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बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

क्या पता?

 आज पढ़ें 'यक़ीन' साहब की ये 'ग़ज़ल'


क्या पता?


  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता

ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता

नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता

ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता

ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता

टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता

इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता

वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता

 
















9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर गजल है द्विवेदी जी , धन्यवाद आपका ऐसी मनोरम गजल पढाने के लिए

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  2. उम्दा गजल के आभार द्विवेदी जी
    सुचना"गुरतुर गोठ"पर गीत का अर्थ लिख आया हुं
    आपने लिखा था समझ नही आई, अब पढ लें

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर गजल शुक्रिया इसको पढ़वाने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  4. वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
    पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता...

    क्या ये फ़साना हर ब्लॉगर का नहीं लगता...

    जय हिंद...

    जवाब देंहटाएं
  5. किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
    बढियां हैं मगर यह भी -
    किस घड़ी मुंद जाऐं आँखें, क्या पता

    जवाब देंहटाएं
  6. ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
    किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
    इस सुंदर गजलो के लिये आप का ओर पुरुषोत्तम ‘यक़ीन साहब का धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. यक़ीन साब के काफ़ियों का चयन हमेशा मुझे अचंभित करता है और तिस पर इतनी सहजता से बुने गये अशआर कि आहsssss...

    "ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो/फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता"

    लाजवाब !

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  8. टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
    ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता
    कूट नीति के लिये इससे सटीक पंक्तियाँ और क्या हो सकती हैं ।

    जवाब देंहटाएं

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