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मंगलवार, 28 जुलाई 2009

प्रकृति के तीन गुण सत्, रजस और तमस में असमानता से बुद्धि और अहंकार का विकास

सांख्य का मूल वैदिक साहित्य, उपनिषदों से ही आरंभ हो जाता है। बौद्ध ग्रंथों में उस के उल्लेख से उस की प्राचीनता की पुष्टि होती है, उस पर ईसा के जन्म के पहले और बाद में बहुत कुछ लिखा गया और लगातार कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है। जिस से यह स्पष्ट होता है कि यह एक प्रभावशाली चिंतन प्रणाली रही है और इस का विकास भी हुआ है। इस के आद्य दार्शनिक कपिल कहे जाते हैं। पिछले आलेख में इसे समझने के लिए जिस पद्यति का उल्लेख किया गया था। हम आज उसी से प्रारंभ करते हैं, अर्थात ब्रह्मसूत्र से। ब्रह्मसूत्र में वेदांत को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है और इसी प्रयास में साँख्य दर्शन की जम कर आलोचना की गई है। ब्रह्मसूत्र एक ऐसी रचना है जिसे बिना भाष्य के समझा जाना संभव नहीं है। इसलिए हम उस के दो प्रमुख भाष्यों शंकर और रामानुज भाष्यों का सहारा लेते हैं।

दोनों ही भाष्यकार कहते हैं कि साँख्य जगत का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन प्रधान को मानता है और इस कारण से वह अवैदिक है। इस आलोचना से हम साँख्य के उस प्रारंभिक रूप का अनुमान कर सकते हैं जिस में प्रधान को अर्थात आद्य निष्क्रिय प्रकृति अथवा अव्यक्त प्रकृति को ही जगत का कारण बताया जाता है। यह निश्चित रूप से आज के पदार्थवाद के समान है, जिस में एक महाणु के रूप में उपस्थित पदार्थ में महाविस्फोट (बिग-बैंग) से आज के विश्व के विकास का सिद्धान्त सर्वाधिक मान्यता पाया हुआ है। महाविस्फोट के इसी सिद्धांत के अनुरूप साँख्य की मान्यता है कि प्रकृति से जगत का विकास हुआ है। प्रकृति के बारे में साँख्य की मान्यता है कि यह त्रिगुणयुक्त है, अर्थात तीन गुणों सत, रज और तम से युक्त है। ये तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं। ये अव्यक्त प्रकृति में भी सम अवस्था में मौजूद थे। तीनों गुण प्रकृति से अभिन्न हैं तथा प्रकृति के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं।

साँख्य में कहीं 24, कहीं 25 और कहीं 26 तत्वों का उल्लेख है। हम चौबीस तत्वों का यहाँ उल्लेख करेंगे। अव्यक्त प्रकृति, आद्य प्रकृति या जिसे प्रधान कहा गया है वह प्रथम तत्व है। इस आद्य प्रकृति के तीन गुणों में प्रारंभिक अन्तर्क्रिया के कारण उन की समता भंग हो जाने के कारण विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई और अन्य 23 तत्वों की उत्पत्ति हुई। सद्गुण की प्रधानता से दूसरा तत्व महत् उत्पन्न हुआ। महत् प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण स्वयं पदार्थ का एक रूप है लेकिन सद्गुण की प्रधानता के कारण यह मानसिक और वैचारिक महत्ता रखता है जिसे बुद्धि कहा गया। बुद्धि मानव की सर्वोत्तम थाती है। इसी से मनुष्य निर्णय करने और वस्तुओं में भेद करने जैसी क्षमता रखता है। इसी से वह अनुभवों को संजोता है और निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसी से वह स्वयं और पर में भेद करता है। रजोगुण की प्रधानता से तीसरे तत्व अहंकार की उत्पत्ति होना साँख्य मानता है। अहंकार से व्यक्ति अपने स्व की पहचान करता है और स्वयं को शेष प्रकृति से भिन्न समझ पाता है।

हम संक्षेप में इसे इस तरह समझ सकते हैं कि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार आद्य अव्यक्त प्रकृति अथवा प्रधान के तीन गुणों में अंतर्क्रिया से उन में असमानता उत्पन्न हुई अथवा उन का साम्य भंग हुआ, जिस ने जगत के विकास को आरंभ किया। सद्गुण की प्रधानता से महत् अर्थात बुद्धि का और रजोगुण की प्रधानता से अहंकार का विकास हुआ।

आगे हम शेष 21 तत्वों और अंत में पच्चीसवें और छब्बीसवें तत्वों के बारे में जानेंगे।

रविवार, 26 जुलाई 2009

कैसे जानें? मूल साँख्य

अनवरत के आलेख कहाँ से आते हैं? विचार! में साँख्य दर्शन का उल्लेख हुआ था। तब मुझ से यह अपेक्षा की गई थी कि मैं साँख्य के बारे में कुछ लिखूँ। दर्शनशास्त्र मेरी रुचि का विषय अवश्य है, लेकिन दर्शनों का मेरा अध्ययन किसी एक या एकाधिक दर्शनों को संपूर्ण रूप से जानने और उन पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत करने के उद्देश्य से नहीं रहा है। जगत की तमाम गतिविधियों को समझने की अपनी जिज्ञासा को शांत करने के दृष्टिकोण से ही मैं थोड़ा बहुत पढ़ता रहा। अपने किशोर काल से ही मेरा प्रयास यह जान ने का भी रहा कि आखिर यह दुनिया कैसे चलती रही है? जिस से यह भी जाना जा सके कि आगे यह कैसे चलेगी और इस की दिशा क्या होगी? साँख्य को भी मैं ने इसी दृष्टिकोण से जानने की चेष्ठा की। मैं यदि साँख्य के विषय पर कुछ लिख सकूंगा तो इतना ही कि मैं ने उसे किस तरह जाना है और कैसा पाया है? इस से अधिक लिख पाना शायद मेरी क्षमता के बाहर का भी हो।

