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मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समन्वय के बीज बोएँ

हुत दुःखी हूँ। मेरे गृह जिले बाराँ के एक नगर छबड़ा में दुकान के सामने वाहन खड़ा करने के विवाद ने अचानक हिंसक रूप ले लिया। किसी की जान जाने की कोई खबर नहीं है लेकिन नगर में समुदायों के बीच दरार स्पष्ट हो कर सामने आ गई है। जिस क्षेत्र में जो समुदाय बहुसंख्यक था उस क्षेत्र में दूसरे समुदाय की दुकानें जला दी गयीं। इस काम में कोई समुदाय पीछे नहीं रहा। किसी भी सभ्य समाज में इस तरह की सामुदायिक/ साम्प्रदायिक हिंसा का कोई स्थान नहीं हो सकता। यदि इस तरह की घटनाओं को हम पैमाना मान लें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम अभी सभ्यता की सीढ़ी के बहुत निचले पायदान पर खड़े हैं।

इस घटना का जो विवरण सामने आ रहा है उससे प्रतीत होता है कि नगर के दोनों समुदायों में एक दूसरे के प्रति घृणा और अविश्वास का बारूद लगातार बोया जा रहा था। इसका मुख्य कारण साम्प्रदायिक राजनीति है। यूँ तो इस राजनीति के बीज एक सदी पहले से बोए जा रहे हैं। इसी राजनीति ने देश को दो टुकड़े कराए, इसी ने हमारे राष्ट्र-पिता बापू गांधी के प्राण हर लिए। बापू की इस हत्या को इस राजनीति ने गांधी-वध कहा। सीधे-सीधे गांधी को भारतीय पौराणिक खलनायक राक्षसों के नेताओं के समकक्ष रख दिया गया। इस राजनीति के लिए वे तमाम लोग जो साम्प्रदायिक नहीं हैं वे राक्षस हैं।

जब किसी देश का बहुसंख्यक वर्ग साम्प्रदायिक हो उठता है तो उसकी मार देर सबेर उस देश के तमाम अल्पसंख्यक समुदायों को सहनी पड़ती है और अल्पसंख्यकों को मध्य भी वही साम्प्रदायिकता घर करने लगती है। सभी सम्प्रदायों के मध्य अन्य सम्प्रदायों के विरुद्ध घृणा के बीज बोए जाते हैं। अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और अन्य सम्प्रदायों को हीन प्रदर्शित किया जाता है। जब साम्प्रदायिकता राज्य पर काबिज होने की सफलता का सूत्र बन जाए तो यह और भी आसान हो जाता है। इस तरह के राजनेता समाज में लगातार साम्प्रदायिकता का बारूद बिछाते हैं। यह साम्प्रदायिकता बहुसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ती, अपितु सर्वाधिक हानि वह बहुसंख्यकों ही पहुँचाती है।

छबड़ा की घटना का कारण दुकान के सामने वाहन खड़ा करने का झगड़ा नहीं है। वह तो केवल चिनगारी था। असल कारण तो समुदायों के मध्य बिछा दिया गया घृणा और साम्प्रदायिकता का वह बारूद है जो लगातार बिछाया जाता है। हमें इस से निपटना है तो हमें इस बारूद का बिछाया जाना रोकना होगा और जो बारूद बिछा दिया गया है उसे भी साफ करना होगा। इसके लिए समुदायों के मध्य समन्वय के समर्थक लोगों को एकजुट हो कर काम करना होगा। इस काम के लिए पहला कदम तो एकजुटता प्रदर्शित करते हुए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध डट कर खड़ा होना है। लगातार लोगों को इस अभियान के साथ जोड़ना है। बाकी काम तो लोगों को लगातार समन्वय की भावना के बीज बो कर करना होगा।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

भारतीय नव-वर्ष

भारतीय और हिन्दू नववर्ष की बधाइयाँ शुरू हो गयी हैं. सोशल मीडिया पर संस्कृति का गुणगान किया जा रहा है उस पर गर्व प्रकट किया जा रहा है। यूँ तो जब से मोदी जी केन्द्र में प्रधानमंत्री बने हैं शायद ही कोई क्षण बीतता हो जब सोशल मीडिया पर हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न होता हो। उनके समर्थकों को लगता है कि हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न किया गया तो शायद मोदी जी का आधार खिसक जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो उनका क्या होगा?

