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रविवार, 31 मई 2015

‘कहानी’ माप -सृंजय

‘कहानी’

माप

-सृंजय

"अरे...हां, हमारे गाउन का क्या हुआ?''

साहब ने अपने पी.ए. से पूछा. ,

" 'सर, तब से में दो-तीन दफा तकाज़ा कर चुका हूँ"

"अभी तक सिला या नहीं?’ साहब उत्सुक होकर बोले.

"दर्जी कह रहा था कि एक बार हाकिम से कहते कि वो इधर तशरीफ़ लाते”. पी.ए.- ने लगभग अनुरोध-सा करते हुए कहा. .

तुम तो कहते थे कि वह सिर्फ हुलिया के आधार पर कपड़े सिल देता है !”

"यह तो एकदम आमजमाई हुई बात है, सर!'' पी. ए. ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा, "अपने दामाद वाली घटना शायद आपको बताईं थी न¡ वह तो अब भी उसी दर्जी से मिलने की इच्छा रखता है.”

"आपका दामाद मिलना चाहता है...

शायद वह दर्जियों के पचड़े में कभी पड़ा नहीं है.. इसलिए” इस बार साहब का ड्राइवर धूपन राम बोल पडा, "जबकि मेरी जानकारी में एक ऐसी घटना है हुजूर !...कि एक दर्जी ने दामाद से जिंदगी भर के लिए ससुराल ही छुड़वा दी थी. कहा गया है न. . तीन जने अलगरजी - नाई, धोबी, दर्जी.”

' 'काम करें मनमर्जी." साहब ने भी अपनी तरफ से तुक जोड़ते हुए कहा.

"जिंदगी भर के लिए ससुराल छुडवा दी थी…वह भी एक अदने से दर्जी ने?” पी. ए. पहले तो विस्मित हुए फिर उत्सुक होकर उछल-सा पड़े. "वह कैसे धूपन?…तुमने आज तक इस बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया”

“ अभी दर्जी की बात चली तो वह घटना याद आ गई." धूपन राम बोला, "वह घटना कोई गीता-रामायण थोड़े है कि हरदम चर्चा चलती रहे उसकी."

"धूपन ¡ गीता-रामायण की घटनाओं से अब हमें उतनी मदद नहीं" मिलेगी, जितनी अपनी जिन्दगी के छोटे-छोटे खटराग प्रसंगों को सुनने से." पी. ए.तनिक बेचैन होकर बोल पड़े. .

दरअसल पी. ए. के चार बेटियाँ और दो तो बेटे थे. चारों बेटियों और एक बेटे की शादियाँ करवा" चुके थे. बेचारे बेटी-दामाद से बड़े परेशान रहते थे. कभी यह बेटी तो कभी वह दामाद, कभी यह नतिनी तो कभी वह नाती . . आए दिन कोई-न-कोई आया ही रहता या. अपना और बेटे का परिवार ही कोई कम न था. बेटियों का भी भरा... पूरा कुनबा था. आने का कोई बहाना भर चाहिए. कोई दवा-बीरो करवाने के नाम पर आ गया तो कोई यूं ही भेंट करने के नाम पर. . .और नहीं तो अटेस्टेड करवाने के नाम पर ही आ धमके. . .चलो नाना के साहब से अटेस्टेड करवा लेंगे...

अपने यहाँ के अफसर बड़े मिजाज दिखाते हैं ... खूब जी हुजूरी की तो राजी हुए, लेकिन एक बार तीन से देशी अटेस्टेड भी नहीं करेंगे. अरे भई!  यह काम तो तुम लोग अपने यहाँ भी करवा सकते थे,' पी.ए. दबी जुबान में कहते भी, लेकिन कोई सुनता नहीं. एक बेटी का परिवार खिसकता, तब तक दूसरी का आ धमकता. जो कोई आता बिना कुछ लिए-दिए हटने का नाम ही नहीं लेता. पी. ए. बेचारे नाते-रिशतेदारी निभाते-निभाते ही हलकान-परेशान रहा करते थे. ऐसे में दामाद से ससुराल छुड़वा देने की धूपन की बात उनके मर्म को छू गई. बोले, "धूपन¡ जरा तफसील से बताओ न."

