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शनिवार, 7 अगस्त 2010

"कल-युग-दर्शन" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का त्रयोदश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के बारह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का त्रयोदस सर्ग "कल-युग-दर्शन" प्रस्तुत है ................ 
* यादवचंद्र *

त्रयोदश सर्ग
कल-युग-दर्शन 
 
मत बांध खुदा की फितरत को 
आजाद खुदई, कुदरत को
दोजख को, रोते जन्नत को
आदम की नादाँ जुर्रत को
                                             मत बांध
 
 
मत बांध  गँवार खदानों को 
बेवा खेतों, खलिहानों को 
साहिल पर हावी मौजों को
लावारिस मुर्दा फौजों को 
जाहिल मजहबी फसानों को
बेमतलब के भगवानों को 
                                         मत बांध
 मत छेड़ हसीन जवानी को
दो पैसे की कुर्बानी को 
शबनम में भींगे सपनों को
पहलू में सिमटे अपनों को
बे जुबाँ गरीब निगाहों को
माला पर फिरती आहों को
                                       मत छेड़
 
 
मत छेड़ हवा तूफानी जो
हर चीज कि है बेमानी जो 
मरती बेमौत बहारों को
बेहूदे सर्द 'सहारों' को
इन्साँ की बेबस हारों को
शेताँ के शोख इशारों को
                                       मत छेड़
 
 
मत बांध गीत के तालों को
दूरी को, बेसह चालों को
बर्फीली सिम-सिम चोटी को
खा गई ............ है गोटी जो 
वैसे बेजान जवानों को 
मजदूरों को, दहकानों को
                                             मत बांध
पर, बेलगाम को मैं लगाम दूंगा ही
दुनिया के मुहँ पर दो-टूक कहूँगा ही
आजाद भुजाओं का कम्पन
आजाद निगाहों का आंगन
आजाद कल्पना की पाँखें
आजाद जमाने की आँखें
आजाद तर्क तूफानी है
कलयुग का आँधी-पानी है
जो कुछ बाइबिल की काया है
वह सब मिट्टी की माया है
औ मैं धरती का बेटा हूँ
बल-बुद्धि सभी में जेठा हूँ
मैं क्यूरी, आर्क व न्यूटन हूँ 
गैलीलियो, स्टीफेंसन  हूँ
परियों के लहंगे बुनता हूँ
निर्झर से बिजली चुनता हूँ
सृष्टा मुझ से घबराता है
मेरा हर हुक्म बजाता है
 
खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
कुदरत की बे-सह चालों को
मुल्ला, पण्डित, पादरी अक्ल
पर पड़े पुराने तालों को 
बाँधूंगा मैं तो बाँधूंगा
बेहूदी हर आजादी को
उन आदमखोर खयालों को
उनस सेलम सत्यानासी को

खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
हर भेद तिलस्मी फाटक का
हर बात पुरानी बुढ़िया की 
हर राज खुदाई नाटक का
मरे आवाज न अब दम ले
कलयुग के नारे बन चिल्ला
वह देख, पूँजी का मुल्ला
लोहे का पूज रहा अल्ला

यह भीषण भौतिक परिवर्तन, 
आया ले एक नया दर्शन
उत्पादन की लौ तेज हुई,
जीवन के हुए सुलभ साधन
गाँवों की किस्मत फूट गई,
धरती की छाती टूट गई
निर्जन के भाग उछल बैठे,
अब तो दुनिया दो-टूक हुई
 
 
ढेरों उत्पादन होता है
किस्मत को कमकर रोता है
जन्नत में दौलत हँसती है
दोजख में कमकर सोता है
अन्धेर खुदा क्या होता है!
खूँ की यह चाट भयानक है
पीछे अकाल मुँह खोल खड़ा
आगे शोषण का खन्दक है
चट्-चट् हड्डियाँ चटकती हैं
मिल में, अन्धेर खदानों में
 मजदूरों में मायूसी है
औ दहशत है दहकानों में

पूँजी रह - रह चिल्लाती है
'जीना भी अजी जरूरी क्या
आकाश - धरा की दूरी क्या
अब बढ़ने में मजबूरी क्या
शासन तो मेरा चाकर है
बाजार घेर लो हिकमत से
चाहे हो जैसे भी घेरो
मजहब से चाहे ताकत से'

