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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

दवा नहीं, दर्द निवारक : आरक्षण

म्बेडकर जी के बारे में मैं ने बहुत कम पढ़ा है, एक स्कूली विद्यार्थी के बराबर। पर इतना जानता हूँ कि वे अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। उन्होंने भारतीय संविधान की रचना की और उसे संविधान सभा से पारित कराया। वे दलित थे और दलितों की दमन से मुक्ति चाहते थे। उन्हों ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। लेकिन धर्म परिवर्तन से भी दलित का दलितपन गया नहीं। यह तो पुराना अनुभव था। दलितों के मुसलमान बन जाने से उन का दलितपन नहीं गया था। भारत में जाति रस्सी जैसा बंधन है जिसे जला भी दिया जाए तो उस का बल नहीं जाता। उन का ही कमाल था कि दलितों और आदिवासियों को संविधान में आरक्षण मिला। 

इस आरक्षण से दलितों और आदिवासियों को एक अधिकार मिला लेकिन उन का दलितपन और आदिवासीपन और मजबूत हो गया। अब दलित आदिवासी दलित आदिवासी बने रहना चाहते हैं जिससे उन का अधिकार बना रहे। यही इस आरक्षण का साइड इफेक्ट है। आरक्षण के और भी अनेक साइड इफेक्ट्स हैं। जैसे आरक्षण दलित और आदिवासी जातियों का भेद तक नहीं मिटा सका। मेघवाल और बैरवा एक जैसी स्थिति की दलित जातियाँ हैं, लेकिन बैरवा खुद को मेघवालों से आज तक ऊँचा समझते हैं। मीणा खुद को भीलों से बहुत बेहतर मानते हैं। इस तरह आरक्षण की इस दवा ने आदिवासी दलित जातियों की जातिगत संरचना को सीमेंट पिला कर मजबूत किया है।

मूल समस्या थी कि दलितों आदिवासियों के लिए समाज में जो भेदभाव है वह समाप्त हो, लेकिन वह कमजोर भी नहीं हुआ, समाप्त होना तो बहुत दूर की बात है। देश की मूल समस्या तो बेरोजगारी है। लोगों को उन की योग्यता के अनुरूप काम मिलना अनिवार्य हो जाए, अर्थात सब को काम मिलने लगे तो आरक्षण को कोई नहीं पूछेगा। पर हमारी सत्ता ऐसा नहीं कर सकती। पूंजीवाद का एक पाया बेरोजगारी भी है। यदि बेरोजगारी कम होती है तो पूंजीवाद लड़खडाने लगता है। यदि बेरोजगारी बिलकुल समाप्त हो जाए तो वह इतना भुरभुरा जाए कि साधारण से धक्के से गिर पडे़गा। पूंजीवाद हमेशा सस्ती मजदूरी पर निर्भर करता है और सस्ती मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि देश में बेरोजगारों की संख्या कितनी अधिक है।

आरक्षण दवा नहीं थी बल्कि दर्द निवारक (पेन रिलीवर) था। लेकिन इस ने लोगों को इस का एडिक्ट बना दिया है। जिन के पास ये है वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। जिन के पास नहीं है वे उसे पाना चाहते हैं लेकिन उस की निन्दा करते हैं। आरक्षण से सुधरता कुछ नहीं है दलितों और आदिवासियों में जिसे यह सुविधा मिलती है वह खुद को दूसरे दलितों और आदिवासियों से अलग कर लेता है। ऐसे लोगों की नयी प्रजाति बन गयी है। 

एक आदिवासी की शादी हो गयी। बाद में वह इंजिनियर हो गया। उसे सरकारी संस्थान में नौकरी मिल गयी। शादी के कोई दस साल बाद मेरे पास आया बोला वह अपनी पत्नी से तलाक चाहता है क्यों कि उस की पत्नी पढ़ी लिखी नहीं है, दिन भर में दो बंडल बीड़ी पी जाती है, रहन सहन उस का आदिवासियों जैसा है वह उस के साथ नहीं रह सकता। मैं ने कहा कि हिन्दू विधि से उस का तलाक नहीं हो सकता। उस का तलाक तो केवल पंचायत ही स्वीकृत कर सकती है। उस के बाद ही अदालत तलाक की की डिक्री पारित कर सकती है। उस ने कहा वह तो मुश्किल है जाति पंचायत इसे नहीं मानेगी। फिर कोई दस साल बाद वह अफसर मुझे मिला तो उस के साथ पत्नी के रूप में उस से कोई पन्द्रह बरस छोटी आधुनिक महिला थी। मैं ने उस से पूछा तो बताया कि पंचों के मुहँ में चांदीा भरी तो तलाक हो गया।

