार की छातियाँ टटोलती रही
भाई तस्करों के साथ रावलपिंडी के दौरे पर था
बाप डिस्टीलरी से 
वापस नहीं लौटा था
बहन होटलों में 
पर्यटकों के साथ लिपटी पड़ी थी
और नंगी लाशों पर सुनामी लहरें
मुहँ बाए खड़ी थीं
शेष कोई न था वहाँ
बची थी सिर्फ-
सुनामी बच्ची

और अब 
सब कुछ ठण्डा पड़ चुका है
गर्म हैं सिर्फ
भविष्यवक्ताओं की वाणियाँ
गर्म हैं सिर्फ
राष्ट्राध्यक्षों के तूफानी वक्तव्य
गर्म हैं सिर्फ
सिने तारिकाओं के 
नेकेड तूफानी कल्चरल प्रोग्राम
गर्म हैं सिर्फ
पर्यटक होटलों में
कहकहाँ की वापसी की शानदार मुहिमें
गर्म हैं सिर्फ 
थाई बेटियों के देह-व्यापार में
महताब फिट करने की लामिसाल कोशिशें

लेकिन याद रखो
कल सुनामी बच्ची की मुट्ठी में 
बन्दूक होगी
और तुम्हारे मुहँ पर थूकने के लिए
हर जुबान पर थूक होगी
आ...क.............थू !
************







रविवार, 9 अगस्त 2009

'धर्मपति' तो विश्व में एक ही है, अन्य कोई भी पुरुष कैसे धर्मपति कहाएगा?

‘नारी’ चिट्ठे पर एक प्रश्न किया गया है कि पुरुष के लिए ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता? वास्तविकता यह है कि शब्दों का निर्माण सदियों में होता है। समाज विकास की विभिन्न अवस्थाओं में शब्दों के उपयोग से उन के अर्थ परिवर्तित होते रहते हैं।  ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं होता?  इस प्रश्न का उत्तर इतिहास में नारी की स्थिति से निर्धारित होगा, वर्तमान स्थिति से नहीं। इतिहास में विशेष रुप से सामंती काल में नारी को सम्पत्ति और वस्तु के रूप में ही देखा गया है। उसी के अनुरूप उस के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अर्थ बने हैं। सहोदर या रिश्ते के भाई-बहनों के अतिरिक्त यदि कोई राखी बांध कर भाई या बहन बनते हैं तो वे ‘धर्मभाई’ या ‘धर्मबहन’ कहलाते हैं। यदि ‘धर्मपति’ शब्द को इस अर्थ में देखें तो उस शब्द से क्या अर्थ लिया जाएगा?  इस का आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

शब्दकोष में एक शब्द है ‘धर्मचारिणी’, जिस का अर्थ है ‘वफादार पत्नी’। एक ही गुरुकुल में एक साथ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए शब्द ‘धर्मभ्राता’ है। एक वैध विवाह के फलस्वरूप उत्पन्न संतान के लिए ‘धर्मज’ शब्द है तो वैध विवाह के अतिरिक्त अन्य संबंध से उत्पन्न संतान को अधर्मज की संज्ञा दी गई है। ‘धर्मपत्नी’ शब्द का प्रयोग ‘वैध रूप से विवाहित पत्नी’ के लिए किया जाता है। यह दूसरी बात है कि एक वैध पत्नी के होते हुए बिना वैध विवाह-विच्छेद के उसे त्याग कर किसी अन्य स्त्री से संबंध बना लेने और समाज में उसे अपनी पत्नी प्रदर्शित करने के लिए ऐसा पुरुष उसे ही ‘धर्मपत्नी’ कहता फिरता है।

