बुधवार, 1 अगस्त 2012
सोमवार, 30 जुलाई 2012
हॉकी : भारत की भिड़न्त आज नीदरलैंड से / जीत मुश्किल लेकिन असंभव नहीं
बीजी जोशी,
हॉकी स्क्राइब
भारत
और नीदरलैंड्स के बीच लंदन ओलिम्पिक की हॉकी स्पर्धा में भिड़ंत भारतीय समयानुसार आज शाम 8.30 बजे रिवरबैंक
एरिना में होगी। आठ वर्ष बाद ओलिम्पिक में वापसी करने वाली भारतीय टीम अपने अभियान की
अच्छी शुरुआत कर पुराना गौरव हासिल करने की कोशिश करेगी। इस मैच का लाइव टेलीकास्ट ईएसपीएन पर देखा जा सकता है।
वर्ष 1996 और 2000 ओलिम्पिक की स्वर्ण विजेता नीदरलैंड्स एकमात्र टीम है जिसने भारत के बाद लगातार ओलिम्पिक स्वर्ण पदक अपनी झोली में डाले हैं। भारत ने 1928 से 1956 तक लगातार ओलिम्पिक स्वर्ण जीते थे लेकिन अब वह पिछले 32 वर्षों में पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाने के लिए जूझ रहा है।
भारत ने पिछला स्वर्ण बहिष्कार से प्रभावित 1980 मॉस्को ओलिम्पिक में जीता था। महिला टीम को अगर शामिल कर लिया जाए तो नीदरलैंड्स ने किसी भी अन्य देश से अधिक 14 ओलिम्पिक हॉकी पदक जीते हैं। भारतीय पुरुषों के नाम आठ स्वर्ण के अलावा एक रजत और दो कांस्य से कुल 11 पदक हैं। भारतीय टीम नीदरलैंड्स के प्रमुख हथियार ट्यून डिनायर से सतर्क रहेगी, जिन्हें सैंकड़ों अंतरराष्ट्रीय मैचों का अनुभव है और वे अपना पाँचवाँ ओलिम्पिक खेल रहे हैं।
वर्ष 1996 और 2000 ओलिम्पिक की स्वर्ण विजेता नीदरलैंड्स एकमात्र टीम है जिसने भारत के बाद लगातार ओलिम्पिक स्वर्ण पदक अपनी झोली में डाले हैं। भारत ने 1928 से 1956 तक लगातार ओलिम्पिक स्वर्ण जीते थे लेकिन अब वह पिछले 32 वर्षों में पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाने के लिए जूझ रहा है।
भारत ने पिछला स्वर्ण बहिष्कार से प्रभावित 1980 मॉस्को ओलिम्पिक में जीता था। महिला टीम को अगर शामिल कर लिया जाए तो नीदरलैंड्स ने किसी भी अन्य देश से अधिक 14 ओलिम्पिक हॉकी पदक जीते हैं। भारतीय पुरुषों के नाम आठ स्वर्ण के अलावा एक रजत और दो कांस्य से कुल 11 पदक हैं। भारतीय टीम नीदरलैंड्स के प्रमुख हथियार ट्यून डिनायर से सतर्क रहेगी, जिन्हें सैंकड़ों अंतरराष्ट्रीय मैचों का अनुभव है और वे अपना पाँचवाँ ओलिम्पिक खेल रहे हैं।
बीजी जोशी, हॉकी स्क्राइब |
भारतीय टीम के कोच माइकल नॉब्स ने
कहा -नीदरलैंड्स की टीम काफी आक्रामक है और हमें सीखना होगा कि उसे किसी तरह का
मौका नहीं दें। हम ओलिम्पिक की तैयारियों के लिए कई तरह की चुनौतियों से जूझे हैं
और खिलाड़ियों ने कड़ी मेहनत की हैं। नीदरलैंड्स की टीम अच्छी है लेकिन भारतीय
बेहतरीन खेल दिखाने को प्रतिबद्ध हैं। भारतीय टीम के कप्तान भरत छेत्री ने कहा -हम
अच्छा प्रदर्शन करना चाहते हैं।
अच्छी
शुरुआत,
आधी जीत को चरितार्थ करने हेतु आज भारत के समक्ष सशक्त नीदरलैंड्स
को हराने का हिमालयी लक्ष्य है। नीदरलैंड्स के कोच को उभरते विशेषज्ञ रॉडरिक