चिमनी मुहँ फाड़ गरजती है
काला आकाश लरजता है
भूडोल रोकता है खुद को 
खुद को तूफान बरजता है

कानूनी पहरा फाटक पर
बेली नंगी हो नाच रही
यह राज-महल की डायन है
जो युग की किस्मत बाँच रही

दम रोक जमाना खड़ा, सूर्य
वो-काला पड़ता जाता है
संतरी गेट का सोच रहा
धुंधला हर ओर दिखाता है
 
 
चिमनियाँ धुआँ जो उगल रहीं
सीधी मीनार बनाती हैं
आसार सभी ये कहते हैं
यह आँधी कोई आती है
यादवचंद्र पाण्डेय



शनिवार, 24 जुलाई 2010

"श्रम का निर्वासन"यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का द्वादश सर्ग


यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के ग्यारह सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का द्वादश सर्ग "श्रम का निर्वासन" प्रस्तुत है ................ 
* यादवचंद्र *

द्वादश सर्ग

श्रम का निर्वासन

इतिहास नया वे गढ़ते हैं
भूगोल नया वे पढ़ते हैं
पहने जो सदा लंगोटी हैं
छीनते सिन्धु से मोती हैं
पड़ जाते उन के जहाँ कदम
बन जाते हैं   जै रू से ल म 

काफिला न दम वह लेता है
सागर को चीरे देता है
युग भी रुकते थर्राता है
पथ छोड़ आल्प्स हट जाता है
विस्तृत दुनिया का हर कोना
उन चरणों का जादू - टोना

यूरप के निर्जन सुप्त भाग
दर्शन कर उन के रहे जाग
अफ्रीका बलाएँ लेता है
अमरिका सलामी देता है
न्यूजी का फाटक खुलता है 
वेरिंग का चामर डुलता है
रूढ़ियाँ खड़ी अकुलाती हैं
सीमाएँ सिकुड़ी जाती हैं

कडि़याँ खुल रही दिशाओं की
द्वीपों - देशों - दरियाओं की
सागर - उपकुल - गुफाओं की 
पश्चिम की हवा, बहावों की
शापित बेड़े लहराते हैं
आगे जो बढ़ते जाते हैं
ज्वारों में अलख जगाते हैं
झंझा से आँखें लड़ाते हैं
प्लावन उन को नहलाते हैं
सूरज आरती सजाते हैं
चांदनी पावड़े बिछाती है
जल परियाँ गीत सुनाती हैं
युग-परिवर्तन भीषण यह है
चौपड़ का एक नया सह है
पर अन्तिम बात न भूलूंगा
तेरा सच तुझ से कह दूंगा



?
जब मातृ भूमि लंजिका बनी
मुझ पर युग की तलवार तनी
तब भूमि विदेशी अपनी बन
पय पिला किया मेरा पोषण
कहता जो धरा विभाजित है
वह माँ-घाती है, नास्तिक है


जो राष्ट्र !राष्ट्र ! चिल्लाता है
वह अपना स्वार्थ जुगाता है
मानव की कोख लजाता है
हिंसा को ठोक जगाता है
भू के सम्पूर्ण कलषु कुत्सित
इस राष्ट्र प्रेम में हैं संचित
यह सब बनिकों की माया है
शोषक की छलना, छाया है
यह प्रकृति-सनातन धर्म नहीं 
यह मनुज-सहज-कृत कर्म नहीं
यह राष्ट्र-व्यष्टि का पाप सघन
सबलों की पूजा, स्तुति वंदन
निर्बल का पी कर खून पला
यह राष्ट्र-घिनौना कोढ़ गला



मानवता मूढ़. अपंग बनी
जब कभी युद्ध की आग जली
फासिस्तवाद हूँकार उठा
जब राष्ट्र खींच, तलवार उठा
बलि चढ़ने लगी जवानों की 
बूढ़ों-बच्चों-नादानों की 
गाँवों-खेतों-खलिहानों की
आँचल में बँधे फसानों की
सबलों का वर्ग बढ़ा आगे
निर्बल घर छोड़ सदा भागे
संस्कृति-सभ्यता-कला-चिन्तन
सिर पर रख तृण मांगे जीवन