इतिहास में कुछ समुदायों में स्त्री को एकाधिक पति रखने की छूट रही है। आज भी कुछ समुदायों में सब सहोदर भाइयों की पत्नी एक ही होती है। लेकिन सद्य इतिहास में एकाधिक पतियों की परंपरा लुप्तप्रायः हो गई और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तो बिलकुल नहीं रही। इस कारण से एक प्रधानपति और अन्य उपपति जैसी स्थिति तो नहीं ही रही है। जिस से केवल उस व्यक्ति को जिस से वैध रूप से विवाह होता है उसे धर्मपति कहने की आवश्यकता हो। महाभारत में अर्जुन द्वारा द्रोपदी को वर लाने पर कुंती के यह कह देने मात्र से कि ‘सब भाई बाँट लो’, द्रोपदी सब भाइयों की साँझा पत्नी हो गई। यह स्थिति बताती है कि भले ही उस काल में स्वयंवर की परंपरा रही होगी लेकिन पत्नी एक वस्तु मात्र थी। उस परिस्थिति में द्रोपदी के लिए केवल अर्जुन ही कथित ‘धर्मपति’ हो सकता था, शेष भाई केवल पति।

भारतीय समाज में 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्व तक पुरुष एकाधिक विवाह कर सकता था और एकाधिक पत्नियाँ रख सकता था। एकाधिक पत्नियों की स्थिति में यह भी होता रहा कि एक विवाहित पत्नी होती थी और अन्य विवाह के बिना रहने वाली पत्नियाँ। ऐसी अवस्था में विवाहित पत्नी को बिना विवाह वाली पत्नियों से पृथक चिन्हित करने की आवश्यकता रही होगी। वहीं धर्मपत्नी शब्द अस्तित्व में आया। इस कारण एकाधिक पत्नियों में ‘धर्मपत्नी’ वह स्त्री है जिस से पुरुष का विधिपूर्वक विवाह हुआ है। लेकिन स्त्री को एकाधिक पति रखने का अधिकार नहीं था। उस का तो एक ही पति हो सकता था। इस कारण से ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग होना संभव नहीं था। 

इन सब के अतिरिक्त ‘धर्मपति’ शब्द के अप्रयोग का मुख्य कारण कुछ और ही है, जिस से यह शब्द व्यवहार में नहीं आ सका।  ऋग्वेद में 'वरुण' को ऋत का देवता कहा गया है। जिस का अर्थ यह है कि वह विधियों (कानून-नियम, जिस में प्राकृतिक नियम भी सम्मिलित हैं) को स्थापित रखने वाला देवता है। वरुण  इंद्र से भी अधिक पूज्य और आदरणीय रहा है।  यह कहा गया है कि ऋत के कारण ही सूर्य नियम से प्रतिदिन उदय और अस्त होता है। वह  सामुहिक रुप से अर्जित संपत्ति का ठीक से बंटवारा भी करता था। वरुण समाज और प्रकृति में धर्म के आचरण का प्रमुख था। इन कारणों से उसे ‘धर्मपति’ कहा गया जिस का अर्थ था ‘धर्म का अधिष्ठाता।  एक बार वरुण के लिए ‘धर्मपति’ शब्द के रूढ़ हो जाने के कारण किसी साधारण अर्थ में इस शब्द का प्रयोग वैसे भी निषिद्ध हो चुका था। इसी से वरुण के अतिरिक्त किसी भी अर्थ में ‘धर्मपति’ शब्द कभी प्रयोग में नहीं लिया गया। आज जब स्त्रियाँ कानूनी रूप से बराबरी का अधिकार प्राप्त कर चुकी हैं और व्यवहार में इस ओर बढ़ रही हैं तब ‘धर्मपत्नी’ शब्द अपनी अर्थवत्ता खोता जा रहा है। धर्मपत्नी शब्द का प्रयोग न्यून से न्यूनतर होता जा रहा है। कुछ काल के पश्चात हो सकता है यह केवल पुस्तकों में रह जाए और केवल पति और पत्नी शब्दों का प्रचलन ही पर्याप्त हो।





शनिवार, 8 अगस्त 2009

दर्शन और विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध और एक अनाम रचनाकार की रचना 'काशः दुनिया कम्प्यूटर होती'

