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गुरुवार, 5 मार्च 2020

मजदूर वर्ग के लिए न्याय की समाप्ति


न्याय की स्थिति बहुत बुरी है। विशेष रुप से मजदूर वर्ग के लिए। आज मेरी कार्यसूची में दो मुकदमे अंतिम बहस के लिए थे। इन दोनों मामलों में प्रार्थी मजदूर हैं, जिनके मुकदमे 2008 से अदालत में लंबित हैं। हालाँकि श्रम न्यायालय में जाने के पहले इन मजदूरों ने श्रम विभाग में अपनी शिकायत पेश की थी। वहाँ कोई समझौता न होने पर राज्य सरकार को रिपोर्ट भेजी गयी थी और तब ये मुकदमे सरकार ने श्रम न्यायालय को निर्णय के लिए भेजे। इस तरह इन्हें मुकदमा लड़ते-लड़ते 14 वर्ष से अधिक हो गए हैं।

इन दोनों मुकदमों में आज केवल इसलिए पेशी दे दी गई क्योंकि अभी भी अदालत में 20 वर्ष से पुराने अर्थात 1999 तक दायर किए गए अनेक मुकदमें लंबित हैं और पहले उनका निपटारा किया जाएगा। मुझे लगता है कि अभी इन दोनों मजदूरों को कम से कम साल 2-3 साल और इंतजार करना पड़ेगा तब जाकर उन्हें श्रम न्यायालय से निर्णय हासिल होगा।

श्रम न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। राज्य सरकार के अनुरोध पर इन न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय करता है। कोटा के श्रम न्यायालय में यह स्थिति अनेक वर्ष से बनी हुई है, यही स्थिति राजस्थान के अन्य न्यायालयों में भी कई सालों से बनी हुई है। इस स्थिति का लाभ पूंजीपतियों, सरकार और सार्वजिनिक क्षेत्र के उद्योगों को मिलता है। शीघ्र न्याय के लिए यह आवश्यक है कि यहां एक श्रम न्यायालय और स्थापित किया जाए। शीघ्र न्याय के लिए यह स्वयं सरकार को सोचना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि इस अदालत में स्टेनो और रीडर दोनों 2 वर्ष पूर्व ही रिटायर हो चुके हैं। लेकिन उनके स्थान पर दूसरे व्यक्ति अभी पद स्थापित नहीं किए गए हैं और सेवानिवृत्त दोनों कर्मचारियों को ही एक्सपेंशन दिया हुआ है। यदि इस वर्ष इन्हें तीसरे वर्ष के लिए एक्सटेंशन नहीं दिया गया तो अदालत की स्थिति और बुरी हो जाएगी सरकार की सोच इस मामले में सिर्फ यह है कि सरकार और खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है।

फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस सरकार है। लेकिन यह स्थिति पिछले 15 वर्ष से बनी हुई है। इस बीच दो बार भाजपा सरकार और इस बार फिर दूसरी बार राज्य सरकार कांग्रेस की है। लेकिन दोनों को इसकी कभी कोई फ्रिक नहीं रही। दोनों ही पार्टियाँ मूलतः पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगी हैं। ऐसी पूंजीपति परस्त सरकारें जो न्याय के लिए पर्याप्त न्यायालय तक भी नहीं दे सकती हैं, क्या उन्हें बने रहने का अधिकार भी रह गया है?

पहले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय इस सिद्धान्त पर चल रहे थे कि किसी को नौकरी से निकालना गलत पाया जाए तो उसे पिछले पूरे वेतन सहित सेवा में बहाल किया जाए। केवल नियोजक द्वारा यह साबित कर देने पर कि सेवा से हटाए जाने के बाद मजदूर लाभकारी नियोजन में रहा है तो उस के पिछले वेतन के लाभ को उसी अनुपात में कम किया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे इन बड़े न्यायालयों में उच्च मध्यवर्ग से आए जजों की संख्या बढ़ी है। इस सिद्धान्त को खारिज किए बिना ही नया सिद्धान्त यह स्थापित कर दिया गया है कि मुकदमे की लंबाई अधिक (10-20 वर्ष) हो जाने के कारण सेवा में पुनर्स्थापित किया जाना जरूरी नहीं है और केवल 1 से 2 लाख के बीच धनराशि दे देने से मजदूर को न्याय मिल जाएगा।

