मारुति सुजुकी इंडिया के डीजल कार बनाने वाले मानेसर कारखाने में पिछले दिनों हुई घटनाओं से सभी अवाक् हैं। ऐसे समय में जब कि दुनिया भर की बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मंदी से जूझ रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश को ताक रही है, कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस बड़े और कमाऊ उद्योग में ऐसी घटना भी हो सकती है जिस में बड़ी मात्रा में आगजनी हो, अधिकारी और मजदूर घायल हों किसी की जान चली जाए। कारखाने के अधिकारियों, कर्मचारियों और मजदूरों पर अचानक आतंक का साया छा जाए। मजदूर पलायन कर जाएँ और कारखाने में अस्थाई रूप से ही सही, उत्पादन बंद हो जाए।
मारुति उद्योग में प्रबंधन और मजदूरों के बीच विवाद नया नहीं है। मार्च 2011 में यह खुल कर आ गया जब ठेकेदार मजदूर अपनी यूनियन को मान्यता देने की मांग को लेकर टूल डाउन हड़ताल पर चले गए। प्रबंधन ठेकेदार मजदूरों को अपना ही नहीं मानता तो वह इस यूनियन को मान्यता कैसे दे सकता था? इसी मांग और अन्य विवादों के चलते सितंबर 2011 तक तीन बार कारखाने में हड़ताल हुई। सितंबर की हड़ताल में तो मारूति के सभी मजदूरों और अन्य उद्योगों के मजदूरों ने भी उन का साथ दिया। कुछ अन्य मामलों पर बातचीत और समझौता भी हुआ, लेकिन यूनियन की मान्यता का विवाद बना रहा। जिस से मजदूरों में बैचेनी और प्रबंधन के विरुद्ध आक्रोश बढ़ता रहा। मजदूरों का मानना पूरी तरह न्यायोचित है कि संगठन बनाना और सामुहिक सौदेबाजी उन का कानूनी अधिकार है। लेकिन इस अधिकार को स्वीकार करने के स्थान पर प्रबंधन ने यूनियन के नेता को तोड़ने की घृणित हरकत की। आग अंदर-अंदर सुलगती रही और एक हिंसक रूप ले कर सामने आई। अब एक तरफ इस घटना को ले कर प्रबंधन और सरकार की ओर से यह प्रचार किया जा रहा है कि मजदूर हिंसक और हत्यारे हैं, तो दूसरी ओर मजदूरों के पक्ष पर कोई बात नहीं की आ रही है। एक वातावरण बनाया जा रहा है कि मजदूरों का वर्गीय चरित्र ही हिंसक और हत्यारा है। उद्योगों के प्रबंधन और राज्य द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा को जायज ठहराया जा रहा है। इस मामले में हुई एक प्रबंधक की मृत्यु को हत्या कहा जा रहा है।
कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था। इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया। इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया। उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है? उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।
क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं? वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता। करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन। मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों। लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे। ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है। मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती। इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?
इस हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती। लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है। कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी। कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती? लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता। लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था। इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता। एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता। उस का सब से महत्वपूर्ण कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है। यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता। इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है। मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।
कहा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था? उस का कारण क्या था? यदि मजदूर वर्ग को हत्यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं। इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है। ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे। फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है। किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए।
कारखाने में बलवा हुआ, आगजनी हुई और एक व्यक्ति जो आगजनी से बच नहीं सका उस की मृत्यु हो गई। वह प्रबंधन का हिस्सा था, वह कोई मजदूर भी हो सकता था। इस तथ्य पर जो तमाम सेसरशिप के बाद भी सामने आ गया है किसी का ध्यान नहीं है कि मजदूर को पहले एक सुपरवाइजर ने जातिसूचक गालियाँ दीं, प्रतिक्रिया में मजदूर ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दिया। इन दो अपराधों में से जातिसूचक गाली देना कानून की नजर में भी अधिक गंभीर अपराध है, लेकिन इस अपराध के अभियुक्त को बचाया गया और थप्पड़ मारने वाले को निलंबित कर दिया गया। उस के बाद मजदूरों ने सवाल उठाया कि बड़ा अपराध करने वाले को बचाया जा रहा है तो छोटे अपराध के लिए मजदूर को निलंबत क्यों किया जा रहा है? उन्हों ने उसे बहाल करने की मांग की जिस से उत्पन्न तनाव बाद में बलवे में बदल गया।
क्या प्रबंधन के 500 व्यक्ति कारखाने के अंदर संरक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति हैं? वे शेष 1500 स्थाई और 2500 ठेकेदार मजदूरों के प्रति कोई भी अपराध करें, सब मुआफ हैं, एक मजदूर किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता। करे तो उस पर न तो प्रबंधन कोई कार्यवाही करे और न ही पुलिस प्रशासन। मजदूर किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए सचेत लोग नहीं, जो इरादतन काम करते हों। लगातार दमन किसी न किसी दिन ऐसा क्रोध उत्पन्न कर ही देता है जो भविष्य के प्रति सोच को नेपथ्य में पहुँचा दे। ऐसा क्रोध जब एक पूरे समूह में फूट पड़े तब इस तरह की घटना अस्वाभाविक नहीं, अपितु राज्य प्रबंधन की असफलता है। मजदूर मनुष्य हैं, कोई काल्पनिक देवता नहीं, इस तरह निर्मित की गई परिस्थितियों में उन का गुस्सा फूट पड़ा तो इस की जिम्मेदारी मजदूरों पर कदापि नहीं थोपी जा सकती। इस के लिए सदैव ही प्रबंधन जिम्मेदार होता है, जो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। क्यों किसी इलाके में दंगा हो जाने पर उस इलाके के जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को अपना कर्तव्य नहीं निभाने का दोषी माना जाता है?
इस हादसे में जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस की एकल जिम्मेदारी से कारखाने का प्रबंधन और सरकार नहीं बच सकती। लेकिन बचाव का उद्देश्य मीडिया के माध्यम से प्रचार कर के घटना की जिम्मेदारी मजदूरों पर मत्थे मढ़ कर पूरा किया जा रहा है। कारखाने के ठेकदार मजदूरों की यूनियन दो वर्ष से मान्यता के लिए लड़ रही है, लेकिन उस से कहा जा रहा है कि उन का प्रतिनिधित्व गुड़गाँव के दूसरे कारखाने की यूनियन ही करेगी। कारखाने में स्टाफ और मजदूरों की दो अलग अलग यूनियनें हो सकती हैं, तो ठेकेदार मजदूरों की यूनियन स्थाई मजदूरों की यूनियन से अलग क्यों नहीं हो सकती? लेकिन कारखाना प्रबंधन तो ठेकेदार मजदूरों को उद्योग का कर्मचारी ही नहीं मानता। लगातार कामगारों के जनतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम किसी दिन तो सामने आना था। इन परिणामों को अस्वाभाविक और अपराधिक नहीं कहा जा सकता। एक जनतांत्रिक राज्य केवल धन संपत्ति की सुरक्षा करने के लिए नहीं हो सकता। उस का सब से महत्वपूर्ण कर्तव्य नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी है। यदि राज्य अपने इस कर्तव्य को नहीं निभाए तो श्रमजीवियों का यह मानना गलत नहीं कि राज्य उन्हें अपना नागरिक ही नहीं मानता। इस मामले में राज्य अपना जनतांत्रिक कर्तव्य निभाने में पूरी तरह से असफल रहा है। मानेसर दुर्घटना पूरी तरह से उसी का नतीजा है।
कहा जा रहा है कि इस घटना के पीछे किसी तरह का षड़यंत्र नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए कि मजदूर समुदाय में इतना क्रोध कहाँ से पैदा हुआ था? उस का कारण क्या था? यदि मजदूर वर्ग को हत्यारा समुदाय करार दिया जाता है तो उस का केवल एक अर्थ लिया जा सकता है कि जाँच व न्याय तंत्र निर्णय पहले ही ले चुका है और अब केवल निर्णय के पक्ष में सबूत जुटाए जा रहे हैं। इस घटना में किसी षड़यंत्र के देखे जाने पर षड़यंत्र का एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि कारखाने को हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित करने का बहाना तैयार किया जा रहा है। ऐसा होने पर तो उद्योग का प्रबंधन और गुजरात सरकार ही षड़यंत्रकारी सिद्ध होंगे। फिर यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि षड़यंत्र के आरोप से बचने के लिए प्रबंधन बार बार घोषणा कर रहा है कि उस का इरादा कारखाने को बंद करने या उसे गुजरात स्थानान्तरित करने का नहीं है। किन्तु जब उद्योग की एक इकाई गुजरात में स्थापित करने का निर्णय उद्योग के प्रबंधक कर चुके हैं तो इस संभावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता कि निकट भविष्य में गुजरात में इकाई स्थापित होने और उस से बाजार की मांग पूरा करना संभव हो जाए तो हिंसा और श्रमिक असंतोष का बहाना बना कर हरियाणा की इकाइयों को एक-एक कर बंद कर दिया जाए।
10 टिप्पणियां:
निहायत अजीब बात कि प्रबंधन और एक सरकार की साजिश है अपने एक शीर्ष अधिकारी की लेना.