साँख्य के विरोध और पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उन सब पर जाया जाए तो यह श्रंखला बहुत लंबी हो जाएगी। इस कारण यहीं विराम लेना ठीक है। 'दर्शन का मानव जीवन में महत्व' एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर जरूर बात होनी चाहिए। मैं ने साँख्य से बात आरंभ करने का प्रयत्न किया है। साँख्य को चुनने का मुख्य कारण एक तो इस का प्राचीनतम दर्शन होना था, दूसरे अपने काल की दृष्टि से यह सब से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
जब से मनुष्य ने सोचना आरंभ किया एक प्रश्न हमेशा उस के सामने रहा कि 'विश्व और उस का व्यापार कैसे चलता है?' तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दार्शनिकों ने इस का उत्तर देने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में इस का मूल देखा जा सकता है। लेकिन वहाँ वे स्फुट विचार थे। उपनिषदों में इन विचारों को विस्तार प्राप्त हुआ। बाद में विकसित होते होते इन्हें दर्शन प्रणालियों का रूप प्राप्त हुआ। भारत में मुख्यतः साँख्य और वेदान्त प्रणालियाँ विकसित हुईं। जगत की व्युत्पत्ति और उस के व्यापार की तार्किक व्याख्या करने वाली प्रणालियों ने वैज्ञानिकों को इन की सत्यता को परखने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि दर्शन ने विज्ञान का मार्गदर्शन किया।
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है। जब विज्ञान ने दर्शनों को परखना आरंभ किया, तो उन की अनेक प्रस्थापनाओं को अपने प्रयोगों और उन के परिणामों से खारिज भी किया। इस तरह दर्शन ने जो निष्कर्ष दिए थे उन्हें विज्ञान के निष्कर्षों ने प्रतिस्थापित करना आरंभ कर दिया। यहाँ दर्शन की एक नई भूमिका आरंभ हो गई। अब उसे विज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप स्वयं को बदलना था, अर्थात जिन अवधारणओं को विज्ञान द्वारा परख कर खारिज या मान्य कर दिया था, दर्शन को स्वयं के विकास के लिए उस के आगे की यात्रा आरंभ करनी थी। इस रह हम देखते हैं कि दर्शन और विज्ञान के बीच एक विचित्र संबंध है। दर्शन विज्ञान का पथप्रदर्शन करता है, लेकिन विज्ञान दर्शन को खुद को दुरूस्त करने का अवसर देता है और दर्शन खुद को संशोधित करते हुए पुनः नयी अवधारणा प्रस्तुत कर विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकता है। बहुत लोग किसी एक दर्शन प्रणाली के अनुयायी हो कर विज्ञान की अनदेखी करते हुए दर्शन का राग अलापते रहे और आज तक अलाप रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। जहाँ तक विज्ञान अपनी खोजों से पहुँच गया है, उस के आगे भी उस के पास बहुत से अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। दर्शन का दायित्व है कि आज तक के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के लिए अपनी अवधारणाएँ प्रस्तुत करे और विज्ञान की आगे की यात्रा के लिए उस के पथ प्रदर्शक का काम करे। मुझे लगता है कि एक शताब्दी से कुछ अधिक काल से इस काम में दर्शनशास्त्र और दार्शनिक पिछड़े हैं और दर्शनशास्त्र वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यह आज के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए एक चुनौती है। मैं पिछले तीस वर्षों से लगातार यह सोच रहा हूँ कि विश्वविद्यालयों के स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम में भौतिकी और दर्शन विषय को एक साथ पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों को क्यों नहीं मिलता है।
जब मैं साँख्य पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार ईश्वरकृष्ण की पुस्तक साँख्यकारिका पढ़नी पड़ी। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी वह 1960 का संस्करण था। इसे मेरे चाचा जी ने संस्कृत के स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए खरीदा था, तब इस का मूल्य मात्र एक रुपया था। पुस्तक पूरी ही थी। लेकिन पिछला कवर पृष्ठ निकल चुका था और कागज इस नाजुक अवस्था में पहुँच चुका था कि वह जरा भी लापरवाही बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। मैं ने पुस्तक की सुरक्षा के लिए उसे पुरानी कॉपी के एक पन्ने में लपेट दिया था। कल उस पन्ने को अलग कर पुस्तक पर एक नए कागज का कवर ठीक से लगा कर उसे अलमारी में सुरक्षित रखा। निकाला गया पन्ना देखा तो वह बेटी पूर्वा की किसी कॉपी का था। उस पर एक रचना लिखी थी। यह किस की रचना थी? यह तो मैं बता सकने में असमर्थ हूँ। लेकिन उस रचना को आप के सामने रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह रचना आज के नौजवानों की महत्वाकांक्षा को बहुत खूबसूरती और रूमानियत के साथ प्रकट करती है जो शायद उस की आदिम आकांक्षा भी रही है। तो यह रचना प्रस्तुत है, आप को पसंद आए तो उस अनाम रचनाकार के लिए दो शब्द जरूर लिखें।
दुःख के लमहे डि-लीट करते
  • अनाम रचनाकार
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।
सुख के लमहे सेव हो जाते, दुःख के लमहे डि-लीट करते।।