यह राष्ट्र मनुज का भक्षक है
यह इंद्रपुरी का तक्षक है
यतह गोरखधंधा, त्राटक है
यह एक घिनौना नाटक है
साम्राजी अघ की टट्टी है
कमजोर ईंट की भट्टी है
यूरप में बढ़ी तिजारत जो 
उस से उठ गई इमारत जो
उस में पुतलियाँ झमकती  जो
रेशम की डोर चमकती जो
सुन लो, क्या कह चिल्लाती है
किस की वह टेर बुलाती है
'उत्पादन तेज करो, दौड़ो
मारो औ मरो-बढ़ो, दौड़ो
उत्कर्ष चतुर्दिक होता है'
कुनबे में कर्मकर रोता है
बनियों का दशादर्श जगा
घर छोड़ श्रमिक परदेश भगा


X  X  X  X  X  X  X  X  

परदेशी का कोई 
राष्ट्र नहीं होता है प्यारे 
श्रम उन्नायक सारी 
धरती का नेता है प्यारे
वह जो छू दे माटी
सोना बन जाती है प्यारे
उस की एक फूँक से 
अलका घबड़ाती है प्यारे
विजन अमरिका कल ही
नन्दन बन जाएगा
बात दूसरी, उस को
वह भोग नहीं पाएगा

किन्तु उसे क्या गम है
चिनगारी जहाँ उड़े
जले फ्रांस और जर्मन
जारों से लपक भिड़े
सन सत्तावन की लौ
भभके औ भभक पड़े
गिरे चीन पर बिजली
कुमितांगो शीश जड़े
जान बचा कर अपनी 
हटे पूर्व-पश्चिम से
मिहनतकश का दुश्मन
उत्तर से दक्षिण से

श्रमिक वर्ग का एका
जिन्दाबाद रहेगा
बँटे धरा पर वह तो
ध्रुव अविभाज्य रहेगा
राष्ट्रवाद का घेरा धरा-गगन क्या बांधे
क्षुद्र स्वार्थ का साधक महा साध्य क्या साधे

******************************* 
यादवचंद्र पाण्डेय

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

"बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का एकादश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के दस सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब ग्यारहवें सर्ग से इस का द्वितीय खंड आरंभ होता है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का एकादश सर्ग "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" प्रस्तुत है ................ 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

एकादश सर्ग
 
 "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का"
 
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
रोमन समराजी भागा -
उज्जैन खरे सोने का
कहलाने लगा अभागा -
दासों की गई मुसीबत
जेरूसेलम ने रागा -
जो चमका स्वर्ण सवेरा
वह तो था 'मिरगा' चमका
जो भरता था खर्राटा
वह देख जमाना जागा
उठ, उठ हौवा के बेटे
आवाज तूर से आई
उठ अपनी मुक्ति बना ले
केरल में बोले कागा -
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
 
यह शुभ बेला है हल्दी
अक्षत से पूजित गोदें
घर-घर में बजे बधावा
आए नव पाहुन भोले
जय हो नव आगत जन की
तू भू का श्रेष्ठ रतन है
तू ब्रह्म अंश अविनाशी
स्रष्टा का श्रेष्ठ रतन है
निज कर्मों से है पूजित
तू पतित, हीन ले मन है - 
तन पूर्व पुण्य का फल है
औ, इस का एक नियम है
पण्डित की -- ठेकेदारी
पादरी, मौलवी बाँटे -
अब खट पट एक करे तो
दूसरा उछल कर डाँटे
अब देख तमाशा देख-देख अब दे - ख ........
 