वेउस्थाप (141 मैच में 69 गोल) व दुनिया के सर्वाधिक अनुभवी टयून डिनायर (446 मैच
में 214 गोल) पर भरोसा है।
डिफेंस भारत का कमजोर पक्ष है। कप्तान व गोलकीपर भरत छेत्री हवाई गेंदों को सुरक्षित बाहर फेंक देते हैं पर सतह पर सरपट दौड़ती गेंद को उनके पैर क्लियर नहीं कर पाते। ऐसे में डीप डिफेंडर्स को अत्यधिक सजगता से खेलना होगा। फॉरवर्ड्स को मिले मौके भुनाने ही होंगे। उम्मीद है कि संदीप सिंह तथा रघुनाथ पेनल्टी कॉर्नर पर गोल कर टीम को संजीवनी देंगे। भारत की डगर मुश्किल दिख रही है, लेकिन असंभव नहीं।
डिफेंस भारत का कमजोर पक्ष है। कप्तान व गोलकीपर भरत छेत्री हवाई गेंदों को सुरक्षित बाहर फेंक देते हैं पर सतह पर सरपट दौड़ती गेंद को उनके पैर क्लियर नहीं कर पाते। ऐसे में डीप डिफेंडर्स को अत्यधिक सजगता से खेलना होगा। फॉरवर्ड्स को मिले मौके भुनाने ही होंगे। उम्मीद है कि संदीप सिंह तथा रघुनाथ पेनल्टी कॉर्नर पर गोल कर टीम को संजीवनी देंगे। भारत की डगर मुश्किल दिख रही है, लेकिन असंभव नहीं।
Ø यह भारत का 187 वाँ टूर्नामेंट है व 19 वाँ ओलिम्पिक।
|
Ø अब तक 1455 मैच भारत ने खेलकर 814 जीते हैं।
|
Ø 59 देशों के
खिलाफ भारत खेला है। नीदरलैंड्स के
खिलाफ 93 मैचों में भारत ने 30 जीते,41 हारे तथा 22
ड्रॉ खेले हैं।
|
Ø टर्फ हॉकी पर
नीदरलैंड्स भारी है, उसने खेले गए 60
मैचों में भारत को 39 में हराया है।
|
Ø भारत ने मात्र 11
जीते तथा 10 ड्रॉ रहे।
|
Ø ओलिम्पिक की 10
भिड़ंतों में भारत ने 7 जीते, 2 हारे व 1 ड्रॉ
खेला।
|
लेबल:
नीदरलैंड,
भारत,
लंदन ओलम्पिक,
हॉकी,
Hockey,
India,
London,
Netherlands,
Olympic
शुक्रवार, 27 जुलाई 2012
ओलम्पिक हॉकी में अब तक सर्वाधिक गोल किस खिलाड़ी ने किए हैं?
यदि आप का उत्तर ध्यानचंद है,
तो आप बिलकुल सही हैं।
- भारत नें सर्वाधिक 114 मैच खेले, सर्वाधिक 75 मैच जीते, सर्वाधिक 415 गोल किए हैं।
- 91 भारतीयों ने 410 गोल बनाए हैं।
- आज तक कुल 217 भारतीय खिलाडी 18 ओलंपिक खेलों में हॉकी खेलकर ओलिंपियन बने हैँ।
- जापान के विरूद्ध 5 गोल जूरी द्वारा 1968 के भारत - जापान मैच में जापान के वॉक आउट करने पर अवार्ड किए गये थे।
- धनराज पिल्लै ने 4 ओलिंपिक खेल कर सर्वाधिक 27 मैच खेले हैं।
- महान ध्यानचंद ने सर्वकालिक सर्वाधिक 39 गोल मारे हैं।
दहाई के अंक में गोल करने वाले भारतीय खिलाड़ियों की सूची
क्रम
|
खिलाडी
|
पोजिशन
|
ओलंपिक खेले
|
मैच खेले
|
गोल मारे
|
1
|
ध्यानचंद
|
सेन्टर फारवर्ड
|
1928,1932,1936
|
12
|
39
|
2
|
बलबीर सीनियर
|
सेन्टर फारवर्ड
|
1948,1952,1956
|
8
|
22
|
3
|
पृथीपाल सिंह
|
राइट/लेफ्ट फुल बेक
|
1960,1964,1968
|
24
|
22
|
4
|
रूप सिंह
|
लेफ्ट इन
|
1932, 1936
|
7
|
22
|
5
|
उधम सिंह
|
लेफ्ट इन
|
1952,1956,1960, 1964
|
13
|
16
|
6
|
सुरिन्दर सोढी
|
सेन्टर फारवर्ड
|
1980
|
5
|
15
|
7
|
मर्विन फर्नांडीज
|
राइट इन
|
1980,1984,1988
|
20
|
11
|
8
|
हरबिन्दर सिंह
|
सेन्टर फारवर्ड
|
1964,1968,1972
|