"बहुत लंबा किस्सा है." कहकर धूपन ड्राइवर ने साहब की ओर उनका रुख भांपने की गरज से देखा.

"लंबा है तो क्या हुआ¡ ऐसे प्रसंगों में ही जीवन के गहरे राज़ छुपे होते हैं, जिन्हें सबको सुनना ही चाहिए." पी.ए. से रहा नहीं जा रहा था, "सुनाओ न, साहब भी सुन लेंगे."

"अब सुना भी डालो.” साहब भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए इशारा करने लगे. धूपन चालू हो गया--

"...यह सरकारी नौकरी पाने के पहले मैं प्राइवेट गाड़ी चलाया करता था. एक प्रोफेसर कुमार थे, उनकी गाड़ी. उन्होंने ही बताया था कि उनके गांव तेघरा के चौधरी का दामाद पहली बार ससुराल आया"- रिवाज है कि शादी के बाद दामाद जब पहली बार ससुराल जाए तो उसे कम-से-कम नौ दिन रहना पड़ता है. दूसरे ही दिन चौधराइन बोलीं कि मेहमान पहली बार आए हैं, इन्हें कपडा-लत्ता देना होगा न! 'क्या क्या देना होता है? चौधरी ने पूछा. 'अरे दिया तो पाँचों पोशाक जाता है' चौधराइन बोलीं, "धोती, कुरता, जांघिया, गंजी और गमछा." "वाह रे तुम्हारा दिमाग!' चौधरी बोले, "हमारा दामाद पुलिस अफसर बनने के लिए कंपटीशन की तैयारी कर रहा है और तुम उसे धोती-गमछा दोगी? अरे मैं तो अपने दामाद को पतलून दूंगा.. बल्कि सिलवाकर दूंगा, ताकि यहीं पहन सके चौधरी खाते-पीते घर से थे. खेती-किसानी तो करवाते ही थे, उनके अलावा जीरो माइल' चौराहे पर हाइवे से लगा प्लाट खरीदकर दर्जन भर दुकाने बनवाकर किराए पर उठा रखी थीं. उन्हीं में से एक दुकान मनसुख लाल बजाज की थी और एक हलीम दर्जी की थी. वहीं से अपने तई सबसे महंगा कपड़ा खरीदकर हलीम दर्जी को कुरता-पतलून सिलने के लिए दे दिया गया. हलीम दर्जी अपने आपको इलाके भर का वाहिद मास्टर मानता था...किसी भी तरह की पोशाक सिलने को कहो, ना नहीं कहता था. खातिरदारी में हलीम चौधरी के घर खुद जाकर दामाद की माप भी ले आया. अगले दिन कपडा सिल भी गया. खुशी-खुशी कपड़े चौधराइन के हाथ में देते हुए चौधरी बोले, "मेहमान से कहो कि आज़ यहीं पहनकर वह हवाखोरी के लिए निकले.' शाम को जब दामाद ने कपड़े पहने तो अजीब तमाशा हो गया...पतलून का एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे. पल-भर में ही दामाद ने खीजकर पतलून खोला और आलने पर फेंक दिया. ' चौधरी गुस्से में हलीम के सामने पतलून पटकते हुए बोले, "यह कैसा जोकरों जैसा पतलून सिलकर दे दिया?’,

‘क्यों क्या हुआ मालिक? हलीम ने कुछ न समझते हुए पूछा.

'देखो तो...एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे,' चौधरी

नाराजगी में बोले, "ऐसा भी कहीं पतलून सिला जाता है."

हलीम ने पतलून को मेज पर फैलाया, दोनों मोहरी मिलाई, मियानी बीच में की, कमर टानटून कर सीधी की, कई कोनों से फीते से नापा, "मालिक देखिए तो...कमर से मोहरी तक दोनों पांव एकदम बराबर हैं कि नहीं?...न हो तो आप एक बार खुद नापकर देख ले. 

चौधरी से कुछ बोलते न बना, क्योंकि माप तो सचमुच सही निकल रही थी. उन्हें सकपकाया देखकर दर्जी बोला, "मालिक पहनते वक्त किसी वजह से जर्ब पड़ गया होगा" जाइए, फिर से पहनाकर देखिए-बिल्कुल सही निकलेगा."