जल कोस-कोस पर बदले
औ तीन कोस पर बानी, 
दस-पाँच कोस पर बदले
अब राजा की रजधानी,
क्या रोम अरब,  क्या भारत
सब करे जमीं का ठेका,
जो ऊपर चढ़ के देखा
तो घर-घर एके लेखा
सूरज के वंशज देखो,
महलों में ढिबरी जारे,
जो छीने इंद्रासन अब
रैयत को मारे - डारे -
हो गया खिराज खड़ कर
पैदा का एक तिहाई
ऊपर से अमला-फैला
लूटे धन कर कस्साई -
कब कौन माण्डलिक बन कर 
जा राज सभा में राजे,
यह कौन जानता है जी
कब किस की किस्मत गाजे -
यह देखो राजा - रानी 
का झगड़ा - रगड़ा - पचड़ा
यह पहलू बड़ा कठिन है
कब पड़े कौन सा तगड़ा
अब करे किसानों का सौदा
भामा जी का कर्ज चलावें,
सम्राट मांगने कर्जा
घर मामाजी के धावें -
पण्डित जी देखो बाटें
घर वैश्यों के जा गजला
जो शूद्र कभी कहलाए
अब लगे कहाने महरा -
यह देख तमाशा देख-देख भई दे - ख
 
है हिस्सा का बंटवारा
बड़ चलो भाइयों लड़ने !
नेता के एक हुकुम पर
चढ़ चलो भाइयों मरने !
बन गया कुरानी मन्तर
नंगे तेगा का पानी
अरबी घोड़ों पर बैठी
निकली बे फ़ाँट जवानी
कज्जाक, तुर्क, मंगोलों 
के छोरे बड़े चकोड़े
बाजार गरम इसलामी
ये बे लगाम के घोड़े,
रावी - झेलम का पानी
नापाक हुआ पण्डित जी,
अब बौद्ध, ब्राह्मणों देखो
ताकत अपनी चण्डी की,
खूँ-धर्म-सभ्यता-संस्कृति
का फेंट अनोखा देखो-
अब अपने आदर्शों का 
यह खिचड़ी चोखा देखो
उठ देख तमाशा देख-देख अब दे -ख 
 
आ रहा कबीरा देखो--
नौ मन का हीरा देखो --
 जो बात न अब तक देखी --
 वह कहे कबीरा देखो --
पण्डित चितकबरा देखो --
मस्जिद का लबरा देखो --
साधू मुस्टंडा देखो --
सतयुगिया गुण्डा देखो --
वह दीन ऐलाही देखो --
मजहबी तबाही देखो --
आदाब बजाती मुल्ला --
के संग हरजाई देखो --
मरहट्टी दुर्गा देखो --
सामंती गुर्गा देखो --
उस ओर पोप का खेला
ठंडा हो रहा झमेला देखो
हरि बोल ! धरम है भैया
अब चार दिशाओं का मेला,
जर्मन की जागी जनता
विद्रोह किसानों का है
यह पोप ढोंग का पुतला
ऐलान जवानों का है
इंग्लेंड - फ्रांस और इटली
का बनिया डंडी मारे
जो राजा अब आँख दिखाए
तो तिरिया - चरित पसारे
यह लेन--देन का सौदा
है बीच बजरिया देखो --
दरबार मुगलिया देखो --
बेजोड़ पतुरिया देखो --
जन्नत की जुल्फें देखो --
खुलते हैं कुलफे देखो --
जलते हैं सुलफें देखो --
चलती हैं हलफें देखो --
यह लाल परी है मेरी --
बाकी सब कुछ है तेरा 
नीलाम चढ़ी है उल्फत
अब इम्तिहान है मेरा --
यह देख तमाशा देख -- देख उठ  दे--ख

लो, जोश जाति का उबला
आदर्श पुराना मचला
पर बुझते हुए चिरागों
का व्यर्थ सभी है मसला
जनता को स्वाद लहू का
मिल गया उसे दो भेड़ा
भेड़ा तुम जिसे समझते
अह वह है उड़न बछेड़ा
जो कृषक दलालों के हैं
दरबारी  पाग--पगड़िया
जागीर लगे हथियाने
बन कर के पंच हजरिया
हो गया गाँव का हिस्सा
ले देख नया यह किस्सा
मुखिया जी लगे पढ़ाने
अब गाँव--टोल को झिस्सा
दरबारी  लटरम-पटरम
घुस गया गाँव में देखो--
जो बात न अब तक देखी 
यह बात गुलहिया देखो--
यह देख तमाशा देख-देख अब देख

पण्डित-अल्लामा देखो--
गँवई श्री नामा देखो--
वह चुप्पा भोगी देखो--
हर जोता योगी देखो--
सामन्त समागम देखो--
हसुआ का आगम देखो--
 