26
|
10
|
सांख्यिकी - श्री बीजी जोशी के सौजन्य से
बुधवार, 25 जुलाई 2012
चांदनी की अभिलाषा भारतीय हॉकी से - बीजी जोशी
लंदन ओलिंपिक आरंभ होना ही चाहता है। बरसों तक भारतीय जिस एक स्वर्ण से आश्वस्त रहे वह हॉकी से आता था। आज भी हर भारतीय के मन में एक हूक उठती है कि चाहे कुछ भी हो एक पदक तो हॉकी से आना ही चाहिए। हॉकी और भारत दोनों एक दूसरे के पर्याय हो चुके थे। लेकिन इसी पदक ने भारत को अनेक मुकाबलों में तरसाया है। इस बार हॉकी का कोई पदक भारत ला पाता है या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन लंदन ओलिंपिक के दौरान हाँकी के खेल पर अनवरत की तीखी नजर रहेगी। बीजी जोशी जो दुनिया भर में एक मात्र ऐसे हॉकी स्क्राइब हैं जिन से हॉकी के इतिहास से संबंधित कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है, उत्तर आप को तुरंत हाजिर मिलेगा। जिस किसी अंतर्राष्ट्रीय हॉकी मुकाबले के दौरान वे उपस्थित रहते हैं, हॉकी के जानकारों से ले कर खिलाडी तक मनचाहा रिकार्ड उन से पूछ लेना चाहते हैं। अनवरत के लिए बीजी जोशी लंदन ओलिंपिक की हॉकी पर निगाह रख रहे हैं। इस क्रम ओलिंपिक हॉकी में भाग ले रही सभी टीमों के संदर्भ में भारतीय टीम का एक पूर्व मूल्यांकन प्रस्तुत करता यह आलेख आप पसंद करेंगे। लंदन में जब तक हॉकी के मुकाबले आरम्भ हों हम बीजी जोशी के सौजन्य से कुछ न कुछ आँकड़े आप के सामने प्रस्तुत करते रहेंगे।
ओलंपिक हॉकी में सर्वकालिक 8 स्वर्ण पदक के गौरव- वैभव से हम भारतीयों के लिये ओलिंपिक स्वप्निल-स्वर्णिम सपनों का स्त्रोत बना है। वर्षो की साधना, अभ्यास, मेहनत और तपस्या से विजयी मंच पर सोने के तमगे से सुशोभित गले को देखने का सुकून स्वर्ग से भी सुखद लगता है। प्रतिदिन प्रार्थना, आराधना, अरदास और दुआ करने वाले हिन्दुस्तानी अधिवर्ष में अंजुलि पसार खिलाडियों के लिए अमृत मांगते हैं। ताकि सुधा पान कर एथलीट कौशल की खूबियों में हिमालयी ऊचांईयां छू कर जीत की आभा से विरोधियों को धराशयी कर सकें।
कौशल के नियाग्रा में विपक्षियों को ठग कर मिली अद्भुत विस्मयकारी अचरज भरी जीत पर गर्व से ऊँचा सिर अपने जीवन को धन्य मानता है। हॉकी कभी भारत-पाकिस्तान की बपौती रही है। एमस्टरडम (1928) से म्यूनिख (1972) तक लगातार 44 साल उपमहाद्वीपीय माटी की सौगंध ही ओलंपिक प्रागंण में महकी। मांट्रियल (1976) में एस्ट्रोटर्फ का आगमन, 1998 से नो ऑफ साइड रूल, 2002 से हॉकी ब्लेड (अर्धचंद्राकार) की दोनो सतह प्लेइंग सरफेस मानने तथा 2003 से पेनल्टी कार्नर पर गेंद को डेडस्टॉप नहीं करने (आक्रामक को अतिरिक्त क्षण मिल गए) के परिवर्तित नियमों से कलाईयों की कलाबाजी ज्यादा सार्थक नहीं रही है। अब डिफेंस पर अधिक भार पडा है। कमजोर रक्षक वाली टीम का टेनिस स्कोर (6 गोल ) से हारना अजूबा नहीं रहा है। हर ओलंपिक में नया मेजबान शहर नई तरह की सतह हॉकी खेल के लिए बिछाता है। लदंन में नीली टर्फ पर पीली गेंद से हॉकी खेली जाएगी। दृश्यता बढाने हेतु टर्फ की बाउंड्री गुलाबी रंग की है। नवीन सतह पर गेंद उछलती है। शौर्य व धैर्य से गेंद पर बाज समान पैनी निगाहें रख सही टेकल कर ही मंडराते खतरे से पार पाना होता है। डिफेडंर संदीप सिंह व रघुनाथ की उक्त विधा में कमियां अक्सर आक्रमक टीम को गोल का प्रसाद भेंट कर ही देती है।