आरक्षण के कारण गरीब सवर्णों को गरीब आदिवासी दलितों के आरक्षण के अधिकार के खिलाफ खड़ा करना आसान हो गया। अब हमारी व्यवस्था सवर्णों को गरीब आदिवासियों और दलितो से घृणा करना सिखाती है। उस घृणा का राजनीतिज्ञ इस्तेमाल करते हैं। वे उस घृणा कोऔर सींचते हैं, कम नहीं करते हैं। गरीब दलितों और आदिवासियों को आरक्षण से रोजगार नहीं मिलता। उसे तो पहले इन जातियों के पढ़े लिखे सम्पन्न लोग हथिया लेते हैं। पर व्यवस्था ने उन के कंधों पर बग्घी का जुआ चढ़ा कर जोत दिया है और आगे चारा लटका दिया है। वे चारा खाने को आगे बढ़ते हैं, बग्घी चलती रहती है और चारा उतना ही आगे सरकता जाता है। उस तक गरीब दलितों आदिवासियों का मुहँ कभी नहीं पहुंचता। 

अब स्थिति यह है कि आरक्षण भारतीय समाज के जी का जंजाल बन गया है। वह इलाज नहीं है, उस से बीमारी मिट नहीं रही है। बल्कि उस से आंशिक रूप से दर्द का अनुभव नहीं होता। लोग उस के एडिक्ट हो गए हैं। एडिक्शन से पीछा छुड़ाने के लिए बीमारी का इलाज ढूंढना होगा। इस बीमारी का इलाज है सब को रोजगार, रोजगार का मूल अधिकार और उस अधिकार की शतप्रतिशत पालना। यह सब पूंजीवादी सामंती व्यवस्था में संभव नहीं है क्यों कि उस के लिए बेरोजगारी का समाप्त होना साइनाइड जैसा जहर है।

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

हमारे सहजीवन की पहली सब से बड़ी खुशी

क सप्ताह पहले ही दादा जी हमारे बीच नहीं रहे थे। जैसे ही मुझे सूचना मिली मैं बाराँ के लिए रवाना हो गया। उत्तमार्ध शोभा मेरे साथ नहीं जा सकी। वह पूरे दिनों से थी। मैं अंत्येष्टी में शामिल हो कर वापस लौटा और तीसरे दिन फिर से अस्थिचयन में जा कर सम्मिलित हुआ। घर में यह विचारणीय हो गया था कि मुझे तुरन्त वापस लौटना चाहिए। ऐसे दिनों में शोभा को अकेला छोड़ना किसी भी तरह से उचित नहीं है। यूँ पहले अम्माँ का साथ आना तय था। लेकिन दादा जी के न रहने से परिवार में जो स्थितियाँ बनी थीं उन में उस का साथ आना संभव नहीं था। तो छोटी बहिन अनिता साथ आई। चार दिन बाद ही 23 मार्च का भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत का दिन था। पंजाब सभा भवन में शाम को बड़ी सभा थी। मुझे उस में जाना ही था। अनिता की भी इच्छा थी कि वह भी इस कार्यक्रम में जाए। शोभा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं? उस ने हमें कार्यक्रम में आने की अनुमति दे दी।
पूर्वा और हम दोनों

शहीद दिवस समारोह से वापस लौटते लौटते रात के साढ़े नौ बज गए थे। हम घर पहुँचे, भोजन किया उस के तुरन्त बाद ही शोभा ने कहा कि इसी वक्त अस्पताल चलना होगा। ईसाई मिशनरी का अस्पताल पास ही था। हम ने तुरंत आवश्यक तैयारी की और अस्पताल पहुँच गए। अस्पताल में प्राथमिक जाँच के बाद शोभा को भर्ती कर लिया गया। मुझे बताया गया कि अभी तुरंत कोई परिणाम आने वाला नहीं है हो सकता है दस-बारह घंटे लगें। अगले दिन सुबह ही मैं ने अपनी मौसी को भी सूचना दी और वे तुरन्त ही मेरे साथ अस्पताल चली आईं।  प्रातः शोभा को प्रसव पीड़ा होने लगी। उसे जाँच कर नर्स ने लेबर रूम में पहुँचाया। सुबह साढ़े नौ बजे नर्स ने सूचना दी कि बिटिया हुई है। मैं बड़ा प्रसन्न था। मैं चाहता था कि मेरी पहली सन्तान बेटी हो। मुझे मुहँ मांगी मुराद मिल गयी थी। 

पूर्वा
मामाजी को खबर हुई तो वे मामीजी को ले कर शाम के समय मिलने आए। मामाजी बोले- मैं अस्पताल जा कर क्या करूंगा। मामाजी घर पर ही रुके मैं मामीजी को शोभा और नवजात से मिलाने अस्पताल ले आया। करीब आधा घंटे बाद मामीजी को ले कर वापस घर पहुँचा तो मामा जी ने नवजात की जन्म कुंडली बना कर रखी हुई थी। मैं ने उसे देखा तो पता लगा कि उस के जन्म के समय चंद्रमा पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में स्थित था। तब तक मेरा दिमाग लगातार यह सोच रहा था कि नवजात कन्या का नाम क्या रखा जाए। यूँ जन्म नक्षत्र के हर चरण के लिए एक नामाक्षर का सुझाव दिया हुआ है। उस दृष्टि से उस का नाम सौ अक्षर से आरंभ होना चाहिए था। मामाजी ने 'सौदामिनी' नाम का सुझाव दिया था। नाम बहुत सुंदर था लेकिन मुझे कुछ बड़ा सा लग रहा था। मैं शोभा की तरह दो अथवा मेरे नाम की तरह तीन अक्षरों का नाम चाहता था। मैं ने बहुत विचार किया किन्तु सौ शब्द से कोई नाम न सूझा। आखिर मेरे दिमाग में पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र का पूर्वा शब्द अंकित हो गया। आखिर हम ने अपनी बेटी का नाम पूर्वा रखा। 