जब मैं ने साँख्य के बारे में जानना चाहा तो सब से पहले यह जाना कि भारत के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण और अत्यंत व्यापक प्रभाव वाला दर्शन रहा है। इस का आभास 'गार्बे' की इस टिप्पणी से होता है कि " ईसा पूर्व पहली शताब्दी से, महाभारत और मनु संहिता से आरंभ होने वाला संपूर्ण भारतीय साहित्य, विशेषकर पौराणिक कथाएँ और श्रुतियाँ, जहाँ तक दार्शनिक चिंतन का संबंध है, साँख्य विचारधाराओं से भरी पड़ी हैं।" सांख्य के प्रबलतम विरोधी शंकराचार्य को न चाहते हुए भी बार बार स्वीकार करना पड़ा कि साँख्य दर्शन के पक्ष में बहुत से प्रभावशाली तर्क हैं। मैं ने पहले भी कहा था कि मूल साँख्य के बारे में सच्ची प्रामाणिक सामग्री लगभग न के बराबर उपलब्ध है। सांख्य के संबंध में केवल दो ग्रंथ हमें मिलते हैं, जिन में एक 'साँख्य कारिका' और दूसरा 'साँख्य सूत्र' है। दोनों ही बहुत बाद के ग्रंथ हैं और साँख्य को अपने मूल शुद्ध रूप में प्रतिपादित करते दिखाई नहीं देते हैं। 'साँख्य सूत्र' में तो अनेक स्थान पर वेदांत का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है, कहीं कहीं तो सीधे वेदांत की शब्दावली का ही प्रयोग देखने को मिलता है। 'साँख्य सूत्र' की अपेक्षा 'सांख्य कारिका' अधिक प्राचीन ग्रंथ प्रमाणित होता है और विद्वान इसे ईसा की दूसरी शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के बीच लिखा मानते हैं। इस में भी कुछ ऐसे दार्शनिक मतों का समावेश करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिन की व्युत्पत्ति वास्तव में वेदांत से हुई थी। इसी कारण से विद्वानों का मानना है कि मूल साँख्य के वर्णन के लिए आलोचनात्मक भाव से 'साँख्य कारिका' पर निर्भर करना गलत है।

अब स्थिति यह बनती है कि मूल साँख्य को कहाँ से तलाशा जाए? एक महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ चरक संहिता में भी सांख्य का वर्णन है। महाभारत में कुछ अंश ऐसे हैं जिन में मिथिला नरेश जनक को साँख्य दर्शन का ज्ञान कराए जाने का विवरण है। दास गुप्त ने कहा है कि 'साँख्य का यह विवरण चरक के विवरण से बहुत मेल खाता है, यह तथ्य चरक द्वारा की गई सांख्य की व्याख्या के पक्ष में जाता है।' असल में साँख्य अत्यन्त प्राचीन दर्शन है और आरंभ से ही इस में निरंतर कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहा है। महाभारत में साँख्य और योग को दो सनातन दर्शन कहा गया है जो सभी वेदों के समान थे। इस तरह वहाँ इन्हें वैदिक ज्ञान से पृथक किन्तु वेदों के समान माना गया है। कौटिल्य ने भी केवल तीन दार्शनिक मतों साँख्य, योग और लोकायत का ही उल्लेख किया है। प्रमाणों के आधार पर गार्बे ने साँख्य को प्राचीनतम भारतीय दर्शन घोषित किया। उन्हों ने सिद्ध किया कि साँख्य बौद्ध काल के पूर्व का था, बल्कि बौद्ध दर्शन इसी से विकसित हुआ। अश्वघोष ने स्पष्ट कहा कि बौद्ध मत की व्युत्पत्ति साँख्य दर्शन से हुई। बुद्ध के उपदेशक आडार कालाम और उद्दक (रामपुत्त) साँख्य मत के समर्थक थे। इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि सांख्य बुद्धकाल के पूर्व का दर्शन था।

ब्रह्मसूत्र के रचियता बादरायण ने वेदांत को स्थापित करने के प्रयास में साँख्य दर्शन का खंडन करने का सतत प्रयत्न किया और इसे वेदान्त दर्शन के लिए सब से बड़ी चुनौती समझा। बादरायण के इस ब्रह्मसूत्र या वेदान्त सूत्र में कुल 555 सूत्र हैं जिस में उपनिषदों के दर्शन को एक सुनियोजित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। दास गुप्त के अनुसार ये सूत्र ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में रचे गए। 555 सूत्रों में से कम से कम 60 सूत्रों में तो प्रधानवाद (साँख्य) का खंडन मौजूद है। इस तरह ब्रह्मसूत्र में जिस साँख्य मत का खंडन करने का प्रयत्न किया गया है उसी से मूल साँख्य के बारे में महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। इस तरह मूल साँख्य के बारे में जानने के लिए विद्वानों ने विशेष रूप से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने ब्रह्मसूत्र में किए गए इस के खंडन की सहायता लेते हुए महाभारत, चरक संहिता, बाद के उपनिषदों और साँख्य कारिका का अध्ययन करते हुए मूल सांख्य के बारे में जानने का तरीका अपनाया। इस अध्ययन से जो नतीजे सामने आए उन पर हम आगे बात करेंगे।