यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के बारह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है। इसे आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का त्रयोदस सर्ग "कल-युग-दर्शन" प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *
त्रयोदश सर्ग
कल-युग-दर्शन
मत बांध खुदा की फितरत को
आजाद खुदई, कुदरत को
दोजख को, रोते जन्नत को
आदम की नादाँ जुर्रत को
मत बांध
मत बांध गँवार खदानों को
बेवा खेतों, खलिहानों को
साहिल पर हावी मौजों को
लावारिस मुर्दा फौजों को
जाहिल मजहबी फसानों को
बेमतलब के भगवानों को
मत बांध
मत छेड़ हसीन जवानी को
दो पैसे की कुर्बानी को
शबनम में भींगे सपनों को
पहलू में सिमटे अपनों को
बे जुबाँ गरीब निगाहों को
माला पर फिरती आहों को
मत छेड़
मत छेड़ हवा तूफानी जो
हर चीज कि है बेमानी जो
मरती बेमौत बहारों को
बेहूदे सर्द 'सहारों' को
इन्साँ की बेबस हारों को
शेताँ के शोख इशारों को
मत छेड़
मत बांध गीत के तालों को
दूरी को, बेसह चालों को
बर्फीली सिम-सिम चोटी को
खा गई ............ है गोटी जो
वैसे बेजान जवानों को
मजदूरों को, दहकानों को
मत बांध
पर, बेलगाम को मैं लगाम दूंगा ही
दुनिया के मुहँ पर दो-टूक कहूँगा ही
आजाद भुजाओं का कम्पन
आजाद निगाहों का आंगन
आजाद कल्पना की पाँखें
आजाद जमाने की आँखें
आजाद तर्क तूफानी है
कलयुग का आँधी-पानी है
जो कुछ बाइबिल की काया है
वह सब मिट्टी की माया है
औ मैं धरती का बेटा हूँ
बल-बुद्धि सभी में जेठा हूँ
मैं क्यूरी, आर्क व न्यूटन हूँ
गैलीलियो, स्टीफेंसन हूँ
परियों के लहंगे बुनता हूँ
निर्झर से बिजली चुनता हूँ
सृष्टा मुझ से घबराता है
मेरा हर हुक्म बजाता है
खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
कुदरत की बे-सह चालों को
मुल्ला, पण्डित, पादरी अक्ल
पर पड़े पुराने तालों को
बाँधूंगा मैं तो बाँधूंगा
बेहूदी हर आजादी को
उन आदमखोर खयालों को
उनस सेलम सत्यानासी को
खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
हर भेद तिलस्मी फाटक का
हर बात पुरानी बुढ़िया की
हर राज खुदाई नाटक का
मरे आवाज न अब दम ले
कलयुग के नारे बन चिल्ला
वह देख, पूँजी का मुल्ला
लोहे का पूज रहा अल्ला
यह भीषण भौतिक परिवर्तन,
आया ले एक नया दर्शन
उत्पादन की लौ तेज हुई,
जीवन के हुए सुलभ साधन
गाँवों की किस्मत फूट गई,
धरती की छाती टूट गई
निर्जन के भाग उछल बैठे,
अब तो दुनिया दो-टूक हुई
ढेरों उत्पादन होता है
किस्मत को कमकर रोता है
जन्नत में दौलत हँसती है
दोजख में कमकर सोता है
अन्धेर खुदा क्या होता है!
खूँ की यह चाट भयानक है
पीछे अकाल मुँह खोल खड़ा
आगे शोषण का खन्दक है
चट्-चट् हड्डियाँ चटकती हैं
मिल में, अन्धेर खदानों में
मजदूरों में मायूसी है
औ दहशत है दहकानों में
पूँजी रह - रह चिल्लाती है
'जीना भी अजी जरूरी क्या
आकाश - धरा की दूरी क्या
अब बढ़ने में मजबूरी क्या
शासन तो मेरा चाकर है
बाजार घेर लो हिकमत से
चाहे हो जैसे भी घेरो
मजहब से चाहे ताकत से'
चिमनी मुहँ फाड़ गरजती है
काला आकाश लरजता है
भूडोल रोकता है खुद को
खुद को तूफान बरजता है
कानूनी पहरा फाटक पर
बेली नंगी हो नाच रही
यह राज-महल की डायन है
जो युग की किस्मत बाँच रही
दम रोक जमाना खड़ा, सूर्य
वो-काला पड़ता जाता है
संतरी गेट का सोच रहा
धुंधला हर ओर दिखाता है
चिमनियाँ धुआँ जो उगल रहीं
सीधी मीनार बनाती हैं
आसार सभी ये कहते हैं
यह आँधी कोई आती है
यादवचंद्र पाण्डेय |