भारतीय टीम के आस्ट्रेलियाई कोच माइकल नोब्स नें हमेशा गुणवान खिलाडियों को प्राथमिकता दी है। कमजोर रक्षण से वाक़िफ नाब्स ने होनहार इग्नैश टिर्की को रक्षा का आधार स्तंभ बनाया है। योरपीय टीमों की तरह इग्नैश स्वीपर बेक पोजिशन पर खेलेंगे। कुआलालंपुर एशिया कप ( अक्टूबर 2003) में इग्नैश ने बिरजू महाराज की नाचरंग स्थिति के अनुरूप लयताल से विजयी डग भरते हुए विरोधियों को छकाकर पौरुष भरे खेल में, खुली आंखे रख, इन्द्रधनुषी चाप से पाकिस्तान पर विजयी गोल मार कर तब पहली बार एशिया कप जितवाकर दीवाली मनवाई थी। अब इग्नैश को रक्षण में भी जिब्राल्टर की चट्टान बनना होगा ।
तीसवें ओलिंपिक में भारतीयों को कठिन पूल मिला है। ‘‘ब‘‘ ग्रुप में भारत को ओलिंपिक चैंपियन जर्मनी, योरपीय दिग्गज हॉलैंड, बेल्जियम, एशियाई महारथी कोरिया व डाउनअंडर की उभरती टीम न्यूजीलैंड से जूझना है। पड़ौसी पाकिस्तान पूल ‘‘अ‘‘ में विश्व कप चैंपियन आस्ट्रेलिया, मेजबान ब्रिटेन, स्पेन, अर्जेन्टीना, दक्षिण अफ्रीका से भिडेगा ।
दुर्भाग्य से जर्मनी और हॉलेंड के विरूद्ध भारतीय प्रदर्शन निराशाजनक है। हॉलैंड के खिलाफ 93 में से 30 तथा जर्मनी के विरूद्ध 85 में 17 मैचों में ही भारतीय टीम फतह हासिल कर पायी है। हॉलैंड के विरूद्ध पिछले 10 मुकाबलो में भारत जीता ही नहीं है। 16 वर्ष पूर्व अजलानशाह कप में प्रयोगात्मक डच टीम को ही भारतीय हरा पाए थे। पेनल्टीकार्नर विशेषज्ञ राबर्ट हॉर्स्ट तथा दुनिया में सर्वाधिक 450 अंतरराष्ट्रीय मैचों के अनुभवी टयून डिनायर की टीम को हराना किसी भी टीम के लिए दिवास्वप्न है। खेल की गति को कम कर गेंद नियंत्रण अपने ही पास रखकर मिले हुए मौकों का सौ फीसदी उपयोग ही भारतीय जीत का अस्त्र बनेगा। चुस्त-दुरूस्त लंबे कद के जर्मन खिलाडियों के सामने भारतीय पिद्दी से लगते हैं। पर खेल में कद-काठी नहीं सूझ-बूझ कौशल जीत दिलाता है। बर्लिन ओलिपिक (1936) हॉकी फाइनल में 15 अगस्त के दिन भारतीयों ने जर्मनी को 8-1 से रौंदा था। जर्मन अखबारों ने भारतीय जीत पर लिखा था ‘वे दिव्य नीले कुरते पहने खिलाडी छुई-मुई से दिखाई पडते हैं, पर उनका खेल फौलादी है। उनकी आज्ञाओ को शिरोधार्य कर जहां वे चाहते है, गेंद वहां इठलाती हुई पहॅुचती है। गति के नियम तथा ज्यामितीय सिद्धांतों से परे गेंद भारतीय इशारों पर नाचती रही और जर्मन चूर चूर हो गए। ‘पर ध्यानचंद के वंशजो में अब वह प्रतिभा नहीं रही। ग्वालियर के शिवेन्द्र सिंह (164 मैंच,72 गोल), झाँसी के तुषार खंडकर (225 मैच, 65 गोल) व सुनील (100 मैंच, 30 गोल) ने गोल भेदने में अर्जुन समान लक्ष्य बनाए रखा तो बर्लिन दीवार को फांदना मुश्किल नहीं होगा। हालाँकि जर्मनी टर्फ हॉकी की सबसे सफलतम टीम है।