इस तरह एक तरह से मजदूर को न्याय देने का जो दिखावटी काम पूंजीवादी लोकतन्त्र करता है उसे भी कायदे से बत्ती लगा दी गयी है और उनके लिए तैयार न्याय व्यवस्था का पुतला धू-धू कर जल रहा है। यह तो मेहनतकश जनता के सोचने का विषय है कि वह ऐसे में क्या करे? इस स्थिति का उपाय यही है कि मजदूर वर्ग संगठित हो कर किसानों, छोटे दुकानदारो, बेरोजगार छात्रों आदि के साथ भाईचारा स्थापित करते हुए पूंजीपति वर्ग की सत्ता को उलट दे और अपने नेतृत्व में मेहनतकश जनता का जनतंत्र स्थापित करे।

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे?

अमूल्या लियोना गुनहगार है या नहीं, इसे अदालत तय करेगी। अदालत कहे कि वह गुनहगार नहीं तो उसे गुनहगार बताने वाले बड़ी अदालत जाएंगे। वहाँ भी वह गुनहगार न ठहरे तो उससे बड़ी अदालत जाएंगे। वहाँ भी नहीं तो सबसे बड़ी अदालत जाएंगे।

पर अदालत का इंतजार क्यों करें? वे तो तुरन्त उसके घर जाएंगे, पथराव करेंगे। उसके परिवार को आतंकित करेंगे। पिता से कहलवाएंगे की बेटी की सोच से उनका कोई लेना देना नहीं है और वह नक्सलियों के संपर्क में रह चुकी है।

अमूल्या गुनहगार क्यों है? क्या इसलिए कि वह सोचती है कि उसे या उसके देश को जिन्दाबाद कहने के लिए किसी को मुर्दाबाद कहने की जरूरत नहीं। कोई भी देश क्यों मुर्दाबाद कहा जाए? हम अपनी रोटी खाएँ लेकिन दूसरे की छीन कर क्यों खाएँ? शायद वह कहना चाहती हो कि तमाम असफल व्यक्ति अपनी और से ध्यान हटाने को काल्पनिक शत्रु (भूत, प्रेत, आत्माओँ वगैरा) की कल्पना करते हैं और सारा दोष उन पर मँढ कर खुद के बचाव का रास्ता तलाश करते हैं। शायद वह कहना चाहती थी कि तुम्हारा नेता जो अभी सब-कुछ बना बैठा है, वह असफल हो चुका है। उसके पास सारा दोष दूसरों पर मँड़ने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। तो उससे धोखा मत खाओ। खैर!

किसी को पड़ौसी देश के नाम से जिन्दाबाद का नारा लगाने पर भड़क उठना तमाम सरकारी गैर सरकारी मशीनरी की ताकत उसे या उन जैसों को सबक सिखाने में झोंक देना। यही राष्ट्रवाद है। असल में राष्ट्रवाद काली चादर है जिस में गुनहगार खुद के शरीर पर पड़े धब्बों को छुपाते हैं। ये बात भागवत भी समझता है कि अब राष्ट्रवाद के पीछे धब्बे छुपाने की पोल खुल चुकी है। इसलिए कहता है कि उसका मतलब गलत है। राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल मत करो। कोई दूसरा शब्द खोजो।

पर नाम बदलने से फितरत नहीं बदलती, इलाहाबाद का नाम प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद में कुछ नहीं बदलता। वह शहर वैसा ही रहता है जैसा पहले था। नाम बदलने से चरित्र नहीं बदलता। देखते रहिए, कि अब राष्ट्रवाद की जगह कौनसा शब्द आता है दाग छुपाने के लिए।