मज़े की मनचाही विंडो, जब चाहे हम औपन करते।
मुस्तकबिल के ताने बाने, अपनी चाहत से खुद ही बुनते।।

ख्वाहिशों की होती फाइल, जिस में कट और कॉपी करते।
जब भी होता वायरस पैदा, दुनिया को री-फॉर्मेट करते।।

खुशियों के रंगों से तस्क़ीन, फीके लमहे रंगीन करते।
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।।









शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

सांख्य का सार

हम सांख्य को संक्षेप में इस तरह समझ सकते हैं-

1.  प्रलय की अवस्था में सारा पदार्थ, समस्त तत्व एक अपूर्वता (Singularity) में निहीत होता है।  इसे साँख्य प्रधान अथवा मूल प्रकृति कहता है।

2.  मूल प्रकृति के तीन आंतरिक अवयव सत्व, रजस् और तमस् होते हैं जिन्हें गुण कहा गया है। प्रलय की अवस्था में साम्य होने से मूल प्रकृति अचेतन प्रतीत होती है। लेकिन ये आंतरिक अवयव लगातार क्रियाशील रहते हैं केवल साम्य बनाए रखते हैं। तीनों अवयवों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण कहा गया है और प्रकृति को त्रिगुण मय।

3.   त्रिगुणों द्वारा स्थापित साम्य के भंग होने से जगत का विकास आरंभ होता है।

4.   प्रकृति से अन्य 24 तत्वों की उत्पत्ति होती है। ये तत्व भी प्रकृति की भाँति त्रिगुणमय होते हैं।  किन्तु उन में किसी एक गुण की प्रधानता होती है, जिस से उन का चरित्र और कार्य निर्धारित होता है।

5.   प्रथमतः सत्व की प्रधानता वाले तत्व महत् की उत्पति होती है, जिसे बुद्धि भी कहा गया है। यह साँख्य का दूसरा तत्व है। यह प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक है, लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है

6.   महत् से रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई, जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। यह साँख्य का तीसरा तत्व है।

7.   अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न होते हैं। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।

8.   चौथा तत्व मन, बुद्धि से पृथक है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं।  साँख्य तत्व बुद्धि,  स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है।

9.   सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  1.श्रोत्र, 2.त्वक, 3.चक्षु, 4.रसन और 5.प्राण  हैं।

10. सात्विक अहंकार से ही उत्पन्न पाँच कर्मेन्द्रियाँ 1.वाक, 2.पाणि, 3.पाद, 4.पायु और 5.उपस्थ हैं। 

11. तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत 1.शब्द, 2.स्पर्श, 3.रूप, 4.रस और 5.गंध हैं। 

12.  इन पाँच तन्मात्राओं या सूक्ष्मभूतों से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत 1.आकाश 2.वायु 3.अग्नि 4.जल और 5.पृथ्वी हैं।
मूल साँख्य के ये 24 तत्व हैं।

13.  इस तरह प्रकृति से जगत का विकास होता है। विकास का अंतिम चरण पुनः प्रलय है। जब सभी 23 तत्वों में निहित त्रिगुण पुनः साम्यावस्था में पहुँच जाते हैं। पुनः प्रधान या मूल प्रकृति स्थापित हो जाती है। इस मूल प्रकृति में त्रिगुणों का साम्य भंग होने से पुनः एक नवीन जगत का विकास प्रारंभ हो जाता है।

