@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: गज़ल
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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल ... खो रही है ज़िन्दगी

आज फिर से आप को ले आया हूँ, 
मेरे दोस्त और आप के लिए अब अजनबी नहीं  पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़लों की महफिल में।

पढ़िए हालात पर मौजूँ उन की  ये बेहतरीन ग़ज़ल...

खो रही है ज़िन्दगी
पुरुषोत्तम 'यकीन'

भूख से बिलख-बिलख के रो रही है ज़िन्दगी
अपने आँसुओं को पी के सो रही है ज़िन्दगी

चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी

या सड़क की कोर पर ठिठुर रही है ठंड में
या क़दम-क़दम पसीना बो रही है ज़िन्दगी

नौचते हैं वासना के भूखे भेड़िए कभी
जब्र की कभी शिकार हो रही है ज़िन्दगी

हड्डियों के ढाँचे-सी खड़ी महल की नींव में 
पत्थरों को नंगे सर पे ढो रही है ज़िन्दगी
अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी

बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में 
कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी

कीजिए 'यक़ीन' मैं ने देखी .ये हर जगह
 लीजिए संभाल वरना खो रही है ज़िन्दगी
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सोमवार, 25 अगस्त 2008

मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है.... शतकीय नमन ....

अनवरत का यह सौवाँ आलेख है। 20 नवम्बर 2007 को प्रारंभ हुई यह यात्रा सौवेँ पड़ाव तक कैसे पहुँचा? कुछ भी पता न लगा। स्वयँ को अभिव्यक्त करते हुए, दूसरे ब्लागरों को पढ़ते हुए, विचारों को आपस में टकराते हुए, नए मित्रों को अपने जीवन में शामिल करते हुए, कुछ सीखते हुए, कुछ बताते हुए और कुछ बतियाते हुए....

यह यात्रा अनंत है, चलती रहेगी, अक्षुण्ण जीवन की तरह ... अनवरत...
इस आलेख पर कुछ कहने को विशेष नहीं इस के सिवा कि सभी ब्लागर साथियों का खूब सहयोग मिला। उन का भी जिन्हों ने कभी आ कर मुझ से असहमति जाहिर की। सहमति से भले ही उत्साह बढ़ता हो, मगर असहमति उस से अधिक महत्वपूर्ण है, वह विचारों को उद्वेलित कर नया सोचने को बाध्य करती है, विचार प्रवाह को तीव्र करती है।
सहयोगी और मित्र साथियों के नामों का उल्लेख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि किसी न किसी के छूट जाने का खतरा अवश्यंभावी है। सभी साथियों को शतकीय नमन!

इस अवसर पर कुछ और न कहते हुए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़जल के माध्यम से अपनी बात रख रहा हूँ.....
मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है
पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

*
सो न जाना कि मेरी बात अभी बाक़ी है
अस्ल बातों की शुरुआत अभी बाक़ी है
**
तुम समझते हो इसे दिन ये तुम्हारी मर्ज़ी
होश कहता है मेरा रात अभी बाक़ी है 

***
ख़ुश्बू फैली है हवाओं में कहाँ सोंधी-सी
वो जो होने को थी बरसात अभी बाक़ी है 

****
घिर के छाई जो घटा शाम का धोका तो हुआ
फिर लगा शाम की सौग़ात अभी बाक़ी है 

*****
खेलते ख़ूब हो, चालों से तुम्हारी हम ने
धोके खाये हैं मगर मात अभी बाक़ी है 

******
जो नुमायाँ है यही उन का तअर्रुफ़ तो नहीं
बूझना उन की सही ज़ात अभी बाक़ी है 

*******
रुक नहीं जाना 'यकीन' आप की मंजिल ये नहीं
मंजिलों से तो मुलाक़ात
अभी बाकी है
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गुरुवार, 7 अगस्त 2008

लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं ...... पुरुषोत्तम 'यकीन की ग़ज़ल

पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......


लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं

 पुरुषोत्तम 'यकीन'


न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
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muslim.outrage.over.pope.benedict.2

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है "गज़ल"

आप ने अनवरत पर महेन्द्र 'नेह' की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। आज आप के हुजूर में पेश कर रहा हूँ, ऐसे शायर की गज़ल जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी है। जिस ने बहुत देर से उर्दू सीखी और जल्द ही एक उस्ताद शायर हो गए। ये पुरुषोत्तम 'यकीन' हैं। अब तक इन के पाँच गज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हो सकता है विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इन की रचनाएँ आप पढ़ भी चुके हों। यकीन साहब मेरे मित्र भी हैं और छोटे भाई भी। उन के बारे में विस्तार से किसी अगली पोस्ट पर। अभी आप उन की ये गज़ल पढ़िए..........
थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है
पुरुषोत्तम 'यकीन'
रोशनी कर ज़रा अंधेरा है
कोई दीपक जला, अंधेरा है

यूँ तो अकेले मारे जाएंगे
हाथ मुझ तक बढ़ा, अंधेरा है

खोल दरवाजे खिड़कियाँ सारी
मन के परदे हटा, अंधेरा है

लम्स* से काम चश्म* का लेकर
पाँव आगे बढ़ा, अंधेरा है

राह सूझे न हम सफर कोई
आज सचमुच बड़ा अंधेरा है

औट कैसी है छुप गया सूरज
दिन है लेकिन घना अंधेरा है

दूर रहना 'यकीन' ठीक नहीं
थोड़ा नजदीक आ, अंधेरा है
*लम्स= स्पर्श
*चश्म= आँख
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