अपने पूर्वज माओरी आदिवासियों के नृत्य (हाँका डांस) कर मैदान में उतर कर उर्जा पाने वाली न्यूजीलैंड टीम उन्नति पर है। गोली क्यले पॉटिफिक्स समकालीन हॉकी में श्रेष्ठतम हैं। सोल (1988) में ब्रिटेन को स्वर्ण पदक जितवाने वाले गोली इयान टेलर कहते है कि सर्वश्रेष्ठ गोली 1-4 से हारने वाला मैच 1-0 से जीता देता है। कुछ ऐसा ही आलम पांटिफिक्स का रहा तो किवी टीम 36 वर्षो बाद ओलिंपिक सेमीफाइनल में दहाडेगी। अजलानशाह कप-2012 जीत कर उन्होंने अपने इरादे बता दिए हैं। 2002 में विश्व कप फुटबाल की मेजबानी कर कोरिया-जापान ने किशोरों का ध्यान हॉकी से हटा कर फुटबॅाल पर ला दिया है। नई प्रतिभाएँ कोरियाई हॉकी में नहीं आने से कोरिया टॉप फोर में नहीं है। हालाँकि उनका विध्वसंक शैली भरा खेल किसी भी टीम को झकझोरता रहा है। 1956-76 तक बेल्जियम का ग्राफ हॉकी में विश्वस्तरीय था। तब पाँच खिलाडियों ने 4-4 मर्तबा ओलंपिक खेल कर रिकार्ड रचा है। लंदन में उनके लिए बीजिंग (2008) समान 9वीं पोजिशन भी सार्थक होगी।
पूल ‘‘अ‘‘ में पाकिस्तान के लिए पदक की मंजिल कोसों दूर है। स्पेन, अर्जेन्टीना, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया में से कोई दो टीमें सेमीफाइनल में खेलेगी। अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ व्दारा निंबस स्पोटर्स द्वारा प्रायोजित वर्ल्ड सीरीज हॉकी को अनाधिकृत घोषित करने से टीम की तैयारियों को झटका लगा है। पाकिस्तान के लिए विश्व कप (2012) व अजलानशाह कप (2012) की तरह वुडन स्पून (अंतिम पायदान) से बचना टेड़ी खीर होगा । लंदन टेस्ट इवेंट (मई 2012) की विजेता जर्मनी को पाकिस्तान ने हाल ही में टेस्ट मैच में 4-3 से हराया था। दुनिया में सर्वाधिक गोल मारने वाले सोहेल अब्बास ने चारों पेनल्टीकार्नर गोल में बदल कर यह करिश्मा रचा था। सोहेल के ऐसे ही कारनामे पाकिस्तानी टीम को सुकून बक्ख्शेंगे।
भारतीय कोच ने टॉप सिक्स में आने का लक्ष्य रखा है। गोल में दार्जिलिंग के भरत क्षैत्री व केरल के श्रीजैश की कुशल नटबाजी, डिफेंस में इग्नैश तथा वीरेन्द्र लाकडा की दृढ़ता, मिडफील्ड में मनप्रीत, सरदारा सिंह व गुरबाज की रचनात्मकता, फारवर्डस् में सुनील, शिवेन्द्र, तुषार तथा उथप्पा की उत्पादकता तथा पेनल्टीकार्नर में संदीप, रघुनाथ की गोल रूपी संजीवनी भारतीयों को पदक दिला सकती है। अजलानशाह कप में पाकिस्तान, कोरिया, ब्रिटेन के विरूद्ध जुगनु सी चमक ने ही भारतीयों को कांस्य पदक जितवाया। कुछ कर गुजरने की तमन्ना से अथाह खेल कौशल में डूब कर भारतीयों ने चांदनी बिखेरी तो ओलिंपिक विजय मंच पर तिरंगा फहराना दुर्लभ नहीं है।
