- प्रेमचन्द
राष्ट्रीयता
इसमें तो कोई सदेह नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है, और आदि काल से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है. 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी आदर्श का परिचायक है. वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार ही तो किया. आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं को लगा हुआ है, जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्रों ही के रूप में देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से और कितनी ही अस्वाभाविकताएँ हमने अपने अन्दर भर ली हैं, उसी तरह से इस रोग को भी पाल लिया है. लेकिन प्रश्न यह है कि उससे मुक्ति कैसे हो? कुछ लोगों का ख्याल है कि राष्ट्रीयता ही अन्तर्राष्ट्रीयता की सीढ़ी है. इसी के सहारे हम उस पद तक पहुंच सकते हैं, लेकिन जैसा कृष्णमूर्ति ने काशी में अपने एक भाषण में कहा है, यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि आरोग्यता प्राप्त करने के लिए बीमार होना आवश्यक है.
तो फिर यह प्रश्न रह जाता है कि हमारी अन्तर्राष्ट्रीय भावना कैसे जागे? समाज का संगठन आदि काल से आर्थिक भित्ति पर होता आ रहा है. जब मनुष्य गुफाओं में रहता था, उस समय भी उसे जीविका के लिए छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनानी पड़ती थीं. उनमें आपस में लड़ाइयाँ भी होती रहती थीं. तब से आज तक आर्थिक नीति ही संसार का संचालन करती चली आ रही है, और इस प्रश्न की ओर से आंखे बन्द करके समाज का कोई दूसरा संगठन नहीं हो सकता. यह जो प्राणी-प्राणी में भेद है, फूट है, वैमनस्य है, यह जो राष्ट्रों में परस्पर तनातनी हो रही है, इसका कारण अर्थ के सिवा और क्या है? अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले को ध्वंस कर सकता है.
वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार करके एक दूसरे ही मार्ग से इस लक्ष्य पर पहुंचने की चेष्टा की. उसने समझा, समाज के मनोभाव को बदल देने से ही यह प्रश्न आप ही आप हल हो जायेगा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. उसने कारण का निश्चय किये बिना ही कार्य का निर्णय कर लिया, जिसका परिणाम असफलता के सिवा और क्या हो सकता था? हजरत ईसा, महात्मा बुद्ध आदि सभी धर्म प्रवर्तकों ने मानसिक और आध्यात्मिक संस्कार से समाज का संगठन बदलना चाहा. हम यह नहीं कहते किउनका रास्ता गलत था. न ही; वही रास्ता ठीक था, लेकिन उसकी असफलता का मुख्य कारण यही था कि उसने अर्थ को नगण्य समझा. अन्तर्राष्ट्रीयता, या एकात्मवाद या समता तीनों मूलतः एक ही हैं. उनकी प्राप्ति के दो मार्ग हैं, एक आध्यात्मिक, दूसरा भौतिक. आध्यात्मिक मार्ग की परीक्षा हमने खूब कर ली है. कई हजार बरसों में हम यही परीक्षा करते चले आ रहे हैं, वह श्रेष्ठतम मार्ग था. उसने समाज के लिए ऊँचे से ऊँचे आदर्श की कल्पना की और उसे प्राप्त करने के लिए ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत की सृष्टि की थी. उसने मनुष्य की स्वेच्छा पर विश्वास किया, लेकिन फल इसके सिवा और कुछ न हुआ कि धर्मोपजीवियों की एक बहुत बड़ी संख्य पृथ्वी का भार हो गयी. समाज जहां था वहीं खड़ा रह गया, नहीं और पीछे हट गया. संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा-भाव है, उतना शायद पहले कभी न था. आज दो भाई एक साथ नहीं रह सकते. यहां तक कि स्त्री-पुरुष में संग्राम चल रहा है. पुराने ज्ञानियों ने सारे झगड़ों की जिम्मेदारी जर, जमीन, जन' रखी थी. आज उसके लिए केवल एक ही शब्द काफी है – संपत्ति.
जब तक सम्पत्ति मानव-समाज के संगठन का आधार है, संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता. राष्ट्रों, राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है. संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गांठ है. जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता. मजदूरों के काम का समय घटाइये, बेकारों को गुजारा दीजिये, जमींदारों और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइये, मजदूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइये, सिक्के का मूल्य घटाइये - इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस टीप-टाप से ही नहीं रह सकती. इसे गिराकर नये सिरे से उठाना होगा.
संसार आदि काल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. जिस पर वह प्रसन्न हो जाय, उसके भाग्य खुल जाते हैं, उसकी सारी बुराइयां माफ कर दी जाती हैं, लेकिन संसार का जितना नुकसान लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया. यह देवी नहीं, डायन है.
सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक बात केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस संपत्ति का क्या होगा. हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, सम्पत्ति के लिए गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, सम्पत्ति के लिए घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याए क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी.
कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद, या 'क्लास वार' कह कर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं. जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिक हैं, वे इसे हौआ समझकर, आँखे बन्द करके, गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं. लेकिन शांत मन से देखा जाय, तो असंपत्तिवाद की शरण में आकर उन्हें भी वह शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे सन्तों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उनके हाथ नहीं आती. अगर वे अपने पिछले कारनामों को याद करें तो उन्हें मालूम हो कि सम्पत्ति जमा करने के लिए उन्होंने अपनी आत्मा का, अपने सम्मान का, अपने सिद्धान्त का खून किया. बेशक उनके पास करोड़ों की विभूति है, पर क्या उन्हें शान्ति मिल रही है? क्या वे अपने ही भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी छाया से चौंक नहीं पड़ते, यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुम्भकर्ण का पेट लेकर भी उसे अन्दर नहीं भर सकते. ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है. इसके सिवा उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा है, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है. क्या ऐसे समाज में रहना उनके लिए असह्य होगा, जहां उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की जरूरत न होगी. जहाँ छल-कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहां उनके कुटुम्ब वाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहां वे विष के भय के बगैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी? क्या वे उस विश्वास, प्रेम और सहयोग के संसार से इतना घबराते हैं, जहाँ वे निर्द्वन्द्व और निश्चित समष्टि में मिलकर जीवन व्यतीत करेंगे ? बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर और हाथी-घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिन्ता, संदेह और संघर्ष भी तो न होगा.
कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहां से आयेगी. फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हजारों आदमियों को देखते हैं जो की उपदेशक हैं, कवि हैं, शिक्षक हैं, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलताहै. अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसीलिए ऐसी शकाएं हमारे मन में उठती हैं, समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं नष्ट हो जायेगी.
कुछ लोगों को भय होता है कि तब तक बहुत परिश्रम करना पड़ेगा. हम कहते हैं कि आज ऐसा कौन-सा राजा-धनी है जो आधी रात तक बैठा सिर नहीं खपाता. यहां उन विलासियों की बात नहीं है, जो बाप-दादों की कमाई उड़ा रहे हैं. वे तो पतन की ओर जा रहे हैं. जो आदमी सफल होना चाहता है, चाहे वह किसी काम में हो, उसे परिश्रम करना पड़ेगा. अभी वह अपने और अपने कुटुम्ब के लिए परिश्रम करता है, क्या तब उसे समष्टि के लिए परिश्रम करने में कष्ट होगा?
(२७ नवम्बर १९३३)