मेरे दोस्त और आप के लिए अब अजनबी नहीं पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़लों की महफिल में।
पढ़िए हालात पर मौजूँ उन की ये बेहतरीन ग़ज़ल...
खो रही है ज़िन्दगी
पुरुषोत्तम 'यकीन'
भूख से बिलख-बिलख के रो रही है ज़िन्दगी
अपने आँसुओं को पी के सो रही है ज़िन्दगी
चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी
या सड़क की कोर पर ठिठुर रही है ठंड में
या क़दम-क़दम पसीना बो रही है ज़िन्दगी
नौचते हैं वासना के भूखे भेड़िए कभी
जब्र की कभी शिकार हो रही है ज़िन्दगी
हड्डियों के ढाँचे-सी खड़ी महल की नींव में
पत्थरों को नंगे सर पे ढो रही है ज़िन्दगी
अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी
बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में
कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी
कीजिए 'यक़ीन' मैं ने देखी .ये हर जगह
लीजिए संभाल वरना खो रही है ज़िन्दगी
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