कौशल के नियाग्रा में विपक्षियों को ठग कर मिली अद्भुत विस्मयकारी अचरज भरी जीत पर गर्व से ऊँचा सिर अपने जीवन को धन्य मानता है। हॉकी कभी भारत-पाकिस्तान की बपौती रही है। एमस्टरडम (1928) से म्यूनिख (1972) तक लगातार 44 साल उपमहाद्वीपीय माटी की सौगंध ही ओलंपिक प्रागंण में महकी। मांट्रियल (1976) में एस्ट्रोटर्फ का आगमन, 1998 से नो ऑफ साइड रूल, 2002 से हॉकी ब्लेड (अर्धचंद्राकार) की दोनो सतह प्लेइंग सरफेस मानने तथा 2003 से पेनल्टी कार्नर पर गेंद को डेडस्टॉप नहीं करने (आक्रामक को अतिरिक्त क्षण मिल गए) के परिवर्तित नियमों से कलाईयों की कलाबाजी ज्यादा सार्थक नहीं रही है। अब डिफेंस पर अधिक भार पडा है। कमजोर रक्षक वाली टीम का टेनिस स्कोर (6 गोल ) से हारना अजूबा नहीं रहा है। हर ओलंपिक में नया मेजबान शहर नई तरह की सतह हॉकी खेल के लिए बिछाता है। लदंन में नीली टर्फ पर पीली गेंद से हॉकी खेली जाएगी। दृश्यता बढाने हेतु टर्फ की बाउंड्री गुलाबी रंग की है। नवीन सतह पर गेंद उछलती है। शौर्य व धैर्य से गेंद पर बाज समान पैनी निगाहें रख सही टेकल कर ही मंडराते खतरे से पार पाना होता है। डिफेडंर संदीप सिंह व रघुनाथ की उक्त विधा में कमियां अक्सर आक्रमक टीम को गोल का प्रसाद भेंट कर ही देती है।
भारतीय टीम के आस्ट्रेलियाई कोच माइकल नोब्स नें हमेशा गुणवान खिलाडियों को प्राथमिकता दी है। कमजोर रक्षण से वाक़िफ नाब्स ने होनहार इग्नैश टिर्की को रक्षा का आधार स्तंभ बनाया है। योरपीय टीमों की तरह इग्नैश स्वीपर बेक पोजिशन पर खेलेंगे। कुआलालंपुर एशिया कप ( अक्टूबर 2003) में इग्नैश ने बिरजू महाराज की नाचरंग स्थिति के अनुरूप लयताल से विजयी डग भरते हुए विरोधियों को छकाकर पौरुष भरे खेल में, खुली आंखे रख, इन्द्रधनुषी चाप से पाकिस्तान पर विजयी गोल मार कर तब पहली बार एशिया कप जितवाकर दीवाली मनवाई थी। अब इग्नैश को रक्षण में भी जिब्राल्टर की चट्टान बनना होगा ।
भारतीय हॉकी टीम |
तीसवें ओलिंपिक में भारतीयों को कठिन पूल मिला है। ‘‘ब‘‘ ग्रुप में भारत को ओलिंपिक चैंपियन जर्मनी, योरपीय दिग्गज हॉलैंड, बेल्जियम, एशियाई महारथी कोरिया व डाउनअंडर की उभरती टीम न्यूजीलैंड से जूझना है। पड़ौसी पाकिस्तान पूल ‘‘अ‘‘ में विश्व कप चैंपियन आस्ट्रेलिया, मेजबान ब्रिटेन, स्पेन, अर्जेन्टीना, दक्षिण अफ्रीका से भिडेगा ।
दुर्भाग्य से जर्मनी और हॉलेंड के विरूद्ध भारतीय प्रदर्शन निराशाजनक है। हॉलैंड के खिलाफ 93 में से 30 तथा जर्मनी के विरूद्ध 85 में 17 मैचों में ही भारतीय टीम फतह हासिल कर पायी है। हॉलैंड के विरूद्ध पिछले 10 मुकाबलो में भारत जीता ही नहीं है। 16 वर्ष पूर्व अजलानशाह कप में प्रयोगात्मक डच टीम को ही भारतीय हरा पाए थे। पेनल्टीकार्नर विशेषज्ञ राबर्ट हॉर्स्ट तथा दुनिया में सर्वाधिक 450 अंतरराष्ट्रीय मैचों के अनुभवी टयून डिनायर की टीम को हराना किसी भी टीम के लिए दिवास्वप्न है। खेल की गति को कम कर गेंद नियंत्रण अपने ही पास रखकर मिले हुए मौकों का सौ फीसदी उपयोग ही भारतीय जीत का अस्त्र बनेगा। चुस्त-दुरूस्त लंबे कद के जर्मन खिलाडियों के सामने भारतीय पिद्दी से लगते हैं। पर खेल में कद-काठी