दिसम्बर का तीसरा सप्ताह था। मुझे बाराँ से कोटा आना था। काम निपटाने के बाद घर पर माँ से मिलने में समय हो गया और मुझे रात सात बजे की बस मिली। सूर्यास्त हुए डेढ़ घंटा हो चुका था और पूस के माह की सर्दी ने काटना शुरु कर दिया था। कोटा पहुँचने में दो घण्टे की दूरी थी। बस चली और बस स्टेण्ड के बाहर निकलते ही रुकी। बदहवासी की दशा में एक बन्दा बस में चढ़ा और बस चल दी। वह एक साधारण सूरत का मेहनतकश इन्सान लगता था। जैसे कोई राजमिस्त्री या फिर किसी गैराज का सिद्धहस्त मैकेनिक हो। हम उसे इस किस्से के लिए राजमिस्त्री कह सकते हैं। सीढ़ी चढ़ कर जैसे ही वह बस के फ्लोर पर पहुँचा उसने बस में एक नजर दौड़ाई। बस में कुल जमा 11 सवारियाँ थी और वह बारहवाँ था। बस के पीछे की पाँच पंक्तियाँ पूरी तरह से खाली थी। वह पीछे गया और पीछे से चौथी लाइन की ड्राइवर साइड की तीन सीटों में बीच वाली पर जा बैठा। शहर छोड़ने के पहले बस दो एक जगह और रुकी, सवारियाँ बैठाईं और फिर चल दी। शहर के बाहर निकलने के बाद एक जगह और रुकी। यहाँ कुछ वीराना था, लेकिन यहाँ भी दो सवारियाँ मिल गयीं। राजमिस्त्री ने इस बार खड़े हो कर कण्डक्टर से पूछा कि क्या वह नीचे उतर कर पेशाब कर के आ सकता है? कण्डकर ने पलट कर कहा, -क्या वह दस बीस मिनट नहीं रुक सकता। अगले स्टाप पर यह काम करना।
राजमिस्त्री के आगे की सीट पर सवारियाँ आ गयी थीं। वह अपनी सीट से निकला और पीछे तीसरी पंक्ति में बीच की सीट पर बैठ गया। उसके आगे की पंक्ति फिर खाली थी। अगला अधिकारिक स्टाप पंद्रह किलोमीटर पर था। मुश्किल से बीस बाईस मिनट का रास्ता। लेकिन दस मिनट बाद राजमिस्त्री फिर खड़ा हुआ और कंडक्टर से फिर पूछा कि बस कब रुकेगी?
कंडक्टर अब सवारियों के टिकट बना रहा था। उसने फिर कहा दस मिनट बाद अगला स्टाप है। राजमिस्त्री फिर बैठ गया। पाँच मिनट बाद वह फिर खड़ा हुआ और इस बार उसने पूछा, अगला स्टाप कितनी दूर है। कंडक्टर ने जवाब दिया कि बस तीन चार मिनट में आ जाएगा। उसके बाद अगले स्टाप तक राजमिस्त्री चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा।
बस ने अंता कस्बे में प्रवेश किया और बस स्टैंड पर रुकी। ड्राइवर ने इंजन बन्द किया और नीचे उतर गया। बस की सारी सवारियों का ध्यान उसी राजमिस्त्री पर था कि वह अब अपनी सीट से खड़ा होगा, तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ेगा और पेशाब करके वापस लौटेगा। बस से तीन सवारियाँ उतर गयीं और दो वहाँ से बैठ गयीं। लेकिन राजमिस्त्री अपनी जगह से नहीं हिला। कंडक्टर ने राजमिस्त्री से कहा, -उठ भाई¡ उतर कर तेरा काम कर आ। तब तक हम चाय पी लेंगे।
राजमिस्त्री ने कुछ देर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कंडक्टर ने फिर से जोर से कहा, - अब क्या हो गया? रास्ते में तो बार बार पूछ रहा था।
राजमिस्त्री ने बड़ी शान्ति से जवाब दिया, -अब जरूरत नहीं रही। रुक नहीं रहा था तो यहीँ कर लिया।
कंडक्टर ने पीछे जा कर टार्च की रोशनी में देखा तो सीट के नीचे बहुत गीला हो रहा था। वह राजमिस्त्री पर बरस पड़ा, -पहले नहीं कह सकता था कि यहीं निकल जाएगा। बस गंदी कर दी। अब इसे क्या तेरा बाप धोएगा?
राजमिस्त्री ने बहुत शान्ति से जवाब दिया, -उस्ताद नाराज मत होओ। मैं ने दो बार तुम्हें कहा था। तुम न समझे तो मेरी क्या गलती है। दोस्तों के बीच ज्यादा बीयर पी ली थी। निकलनी तो थी ही। मैंने बहुत रोका पर फिर भी निकल गयी तो मैं क्या करता। कोटा पहुँचने पर फर्राश से धुलवा लेना उसकी मजूरी मैं दे दूंगा।
कंडक्टर ने राजमिस्त्री को माफ नहीं किया और बस के अन्ता से चलने तक उसे गालियाँ देता रहा। बाकी सवारियाँ मन ही मन मुस्कुरा रही थीं।