दरबार झमकता देखो
 है गाँव बनकता देखो
है ताजमहल वह देखो
यह फूटा चंबल देखो
वह फूल सेजरिया देखो
यह मुफ्त कहरिया देखो
रंगीन कहानी देखो
बर्बाद जवानी देखो
वल्लाह ! अटारी देखो
व, भूख, बेगारी देखो
जुल्मत के कोड़े देखो
जिस्मों पर फोड़े देखो
हंसों के जोड़े देखो
जीवन सुख मोड़े देखो
महलों के डोले देखो
खेतों के शोले देख
 
लड़ती तस्वीरें देखो
लड़ती तकदीरें देखो
बनती तस्वीरें देखो
मिटती तस्वीरें देखो
खेला खतमा देखो
पैसे का हजमा देखो
उठ, देख तमाशा खत्म हुआ घर दे-ख !!!
यादवचंद्र पाण्डेय

 

गुरुवार, 24 जून 2010

'काला शुक्ल पक्ष' यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का दशम् सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के नौ सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का दशम् सर्ग ' काला शुक्ल पक्ष' प्रस्तुत है ......... 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

दशम् सर्ग

' काला शुक्ल पक्ष'


काव्य-न्याय, अलंकार-रक्षा स्तुत्य है कि,
सब कुछ सुखान्त पूर्ण, वाणी है गेय भी
स्वर्णयुग- भारत का लक्ष्यकाल, व्यास है
वृत्त विशद्, दिव्य पात्र, निष्ठा अजेय भी

अन्तर के तेजस से जगमग मिलिन्द है
ज्योतित कनिष्क का विस्तृत आदर्श देख
प्रखर ध्रुव युगादित्य भासित है विश्व में
शीतल समीर फैल गया हर्ष देख


भास, नाग, कालिदास, कवि बाणभट्ट से
अक्षर कृतिकारों की रचना अमर हुई
रत्नों का तेज जो न छीजता कभी भी
कि जो कुछ अव्यक्त-गेय, वाणी मुखर गई

वीणावर वादिनी किस की अनुगामिनी ?
भूपति के राज दण्ड, विधि-विद्या की। किन्तु 
सत्य शिव सुन्दर की परिणति नैराश्य क्यों
ऊसर पुण्य कुक्षि हाय, सूखा क्यों सिंधु

स्वर्णयुग-साधन सब सुंदरतम हैं
स्वर्णयुग-ब्राह्मण की शक्ति न कम है
स्वर्णयुग-कविगण वृत्ति मिल गई
स्वर्णयुग-राजा को भक्ति न कम है

शाश्वत, वृहत्तम तब साधनों की परिणति
अन्धकार घोर पतन, अनिश्चितता क्यों
स्वर्णयुग कि संकर गुण ऊर्ध्वमुख हो गये
सिंहासन बत्तीसी का ढूह बचा क्यों?


नाम हीन, गोत्र हीन वीर्य बने भूपति
'रक्षां मा चलऽ....'  द्विज सूत्र आबद्ध हो
स्वर्णयुग आज जनगण से कटा कटा है
समीपस्थ, सब प्रमाण दौड़ खड़े हो

बुद्धवाद के विरुद्ध तू चक्रवात है
साम्राज्यवाद के बीज-मंत्र देख !
तेरे अखण्ड जाप चल रहे आज भले
किन्तु रश्मि-हीन रवि होगा द्रुत शेष

देख! भवभूति, भास चीख रहे क्लेश से
 सत् जन गुणवान सुलभ, पारखी नहीं,
लेकिन अवरोधों की गोद पली लली कला
हुई कैद महलों में आज तक कहीं ?

स्वस्ति पाठ- 'द्रोह शांत युग के रहा करें
शास्त्रानुकूल हो मेनका प्रवृत्ति
तुंगऽस्तनी की दुन्दुभी बजा करें'
अपहृता नारियाँ निरीह भला कला कृति!