14.  परवर्ती साँख्य वेदांत के प्रभाव से 25वें तत्व पुरुष को मानता है। जो वेदान्त की आत्मा के समान है। लेकिन यह वेदांत के ब्रह्म से भिन्न है। पुरुष अनेक हैं। प्रत्येक शरीर के लिए एक भिन्न पुरुष है। इस पुरुष की मुक्ति के लिए ही प्रकृति विकास करती है। पुरुष का कोई कार्य नहीं है। वह केवल दृष्टा है जो प्रकृति के विकास को देखता रहता है। प्रकृति उसे दिखाने के लिए ही विकास करती है।

15.  परवर्ती साँख्य भी किसी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उस का मानना है कि ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता, उस का कोई अस्तित्व नहीं है।

16. योग प्रणाली भी साँख्य का ही विस्तार है जो ईश्वर या ब्रह्म को 26 वाँ तत्व मानती है। उस का मानना है कि ब्रह्म या ईश्वर से मूल प्रकृति और पुरुष उत्पन्न होते हैं और फिर पुरुष की मुक्ति के लिए प्रकृति उसी भांति विकास करती है, जिस भांति दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक नर्तकी नृत्य करती है।

17.  प्रकृति-परिणामवाद साँख्य का मूल सिद्धान्त है। उस का कथन है कि प्रकृति सत्य है, और उस का परिणाम यह जगत भी सत्य है।

18.  वेदांत का सिद्धांत ब्रह्म-विवर्तवाद है जिस का कथन यह है कि एक ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है, और मूल कारण ब्रह्म की विकृति है।
(समाप्त)


गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जगत का विकास, प्रलय और पुनः जगत का विकास