चौधरी लौट आए दामाद को फिर से पतलून पहनाया गया. हाय रे किस्मत अब भी वही नजारा...एक पांयंचा ऊपर तो दूसरा नीचे. दामाद बेचारा "मेनिक्विन' (कपड़े की दूकान में लगाया जाने वाला सजावटी पुतला) की तरह बिना हिले-डुले खड़ा का खड़ा रह गया. नीचे झुककर पतलून को एक तरफ से चौधरी टान रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ से चौधिराइन ... लेकिन पतलून का अब भी वहीं हाल! आखिरकार खीजकर चौधरी बोले, "रहने दीजिए, मेहमान जी ! ... खोल दीजिए. ..मैं फिर जाता हूँ शैतान के बच्चे उस हलीम के पास. 'वह दुलकी चाल से हलीम के पास आए. जितना हो सकता था, ख़री खोटी सुनाई. हलीम ने चुपचाप सिर झुकाकर पतलून खोला, मेज पर फैलाया और उसे हर तरफ से मापने लगा.

'नाप तो एकदम सहीं है, मालिक! पता नहीं, कैसे, पहनते वक़्त बड़ा-छोटा हो जा रहा है! आप एक काम करेंगे?... मेहमान जी को एक बार यहीं ले आएंगे?'

यह भी हुआ. मेहमान जी दर्जी की दूकान तक पहुंचे. उन्हें फिर से पतलून पहनाया गया…पांयंचों की छोटाई-बड़ाई में कोई फर्क न आया...आता भी कैसे? हलीम ने वहुत टानटून किया. दामाद के दोनों पैर तो कम-से-कम दर्जनों बार मापे होंगे. परेशान होकर बोला, खोल दीजिए ... देखता हूँ क्या किया जा सकता है.' उसने दामाद से चले जाने को कहा. चौधरी को वहीं रोक लिया.

चौधरी को लेकिन कल नहीं पड़ रहा था, "लगता है तुमने ढंग से नाप नहीं ली है. अंदाज से सिल दिया है.'

नहीं, मलिक¡ यूं न बोलिए...नाप एकदम सही ली है. वैसे हमारा अंदाज भी कमजोर नहीं होता. वैसे भी बदन के हर हिस्से की माप लेना मुमकिन भी नहीं होता ... सिलाई में कई बार अंदाज़ से भी काम चलाना पड़ता है. अब कुरती के महरम (स्त्रियों की कुरती या अंगिया आदि का वह कटोरीनुमा अंश जिसमें स्तन रहते हैं) की माप हम लोग थोड़े लेते हैं. एक बार आंख उठाकर देख भर लेते हैँ...वह भी तिरछी नजर से ... लेकिन सिलाई एकदम फिट बैठती है।

'इस पकी दाढी में भी मेहंदी लगाते हो न¡’ चौधरी ने हलीम की ललछोंही दाढी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'जो मरहम की माप लेने लगे तो इस दढ़िया में एको बाल न बचेगा. ..सब चोथा जाएगा' इस परेशानी में भी चौधरी के होंठ अंदरूनी हंसी के चलते तिकोने हो गए.

"वह तो बात-बात में कहा मैंने,' हलीम भी मुस्कुरा पडा, "वऱना महरम की माप लेकर कौन अपना बाल नुचवाये.'

जब दामाद कछ दूर चले गए और उनको ले जाने वाले की मोटरसाइकिल की फटफ़टाहट आनी बन्द हो गई तो हलीम ने चौधरी से फुसफुसाकर कहा, "मालिक¡ एक बात कहू? किसी से कहिएगा तो नहीं?

"भला, मैं क्यों किसी से कुछ कहने जाऊं? चौधरी एकाएक शांत होकर बोले.

"मालिक¡ पतलून की सिलाई में कोई खोट नहीं "मेहमान जी के पैर ही छोटे-बड़े हैं तो मैं क्या करूं? आपने गौर किया होगा ... तसल्ली के लिए उनके दोनों पैरों को मैंने कई बार मापा था. खैर, घबराइए नहीं...मैं कमर की पट्टी खोलकर छोटे पांव ठीक कर दूंगा.’

