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मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

धर्म का चक्कर



धर्म का चक्कर 

### पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की एक ग़ज़ल ###






जहाँ भर में हमें बौना बनावे धर्म का चक्कर
हैं इन्साँ, हिन्दू, मुस्लिम, सिख बतावे धर्म का चक्कर


ये कैसा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का है झगड़ा
करोड़ों को हज़ारों में गिनावे धर्म का चक्कर 

चमन में फूल खुशियों के खिलाने की जगह लोगों
बुलों को ख़ून के आँसू रुलावे धर्म का चक्कर


कभी शायद सिखावे था मुहब्बत-मेल लोगों को
सबक़ नफ़रत का लेकिन अब पढ़ावे धर्म का चक्कर

सियासत की बिछी शतरंज के मुहरे समझ हम को
जिधर मर्ज़ी उठावे या बिठावे धर्म का चक्कर

यक़ीनन कुर्सियाँ हिलने लगेंगी जालिमों की फिर 
किसी भी तौर से बस टूट जावे धर्म का चक्कर 


मज़ाहिब करते हैं ज़ालिम हुकूमत की तरफ़दारी 
निजामत ज़ुल्म की अक्सर बचावे धर्म का चक्कर 


निकलने ही नहीं देता जहालत के अंधेरे से
'यक़ीन' ऐसा अज़ब का चक्कर चलावे है धर्म का चक्कर

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13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत विचारणीय अभिव्यक्ति ......
    आपके विचारों को नमन.
    मजहब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
    तहजीब सलीके की इंसान करीने के.
    फिराक

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  2. हमेशा की तरह पुरोषोत्तम जी पर यकीन करने को जी चाहता है...आज इंसान की ही कमी हो गयी है..धर्म कर्म तो बहुत मिल रहे हैं..आभार कहें उन्हें हमारा

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  3. पुरुषोत्तम 'यक़ीन'साहब का मुरीद हुआ जा रहा हूँ.

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  4. ज़नाब पँडित जी को सलाम पहुँचे
    आपकी पसँद काबिले तारीफ़ है, बड़ा मौज़ूँ है यह कलाम
    इसी सिलसिले को आगे ले जाते हुये...

    " इन्साफ़ भी ख़ामोश है दीवार भी ख़ामोश
    रहबर भी है ख़ामोश कलमग़ार भी ख़ामोश
    अफ़साने हैं अख़बारों में गोकि हालात नहीं हैं
    साज़िशे बरबादी को कहते फ़सादात नहीं है
    जिस अहद में जिस रूप में हो चाहे वह जहाँ हो
    इन्साफ़ तो होना है एक दिन यहाँ हो कि वहाँ हो

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  5. बहुत सुंदर जी, इस धर्म ने कभी भी इंसान को इंसान नही रहने दिया,पुरोषोत्तम जी की रचना हमेशा की तरह बहुत सुंदर लगी
    धन्यवाद

    आप को ओर आप के परिवार को दीपावली की शुभ कामनायें

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  6. सही कहा -- ये कैसा धर्म है ?
    सच्चा धर्म क्या है ? कोइ समझे तब ना !!
    दीपावली में शांति का सन्देश फैले यही कामना है
    आपके परिवार के लिए मंगल कामना
    - लावण्या

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  7. इंसान का इंसान से हो भाईचारा
    यही पैगाम हमारा, यही पैगाम हमारा...

    जय हिंद...

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  8. धर्म के चक्कर को यकीनन सही रूप में दिखाया है यकीन साहब ने.

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  9. निकलने ही नहीं देता जहालत के अंधेरे से
    'यक़ीन' ऐसा अज़ब का चक्कर चलावे है धर्म का चक्कर। इसीलिये बेहतर है हम इस धर्म के चक्कर मे फँसे ही नही और जो फँसे हैं जल्दी से जल्दी बाहर निकल जायें । बहुत अच्छी गज़ल है यह यकीन जी की । धन्यवाद द्विवेदी जी ।

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  10. "चमन में भूल खुशियों के खिलाने की जगह लोगों
    बुलों को ख़ून के आँसू रुलावे धर्म का चक्कर "

    बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना. सत्य को धर्म, सम्प्रदाय या वाद में बांधकर सीमित नहीं किया जा सकता!

    दीपावली की शुभकामनाएं!

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  11. यकीन साहिब की ये रचना भी मुझे बहुत अच्छी लगी। सच मे ही आज धर्म केवल इन्सान को बाँटने का काम कर रहा है। रचना का एक एक शब्द चीख चीख कर सच्चाई ब्यान कर रहा है देवेदी जी ऐसी रचनाओं का प्रचार प्रसार होना चाहिये इस रचना को भी मै अपने ब्लाग पर लगाना चाहूँगी। 5=6 दिन बाद। अगर यकीन साहिब क्े इजाजत हो। धन्यवाद यकीन साहिब को बधाई।ापको व आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनायें। यकीन साहिब व परिवार को भी दीपावली की शुभकामनायें

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  12. एक उम्दा ग़ज़ल...
    बेहतरीन इशारों के साथ...

    यक़ीन साहेब तो बाकलम ख़ुद यक़ीन हैं...

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
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