साँख्य कारिका के पुरुष केवल अनुमान हैं। ईश्वर कृष्ण कहते हैं कि ये सब प्रकृति के तत्व हैं वे सब उपभोग के लिए हैं इस कारण भोक्ता जरूरी है। इसी से पुरुषों की सिद्धि होती है। इस से कमजोर प्रमाण पुरुषों की सिद्धि के लिए दिया जाना संभव नहीं है।  लेकिन साँख्य की जगत व्याख्या की जो विधि है उस में पुरुष किसी भी तरह से प्रासंगिक नहीं होने से कोई मजबूत साक्ष्य मिलना संभव नहीं था। यह साक्ष्य भी चेतन पुरुष को सिद्ध नहीं कर सका और साँख्य प्रणाली के अनुसार उसे एक से अनेक होना पड़ा, कारिकाकार को कहना पड़ा कि प्रत्येक शरीर के लिए एक अलग पुरुष है और बहुत से पुरुष हैं।  इन प्रमाणों से प्रतीत होता है कि पुरुष की उत्पत्ति शरीर से है। कुल मिला कर पुरुष प्रत्येक शरीर का गुण बन कर रह जाता है। वह शरीर के साथ अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ ही उस की मुक्ति हो जाती है।  हम कारिका और उस के बाद के साँख्य ग्रन्थों में पुरुष की उपस्थिति पाते हैं। लेकिन सभी तरह के तर्क देने के उपरांत भी साँख्य पद्धति में पुरुष एक आयातित तत्व ही बना रहता है।
मेरा अपना मानना है कि साँख्य पद्धति ने उस काल में अपनी विवेचना से जगत की जो व्याख्या की थी वह सर्वाधिक तर्कपूर्ण थी,  उसे झुठलाया जाना संभव ही नहीं था।  इस कारण से प्रच्छन्न वेदांतियों ने सांख्य में पुरुष की अवधारणा को प्रवेश दिया और उसे एक भाववादी दर्शन घोषित करने के अपने उद्देश्य की पूर्ति की। कुछ भी हो, इस से साँख्य पद्धति का हित ही हुआ।  यदि यह भाववादी षडदर्शनों में सम्मिलित न होता तो इस की जानकारी और भी न्यून रह जाती।  फिर इस की केवल आलोचना ही देखने को मिलती।  प्रधान (मूल प्रकृति) को अव्यक्त कहा गया है। इस अव्यक्त के साथ एक और अव्यक्त माना जाना संभव नहीं है।  इस मूल प्रकृति से ही जगत का विकास होना तार्किक तरीके से समझाया गया है।  विकास के पूर्व की अवस्था को प्रलय की अवस्था कहा गया है जब केवल अव्यक्त प्रकृति होती है और उस के तीनों अवयवों के साम्य के कारण उस में आंतरिक गति होने पर भी वह अचेतन प्रतीत होती है।  सांख्य इसी तरह यह भी मानता है कि जगत का विकास तो होता ही है,  लेकिन उस का संकुचन भी होता है और यह जगत पुनः एक बार वापस प्रलय की अवस्था में आ जाता है और त्रिगुण साम्य की अवस्था हो जाने से संपूर्ण जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है। 
साँख्य की यह व्यवस्था केवल बिग बैंग जैसी नहीं है  जिस में बिग बैंग के उपरांत यह जगत लगातार विस्तार पा रहा है और उस का सम्पूर्ण पदार्थ एक दूसरे से दूर भाग रहा है।  आज वैज्ञानिकों ने श्याम विवरों (ब्लेक होल) की खोज कर ली है। इन श्याम विवरों में पदार्थ की गति इस सिद्धांत के विपरीत है। अर्थात इन की सीमा में कोई भी पदार्थ इन से दूर नहीं जा सकता यहाँ तक कि प्रकाश की एक किरण तक भी नहीं। हमारी नीहारिका के केंद्र में भी एक ऐसे ही ब्लेक होल की उपस्थिति देखी गई है। श्याम विवर जगत के संकुचन के सिद्धांत की पुष्टि करते है। साँख्य के इस सिद्धांत की  कि जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है विज्ञान की नयी खोजें पुष्टि कर रही हैं।  प्रधान की अचेतन अवस्था को  ही साँख्य  में प्रलय की संज्ञा दी गई है और प्रधान से पुनः नए जगत के विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई है।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

विश्व भ्रातृत्व विजयी हो! रक्षा-बंधन के महापर्व पर शुभकामनाएँ!

आज रक्षा बंधन का त्यौहार है। मैं समझता हूँ भारतीय संस्कृति का सब से अनुपम त्यौहार। जो विश्व भ्रातृत्व की केवल बात नहीं करता अपितु उस का रियाज भी कराता है। सावन के महीने का अंतिम दिन। हम सभी उस दिन इतने व्यस्त रहते थे कि सिर उठा कर देखने की फुरसत नहीं होती थी। मंदिर में सुबह चार बजे से काम आरंभ होता। पूर्णमासी के कारण बहुत दर्शनार्थी होते। दादाजी कथा करते तो श्रोताओं से चौक भर जाता बिना किसी लाउडस्पीकर के उन की आवाज सब तक पहुँचती। कथा के बीच मंदिर पिताजी या मैं संभालते। माँ और कुछ और लोग रसोई में भोग बनाते। 12 बजे इस से निवृत्त होते तो भोजन कर आधा घंटा विश्राम करते। फिर शाम के दर्शनार्थियों के लिए झाँकियाँ और झूले बनाने लगते। यह काम शाम साढ़े -सात तक चलता रहता जब तक कि झूले और झाँकियाँ बन कर पट खुल जाते। फिर कुछ लोगों को दर्शनार्थियों के लिए गाइड बनना पड़ता जो झांकी के पीछे की पौराणिक कहानी लोगों को बताते जाते। मुझे विशेष रूप से इस काम में बहुत आनंद आता। यहाँ तक कि और भी लोग जो स्वैच्छा से हाथ बंटाना चाहते दिन भर मंदिर में बने रहते और हमारा सहयोग करते। 