बोद्ध श्रमण-शीर्ष का उच्छेदन-घोर पाप!
धिक धिक ! रे स्वर्णयुग तू कितना निकृष्ट है
चाटुकार विधि-विधान खड़े क्लीव मुद्रा में
ऐसे में न्याय धर्म - धोखे का पृष्ठ है

बुद्धवाद गंदला है, फिर भी निःसीम है
व, गति औ विस्तार का बन्धन अधर्म है
स्वर्णयुग भारत का - बन्धन की क्रिया है
जो न तो साधन है, साध्य का सुकर्म है

बातें अजंता, ऐलोरा की व्यर्थ हैं
मूल बात दर्शन की व्यापकता, थिरता है
जन जीवन-दर्शन में साम्य नहीं होगा तो
कौतुहल मात्र से क्या बनता, बिगड़ता है

औ, पशु पक्षी पर बाह्य कला हावी है
मानव है सृष्टि का विशेष रत्न चिन्तन से
त्रस्त-दृष्टिकोण जन्य काव्य कला जो भी हो
सुघड़ पर दिशाहीन और हीन जीवन से

चांद क्षीण होता है, फिर भी सैद्धांतिक है
जीवन में प्रतिमाह पूनम ध्रुव, सत्य है
शासन के बनते इकाई-दहाई से 
होता क्या, जब तक जन-जीवन विभक्त है

गतिशील दृष्टिकोण जीवन का और है
देश-राज गौण वहाँ, धरती अविभाज्य है
उस का परिधि-मान पूर्णमुक्त शासक से 
बन्धन है पूर्वाग्रह और रूढ़ि त्याज्य है

शंबूक का शीश राम काटे अन्याय है
चाहे हो गुप्त काल या कि राम राज हो
भ्रम पर भी स्वर्णिम नक्काशी हो सकती है
तर्क भला मानेगा श्रद्धा के जाल को?


कौपणीय कर्म से न जीवन समावृत्त है
वह तो जगाता है मरघट, मसान को 
रूढ़ रीति नीत, बनी विमुख जमाने से 
कैसे उभारेगी उर्ध्वमुख ज्ञान को ?

बुद्ध की बगावत में जनता प्रतिबिंबित है
गुप्तकाल इस के विरुद्ध घोर मट्ठा है
यूनानी फरमा जो मध्य एशियाई को
राजतिलक दे दे कर राजपूत बनाता है

बनती-बिगड़ती चली गईं कलाकृतियाँ
किन्तु वह 'छठांश कर' अन्त तक समान है
ले कर चाणक्य से आवर्तक त्रिमूर्ति तक
एक ही व्यवस्था के भिन्न-भिन्न मान हैं

नश्वर है ! पतित है ! यह समुद्र गुप्त भी 
और राज तन्त्र भी, जनता की वाणी है
पूरब से पश्चिम औ उत्तर से दक्षिण तक
जीता है कौन, बनी किस की कहानी है?

कलियुग व स्वर्णकाल कहने से होता क्या
कहना ही है, तो दो उत्तर इन प्रश्नों का -
धरती की जोतों का हलधर से रिश्ता क्या,
कर विहीन कौन वर्ग वृत्त रहा जोतता ?


हस्तशिल्प जिस का सर्वाधिक महत्व है
वैसे शिल्पकारों की कैसी प्रतिष्ठा है
मूल श्रम, जिस पर युग कोई भी टिकता है
स्वर्णयुग की इस में प्रदर्शित क्या निष्ठा है ?

मूल प्रश्न का जो आधार वर्ग होता है
उस की उपेक्षा-विनाश, घोर पातक है
जिस का श्रम महलों का बनता कंगूरा है
उस की न चर्चा-जघन्य कर्म, घातक है

स्वर्णकाल दासों के शोषण  पर कुण्डलिस्थ
अन्तिम भू-भक्षक है, अन्तिम मणियारा है
रोमन साम्राज्य स्वतः अन्तर्विरोधों में
टिम्-टिम कर बुझता सुबह का सितारा है

दीर्घबाहु सिमटे हैं, मनु का जनाजा है
वर्णों का एकाधिकार देख, जलता है 
कटा-छटा दुनिया से, एक निष्ठ, आत्मसात
सत्ता के सिर पर विशाल विश्व चलता है

* * * * * * * * * *

यादवचन्द्र पाण्डेय