21 अक्टूबर, 1928 को ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने लिखा - ‘बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है। ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।’

लेकिन गांधीजी पहले कहते हैं – “बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो.” इस तरह वे यहाँ सीधे सीधे कम्युनिज्म की बात करते हैं।
वे इस अवस्था को सही मानते हुए कहते हैं कि “यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता.” लेकिन फिर आगे कहते हैं “परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है. ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।”
उन का मतभेद यहाँ उस अवस्था अर्थात कम्युनिज्म तक पहुँचने में नहीं है। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए जो सर्वहारा के अधिनायकवाद या “वैज्ञानिक समाजवाद” की स्थापना लेनिन करते हैं उस की आलोचना वे करते हैं क्यों कि वे कहते हैं कि “इस में जबर्दस्ती से काम लिया जाता है”। इस के समानान्तर वे “ट्रस्टीशिप” का सिद्धान्त ईजाद कर लेते हैं।
इस तरह गांधीजी वस्तुतः “वैज्ञानिक समाजावाद”, सर्वहारा अधिनायकवाद” और साम्यवाद की अवधारणा को ठीक से समझ ही नहीं सके थे। उन्हों ने उसे समझने की चेष्टा भी नहीं की थी। अन्यथा वे देख पाते कि पूंजीवाद में जनता का जितना दमन पूंजीवादी सरकारें करती हैं, उतना सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में नहीं होता। समाजवाद में सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के साधन छिन जाते हैं। लेकिन शेष जनता को जो नए अधिकार मिलते हैं उस का दुनिया में इस से पहले कोई सानी नहीं था। “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” के सिद्धान्त गांधीजी के बहुत पहले अस्तित्व में आ चुके थे। यदि “समाजवाद” के समानान्तर उन्हें “ट्रस्टीशिप की व्यवस्था” की बात करने के पहले उनके लिए आवश्यक था कि वे पहले मार्क्सवाद के “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” की अवधारणाओं को ठीक से समझकर खंडन करते और फिर “ट्रस्टीशिप” के सिद्धान्त को तार्किक तरीके से स्थापित करने की कोशिश करते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।
सही बात तो यह है कि गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की आजादी के लड़ रहे थे और उनकी इस लड़ाई में देश के अनेक सामंत और पूंजीपति भी उन के साथ थे। इस तरह वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था की उच्चतर अवस्था साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, उस लड़ाई में वे पूंजीपतियों को भी साथ लिए थे। जिस से पूंजीवाद की आलोचना उन के लिए संभव नहीं थी। साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना संभव नहीं थी। उसकी आलोचना से उन के साथ जमीनी लड़ाई लड़ रहे करोडों किसान, मजदूर और मेहनतकश जनता उन के आंदोलन से दूर हो जाती। इस कारण उन्हों ने साम्यवाद तक पहुँचने के लिए एक पूरी तरह अव्यवहारिक “ट्रस्टीशिप” सिद्धान्त खड़ा कर दिया। यह सीधे-सीधे भारत के करोडों किसानों, मजदूरों और मेहनतकश जनता के साथ गांधीजी का छल था।