शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की ‘लाइव’ कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।
मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।
मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।
उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।
प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो ‘गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।
कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।
मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?
मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट ‘वाणी का पर्स’ से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।
8 टिप्पणियां:
अरे पण्डिज्जी, मेरे बब्बा प. आदित्य प्रसाद पाण्डेय भी यही करते थे। भागवत कथा सुनाते थे और आस पास के कई गांव के लोग जुटते थे।
और बाबा तुलसीदास जब बनारस में सुनाते रहे होंगे तो क्या दिव्य माहौल हुआ करता रहा होगा?!
वह सब के सामने तो टीवी का स्पॉसर्ड कथावाचन तो भोंडा लगता है।
आपने बहुत बढ़िया लिखा। आपके पिटारे में इस तरह का जो भी मसाला हो - निकालिये।
हाडौती बोली कभी सुनी ही नहीं
..और आपके पूजनीय दादाजी के बारे में ये आलेख सच में "निधि स्वरूप" है -
- और मेरे ठाकुर जी प्रसन्न होकर सुन रहे हैं -- यूँ ही लिखते रहियेगा --
बहुत अच्छा लगा आपके दादाजी के बारे में जानना।
हाडौती में भागवत जी...ग्रेट काम्बिनेशन :)
बहुत सुन्दर जी.इस तरह के निजी अनुभव सुनाते रहिये.
आपके दादाजी के बारे में जानकर अच्छा लगा..
मुझे तो अपने दादाजी का चेहरा बस तस्वीरों से ही याद है..
ह्म्म, बढ़िया!!
जरुर निकालिए ऐसे औंर संस्मरण आदि!
हमने तो अपने दादाजी के बारे मे सुना बस है।
टी.वी. के कथावाचक को देखकर कोफ्त होने लगी है। दादा जी के बारे में जानकर अच्छा लगा।
aapke dadaji ke bare main sunkar mujhe apne dadaji yaad aa gaye. vo bhi khatha karte the mandir maine. main bahut choti thi par mujhe yaad hai jab bhi mai chuttiyon mai apne dadaji ke paas jati thi, main bhi unke saath mandir jaati thi aur unke saath beithi reheti thi jab tak vo katha samapt na kar de.
aapke lekh ne meri bachpan ki kuch bahut hi achi yadien taaza kar di.
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