पूर्वा का एक जन्मदिन
दादाजी का द्वादशा और पहला मासिक श्राद्ध हो जाने के बाद अम्माँ भी कोटा आ गयी। कुछ दिन रह कर शोभा और पूर्वा दोनों को अपने साथ बाराँ ले गयी। करीब दो माह बाद जब शोभा इस स्थिति में आ गयी कि पूर्वा को संभालने के साथ साथ घर को भी देख सके तो ही कोटा वापस लौटी। तब तक पूर्वा इतनी बड़ी हो गयी थी कि मैं उसे संभाल सकता था। तब गर्मी के दिन आरंभ हो गए अदालतें सुबह की हो चुकी थीं। मैं अदालत से दोपहर 1-2 बजे तक घर आ जाता था।

पूर्वा और हम दोनों पिछली दीवाली पर
एक दिन अदालत से लौटा तो शोभा ने बताया कि पूर्वा को दस्त लगे हैं। मैंंने उलट कर पूछा कि ऐसा क्यों कर हो सकता है? मैं ने आयुर्वेद पढ़ा था तो मैं उस के उपचार के बारे में सोचने लगा। शोभा ने अपना अनुमान बताया कि बच्ची की पहली गर्मी है उसी के कारण इसे दस्त लगे हो सकते हैं। उन दिनों मैं रोज सुबह ब्राह्मी की सूखी पत्तियाँ और पोस्तदाना भिगो कर जाता था जिस से शाम को ठंडाई बनाई जा सके। मुझे तुरंत भीगी हुई ब्राह्मी याद आई मैं ने दो तीन पत्तियों को पानी से निकाला और उन्हेंं ठीक से निचोड़ कर आधा चाय के चम्मच के बराबर रस निकाला। यही रस मैं ने पूर्वा को पिला दिया और प्रतिक्रिया देखने लगा। असर यह हुआ कि पूर्वा के दस्त उस के बाद सामान्य हो गए। इस तरह उसे पहले शारीरिक उपद्रव से आराम मिला। मुझे उसी दिन यह अहसास हुआ कि आयुर्वेद के अध्ययन और बीएससी तक जीव विज्ञान पढ़ने से जितना ज्ञान मुझे मिला उस के आधार पर मैं कम से कम अपने परिवार की स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रारंभिक चिकित्सा कर सकता हूँ। इस काम में मुझे शोभा की भी मदद मिल सकती है। वह बचपन से अपने चिकित्सक पिता के साथ रही थी और आवश्यकता होने पर रोगियों की परिचर्या में उन की मदद करती थी। 


पूर्वा का पिछला जन्मदिन
पूर्वा ने हमें बहुत खुशियाँ दीं। उस ने अपने बचपन में हमें कभी तंग नहीं किया। वह अन्य बच्चों की तरह रोती भी न थी। रात को भी यदि उसे नीन्द न आ रही होती तो लेटे लेटे बस नीले रंग के नाइट बल्ब को ताकती हुई मुस्कुराती रहती और नीन्द आने पर चुपचाप सो जाती। बाद  में पूर्वा के कारण ही मेरा परिचय एक होमियोपैथी चिकित्सक से हुआ। करीब एक वर्ष तक आवश्यकता पड़ने पर हमारे चिकित्सक वही रहे। मुझे होमियोपैथी में रुचि हुई तो फिर होमियोपैथी भी सीखी। दोनों बच्चों के वयस्क होने तक हम ने उन की चिकित्सा अक्सर खुद ही की। अभी भी दोनों बच्चों के पास होमियोपैथी की दवाएँ रहती है जिस से वे आकस्मिकता होने पर तुरन्त खुद अपनी प्रारंभिक चिकित्सा कर सकें। उस का लाभ यह भी है कि अधिकांश शारिरिक उपद्रवों का उपचार इस प्रारंभिक चिकित्सा से ही हो जाता है। बहुत अधिक आवश्यकता होने पर नियमित चिकित्सक की सलाह और उपचार लिया जा सकता है। खैर उस की तफसील फिर कभी।


आज पूर्वा का जन्मदिन है। मेरे और शोभा के सहजीवन की पहली सब से बड़ी खुशी के आने का दिन। 

पूर्वा को जन्मदिन पर असीम शुभकामनाएँ और बधाइयाँ!