हिन्दू और भारतीय संस्कृति पर गर्व प्रकट करने और उसका गुणगान करने वालों में से अधिकांश तो जानते ही नहीं कि संस्कृति वास्तव में है क्या? संस्कृति का विषय बहुत गहरा और विस्तृत है। इस समय उस पर विचार करना विषय से भटकना होगा। इसलिए मैं इस आलेख को केवल नव-वर्ष तक सीमित रखना चाहूँगा।
दिनों से मास बनता है और प्राचीन काल में मास की गणना के लिए आसान तरीका यह था कि नए चांद से नए चांद के पहले वाले दिन तक एक माह होगा। यह अक्सर ही 30 दिन का होता है। यूँ नए चांद से नए चांद तक लगभग साढ़े उन्तीस दिन होते हैं। पर आधे दिन की गणना करना मुश्किल होता है। इस कारण मास को तीस दिन का मान लिया गया। बारह मास में कुल 354 दिन होते हैं। इस कारण वर्ष में कुछ माह तीस दिन के होंगे तो कुछ माह उन्तीस दिन के। यही कारण है कि रमजान का महीना कभी 29 दिन और कभी तीस दिनों का होता है। उनतीसवें दिन चांद देख पाने की लालसा सभी रोजेदारों को होती है। लेकिन यदि उस दिन चांद न दिखे तो तीसवें दिन तो उसे दिखना ही है इस कारण तीसवें दिन चांद देखने की लालसा समाप्त हो जाती है। सारी दुनिया में चांद्रमास और 12 चांन्द्रमासों का वर्ष माना जाना सबसे प्राचीन परंपरा है।
लेकिन जब से यह जानकारी हुई कि सूर्य आकाश मंडल में अपने परिभ्रमण मार्ग पर 365 दिन और 6 घंटों में पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाता है तो इस अवधि को सौर वर्ष मान लिया गया। ऋतुओं की गणना इसी रीति से सही बैठती है। लेकिन लगभग 354 दिनों के चांद्र वर्ष और लगभग 365.25 दिनों के सौर वर्ष में दस दिनों का अन्तर है। चान्द्र वर्ष मानने वालों का साल हर बार दस दिन पहले आरंभ हो जाता है। इससे यह विसंगति पैदा होती हैं कि रमजान का मास सारी ऋतुओं में आ जाता है। यही कारण है कि इस्लामी नववर्ष हर ऋतु में आाता है और 36 वर्षों में वापस अपना पुराना स्थान प्राप्त कर लेता है।
लेकिन जो लोग महीनों को ऋतुओं के साथ जोड़ना चाहते थे उन्होंने इसका एक मार्ग खोज निकाला कि वे हर तीन वर्ष में एक चान्द्र मास वर्ष में जोड़ने लगे। इस तरह हर तीसरा वर्ष 13 चांद्रमासों का होने लगा। इस का निर्धारण करने का उन्होंने अपना तरीका निकाल लिया। आकाश मंडल में 360 डिग्री के सूर्य केस यात्रा मार्ग को उन्होंने 30-30 डिग्री के 12 भागों में विभाजित किया। हर भाग को उसमें उपस्थित तारों द्वारा बनी आकृति के आधार पर मेष, वृष आदि राशियों के नाम दिए गए। जब भी सूर्य अपने यात्रा मार्ग पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उस घटना को संक्रांति कहा गया। संक्रांति का नाम जिस राशि में सूर्य प्रवेश कर रहा होता है उस राशि के नाम पर दिया गया। मकर संक्रांति से सभी परिचित हैं जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे हम मकर संक्रांति कहते हैं। बारह राशियों को बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इस तरह हर सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ और तीन वर्ष में 36 संक्रान्तियाँ होती हैं। लेकिन तीन वर्ष में चान्द्र मास 37 हो जाते हैं। तो हमने तय कर लिया कि जिस चांद्रमास में संक्रान्ति न पड़े उसे अतिरिक्त या अधिक मास मान लिया जाए। इस से चांद्र मास ऋतुओं का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाते हैं। हमने देखा कि वर्ष तो 365.25 दिन का ही होता है। फिर चौथाई दिन की गुत्थी शेष रह जाती है। ग्रीगोरियन कलेण्डर वालों ने हर चार वर्ष में एक दिन अतिरिक्त जोड़ कर चौथाई दिन की गुत्थी भी सुलझा ली गयी।

इस विवेचन के बाद हम समझ सकते हैं कि नव वर्ष मनाने का सब से सही तरीका यह होगा कि हर नया वर्ष 365.25 दिनों का हो। यह तभी हो सकता है जब हम चांद्र वर्ष को त्याग कर सौर वर्ष को अपना लें। भारतीय पद्धति से बारह राशियाँ मेष से आरम्भ हो कर मीन पर समाप्त हो जाती हैं। इस तरह नव वर्ष हमें उस दिन मनाना चाहिए जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हो। भारत के पंजाब प्रान्त में इस दिन बैसाखी का पर्व मनाया जाता है। इस तरह बैसाखी पर्व भारतीय नव वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है न कि चैत्र सुदी प्रतिपदा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है तो वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। इस तरह यदि हम संस्कृति के रूप में भी देखें तो चैत्र सुदी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला नववर्ष नहीं अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष भारतीय संस्कृति के अधिक निकट है। यह भी एक संयोग ही है कि बैसाखी के एक दिन पहले 13 अप्रैल को भारतीय चांद्र नववर्ष पड़ रहा है।
आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से आरंभ करते हुए हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने-मानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है। किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामनाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे अगले दिन मनाएंगे। चैत्र सुदी प्रतिपदा को नववर्ष मनाने वालों को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस आशा के साथ कि वे समझें कि भारतीय संस्कृति का त्यौहार चैत्र सुदी प्रतिपदा वाला नववर्ष नहीं, अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष है।