बुद्ध पूर्णिमा पर मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर यह प्रश्न उठा कि पहले बुद्ध आए कि राम। मेरी वह पोस्ट वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस से प्रकाशित संस्करण के एक श्लोक पर आधारित था, जिसमें बुद्ध का उल्लेख आया है। यह सभी जानते हैं कि बुद्ध एक वास्तविक ऐतिहासिक चरित्र हैं। राम का चरित्र भी प्राचीन है, वह वास्तविक है या काल्पनिक यह कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरह इस चरित्र के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं उससे लगता है कि इस चरित्र का सदियों में विकास हुआ है। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता। केवल यह कहना चाहता हूँ कि वाल्मिकी रामायण बुद्ध के बाद की रचना है। यह ईसा पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में रची गयी है। महाभारत की भी ऐसी ही स्थिति है। यहाँ मैं रामायण का वह प्रसंग और श्लोक चित्रों सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जब भरत राम को वनवास से लौटाने के लिए चित्रकूट गए. उनके साथ दशरथ के एक मंत्री जाबालि भी भरत के साथ थे जिन्हें रामायण में ब्राह्मण शिरोमणि कहा है।(अयोध्याकाण्ड 108वाँ सर्ग) जब राम को सबने वापस अयोध्या लौटने के लिए अपने अपने मत के अनुसार समझाया। तब जाबालि ने भी अपने नास्तिक मत के अनुसार राम को समझाया। उसने कहा कि जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। पिता जीव के जन्म में निमित्त कारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमति माता के द्वरा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही जीव का यहाँ जन्म होता है। जो मनुष्य अर्थ का त्याग करके धर्म को अंगीकार करते हैं मैं उनके लिए शोक करता हूँ अन्य के लिए नहीं। क्योंकि वे इस जगत में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोग कर मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गए हैं। अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उन के देवता पितर हैं- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है यही सोच कर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा? यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में जाता हो तो परदेश में जाने वालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए उनके रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है। देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर द्वार छोड़ कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की और लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए बनाए हैं। अतः आप अपने मन में निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष राज्य है उसे संभालिए और परोक्ष को छोड़ दीजिए।
राम इस नास्तिक मत पर बहुत कुपित होते हैं और जाबालि को बहुत बुरा भला कहते हैं। राम जाबालि के तर्कों का उत्तर तर्कों से नहीं देते बल्कि परम्परा का हवाला देते हैं और अन्त में कहते हैं कि “आपकी बुद्धि विषम मार्ग में स्थित है। आपने वेद विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वनार अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने अपना याजक (मंत्री) बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार बौद्ध (बुद्ध मतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत और नास्तिक को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इस कारण को नास्तिक को चोर की तरह ही (मृत्यु दण्ड से) दण्डित किया जाना चाहिए। (अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 श्लोक 34)
यह सब वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस संस्करण में है, अनुवाद भी उन्हीं का कराया हुआ है।