अम्माँ घर के सभी दरवाजों के दोनों और खड़िया से पुताई कर उस पर श्रवण कुमार का माँडना माँडती। उन की पूजा से त्योहार आरंभ होता। वही श्रवण कुमार जो मातृ-पितृ भक्ति के लिए जाने जाते हैं, जिन्हों ने कावड़ में बिठा कर सारे तीर्थ अपने माता-पिता को कराए। दोपहर बाद नगर के दूसरे छोर पर रहने वाली बुआ जातीं। फूफाजी तो सुबह से ही मंदिर में होते हमारे काम में हाथ बंटाने को। वे चाय पीतीं, नाश्ता करतीं बहनों को बुला कर राखी बांधने की तैयारी कर लेतीं। बहनें आती बुला जातीं -दो मिनट काम छोड़ कर राखी तो बंधवा लो। पर काम तो काम था। जब तक हाथ का काम पूरा हो कैसे स्थान छो़ड़ें। बहने तीन-चार बार बुला जातीं। फिर अंतिम उलाहना जाता जल्दी से राखी बंधवा लो फिर बुआ चली जाएँगी। पिताजी काम छोड़ उठ जाते। सब को कहते -सब काम छोड़, पहले राखी बंधवा लो। सब काम छोड़ राखी बंधवाने कतार से बैठ जाते। राखी बांधने में जितनी देर लगती अम्माँ चाय बना कर सब के लिए लातीं। वह दस-पन्द्रह मिनट का राखी बंधवाने का समय पूरे दिन की थकान उतार देता। बुआ कहतीं -भाई साहब परसों भैया दूज पर भोजन हमारे यहाँ करेंगे। पिताजी सहर्ष हाँ कर देते और भैया दूज को तिलक कराने बुआ के यहाँ जाते।

दूसरे दिन से दादाजी दोपहर 12 बजे मंदिर के पट बंद हो जाने के बाद भोजनादि से निवृत्त हो कर अपनी घर के बाहर की पोशाक धोती, बंडी, पगड़ी पहनते, आँखों पर गोल शीशों की एनक और हाथ में एक छड़ी और राखियों का थैला ले कर निकलते और नगर के सारे महाजनों की दुकानों पर उन की तराजू को रक्षा सूत्र बांध कर संध्या तक वापस लौटते। इस से उन्हें कोई विशेष आमदनी होती। लेकिन उन्हें संतोष प्राप्त होता। वे कहते यह शुभकामना देने और आपसी रिश्तों को मजबूत करने का काम है। लोग इसे आशीर्वाद मानते हैं। कोई महाजन छूट जाता तो वह उलाहना देने आता। दादा जी को कहता -आप हमें भूल गए, राखी बांधने नहीं आए।
भारतीय दर्शन परंपरा में अद्वैत मानता है कि सारी सृष्टि का सृजन एक ही ब्रह्म से हुआ है और वह ब्रह्म में ही स्थित है। विशिष्ठाद्वैत कहता है जिस तरह वृक्ष बीज का ही विस्तार है यह अनुभवगम्य जगत भी ब्रह्म का ही विस्तार है। साँख्य यह कहता है कि प्रकृति का विकास ही यह जगत है। जब संपूर्ण जगत एक ही ब्रह्म या प्रकृति से उत्पन्न और उस में स्थित है तो सारा विश्व एक अदृश्य भ्रातृत्व से बंधा है। आप मानें या मानें आप सब भाई हैं ही। रक्षा बंधन इसी तथ्य को स्मरण करने का दिन है। आधुनिक विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि पूरी मानव जाति (होमोसेपियन्स) का एक ही स्थान (अफ्रिका) से उद्भव हुआ और कालांतर में वह पूरी पृथ्वी पर फैल गई। स्थान भेद से उन में रंग,रूप आदि भेद उत्पन्न हो गए। इस तरह पूरी मानव जाति भ्रातृत्व में बंधी है।
आज का दिन इन्हीं मान्यताओं और समझ को आत्मसात करने का है और विश्व-भ्रातृत्व की भावना को विस्तार देने का संकल्प करने का है। सब को रक्षा-बंधन के इस महापर्व पर बधाई और शुभ कामनाएँ। विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!