चौधरी को काटो तो खून नहीं ... दामाद के पैर छोटे…बड़े कैसे हो गए? चलते समय तो बिल्कुल पता नहीं चलता. उन्होंने सिर पकड़ लिया.

"क्या कीजिएगा, मालिक.' हलीम दिलासा देते हुए कहने लगा, "ऊपर वाला अगर आदमी को सींग दे दे तो कोई सिर थोड़े कटा लेगा...उसी तरह जीना पड़ेगा...सींग के साथ ही जीना पडेगा... बहुत लाज लगी तो लंबी पगड़ी में छुपाकर जीना पड़ेगा.'

चौधरी एकदम निराश होकर घर लौटे. किसी से कुछ बोले-चाले नहीं. जब सहा नहीं गया तो चौधराइन को एकांत में बुलाकर कहने लगे, ."हमारे करम ही छोटे हैं, ज्ञानती की माँ?

'क्यों, क्या हुआ जी? चौधराइन घबरा गई. 'मेहमान जी अब पुलिस अफसर नहीं बन पाएंगे.' 'कैसे नहीं बन पाएँगे? रात-दिन तो मोटी…मोटी किताब बांचते रहते हैं.’ वह रुआंसी होकर चौधरी को ताकने लगीं.

'उनके पैर ही छोटे-बड़े हैँ...पतलून में कोई खराबी नहीं है. यहाँ आंगन टेढा नहीं है, नाचने वाली के पाँव ही टेढे हैं? चौधरी जितना संभव था फुसफुसाकर बोल रहे थे, 'कंपटीशन निकाल भी ले गए तो मेडिकल में छँट जाएंगे'.’

'डॉक्टर को कुछ खिला-पिला कर काम नहीं निकल पाएगा?

'मैं पहले ही बहुत कुछ दे चुका हूँ, अब क्या सारी संपत्ति इसी दामाद पर लुटा दूँ?

चौधराइन को तो मानो साँप. सूंघ गया, 'जा रे कपार¡ इसी आशा पर, हैसियत से भी ऊपर जाकर, दान-दहेज देकर, फूल जैसी ज्ञानती का इनसे ब्याह करवाया गया कि पुलिस अफसर बन जाएंगे तो बेटी राज करेगी, अपना भी गांव-जवार में मान बढेगा, वर्दी के रुतबे और रूल से लोग हौँस खाएंगे... लेकिन अब तो सिपाही बनने पर भी आफत है.’

सिपाही, अब तो होम गार्ड भी न बन पाएंगे.’ चौधरी ने हताशा में होंठ काट लिए. चौधराइन रोने के लिए राग काढ़ने ही वाली थी कि चौधरी ने डपट दिया, ‘अब रो-धो कर तमाशा मत बनाओ ... जो बात सिर्फ हमें और हलीम को मालूम है उसे तुम्हारे चलते पूरा गांव जान लेगा ... अब चुप रहने में ही भलाई है.‘

चौधराइन चीखी-चिल्लाई नहीं, लेकिन चुप भी नहीं बैठी. कांटे खोंट-खींटकर उस अगुआ को गलियाने लगी जिसने यह विवाह करवाया था. मन भर अगुआ को सरापने के बाद शाम ढलते भी बेटी को समझाने लगी, 'हलीम दर्जी कह रहा था कि पाहुन जी के गोड़ छोटे-बड़े हैं, इसीलिए पतलून उपर-नीचे हो जा रहा है. तू आज की रात जरा दोनों गोड़ नापना तो...हां, ध्यान रखना, जब निर्भेंद सो जाएं, तब नापना...‘

"लेकिन नापूंगी कैसे? . ज्ञानती भी सकते में आकर बोली, "कहीँ फीता देख लेंगे तो?

'दुत्त पगली! बित्ते से नाप लेना ... हाँ, उनको पता नहीं चलना चाहिए'

दो-तीन रोज बाद चौधराइन ने पूछा, क्या री, कुछ पता चला?

"खाक पता चलेगा ज्ञानती ज़रा ