-दिनेशराय द्विवेदी
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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009
परीक्षा में सफल उम्मीदवार नियुक्ति प्राप्त करने के लिए क्या करें?
खेद है कि यह आलेख त्रुटि वश तीसरा खंबा के स्थान पर अनवरत पर प्रकाशित हो गया था। इसे अब तीसरा खंबा पर स्थानान्तरित कर दिया है।
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है
भाई महेन्द्र 'नेह' का यह गीत बहुत दिनों से याद आ रहा था। आज मुझे पूरा मिल गया है। बिना किसी भूमिका के उसे आप की चौपाल पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ..... जरा आप भी गुन-गुना कर देखिए ...
* * * * * * * * * * * * * *
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है
- महेन्द्र 'नेह'
पाँव बढ़े
जो उलझी राहों पर
रोको मत, बढ़ने दो
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है।
दर्दों के सिरहाने
सपनों का तकिया रख
नींद को बुलावा दे
जेठ के महीने में, मेघ के अभावों में
लहराए, इतराए सच पूछो
सिर्फ वही सरिता है
सिर्फ वही सरिता है
ज्वार उठे सागर की लहरों में
बाँधो मत, बहने दो
पानी से बंशी के स्वर मिलना
याद रखो गंध धुला, दूध धुला
जीवन है, गीत है जवानी है
बुद्धि का हृदय से औ, अंतस का माटी से
द्रोह अरे!
चिंतन है, दर्शन है, स्वप्न है, कहानी है
ढाँपो मत, जलने दो
जलने से रूह निखर जाती है।
धर्म की तराजू पर
पाप-पुण्य के पलड़े
तुमने ही लटकाए
फिर खुद को उन में लटकाया है
मानव ने खुद पर विश्वास न कर
भूल-भुलैया भ्रम की
मान लुटे गलियों-चौराहों पर
झिझको मत, लुटने दो
लुटने से बोझिलता जाती है।
* * * * * * * * * * * * * *
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009
डाक्टर, ज्योतिषी और वकील खामोखाँ नहीं डराते
आज तीसरा खंबा की पोस्ट नाबालिग लड़की को भगाकर शादी करना सजा को न्यौता देना है पर निम्न टिप्पणी मिली ...
कविता देखिए ...
काँईं डाग्दर, काँईं जोशी अर काँईं वकील
डरिया ने और डरावै
फेर डर सूँ खड़बा को गेलो बतावै
अर जे, अश्याँ न करे
तो आपणा घर का गबूल्या ही बकावै
हिन्दी रूपांतरण...
क्या डाक्टर, क्या ज्योतिषी और क्या वकील
डरे हुए को और डराए
फिर डर से निकलने का रास्ता बताए और,
जो ऐसा न करे तो,
खुद के घर के बिस्तर/कपड़े बेचे
- पी.सी.गोदियाल, 27 October, 2009 9:35 AM
-
- "नाबालिग लड़की को भगाकर शादी करना सजा को न्यौता देना है।"
- Hmmm,लगता है इन वकील लोगो के पास भी आजकल कोई काम नहीं , खामखा लोगो को डरा रहे है :)
कविता देखिए ...
काँईं डाग्दर, काँईं जोशी अर काँईं वकील
डरिया ने और डरावै
फेर डर सूँ खड़बा को गेलो बतावै
अर जे, अश्याँ न करे
तो आपणा घर का गबूल्या ही बकावै
हिन्दी रूपांतरण...
क्या डाक्टर, क्या ज्योतिषी और क्या वकील
डरे हुए को और डराए
फिर डर से निकलने का रास्ता बताए और,
जो ऐसा न करे तो,
खुद के घर के बिस्तर/कपड़े बेचे
- दिनेशराय द्विवेदी
जनतंत्र की असली ताकतें
पिछली 30 अगस्त से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं, मैं भी। कमाई बंद है। कभी-कभी कोई मुवक्किल आ जाता है और फीस जमा कर भी जाता है। लेकिन वकालत के खर्चे बदस्तूर जारी हैं। जैसे रोज अदालत जाने के लिए पेट्रोल फूंकना, वहाँ चाय पान, मुंशी का वेतन, किताबें और जर्नल के खर्चे आदि आदि। इस बीच आने वाली राशि खर्चे की रकम की दसवाँ हिस्सा भी नहीं है। इस तरह वकील कमा नहीं रहे हैं बल्कि खर्च कर रहे हैं। इस तरह यह हड़ताल वकील अपनी रिस्क पर कर रहे हैं। मांग है कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खोलना। हाईकोर्ट जो अब चालीस जजों का हो गया है उस का विकेन्द्रीकरण करना।
यूँ तो राज्य की शक्तियों का सतत विकेंद्रीकरण ही जनतंत्र का जीवन है। यह रुक जाता है तो जनतंत्र का ग्राफ मृत्यु की तरफ बढ़ने लगता है। इस कारण से राज्य की कार्यकारी शक्ति अर्थात् संसद, विधानसभा और सरकारों को यह काम स्वतः ही करना चाहिए। लेकिन पिछले दो दशकों से जो सरकारें आ रही हैं उन्होंने विकास के दूसरे काम भले ही किए हों लेकिन जनतंत्र के विकास के लिए उन में से कोई भी चिंतित नजर नहीं आया। उस के विपरीत उन की रुचि उसे नष्ट करने में अधिक नजर आई। चुनाव में सरकार बदली कि चौथा खंबा ढोल पीटना आरंभ कर देता है कि भारत सब से बड़ा जनतंत्र है, सब से मजबूत जनतंत्र है। जब कि वास्तविकता तो यह है कि चुनाव तक में जन की आवाज नहीं सुनी जाती। केवल जन को सुनाया जाता है। जन जा कर मशीन का कोई बटन दबा आता है। जो बटन वह दबाना चाहता है वह मशीन में है ही नहीं। आखिर वे ही लोग चुन कर फिर चले आते हैं जो जनतंत्र को मृत्यु की तरफ ढकेलने का कर्म कर रहे हैं। जो हर चुनाव के बाद अधिक शातिर होते जाते हैं। बात चली थी वकील हड़ताल से बीच में ये जनतंतर कथा घुस आई। मुई, य़े कहीं पीछा नहीं छोड़ती। चलो इसे यहीं छोड़ कर आगे बढ़ते हैं। वकीलों इस हड़ताल में क्या क्या न किया? पहले अदालतों का बहिष्कार किया। फिर धरना भी लगाने लगे। एक महीना गुजर गया लेकिन सरकार को उन्हें सुनने की फुरसत तक नहीं मिली। फिर उन्होंने अदालत परिसर में प्रवेश करने के दो बड़े दरवाजों पर तालाबंदी आरंभ कर दी। सुबह स्टाफ और जज परिसर में घुसे कि ताला लगा दिया। एक छोटा दरवाजा और है उस के सामने खुद धरना दे बैठे। अंदर किसी को घुसने तक नहीं दिया। यह आलम रोज का है। वकील रोज इकट्ठा होते हैं और दो बजे तक रोज या तो धरने पर होते हैं, या परिसर के बाहर की सड़कों पर या फिर चाय की दुकानों पर। कोई भी अदालत परिसर में प्रवेश नहीं पाता। एक दिन कलेक्ट्री में घुसे और सीधे कलेक्टर के चैम्बर में पहुँचे और मुख्य मंत्री से बात कराने को कहा। कलेक्टर ने आश्वासन तो दिया, बात आज तक नहीं करवा सका। यह जरूर किया कि उसने कलेक्ट्री के आस पास इतने अवरोध लगवा दिए कि वकील तो वकील जनता भी वहाँ परिंदा न मार सके। दो बजे बाद अदालत परिसर का ये वकील कर्फ्यू टूटता है तो सब परिसर में जाते हैं, तब तक अदालतें पेशियाँ बदल चुकी होती हैं। मुंशी जाते हैं और मुकदमों की पेशियों की आगामी तारीखें नोट कर बाहर आ जाते हैं। वकील एक दिन कोटा शहर में आने वाले सारे राज मार्गों पर तीन घंटे का जाम भी लगवा चुके हैं। अब तक की सारी कार्यवाहियाँ बिलकुल शांतिपूर्ण हैं।
शांतिपूर्ण इसलिए कि वकीलों ने बहिष्कार किया, सरकार ने कहा करने दो, क्या फर्क पड़ता है? अदालत परिसर की तालाबंदी की, सरकार ने कहा करने दो, क्या फर्क पड़ता है? वे कलेक्ट्री में घुसे, कलेक्टर ने खुद को सुरक्षित कर लिया, इतना कि जनता भी उस तक नहीं पहुँचे। उन्हों ने शहर में घुसने वाले राजमार्गों पर जाम लगाया। पुलिस ने पहले ही ट्रेफिक को दस-दस किलोमीटर दूर रोक लिया। जब वकीलों ने जाम हटाने की घोषणा की और मार्गों पर से हट गए तो उस के आधे घंटे बाद ट्रेफिक चालू कर दिया। देखो कितनी अच्छी सरकार है। वकीलों के आंदोलन के लिए सारा इंतजाम कर रही है और शायद करती ही रहेगी। नहीं करेगी तो सिर्फ बात नहीं करेगी। करेगी भी तो तब जब उस के जच जाएगी। अब अफवाहें फैल रही हैं कि मुख्य मंत्री कहते हैं। अदालतें कैसे खोलें? धन ही नहीं है। हाईकोर्ट की बैंच खोलने में भी धन लगता है। फिर एक जगह हो तो खोलें। उदयपुर, बीकानेर भी तो पीछे लगे हैं। फिर उन से ज्यादह महत्वपूर्ण जोधपुर है जहाँ से मैं चुनाव लड़ता हूँ। वहाँ से मुकदमे और जगह चले जाएंगे तो वहाँ के वकील नाराज हो जाएंगे।
चलते-चलते यह आंदोलन वकीलों का नहीं रह गया है, बल्कि जनता का हो गया है। वह समझने लगी है कि लाभ भी उस का होना है। उन का आना-जाना बचेगा, अपरिचित वकील से मुकाबला बचेगा। जनता साथ भी है। अब तीस अक्टूबर को जब हड़ताल को दो माह पूरे होंगे। पूरे संभाग या यूँ कहिए पूरे हाड़ौती अंचल का बंद आयोजित किया है। अब वकील तो अकेले यह काम कर नहीं सकते। जनप्रतिनिधियों की बैठक बुलाई गई। याद आए जन संगठन, बोले तो, संभाग के सारे सामाजिक संगठन, व्यापारिक संगठन, ट्रेडयूनियनें, शिक्षण संस्थाएँ, मोहल्ला समितियाँ और भी बहुत से स्वैच्छिक संगठन और संस्थाएँ। सब ने बंद को समर्थन और सहयोग देने का वचन दिया। मैं समझता हूँ कि बंद शांतिपूर्ण रीति से हो लेगा।
जनतंत्र यहाँ बसता है, इन जन संगठनों में। ये सभी विभिन्न पेशों में काम कर रहे लोगों के संगठन हैं। जो राजनीति से परे रह कर काम करते हैं। उन के चुनाव होते हैं और उन पर उन के सदस्यों का नियंत्रण भी रहता है। इन में कुछ कम जनतांत्रिक हैं, कुछ अधिक, पर जनतांत्रिक हैं। कुछ कमजोर हैं कुछ बहुत मजबूत। जनतंत्र की ताकत भी इन में ही बसती है। ये जितने मजबूत होंगे, जितने जनतांत्रिक होंगे और जितने एक दूसरे के साथ तालमेल बनाएंगे उतना ही जनतंत्र मजबूत होता जाएगा। जनतंत्र की इस ताकत का अपहरण करने को राजनीतिक दल लालायित रहते हैं और बस चल जाता है तो कर भी लेते हैं। लेकिन ये संगठन उन से जितने अप्रभावित रह कर अपने सदस्यों के हितों के लिए काम करेंगे जनतंत्र उतना ही मजबूत होगा।
रविवार, 25 अक्टूबर 2009
राष्ट्रीय संगोष्टी : हिन्दी ब्लागिरी के इतिहास का सब से बड़ा आयोजन
* चित्र मसिजीवी जी से साभार
आखिर तीन दिनों से चल रहा भ्रम दूर हो गया कि इलाहाबाद में हिन्दी ब्लागरों का कोई राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था। बहुत लोगों के पेट में बहुत कुछ उबल रहा था। लगता है वह उबाल अब थम गया होगा। यदि नहीं थमा हो तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद थम ही जाएगा। हालांकि पहले भी यह सब को पता था, लेकिन शायद इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यह कोई हिन्दी ब्लागर सम्मेलन नहीं था। यह महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' परआयोजित राष्ट्रीय संगोष्टी थी। जिसे विश्वविद्यालय ने बुलाया चला गया। उस की जैसी सेवा हुई, हो गई। जिन्हें पहले से आमंत्रण दे कर नहीं बुलाया गया था उन्हें चिट्ठे पर छपा आमंत्रण वहाँ खींच ले गया। उन की भी सेवा हो ली।
जब विश्वविद्यालय एक संगोष्टी आयोजित करता है तो उस में कौन लोग बुलाए जाएँ ? और कौन लोग नहीं बुलाए जाएँ? इन का निर्णय भी विश्वविद्यालय ही करेगा, उस ने वह किया भी। जिन को नहीं बुलाया गया उन्हें हलकान होने और बुरा मानने की जरूरत नहीं है। पहला सत्र उद्घाटन सत्र के साथ ही पुस्तक विमोचन सत्र था। मुख्य अतिथि नामवर सिंह रहे। मैं समझता हूँ कि ब्लागरी को अभी साहित्य के लिए एक नया माध्यम ही माना जा रहा है। शायद इसी कारण से नामवर जी उस के मुख्य अतिथि थे। उन्हों ने भी उसे ऐसा ही समझा और वैसा ही अपना भाषण कर दिया। इस के बाद के सत्रों में विमर्श आरंभ हुआ। ब्लाग पर होने वाले विमर्श में और प्रत्यक्ष होने वाले विमर्श में फर्क होना चाहिए था। आखिर एक में ब्लागर पोस्ट लिख कर छोड़ देता है। उस पर नामी-बेनामी टिप्पणियाँ आती रहती हैं। ब्लागर को समझ आया तो उस ने बीच में दखल दिया तो दिया। नहीं तो अगली पोस्ट के लिए छोड़ दिया। प्रत्यक्ष विमर्श का आनंद और ही होता है। वहाँ कोई बेनामी नहीं होता।
अब प्रत्यक्ष सम्मेलन में बेनामी पर चर्चा होना स्वाभाविक था, जो कुछ अधिक हो गई। बेनामी लेखक छापे में भी बहुत हुए हैं तो ब्लागरी में क्यों न हुए। जिस बड़े लेखक ने पत्रिका निकाली उसे चलाने के लिए उसे बहुत सी रचनाएँ खुद दूसरों के नाम से लिखनी पड़ीं और यदा-कदा उन पर प्रतिक्रियाएँ भी छद्म नाम से लिखीं। बहुत से अखबारों में भी यह होता रहा है और होता रहेगा। बेनामियों का योगदान छापे में महत्वपूर्ण रहा है तो फिर ब्लागरी में क्यों नहीं? यहाँ भी वे महत्वपूर्ण हैं और बने रहेंगे। चिंता की जानी चाहिए थी उन बेनामी चीजों पर जो सामान्य शिष्टता से परे चली जाती हैं। उन पर नियंत्रण जरूरी है। ऐसी टिप्पणियों को मोडरेशन के माध्यम से रोका जा सकता है, जो किया भी गया है। हाँ बेनामी चिट्ठों को नहीं रोका जा सकता। उन के लिए यह नीति अपनाई जा सकती है कि उन चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं की जाएँ। यदि विरोध ही दर्ज करना हो तो दूसरे चिट्ठों पर पोस्ट लिख कर किया जा सकता है।
ब्लागरी केवल साहित्य नहीं है। वह उस के परे बहुत कुछ है। वह ज्ञान की सरिता है। जिस में बरसात की हर बूंद को आकर बहने का अधिकार है। यह जरूर है कि हिन्दी ब्लागरी के विकास में साहित्य और साहित्यकारों का योगदान रहा है। मैं नेट पर साहित्य तलाशने गया था और उस ने मुझे ब्लागरी से परिचित कराया। वहाँ कुछ टिपियाने के बाद मुझे ब्लागिरी में शामिल होने का न्यौता मिला तो मेरी सोच यह थी कि मैं कानून संबंधी अपनी जानकारियों को लोगों से साझा करूँ। इस तरह 'तीसरा खंबा' का जन्म हुआ। इस ब्लाग में कोई साहित्य नहीं है, वह कानून की जानकारियों और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लाग है। एक साल से वह सामान्य लोगों को कानूनी जानकारी की सहायता उपलब्ध करा रहा है और आज स्थिति यह है कि कानूनी सलाह प्राप्त करने के लिए बहुत से प्रश्न तीसरा खंबा के पास कतार में उपलब्ध रहते हैं। बहुत लोगों की समस्याओं को ब्लाग पर न ला कर सीधे सलाह दे कर उन का जवाब दिया जा रहा है। कुछ ब्लाग समाचारों पर आधारित हैं। कुछ ब्लाग तकनीकी जानकारियों पर आधारित हैं। अजित जी का ब्लाग 'शब्दों का सफर' केवल भाषा और शब्दों पर आधारित है। शब्द केवल साहित्य के लिए उपयोगी नहीं हैं वे प्रत्येक प्रकार के संप्रेषण के लिए उपयोगी हैं। ब्लागरी में साहित्य प्रचुर मात्रा में आया है। उस की बदौलत बहुत से लोगों ने लिखना आरंभ किया है। इस कारण से ब्लागिरी में साहित्य तो है लेकिन साहित्य ब्लागिरी नहीं है। वह 'ज्ञान सरिता' ही है।
कैसी भी हुई यह राष्ट्रीय संगोष्टी हिन्दी ब्लाग जगत के लिए एक उपलब्धि है। एक विश्वविद्यालय ने ब्लागरी से संबंधित आयोजन किया यह बड़ी बात है। बहुत से हिन्दी ब्लागरों को उस में विशेष रुप से आमंत्रित किया और शेष को उन की इच्छानुसार आने के लिए भी निमंत्रित किया। जो लोग वहाँ पहुँचे उन का असम्मान नहीं हुआ। इस संगोष्टी ने बहुत से हिंदी ब्लागरों को पहली बार आपस में मिलने का अवसर दिया। उन का एक दूसरे के साथ प्रत्यक्ष होना बड़ी बात थी। कुछ ब्लागर अपनी बात वहाँ रख पाए यह भी बड़ी बात है। कुछ नहीं रख पाए, वह कोई बात नहीं है। उन के पास अपना स्वयं का माध्यम है वे अपने ब्लाग पर उसे रख सकते हैं। हिन्दी में ब्लागरों की संख्या आज की तारीख में चिट्ठाजगत के अनुसार 10895 हिन्दी ब्लाग हैं जिन में से दो हजार से ऊपर सक्रिय हैं। सब को तो वहाँ एकत्र नहीं किया जा सकता था और न ही जो पहुँचे उन सब को बोलने का अवसर दिया जा सकता था।
चलते-चलते एक बात और कि मेरे हिसाब से ब्लाग को चिट्ठा नाम देना ही गलत है। ब्लाग वेब-लॉग से मिल कर बना है। इस में वेब शब्द का 'ब' अत्यंत महत्वपूर्ण है चिट्ठा शब्द में उस का संकेत तक नहीं है। इस कारण से उसे चिट्ठा कहना मेरी निगाह में उचित नहीं है, उसे ब्लाग ही कहना ही उचित है। ब्लाग एक संज्ञा है और मेरे विचार में किसी भी भाषा के संज्ञा शब्द को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में आत्मसात किया जा सकता है। जो कर भी लिया गया है। हाँ, मुझे ब्लागिंग शब्द पर जरूर ऐतराज है। क्यों कि इस का 'इंग' हर दम अंग्रेजी की याद दिलाता रहता है। किसी संज्ञा को एक बार अपनी भाषा में आत्मसात कर लेने के उपरांत उस से संबंधित अन्य शब्द अपनी भाषा के नियमानुसार बनाए जा सकते हैं। इस लिए मैं ब्लागिंग के स्थान पर ब्लागरी या ब्लागिरी शब्द का प्रयोग करता हूँ। मुझे लगता है कुछ ब्लागर इस का अनुसरण और करें तो यह भी आत्मसात कर लिया जाएगा।
कुल मिला कर 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' पर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा की गई राष्ट्रीय संगोष्टी ब्लागरी के इतिहास की बड़ी घटना है, जिस ने इतने सारे ब्लागरों को एक साथ मिलने और प्रत्यक्ष चर्चा करने का अवसर प्रदान किया। इस घटना को बड़ी घटना की तरह स्मरण किया जाएगा और यह घटना तब तक बड़ी बनी रहेगी जब तक इस से बड़ी लकीर कोई नहीं खिंच जाती है।
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009
डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! तुम बहुत, बहुत याद आओगी!
पिछली जनवरी में मेरा भिलाई जाना हुआ था। दो रात और तीन दिन पाबला जी के घर रहना हुआ। वहीं उन की पालतू डेज़ी से भेंट हुई। वह उन के परिवार की अभिन्न सदस्या थी। दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न धूंएँ और ध्वनि के प्रदूषण ने उसे बुरी तरह प्रभावित किया और वह बीमार हो गई। इतनी बीमार कि चिकित्सा की भरपूर सहायता भी उसे जीवन दान न दे सकी। आज दोपहर डेजी नहीं रही। उन तीन दिनों के प्रवास में डे़ज़ी ने जिस अपनत्व का व्यवहार मुझे दिया मैं उसे जीवन भर नहीं भुला सकता हूँ। मेरी भिलाई यात्रा के विवरण में डेज़ी का उल्लेख अनायास ही हुआ था। जिस के अंत में मैं ने लिखा था ....'कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो'।
लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।
अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......
पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है। मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों। एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया। बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'। पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके। इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए। पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया। अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी। उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले। उस ने एक बार मुड़ कर पाबला की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने। डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।
.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी।
लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।
अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......
पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है। मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों। एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया। बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'। पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके। इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए। पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया। अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी। उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले। उस ने एक बार मुड़ कर पाबला की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने। डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।
.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी।
......... तीसरे दिन सुबह गुरप्रीत ने सोने जाने के पहले कॉफी पिलाई। नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया। दुबारा उठा तो डेज़ी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी। मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी। हमारे पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा। उन की मुझे आदत भी नहीं। पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है। डेज़ी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी। उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी। जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी। लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है। मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है। मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ। उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।
हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था। मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था। पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं। फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की। हर जगह डेज़ी मेरे साथ थी। मैं ने पाबला जी को बताया कि डेज़ी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ। ........
मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था। मैं ने अपना सभी सामान चैक किया। कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली। मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा। लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।
मैं सामान ले कर दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है। मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई बिलकुल मौन। मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई। गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया। मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली। डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए। पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी। हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी। मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी। मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।
इस पोस्ट का मकसद डेज़ी को स्मरण करना तो है ही साथ ही यह भी कि शायद हम अपने त्योहारों या अन्य किसी प्रकार की मौज-मस्ती के बीच उन्हें पहुँचाने वाले जानलेवा कष्टों को पहचान सकें और व्यवहार में कुछ सहिष्णु हो सकें।
डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम!
तुम बहुत, बहुत याद आओगी!
बुधवार, 21 अक्टूबर 2009
क्या पता?
आज पढ़ें 'यक़ीन' साहब की ये 'ग़ज़ल'
क्या पता?
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता
इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता
वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
दीवाली बाद एक उदास दिन
बिटिया कुल छह दिन घर रही। आज सुबह छह बजे की ट्रेन पर उसे छोड़ा। उसे काम पर लौटना जरूरी था। वह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था में सांख्यिकिज्ञ और जनसंख्या विज्ञानी है, जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एम्स और कुछ राज्य सरकारों का सहयोग करती है। कुछ ही दिनों में संस्था का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जिस में उसे भी अपने काम की दो प्रस्तुतियाँ देनी हैं। उन्हें अंतिम रूप देना है। रुकना संभव न होने से सुबह पाँच बजे ही भाई को टीका लगा उस ने भैया दूज मना ली।
मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था। लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।
मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था। लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।
हर दीवाली पर देसी-घी में घर पर पकाए गुलाब जामुन हमारे यहाँ जरूर बनाए जाते हैं। लेकिन इस बार मावे की संदेहास्पद स्थिति में तय किया गया कि मावे का कोई भी पकवान घर पर न बनेगा। घर पर मैदा, बेसन के नमकीन, और मिठाइयाँ बनाए गए। जिन में उड़द-चने की नमकीन पापड़ियों का स्वाद तो भुलाए नहीं भूला जा सकता। दीवाली हुई और दूसरा दिन बेटी की जाने की तैयारी में ही निकल गया। आज का दिन एक उदास दिन था। पौने बारह खबर मिली कि वह गंतव्य पर पहुँच गई है और सीधे अपने काम पर जा रही है, अब शाम को ही उस से बात हो सकेगी। आज का दिन उदास बीता। शाम होने के बाद ही दीदी के यहाँ टीका निकलवाने जा सका। (क्षमा करें कुछ चित्र अपलोड नहीं हो पाए)
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...
दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो। कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।
हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं। पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?
जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?
जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं। कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है। उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है। सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं। जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।
सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है। चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है। सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या? मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं। यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है। शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा। जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो। झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े। नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं। विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।
आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा। जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी। न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है। हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है। आनेवाले वक्त में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न रखा जाए।
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009
नए जन्म की तैयारी, रसीदी हिन्दी और दशहरा मेला
इधर दीवाली जैसे-जैसे नजदीक आती है, घरों में भूचाल के हलके-भारी झटके चलते ही रहते हैं। सफाई अभियान सारी चीजों को इधर-उधर करता रहता है। परसों अदालत में था तो घर से फोन मिला कि कबाड़ी आया है, कूलर उसे दे दिया जाए। कुछ समझ नहीं आया, क्या जवाब दिया जाए? फिर साथियों से सलाह की तो निष्कर्ष निकला कि उस की आत्मा, पंखा और पम्प निकाल कर बाकी की जर्जर देह दे दी जाए। बेटे और उस की माँ ने यही किया। जर्जर देह के सवा-दोसौ रुपए खड़े हो गए, देह भूतों में जा मिली। अब फरवरी के अंत में पंखे और पम्प के लिए नई देह की तलाश शुरू की होगी। उस की भी सलाह मिल चुकी है कि आजकल कूलर के लिए स्टील के शरीर बनने लगे हैं। फरवरी में किसी स्टील-देह में पंखे और पम्प की आत्मा रख दी जाएगी। कूलर का एक और जन्म हो जाएगा। पर यह आत्मा अजर-अमर नहीं, हो सकता है दो-चार बरस बाद स्टील देह में नयी आत्मा डालनी पड़ जाए।
बेटी आई है, उसे कुछ कपड़े खरीदने थे, दशहरे का मेला घूमना था। अपने घर के पास से जिस तरह यातायात निकल रहा था, जाने की हिम्मत न हुई। किसी फिल्मी कलाकार की कला का प्रदर्शन था, भीड़ क्यों न होती? आखिर फरिश्तों को प्रत्यक्ष देखने का अनुभव लोग हाथ से थोड़े ही जाने देते। कल का दिन का समय बाजार के लिए और शाम का मेले के लिए तय हुआ। बाजार गए तो हमारी हैसियत मात्र कार-चालक की थी। बेटी ने अपने लिए कुछ कपड़े पसंद किए। भुगतान किया तो रसीद बना दी गई। कपड़े फिटिंग के लिए अभी चौबीस घंटे दुकानदार के पास रहने थे। रसीद दिखाने पर ही कपड़े मिलते। इस कारण खरीददार का नाम पूछा गया। दुकानदार ने नाम लिखा तो स्पेलिंग में चक्कर खा गया। झुंझला कर उस ने नाम हिन्दी में लिखा। हस्तलिपि सुंदर थी। मैं ने कहा, कितना खूबसूरत लिखा है? आप ने हिन्दी में। आप रसीद हिन्दी में ही क्यों नहीं बनाते? जवाब मिला -साहब! ऐसी ही फैशन है। मैं ने बताया कि मैं चैक हिन्दी में भरता हूँ, पत्र हिन्दी में लिखता हूँ। अधिकतर डाक्टर अंग्रेजी में पर्चा लिखते हैं,कोई-कोई हिन्दी में भी लिखते हैं। आप को कौन सा अच्छा लगता है? वह बोला, हिन्दी वाला अच्छा लगता है और समझ में भी आता है। मैं ने उसे कहा कि आप कुछ दिन हिन्दी में रसीद बनाइए, और देखिए ग्राहकों को कैसा लगता है? मुझे लगता है, उसे अधिक पसंद किया जाएगा। वह तैयार हो गया। आज उस के यहाँ कपड़े लेने जाना है। देखता हूँ, वह अपने वायदे पर कितना कायम है?
शाम साढ़े पाँच हम मेले में निकले। आगे आगे शोभा और पूर्वा दोनों थीं, और पीछे मैं। पूर्वा अपनी माँ से कोई छह-सात इंच लम्बी है, पर जिस तरह वह अपनी माँ के बाजू में बाजू डाले चल रही थी, पंद्रह साल पहले की याद आ गई। जैसे उसे भय लग रहा हो की मम्मी कहीं बिछड़ न जाए। कैमरा साथ होता तो बहुत भला चित्र लिया जा सकता था। पूर्वा को सोफ्टी खानी थी। हमें वह पसंद नहीं, उस ने अकेले ही खाई। दो बरस पहले जिस सोफ्टी के छह रुपए दिए थे, उसी के दस देने पड़े। आगे सुरेश कुल्फी वाले की दुकान देख हमारे मुहँ में पानी आया तो वहाँ जा बैठे। बंद हवा में दो मिनट में ही पसीना आने लगा। उस की कुल्फी अभी पकी नहीं थी। हम वहाँ इंतजार करने के स्थान पर मेले में टहलने चल दिए। माँ-बेटी ने दो-एक स्थान पर बैगों के भाव कराए, लेकिन सौदा नहीं पटा। एक दुकान से ढाई सौ ग्राम ओरेंज कैंडी खरीदी गईँ। कुछ प्रदर्शनियाँ देखीं। पुस्तकें देखीं तो वहाँ सारी धार्मिक पुस्तक वालों की प्रदर्शनियाँ मौजूद थीं, इक्का-दुक्का लोग अंदर जा तो रहे थे, लेकिन पुस्तक खरीदी नाम मात्र की थी। पुराना सोवियत पुस्तकों वाला जरूर मौजूद था, पर अब केवल पुस्तक प्रदर्शनी का बोर्ड लगा था। वहाँ अभी भी स्टॉक में बची सोवियत पुस्तकें बेची जा रही थीं। बाकी सब पुस्तकें वही थीं, जो बाजार की स्टॉलों और दुकानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। प्रदर्शनी में सब से नयी जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी पुस्तक थी। प्रदर्शनी में भीड़ बरकरार थी। यहां लोग पुस्तकें खरीद भी रहे थे। आठ बजने वाले थे। कुछ ही देर में एक अखबार की ओर से कराई जाने वाली आतिशबाजी आरंभ होने वाली थी। भीड़ का रैला मेले में प्रवेश करने लगा था। हम ने वापसी की राह ली। पूर्वा ने मक्का की फूली (पॉपकॉर्न) के दो पैकेट खरीदे, एक मेरे पल्ले पड़ा। एक-एक मक्का मुहँ में डालते रहे। दूसरा पैकेट खोलने की बारी आती तब तक घर पहुँच चुके थे।
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009
धर्म का चक्कर
धर्म का चक्कर
### पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की एक ग़ज़ल ###
जहाँ भर में हमें बौना बनावे धर्म का चक्कर
हैं इन्साँ, हिन्दू, मुस्लिम, सिख बतावे धर्म का चक्कर
ये कैसा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का है झगड़ा
करोड़ों को हज़ारों में गिनावे धर्म का चक्कर
चमन में फूल खुशियों के खिलाने की जगह लोगों
बुलों को ख़ून के आँसू रुलावे धर्म का चक्कर
कभी शायद सिखावे था मुहब्बत-मेल लोगों को
सबक़ नफ़रत का लेकिन अब पढ़ावे धर्म का चक्कर
सियासत की बिछी शतरंज के मुहरे समझ हम को
जिधर मर्ज़ी उठावे या बिठावे धर्म का चक्कर
यक़ीनन कुर्सियाँ हिलने लगेंगी जालिमों की फिर
किसी भी तौर से बस टूट जावे धर्म का चक्कर
मज़ाहिब करते हैं ज़ालिम हुकूमत की तरफ़दारी
निजामत ज़ुल्म की अक्सर बचावे धर्म का चक्कर
निकलने ही नहीं देता जहालत के अंधेरे से
'यक़ीन' ऐसा अज़ब का चक्कर चलावे है धर्म का चक्कर
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सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
अपना घर खुद साफ करें; मोहल्ले की स्वच्छता मिल बैठ तय करें
दीवाली के पहले का सप्ताह आरंभ हो गया है। या तो लोग अपने-अपने घरों की सफाई कर चुके हैं या फिर यह काम जोरों पर है। आखिर दीवाली के पहले सब को अपने-अपने घर चमकाने हैं। देवी लक्ष्मी का स्वागत जो करना है। हमारे घर में यह वार्षिक स्वच्छता अभियान कोई बीस दिन पहले ही आरंभ हो चुका था। श्राद्ध समाप्त हुए, नवरात्र के पहले दिन से ही सफाई का काम आरंभ हो गया। पहले सोने के कमरे को जाँचा गया, पाया कि रंगरोगन अभी ठीक है, वर्ष भर चलेगा, केवल सफाई से काम चल सकता है। उस की सफाई की गई। उस के बाद हमारे बाहर की बैठक की बारी थी। कहने को यह बैठक जरूर है। पर हमारे वकालत के दफ्तर का दरवाजा सुबह छह बजे मुख्य दरवाजे के पहले खुलता है तो रात ग्यारह के बाद मुख्य द्वार पर ताला पड़ने के बाद ही वह बंद होता है। नतीजा ये कि हमारे घर सभी का पहला प्रवेश दफ्तर से होता है। बैठक साफ की गई। इस में वक्त लगा। यहीँ हमारी गैर-वकालती किताबें हैं। सब की सफाई कर वापस जमाया गया। इस तरह दशहरा आ गया।
अब दफ्तर की बारी थी। उस के लिए गांधी जयन्ती नियत है। वह दीवाली के पहले मुकम्मल अवकाश का दिन होता है। उस दिन उस से निपटा गया। इस के बाद बचा सिर्फ बीच का हॉल, रसोई और बाहर का पोर्च बनाम बरामदा। रसोई और बरामदा रंगाई मांग रहे थे। उस के लिए एक भवन निर्माता मुवक्किल से पुताई वाले को भेजने को कहा था। लेकिन सब पुताई वाले अपनी सालाना कमाई में लगे थे, जिस से वे अपने कर्जे चुका कर दीवाली मनाएँगे। कोई खाली न मिला। एक दिन पान की दुकान पर फिटर बाबूलाल नजर न आया तो मैं ने पान वाले बाबूलाल जी से पूछा कि आज बाबूलाल नहीं दिखा। इतने में बाबूलाल आ गया। कहने लगा दुकान के पड़ौस के मकान की पुताई कर रहा हूँ। 1500 रुपए में मजदूरी तय हुई है। मैं ने तुरंत उसे पकड़ा। भाई मेरे मकान में भी कुछ पुताई है, कर दोगे? उस ने हाँ कर दी।
पान वाला और फिटर, दोनों बाबूलाल
बाबूलाल दोहरे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है। अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। अपनी धुन में मस्त रहता है। सुबह नौ बजे बाबूलाल पान वाले की दुकान पर आ जाता है। जिसे भी उस से काम कराना होता है उसे वहीं से पकड़ता है और काम करवा कर वहीं छोड़ देता है। काम में कोई नुक्स नहीं। मुस्कुरा कर बात करता है। उस से बात करो तो बहुत ज्ञान की बातें करेगा। वह ज्ञान की बातें ही नहीं करता, उन पर अमल भी करता है। पर उस के कुछ परिजनों के लगातार सताने से उस के अंदर एक और व्यक्तित्व विकसित हो गया है, जो दुनिया की सभी बुरी चीजों से घृणा करता है। वह उन्हें समाप्त तो नहीं कर सकता, लेकिन उन्हें बुरा कह सकता है, उन के साथ गाली गलौच कर सकता है, उन्हें शाप दे सकता है। बस कुछ फुरसत हुई, उसे अपने साथ हुए बुरे बर्ताव का स्मरण हुआ, और उस की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं, वह पान की दुकान के सामने फुटपाथ पर इधर से उधर तेजी से चक्कर लगाने लगता है। साथ ही कुछ शाप बड़बड़ाने लगता है। फिर ऊंचे फुटपाथ पर सड़क की ओर मुहँ कर के खड़ा हो जाता है। उसे वे सब बुरे लोग सामने दिखाई देने लगते हैं। वह उन्हें खूब दुत्कारता है, शाप देता है। कभी कभी इसी हालत में मैं पहुँच जाता हूँ। जोर से उसे बुलाता हूँ -बाबूलाल ! राम! राम! उस का दूसरा व्यक्तित्व तुरंत गायब हो जाता है और वह हमारा प्यारा बाबूलाल बन जाता है। मैं और पानवाले बाबूलाल जी चाहते हैं कि उस में से प्रतिशोधी व्यक्तित्व समाप्त हो जाए और वह हमारा प्यारा सा बाबूलाल बन कर रहे। लेकिन राजस्थान में कहावत है 'रांड रंडापा तो काट ले, पर रंडवे काटने दें तब ना!' उसे भी लोग मजा लेने के लिए छेड़ते हैं और उस का दूसरा व्यक्तित्व उभर आता है।
खैर! हमने सफेदी का सामान खरीदा और बाबूलाल को पान की दुकान से पकड़ लाए। उस ने परसों बरांडे की छत और हमारी रसोई पर सफेदी की और कल बरांडे की दीवारों पर रंग किया। उस से भोजन के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया कि वह सुबह आठ बजे भोजन कर के ही घर से निकलता है। चाय वह दिन में चार बार पी लेता है। उसे दिन भर यह खुराक समय-समय पर बिना कहे मिल गई। उस ने अपनी मजदूरी पहले नहीं बताई थी। आधा काम करने के बाद उस ने पाँच सौ रुपया बताया, वह उसे दे दिया गया। जाते वक्त बाबूलाल खुश था। इन दो दिनों में उस के दूसरे व्यक्तित्व के एक बार भी दर्शन न हुए।
हमारे घर पर सफेदी होते देख एक पड़ौसन भी पूछने आईँ। हमने बाबूलाल को काम देख आने को कहा। वह देख भी आया। उस ने उन्हें भी वाजिब मजदूरी बताई, लेकिन सौदा तय नहीं हुआ। हमने भी उस में अधिक रुचि नहीं ली। हमारी रुचि अपने घर की सफाई में थी, पड़ौसी के घर की सफाई में नहीं। हमें पता भी नहीं कि उन के घर में कितनी गंदगी है? जिस की सफाई की जरूरत है और पता हो भी तो हम क्या करें? आखिर उन के घर की चिंता उन्हें करनी चाहिए। वे अपने घऱ को जैसा रखना चाहेँ रखें। हाँ उन के घर की गंदगी हमारे घर में आए, या हमें प्रभावित करने लगे, या वे हमारे घर की सफाई में जबरन रुचि लेने लगें, या वे हमारे घर के नुक्स निकालने लगें तो हम जरूर आपत्ति करेंगे। वे खुद अपने घर की सफाई में जुटें और मदद मांगें तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। इस से उन के और हमारे बीच भाईचारा बना रहेगा। हम सोचते हैं कि चिट्ठा-जगत में भी यही हो तो यहाँ भी भाईचारा बना रहे। हाँ घरों के बाहर मुहल्ले की बात करें तो सब मिल कर बैठ लें, और बात करें कि मोहल्ले में स्वच्छता बनाए रखने के लिए क्या करें?
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009
हम सभी उस धर्म से/ मिल कर कहें अब अलविदा 'कविता' महेन्द्र 'नेह'
इस और उस धर्म के बारे में पिछले दो दिनों में बहुत कुछ कहा गया है। महेन्द्र 'नेह' ने इन धर्मों के बारे में अपनी कविता में कुछ इस तरह कहा है .......
अलविदा
महेन्द्र 'नेह'
धर्म जो आतंक की बिजली गिराता हो
आदमी की लाश पर उत्सव मनाता हो
औरतों-बच्चों को जो जिन्दा जलाता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस वतन से अलविदा
इस आशियाँ से अलविदा
धर्म जो भ्रम की आंधी उड़ाता हो
सिर्फ अंधी आस्थाओं को जगाता हो
जो प्रगति की राह में काँटे बिछाता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस सफर से अलविदा
इस कारवाँ से अलविदा
धर्म जो राजा के दरबारों में पलता हो
धर्म जो सेठों की टकसालों में ढलता हो
धर्म जो हथियार की ताकत पे चलता हो
मिल कर कहें अब अलविदा
इस धरा से अलविदा
इस आसमाँ से अलविदा
धर्म जो नफ़रत की दीवारें उठाता हो
आदमी से आदमी को जो लड़ाता हो
जो विषमता को सदा जायज़ बताता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस चमन से अलविदा
इस गुलसिताँ से अलविदा
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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
वे सवारियाँ !
सवारी के बिना आज के जमाने में गुजारा नहीं है। जीवन के पहले पच्चीस बरस मैंने अपने गृह नगर बाराँ में बिताए। वहाँ सारा नगर हर कोई पैदल ही घूमा करता था। चाहे स्टेशन जाना हो, अस्पताल जाना हो या स्कूल-कॉलेज, बस यह प्रकृति प्रदत्त ग्यारह नंबर की बस ही सब जगह काम आती थी। पैदल चलने का लाभ यह था कि जितना भी खाओ पच जाता था। बीमारियाँ दूर भागती थीं। पहली साइकिल घर में आई तब, जब हम नवीं क्लास में पढ़ते थे। वह भी इस लिए कि पिताजी स्कूल इंस्पेक्टर हो गए थे और उन्हें गावों में स्कूलों का निरीक्षण करने जाना होता था। वे कभी पैडल से साइकिल पर चढ़ना नहीं सीख पाए। हमेशा किसी ऊंची जगह से साइकिल पर चढ़ते थे। जब तक ऐसी जगह न मिलती थी ,साइकिल को पैदल ही लुढ़काते रहते थे। मैं यह काम दो दिनों में सीख गया था।
घर बाजार में दुमंजिले पर था। सायकिल सुबह घऱ से उतारी जाती और देर रात को वापस चढ़ाई जाती। बीच में जब भी उसे फुरसत होती, वह बाजार में मांगीलाल नाई की दुकान से टिक कर खड़ी रहती थी। एक बार रात को साइकिल को वहाँ से उठा कर घर पर चढ़ाना भूल गए। सुबह साइकिल की जरूरत पड़ी तो तलाश आरंभ हुई। कहीं नहीं मिली। किसी ने सुझाव दिया कि थाने में जा कर देखो। हम गए तो वह वहाँ आराम फरमा रही थी। पता लगा रात को गश्त करने गए सिपाही उठा लाए थे। इस के बाद उसे थाने जाने की आदत पड़ गई। जब भी हम भूल जाते वह वहाँ चली जाती। हम भी सुबह याद आते ही उसे थाने से बड़े प्यार से उठा लाते। वह जब तक रही अक्सर थाने की सैर करती रही। किसी की बुरी नजर तक उस पर नहीं पड़ी थी।
घर बाजार में दुमंजिले पर था। सायकिल सुबह घऱ से उतारी जाती और देर रात को वापस चढ़ाई जाती। बीच में जब भी उसे फुरसत होती, वह बाजार में मांगीलाल नाई की दुकान से टिक कर खड़ी रहती थी। एक बार रात को साइकिल को वहाँ से उठा कर घर पर चढ़ाना भूल गए। सुबह साइकिल की जरूरत पड़ी तो तलाश आरंभ हुई। कहीं नहीं मिली। किसी ने सुझाव दिया कि थाने में जा कर देखो। हम गए तो वह वहाँ आराम फरमा रही थी। पता लगा रात को गश्त करने गए सिपाही उठा लाए थे। इस के बाद उसे थाने जाने की आदत पड़ गई। जब भी हम भूल जाते वह वहाँ चली जाती। हम भी सुबह याद आते ही उसे थाने से बड़े प्यार से उठा लाते। वह जब तक रही अक्सर थाने की सैर करती रही। किसी की बुरी नजर तक उस पर नहीं पड़ी थी।
साइकिलें उन्हीं लोगों के पास थीं, जिन का नगर से बाहर जाने-आने का काम पड़ता था। उन के अलावा कोई और साइकिल खरीदता तो उसे लक्जरी समझा जाता। नगर में मोटर साइकिलें गिनती की थीं। कहीं जीप नजर आती तो वह जरूर सरकारी होती। नगर का सर्वप्रिय यातायात साधन हाथ ठेला हुआ करता। ट्रेन आने के समय उन की आधी से अधिक आबादी स्टेशन के बाहर खड़ी होती। लोग उन में अपना सामान लदवाते और साथ पैदल चलते। फिर पहले पहल साइकिल रिक्शे चले। तो वे बीमारों को अस्पताल पहुँचाने या वृद्धों को ढोने के काम आने लगे। जवान आदमी उन में बैठ जाता तो लोग दिन भर उस से पूछते रहते -तबीयत तो ठीक है न? कोई अधिक संवेदनशील होता तो बेचारा शाम तक जरूर बीमार पड़ जाता। मेरे मन में भी बहुत हुमक उठती कि कभी मैं भी रिक्शे में बैठूँ। पर लोगों की पूछताछ और उस से बीमार होने के डर से नहीं बैठता। एक बार पत्नी को ले कर स्टेशन पर उतरा और उस के आग्रह पर रिक्शे में बैठ गया। रिक्शा बाजार में हो कर निकला तो सारे नगर को पता लग गया कि हम स्टेशन से घर तक रिक्शे से गए थे। मुझे खुद को ऐसा लग रहा था जैसे मेरी झाँकी निकल रही हो। उस के बाद अब तक अपने शहर में रिक्शे में बैठने की हिम्मत नहीं हुई। पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों के न होने का असर था कि सुबह नदी गए। एक डुबकी लगाई, किनारे आ कर पूरे बदन को हाथों से रगड़ा और दूसरी डुबकी में बदन साफ। साबुन का उपयोग तो हफ्ते में एक दिन होता था। अंदर के वस्त्रों को छोड़ दें तो कपड़े भी दो-तीन दिन आसानी से चल जाते थे। दादा जी के मुताबिक तो साबुन और नील के उपयोग से वस्त्र अपवित्र हो जाते थे। इन दोनों का उपयोग किया हुआ वस्त्र पहन कर वे कभी मंदिर के गर्भ-गृह नहीं गए।
जिस साल नगर के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई और जिला मुख्यालय के पीजी कॉलेज में वकालत की पढ़ाई पढ़ने गए उसी साल दोनों शहरों के बीच एक शटल ट्रेन चलने लगी। बड़ी आसानी हो गई। शाम को कॉलेज लगता। मैं सुबह दस बजे ट्रेन में चढ़ता और बारह पर उतरता। दिन भर इधर-उधर मटरगश्ती करता और शाम को कॉलेज कर के रात को शटल से वापस। दिन भर की मटरगश्ती के लिए वाहन जरूरी था। जिला मुख्यालय का नगर बड़ा था और लंबाई में फैला था। स्टेशन भी नगर से दूर था। साइकिल वहीं स्टेशन के साइकिल स्टेंड पर डाल दी गई जिस से मटरगश्ती में आसानी हो गई।
जिस साल नगर के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई और जिला मुख्यालय के पीजी कॉलेज में वकालत की पढ़ाई पढ़ने गए उसी साल दोनों शहरों के बीच एक शटल ट्रेन चलने लगी। बड़ी आसानी हो गई। शाम को कॉलेज लगता। मैं सुबह दस बजे ट्रेन में चढ़ता और बारह पर उतरता। दिन भर इधर-उधर मटरगश्ती करता और शाम को कॉलेज कर के रात को शटल से वापस। दिन भर की मटरगश्ती के लिए वाहन जरूरी था। जिला मुख्यालय का नगर बड़ा था और लंबाई में फैला था। स्टेशन भी नगर से दूर था। साइकिल वहीं स्टेशन के साइकिल स्टेंड पर डाल दी गई जिस से मटरगश्ती में आसानी हो गई।
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
'सलूक' महेन्द्र 'नेह' की कविता, उन के आने वाले संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' से
महेन्द्र 'नेह' का कविता संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' लगभग तैयार है। लोकार्पण की तिथि तय होनी है। आप को पढ़ाते हैं उसी संग्रह से एक कविता ............
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सलूक
- महेन्द्र 'नेह'
'उसने'
आदमी को निचोड़ा
और तौलिए का
विज्ञापन बना दिया
'उसने'
आदमी को सुखाया
और आदमी देर तक थरथराता रहा
'उसने'
आदमी के बदन पर इत्र छिड़का और
तहा कर जेब में रख लिया
'उसने'
जेब से निकाला आदमी
और उस से अपनी नाक पोंछ ली
आदमी क्या करता
आदमी लाचार था
और उसे अपने को
जिंदा रखना था
जाने क्या सिफ्त है
आदमी में
कि अपने सपनों को
कुचले जाने की आखिरी हदों तक
और अपमान के सब से कड़वे घूँटों
के बीच भी वह जिंदा रह जाती है
आदमी जिंदा रह गया है
और बुरे दिनों के बीच
नए सपने बुनने में लगा है
आदमी को भरोसा है
कि मौसम जरूर बदलेगा
देखते हैं आदमी बदले हुए मौसम में
'उसके' साथ कैसा सलूक करता है?
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रविवार, 4 अक्टूबर 2009
जब वैद्य मामा से औरत पर चढ़ने वाला भूत डरने लगा
लवली कुमारी के ब्लाग संचिका पर उन का आलेख स्त्रियों में मनोरोग पराशक्तियाँ और कुछ विचार पढ़ा। पसंद भी आया। मुझे अपने दो मामाओं के बीच का वार्तालाप स्मरण हो आया।
मेरे मामा जी, पंडित चंदालाल शर्मा शानदार ज्योतिषी थे इलाके में उन का नाम था। हालांकि उन्हों ने इसे पेशा कभी नहीं बनाया। यूँ एक बीड़ी कारखाने के मालिक थे। उन के मित्र वैद्य पं. कृष्णगोपाल पारीक नामी वैद्य थे। उन की स्वयं की औषध शाला थी और भारतीय जड़ी बूटियों के माध्यम से चिकित्सा पर अधिकार था। उन्हों ने एक आयुर्वेद महाविद्यालय भी कुछ बरस चलाया जिस ने इस क्षेत्र में सैंकड़ों लोगों को वैद्य बनाया। आज भी वे लोग गांवों में चिकित्सा सेवा दे रहे हैं। माँ बैद्य जी को राखी बांधती थीं और वैद्य जी ने उस राखी के रिश्ते को मामा जी से भी बढ़ कर निभाया। आज भी उस परिवार के लोग उस रिश्ते को उसी तरह निभाते हैं।
एक दिन मैं मामा जी से मिलने गया तो वैद्य मामा भी वहीं बैठे थे। दोनों में इस विषय पर वार्तालाप चल रहा था कि लोगों पर जो भूत-प्रेत चढ़ आते हैं उन का क्या इलाज है? मामा जी ने मेरे नाना द्वारा भूत उतारने के किस्से सुनाए। काशी गुरुकुल से विद्या प्राप्त वैद्य मामा कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्हों ने भी एक किस्सा छेड़ दिया। यह किस्सा मुझे इस लिए भी स्मरण रहा क्यों कि यह उस औरत पर से भूत उतारने से संबद्ध था जो उस मकान में रहती थी जिस के पास के मकान में मैं पैदा हुआ था।
उस औरत को अचानक भूत चढ़ने लगा। पहले पहल ऐसा महिने, दो महिने में हुआ करता था। फिर आवृत्ति बढ़ती गई। भूत महाराज सप्ताह में दो-तीन बार आने लगे। घर वाले परेशान। एक दिन औरत पर भूत चढ़ा हुआ था कि औरत गली में निकल आई। वैद्य मामा उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने वैसे ही पूछ लिया यह क्या हो रहा है? उन की पूरे मोहल्ले पर ही नहीं पूरे इलाके में धाक थी। उस महिला के पति ने वैद्य मामा से कहा कि 'इसे पिछले चार पांच महिने से भूत चढ़ता है। पहले तो दस-पांच मिनट में उतर जाता था। पर अब तो एक-एक घंटा हो जाता है और सप्ताह में दो-तीन बार चढ़ जाता है। आप के पास कोई इलाज/उपाय हो तो बताएँ। वैद्य मामा सोच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद कहा कि इसे किसी तरह मकान के अंदर कमरे में ले चलो और एक धूपेड़े (हनुमान जी, माताजी और भैरव मंदिरों में धूप जलाने के लिए रखा जाने वाला मिट्टी का डमरू के आकार का बरतन) में कंडे जला कर रखें।
पति कुछ लोगों की मदद से भूत चढ़ी पत्नी को जैसे-तैसे अपने मकान के कमरे तक ले गया। कुछ ही देर में मामा वैद्य जी वहाँ पहुँच गए। उन्हों ने कमरे का निरीक्षण किया कमरे में हवा-रोशनी आने के लिए दरवाजे के अलावा केवल एक खिड़की थी। उन्हों ने खिड़की को बंद करवा दिया। तब तक धूपे़ड़े में जल चुके कंडे आग में बदल चुके थे। वैद्य जी ने उस आग में कुछ डाला तो तेज गंध आई। वैद्य जी ने सब को कमरे से बाहर निकाला और धूपेड़ा कमरे में ले गए। औरत जोर से चिल्लाने लगी -मुझे कौन भगाने आया। मैं न जाउँगा। मिनट भर बाद ही एक कागज की पुड़िया में से कोई दवा उन्हों ने धूपेड़े में डाली और फौरन कमरे से बाहर आ कर दरवाजे के किवाड़ लगा कर कुंडी लगा दी। अंदर से औरत के चिल्लाने की आवाजें आईँ। फिर वह जोरों से खाँसने लगी। फिर उस के खाँसने की आवाज भी बंद हो गई। वैद्य जी ने तुंरत लोगों को दूर जाने को कहा और किवाड़ व खिड़की खोल दी। अंदर से बहुत सा धुँआ निकला। जो भी उस की चपेट में आया वही खाँसने लगा। औरत अचेत पड़ी थी। वैद्य जी ने उस औरत के पति को कहा कि उसे खुले में ले आएँ। कुछ देर में यह ठीक हो जाएगी। तभी औरत ने आँखें खोली और सामान्य हो गई। लोगों को देख घूंघट कर लिया। उस का भूत उतर चुका था।
वैद्य मामा ने जब किस्सा सुना चुके तो मैं ने पूछा आखिर आप ने किया क्या था? कहने लगे -मैं ने बस थोड़ा सा लाल मिर्चों का पाऊडर धूपेड़े में डाला था। जिस के धुँए से औरत बेहाल हो कर बेहोश हो गई। होश में आई तो उस का भूत उतर गया था।
-और उस औरत को कुछ हो जाता तो? मैं ने पूछा।
मैं वहीं था। इलाज कर देता।
फिर कभी उस औरत को भूत चढ़ा या नहीं? मैं ने जिज्ञासावश पूछा।
वैद्य मामा ने बताया कि भूत तो फिर भी उस पर चढ़ता था। लेकिन तभी जब मैं गाँव में नहीं होता था। शायद भूत मुझ से डर गया था।
शनिवार, 3 अक्टूबर 2009
रेत के धोरों के गान ! अलविदा .....! अलविदा ...! अलविदा ...!
मैं ने रेत की खूबसूरती देखी थी, आप ने भी जरूर देखी होगी। अगर आप ने सुनीलदत्त और अमिताभ की 'रेशमा और शेरा' या शाहरुख की 'पहेली' देखी हो। चित्रों और फिल्मों में रेत बहुत खूबसूरत लगती है। मैं ने भी उसे चित्रों और परदे पर ही देखा था। लेकिन फिर मैं ने रेत का गान सुना। हाँ, रेत के धोरों को गाते सुना। हरीश 'भादानी' जी के मुहँ से मैं ने रेत का गान सुना। वह प्यास के गीत गाती थी, अदम्य प्यास के गीत, वह रोटी के गीत गाती थी। वह अकुलाते हुए गाती थी। वह मशाल जलाते हुए गाती थी। वह काली अंधियारी रात में सुबह के गीत गाती थी। वह रेत थी निहायत रेत, जो पानी के लिए तरसती, तड़पती थी। पानी का एक अणु भी उस के पास न ठहरता था। वह गान गाने वाला नहीं रहा। अब कौन गाएगा रेत के उन गीतों को? कौन प्यास के गीत गाएगा?
माध्यमिक हिन्दी की किताब में उन का गीत पढ़ा था। उसे गाया भी था। उसे सुबह होने के पहले जब घूमने निकलता तो अक्सर ऊंचे स्वर में गाता था .......
भोर का तारा उगा है
नींद की साँकळ उतारो
किरन देहरी पर खड़ी है
जाग जाने की घड़ी है
हरीश जी ही गा सकते थे -
फिर हवा में घुल गई है रेत
किरकिरी की हर रड़क पर आप
दो अक्टूबर की सुबह महेन्द्र 'नेह' से खबर मिली कि हरीश जी नहीं रहे। मैं कुछ नहीं कहूँगा उन पर। पर वे उन कवियों में एक थे जो मेरे सब से अधिक पसंदीदा हैं। उन्हों ने जन के गीत गाए। अधिक नहीं लिखूंगा। उन पर अनेक पोस्टें आ चुकी हैं। खबर मिली तब तक बिजली जा चुकी थी, किसानों को बिजली देने के लिए शहरियों की चार घंटे की कटौती। पर शायद किसानों ने उस का उपयोग नहीं किया। कहाँ करते। फसलें तो पहले ही बिन पानी के सूरज के ताप में जल चुकी हैं। बिजली एक घंटे में ही लौट आई।
बापू और शास्त्री जी का जन्मदिन था। मैं इसे स्वच्छता दिवस के रूप में मनाता रहा हूँ। कभी घर में, कभी मुहल्ले भर के साथ अपना ऑफिस या मुहल्ले की नालियाँ साफ करते हुए। आज अपना ऑफिस साफ किया/करवाया। कंप्यूटर और ब्रॉड बैंड ने महिनों बाद चैन की साँस ली। सुबह के अलग हुए उन के तार आधी रात के कुछ ही पहले जुड़े हैं। बहुत धूल गई है फेफड़ों में उस का नशा है और थकान का भी।
दिन भर हरीश जी के गीत याद आते रहे। सफाई के दौरान उन का गीत संग्रह रोटी नाम सत है भी हाथ लग
गया। एक गीत उसी से आप के लिए .......
राजा दरजी
मेरी खातिर
अब त सियो कमीज राजा दरजी !
तीसों बरस बनाते गुजरे
बीस गजी अचकन
खादी टाट समेट ले गए
खूब करी कतरन,
मुझे मिली केवल लंगोटी
राजा दरजी !
बाहर बटन भीतरी अस्तर
चेपा मुझे गया,
जहाँ जहाँ भी दिखे कोचरे
तीबा मुझे गया,
चुकने को है अब तेरा धागा
राजा दरजी!
नापी नहीं कभी भी तुमने
कितनी आँत बड़ी,
जितनी दी पोशाकें तुमने
तन पर नहीं अड़ीं
बहुत चलाई अब न चलेगी
राजा दरजी !
- हरीश भादानी