नहीं सूझ-बूझ कौशल जीत दिलाता है। बर्लिन ओलिपिक (1936) हॉकी फाइनल में 15 अगस्त के दिन भारतीयों ने जर्मनी को 8-1 से रौंदा था। जर्मन अखबारों ने भारतीय जीत पर लिखा था ‘वे दिव्य नीले कुरते पहने खिलाडी छुई-मुई से दिखाई पडते हैं, पर उनका खेल फौलादी है। उनकी आज्ञाओ को शिरोधार्य कर जहां वे चाहते है, गेंद वहां इठलाती हुई पहॅुचती है। गति के नियम तथा ज्यामितीय सिद्धांतों से परे गेंद भारतीय इशारों पर नाचती रही और जर्मन चूर चूर हो गए। ‘पर ध्यानचंद के वंशजो में अब वह प्रतिभा नहीं रही। ग्वालियर के शिवेन्द्र सिंह (164 मैंच,72 गोल), झाँसी के तुषार खंडकर (225 मैच, 65 गोल) व सुनील (100 मैंच, 30 गोल) ने गोल भेदने में अर्जुन समान लक्ष्य बनाए रखा तो बर्लिन दीवार को फांदना मुश्किल नहीं होगा। हालाँकि जर्मनी टर्फ हॉकी की सबसे सफलतम टीम है।
अपने पूर्वज माओरी आदिवासियों के नृत्य (हाँका डांस) कर मैदान में उतर कर उर्जा पाने वाली न्यूजीलैंड टीम उन्नति पर है। गोली क्यले पॉटिफिक्स समकालीन हॉकी में श्रेष्ठतम हैं। सोल (1988) में ब्रिटेन को स्वर्ण पदक जितवाने वाले गोली इयान टेलर कहते है कि सर्वश्रेष्ठ गोली 1-4 से हारने वाला मैच 1-0 से जीता देता है। कुछ ऐसा ही आलम पांटिफिक्स का रहा तो किवी टीम 36 वर्षो बाद ओलिंपिक सेमीफाइनल में दहाडेगी। अजलानशाह कप-2012 जीत कर उन्होंने अपने इरादे बता दिए हैं। 2002 में विश्व कप फुटबाल की मेजबानी कर कोरिया-जापान ने किशोरों का ध्यान हॉकी से हटा कर फुटबॅाल पर ला दिया है। नई प्रतिभाएँ कोरियाई हॉकी में नहीं आने से कोरिया टॉप फोर में नहीं है। हालाँकि उनका विध्वसंक शैली भरा खेल किसी भी टीम को झकझोरता रहा है। 1956-76 तक बेल्जियम का ग्राफ हॉकी में विश्वस्तरीय था। तब पाँच खिलाडियों ने 4-4 मर्तबा ओलंपिक खेल कर रिकार्ड रचा है। लंदन में उनके लिए बीजिंग (2008) समान 9वीं पोजिशन भी सार्थक होगी।
पूल ‘‘अ‘‘ में पाकिस्तान के लिए पदक की मंजिल कोसों दूर है। स्पेन, अर्जेन्टीना, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया में से कोई दो टीमें सेमीफाइनल में खेलेगी। अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ व्दारा निंबस स्पोटर्स द्वारा प्रायोजित वर्ल्ड सीरीज हॉकी को अनाधिकृत घोषित करने से टीम की तैयारियों को झटका लगा है। पाकिस्तान के लिए विश्व कप (2012) व अजलानशाह कप (2012) की तरह वुडन स्पून (अंतिम पायदान) से बचना टेड़ी खीर होगा । लंदन टेस्ट इवेंट (मई 2012) की विजेता जर्मनी को पाकिस्तान ने हाल ही में टेस्ट मैच में 4-3 से हराया था। दुनिया में सर्वाधिक गोल मारने वाले सोहेल अब्बास ने चारों पेनल्टीकार्नर गोल में बदल कर यह करिश्मा रचा था। सोहेल के ऐसे ही कारनामे पाकिस्तानी टीम को सुकून बक्ख्शेंगे।
बीजी जोशी |
लेबल:
पदक,
भारतीय टीम,
लंदन ओलम्पिक,
हॉकी,
Hockey,
Indian Team,
London,
Medal,
Olympic
सोमवार, 23 जुलाई 2012
श्रमजीवी राज्य के नागरिक भी नहीं?