कई जगह प्रबन्धन दोषी होता है तो कई जगह स्वार्थी मजदूर नेता (तथाकथित.
सही बात यह कि मजदूर आज भी शोषण का शिकार है और रहेगा और इन मजदूरों में भारत के अस्सी प्रतिशत लोग तो आते ही हैं.
दोषी हैं भ्रष्ट और सम्वेदनहीन अधिकारी और सुस्त तंत्र.
यह सदा ही एक संवेदनशील विषय रहा है, एक दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास संवादहीनता से ही फैलता है। दोनों ही एक समाज के अंग हैं और उसके ही गुण और दोष लिये जीते हैं।
आकोश का कारण पता करना गौण है। पहले अराजक तत्वों की शिनाख्त कर दण्ड मिलना चाहिये।
@ GYANDUTT PANDEY
रेल दुर्घटना पर चालक को निलंबित कर दो। बाद में पता लगे कि वह निर्दोष था, गलती मेंटीनेंस वालों की थी।
१- ज्यादातर प्रबंधन श्रमिक विवाद श्रमिक नेताओं व फेक्ट्रियों के कार्मिक प्रबंधन (जिसे आजकल एच.आर कहा जाने लगा है) की कार गुजारियों का परिणाम होता है| जिसमे आम मजदूर पीसता है|
२- जब सरकारी नियम श्रमिकों के पक्ष में थे ठेकेदारी प्रथा न के बराबर थी तब जिस तरह उन नियमों की आड़ में श्रमिक नेताओं ने आतंक फैलाया, हडताले की उसी ने श्रमिक व प्रबंधन के बीच अविश्वास की खाई को बढ़ा ये ठेकेदारी प्रथा शुरू करवाई|
आज ठेकेदार के श्रमिक को कोई भी प्रबंधन अपना नहीं मानता ये बात सही है| इसका जिम्मेदार खूद श्रमिक नेता है न कि प्रबंधन|
३- उपरोक्त घटना में जातिगत अपशब्द कहने वाली बात हजम नहीं हुई, आप वकील है कोर्ट में ऐसे ही आरोपों वाले फर्जी मुकदमें आपके सामने भी बहुत आये होंगे|
मैं इसे इस लिए गलत आरोप मानता हूँ कि आजकल कौन श्रमिक किस जात का है कारखानों में कोई पुछता तक नहीं, मेरे विभाग के छ: श्रमिकों की जाति का आजतक मुझे पता नहीं तो १५०० श्रमिकों वाले विभाग के सुपरवाइजर को हर श्रमिक की जाति का पता हो ये हजम नहीं हुआ|
बाक़ी तो श्रमिकों का एटीट्युट वो ही समझ सकता है जिसका इनसे वास्ता पड़ता है|
और मुझे तो राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र के अलावा अहमदाबाद, जोधपुर तक के श्रमिकों के नखरे देखने का सौभाग्य मिला है|
जोधपुर वाले तो बेचारे अपनी बोलचाल की संस्कृति
के हिसाब से श्रमिकों को जी जी लगाकर बात करते है पर श्रमिकों के व्यवहार से वे भी दुखी है कभी किसी कारखाना मालिक ने श्रमिक द्वारा किया गया नुकसान उसे बता दिया तो उसी वक्त श्रमिक जी काम छोड़कर चलते बनते है|
@ Ratan singh shekhawat
आप की बातें एक हद तक सही हैं। 1980 तक देश में श्रमिक आंदोलन एक हद तक सही मार्ग पर था। लेकिन बाद मे पूंजीपतियों और केन्द्रीय श्रम संगठनों के भ्रष्ट नेताओँ की कारगुजारियों ने इसे गलत रास्ते पर डाला।
श्रमिकों और प्रबंधकों से पिछले 33 वर्षों से निरंतर पाला पड़ता रहा है। उन की अच्छाइयों बुराइयों से वाकिफ हूँ। तभी इतनी दूर बैठ कर भी उन्हें समझ सकता हूँ। हादसे में मृत और घायल प्रबंधकर्मियों के प्रति मेरी भी सहानुभूति है। लेकिन जब प्रबंधन और श्रमिकों के बीच की खाई बहुत चौड़ी हो जाए तो वे शत्रु सेना की तरह भिड़ते हैं। संवेदना युद्ध के मैदान से बाहर चली जाती है। उसी तरह जैसे युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के सिपाही निर्ममता के साथ लड़ते हैं। लेकिन वे ही शांति के समय में एक दूसरे के प्रति उतने ही संवेदनशील होते हैं जितने अपने किसी परिजन के प्रति। आप भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों की अनेक मिसालें देख सकते हैं।
जनतांत्रिक ट्रेड यूनियनें अपवाद बन गई हैं। मारूति उद्योग में एक जनतांत्रिक ट्रेड यूनियन बनने की पहल हुई थी। लेकिन उस के नेताओं को आरोप पत्र दे कर नौकरी से अलग करने की साजिश हुई और बाद में उन्हें अच्छी खासी रकम दे कर कारखाने से विदा कर दिया गया। नेतृत्व विहीन श्रमिक संगठन को बरगलाना आसान होता है। घटना वाले दिन प्रबंधन के बाहरी और स्थानीय गुंडों ने बातचीत का माहौल खराब किया। श्रमिकों ने उन से पिटने के स्थान पर लोहा लेना पसंद किया।
सारे तथ्य अब धीरे धीरे सामने आ रहे हैं। मीडिया में किसी एक न्यूट्रल श्रमिक का बयान तक नहीं आया है, वह सब एकतरफा कहानी है।
@ दिनेश जी
अब मीडिया तो उसी का जो उसे हड्डी डाल दे|
पर जिस तरह से श्रमिक विवाद बढाते है उसके आजकल हर फेक्ट्री मालिक किसी न किसी तरह से स्थाई श्रमिकों को निकालने में ही लगा है|
-साथ ही यहाँ एनसीआर में कई पहलवान गुट सक्रिय हो गए जो अपनी कमाई के चक्कर में श्रमिक विवादों में कूद पड़ते है और अपना घर भरते है बिना उनके सहयोग के आजकल यहाँ कारखाने चलाना दूभर हो रहा है|
मजदूरों में भी थोड़ा सा ही संयम नहीं, कुछ भी सुनने को राजी नहीं, सब यूनियन का जोर दिखाते है| इसलिए अच्छे फेक्ट्री मालिक भी अब स्थाई श्रमिक रखने से बचता है|
साथ ही फेक्ट्रियों का एचआर विभाग भी इस आग में घी डालने में कम नहीं रहता विवाद चलते रहेंगे तो उनकी कमाई भी होती रहेगी|
पीसता श्रमिक व फेक्ट्री मालिक ही है| बाकि बीच वाले सब मजे लुटते है|
दिन रात खटकर जो मकान बनाता है, उसमें रहने की सोच भी नहीं पाता है। वह मजदूर जो है।
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