बीएससी के बाद जब एलएल.बी. में एडमिशन लिया तब केवल कानून पढ़ने का इरादा था और पत्रकार बनने का। पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि जनवरी 1978 में सारे सपने पीछे छोड़ वकील बनने का इरादा कर लिया। 1978 मई में एलएल.बी. का आखिरी पर्चा देने के दिन रात 12 बजे अपने घर बाराँ पहुँचा। अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे एडवोकेट हरीशजी गोयल के दफ्तर में था। मुझे देख उन्होंने पूछा, “तेरी परीक्षा हो गयी?” मैंने कहा, “कल आखिरी पर्चा था।“ वे पूछने लगे, “अब क्या करना?” मैंने कहा, “करना क्या है? आज से आपकी फाइलों का बस्ता लेकर अदालत चलना है, वकालत का अभ्यास शुरू।” उन्होंने कहा, “बस्ता संभालने के लिए तो मुंशी जी हैं। आ, खाना खा लेते हैं फिर चलते हैं अदालत।“ मैंने बताया कि “मैं तो खा कर आया हूँ। आप भोजन करके आइए।“
उस दिन से अदालत जाना शुरू हो गया। परीक्षा का परिणाम आ गया। बार कौंसिल राजस्थान में एनरोलमेंट के लिए आवेदन कर दिया। उस वक्त इंटरनेट का जन्म नहीं हुआ था। न वेबसाइटें थीं और न ई-मेल। टेलीफोन कुछ व्यवसाइयों के पास या केवल नगर के बड़े घरों और सरकारी दफ्तरों में हुआ करते थे। कभी तुरन्त कम्युनिकेशन की जरूरत पड़ती तो लाइटनिंग कॉल करनी पड़ती थी। डाक से आने वाली चिट्ठियाँ ही कम्युनिकेशन का प्रमुख साधन थीं। तब लिखने-पढ़ने और पत्रकारिता का भूत खूब सवार रहता था। मेरे लिए रोज कम से कम चार-पाँच जरूर चिट्ठियाँ आतीं जो दोपहर को घर पर डिलीवर होतीं। अदालत जाते समय पोस्ट ऑफिस रास्ते में पड़ता था। सुबह दस-सवा दस बजे पोस्टमेन डाक छाँट कर डिलीवरी के लिए निकलने की तैयारी में होते थे। मैं पोस्ट ऑफिस होते हुए अदालत के लिए निकलता और अपनी डाक पोस्टमेन से वहीं वसूल लेता था।
साल 1978 के 23 दिसम्बर का दिन था। यह संयोग ही है कि आज 45 वर्ष बाद भी इस दिन शनिवार ही है। तब चौथा शनिवार होने से अदालतों और सरकारी दफ्तरों में अवकाश है। लेकिन तब सरकार और अदालतों में केवल दूसरे शनिवार को अवकाश हुआ करता था। चौथे शनिवार को अदालतें और दफ्तर गुलजार रहा करते थे। उस दिन मैंने अदालत जाने समय पोस्ट ऑफिस से अपनी डाक वसूल की। डाक में एक खाकी रंग का लिफाफा था जो बार कौंसिल से आया था। मैंने सबसे पहले उसे खोल कर देखा तो उसमें पत्र था जिसमें सूचना दी गयी थी कि 3 दिसम्बर 1918 बैठक में मुझे बार कौंसिल ऑफ राजस्थान की रोल पर 544/ 1978 क्रम पर एनरोल कर लिया गया है। उस चिट्ठी के मिलते ही मैं एक प्रशिक्षु से वकील हो गया था। अदालत पहुँचने पर भाई साहब हरीश जी मिले मैंने वह चिट्ठी उन्हें दे दी। चिट्ठी पढ़ कर बहुत प्रसन्न हुए। वे कुछ सप्ताह पहले ही सिल कर आया नया काला कोट पहने थे। उन्होंने अपना कोट उतारा और मुझे पहना दिया। मुझे कोट पहना हुआ देख कर सारे वकील पूछने लगे, “सनद आ गयी लगती है?” मैंने बताया कि आज ही पत्र मिला है।
उन दिनों बार एसोसिएशन बाराँ के सभी वकील लंच की चाय एसोसिएशन के हॉल में ही पीते थे। लंच हुआ तो सभी हॉल में पहुँचने लगे। जैसे ही हरीश जी और मैं हॉल में पहुँचे। सीनियर वकील मोहम्मद खाँ जी ने बोले,”हरीश” मिठाई कहाँ है? आज तेरा पहला चेला वकील हो गया।“ तभी मुंशी जी मिठाई का डब्बा लिए हॉल में दाखिल हुए, नमकीन मिक्सचर भी साथ था। बस संक्षिप्त सी पार्टी हो गयी। उसके बाद बार एसोसिएशन बाराँ में मेरा नाम सदस्य के रूप में पंजीकृत किया गया। उस दिन से वकालत शुरु हुई तो कभी इस प्रोफेशन ने दामन न छोड़ा। वकालत में बहुत लोगों का आशीर्वाद मिला।
मैं साल पूरा होने के पहले ही बाराँ छोड़ कोटा आ गया। बाराँ में तो हरीश जी और उनके सभी मित्र वकीलों का मुझे आशीर्वाद मिला। कोटा आने के बाद मैं हमेशा पशो-पेश में रहा कि किस सीनियर वकील का दफ्तर जोइन करूँ। मैं मजदूरों की पैरवी करता था। किसी भी नामी दफ्तर में खुद को इनकसिस्टेंट पाता। इसलिए स्वतंत्र रूप से काम करने लगा। लेकिन हमेशा किसी सीनियर वकील के वरदहस्त की जरूरत होती तो मुझे कोटा के नामी वकीलों, पण्डित रामशरण जी शर्मा, सज्जनदास जी मोहता, पानाचंद जी जैन, शिव कुमार शर्मा, महेश जी गुप्ता आदि सीनियर वकीलों का आशीर्वाद मुझे जीवन पर्यन्त मिलता रहा। पानाचंद जी और शिवकुमार जी शर्मा उच्च न्यायालय में जज हुए तो कोटा छोड़ गए। पानाचंद जी जैन और महेश जी गुप्ता अभी मौजूद हैं उनका का आशीर्वाद जब भी चाहता हूँ मुझे मिलता रहता है। कोटा में मजदूर वर्ग के नेताओं का साथ मुझे मिला। उनके साथ के बिना मैं जो आज हूँ कभी नहीं हो सकता था। उनका उल्लेख किसी अन्य अवसर पर फिर करता हूँ।
मित्रों¡ वह अद्भुत दिन था। शायद ही किसी नए वकील को यह अवसर मिला होगा कि सनद मिलने की सूचना मिलने पर सीनियर उसे अपना कोट पहना दे। मैंने वह कोट लगभग पाँच बरस पहना और लगभग बीस वर्ष तक संभाल कर रखा भी। आज वकालत में पैंतालीस साल पूरे हुए। आप सब की शुभकामनाएँ रहीं तो पचास भी इसी तरह सफलतापूर्वक पूरे होंगे।