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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

बच्चा-ईश्वर का मनोरंजक खिलौना


बचपन में परिवार और समाज का वातावरण पूरी तरह भाववादी था। उस वातावरण में एक ईश्वर था जिस ने इस सारे जगत का निर्माण किया था। जैसे यह जगत जगत नहीं था बल्कि कोई खिलौना था जो किसी बच्चे ने अपने मनोरंजन के लिए बनाया हो। वह अपनी इच्छा से उसे तोड़ता-मरोड़ता, बनाता-बिगाड़ता रहता दुरुस्त करता रहता था। कभी जब उसे लगता कि अब यह खिलौना उस का मनोरंजन कतई नहीं कर सकेगा तो वह उसे पूरी तरह नष्ट कर देता था। उस खिलौने और उस के अवयवों की तो पूरी तरह प्रलय हो जाती थी। वह बच्चा (ईश्वर) फिर से एक नया खिलौना बनाता था जो नई सृष्टि होती थी। 

यह पूरा रूपक मेरे बाल मन को बिलकुल रुचिकर नहीं लगता था। मैं एक बच्चा उस स्वयंभू बच्चे के किसी एक खिलौना का बहुत ही उपेक्षित अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान वगैरा में से कुछ होता था। मेरा बालमन कभी यह स्वीकार कर ही नहीं पाता था कि मैं उस खिलौने का अवयव हूँ। मेरा मन करता था कि इस खिलौने को मैं ही तोड़ फैंकूँ। पर कैसे? यह समझना चाहता था। 

बहुत जल्दी पढ़ने लगा था। घर में किताबें थीं, ज्यादातर धार्मिक। जब बच्चा जल्दी पढ़ना सीख लेता है तो वह दुनिया की हर वह इबारत बाँच लेना चाहता है जो वह बाँच सकता है। मेरा भी वैसा ही हाल हुआ। जेब खर्च की इकन्नी के दो पैसों के कड़के सेव और दो पैसों का कलाकंद लेता जिसे कन्दोई अखबार के टुकड़ों पर रख कर देता। उस जमाने का यह सब से अच्छा नाश्ता करते हुए मैं अखबार के उन टुकड़ों को बांचना कभी नहीं भूलता। वह आदत अभी तक भी है। जब कभी अखबार के टुकड़ों पर कैन्टीन वाला कोई चीज देता है तो अखबार का वह टुकड़ा पढ़े बिना अभी भी नहीं रहा जाता। 

जल्दी ही पहुँच धार्मिक पुस्तकों तक हुई। रामचरित मानस, भागवत, अठारह पुराण, दुर्गा शप्तशती बांच ली गयी। मनोरंजन के लिए बनाए गए खिलौने की थ्योरी सब जगह भरी पड़ी थी। पर कहीं से भी तार्किक नहीं थी और गले नहीं उतर रही थी, न उतरी। इस बीच बाइबिल का न्यू-टेस्टामेंट हत्थे चढ़ गया। वह उस से भी गया बीता निकला, जो पुराणों और उन दो महाकाव्यों में था। 

इन किताबों के अलावा जिस चीज ने सब से अधिक आकर्षित किया वह विज्ञान की पुस्तकें थीं। उन में सब कुछ तार्किक था। उन्हें समझने के लिए सीधे-सादे प्रयोग थे जो कबाड़ का उपयोग कर किए जा सकते थे। मंदिर में रहता था जिस में बहुत सारा पुराना कबाड़ था। बचपन से प्रयोग कर विज्ञान को परखने लगा। हर बार नया सीखता और उस में मजा भी बहुत आने लगा। उन प्रयोगों के बीच बहुत कुछ ऐसा भी था जिस से लोग अनभिज्ञ थे। हम सिद्धान्तों से अनजान लोगों को उन के बहाने बेवकूफ बना कर खुद को जादूगर और चमत्कारी सिद्ध कर सकते थे। पर अंदर की ईमानदारी वह नहीं करने देती थी। 

विज्ञान ने एक दिन मुझे डार्विन पढवाया, आनुवंशिकी बँचवाई। कोशिका विज्ञान पढ़वाया। तब यह सिद्ध हो गया कि यह दुनिया किसी बच्चानुमा ईश्वर का मनोरंजन के लिए बनाया खिलौना नहीं है। बल्कि एक बहुत बड़ा सिस्टम है जो अपने नियमों से चल रहा है। मैं फिर भी संशयवादी बना रहा। जितना बाँचता गया, जितना जानता गया। नए नए सवाल सामने आते गए। उन्हें तलाशता तो और नए सवाल आ खड़े होते। ऐसे सवाल जो उन लोगों के लिए बहुत अनजान थे, उन की समझ से बिलकुल परे जो लोग अभी तक उस बच्चा ईश्वर के मनोरंजक खिलौने में उलझे पड़े थे। उन की दुनिया के सारे झंझट, सारे संशय वहीं खत्म हो चुके थे, जहाँ उन्हों ने खुद को उस खिलौने का एक अवयव, एक स्क्रू, एक कील या सजावट का कोई सामान समझ लिया था। 

- दिनेशराय द्विवेदी