मारुति सुजुकी इंडिया के डीजल कार बनाने वाले मानेसर कारखाने में पिछले दिनों हुई घटनाओं से सभी अवाक् हैं। ऐसे समय में जब कि दुनिया भर की बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मंदी से जूझ रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश को ताक रही है, कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बड़े और कमाऊ उद्योग में ऐसी घटना भी हो सकती है जिस में बड़ी मात्रा में आगजनी हो, अधिकारी और मजदूर घायल हों किसी की जान चली जाए। कारखाने के अधिकारियों, कर्मचारियों और मजदूरों पर अचानक आतंक का साया छा जाए। मजदूर पलायन कर जाएँ और कारखाने में अस्थाई रूप से ही सही, उत्पादन बंद हो जाए।
मारुति उद्योग में प्रबंधन और मजदूरों के बीच विवाद नया नहीं है। मार्च 2011 में यह खुल कर आ गया जब ठेकेदार मजदूर अपनी यूनियन को मान्यता देने की मांग को लेकर टूल डाउन हड़ताल पर चले गए। प्रबंधन ठेकेदार मजदूरों को अपना ही नहीं मानता तो वह इस यूनियन को मान्यता कैसे दे सकता था? इसी मांग और अन्य विवादों के चलते सितंबर 2011 तक तीन बार कारखाने में हड़ताल हुई। सितंबर की हड़ताल में तो मारूति के सभी मजदूरों और अन्य उद्योगों के मजदूरों ने भी उन का साथ दिया। कुछ अन्य मामलों पर बातचीत और समझौता भी हुआ, लेकिन यूनियन की मान्यता का विवाद बना रहा। जिस से मजदूरों में बैचेनी और प्रबंधन के विरुद्ध आक्रोश बढ़ता रहा। मजदूरों का मानना पूरी तरह न्यायोचित है कि संगठन बनाना और सामुहिक सौदेबाजी उन का कानूनी अधिकार है। लेकिन इस अधिकार को स्वीकार करने के स्थान पर प्रबंधन ने यूनियन के नेता को तोड़ने की घृणित हरकत की। आग अंदर-अंदर सुलगती रही और एक हिंसक रूप ले कर सामने आई। अब एक तरफ इस घटना को ले कर प्रबंधन और सरकार की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि मजदूर हिंसक और हत्यारे हैं, तो दूसरी ओर मजदूरों के पक्ष पर कोई बात नहीं की आ रही है। एक वातावरण बनाया जा रहा है कि मजदूरों का वर्गीय चरित्र ही हिंसक और हत्यारा है। उद्योगों के प्रबंधन और राज्य द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा को जायज ठहराया जा रहा है। इस मामले में हुई एक प्रबंधक की मृत्यु को हत्या कहा जा रहा है।
कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था। इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया। इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया। उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है? उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।
क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं? वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता। करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन। मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों। लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे। ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है। मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती। इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?
इस हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती। लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है। कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी। कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती? लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता। लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था। इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता। एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता। उस का सब से महत्वपूर्ण कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है। यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता। इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है। मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।
कहा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था? उस का कारण क्या था? यदि मजदूर वर्ग को हत्यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं। इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है। ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे। फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है। किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए।
कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था। इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया। इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया। उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है? उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।
क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं? वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता। करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन। मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों। लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे। ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है। मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती। इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?
इस हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती। लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है। कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी। कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती? लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता। लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था। इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता। एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता। उस का सब से महत्वपूर्ण कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है। यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता। इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है। मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।
कहा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था? उस का कारण क्या था? यदि मजदूर वर्ग को हत्यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं। इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है। ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे। फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है। किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए।
गुरुवार, 19 जुलाई 2012
उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।
गनीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?
भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?
उत्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?
गनीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?
भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?
उत्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?
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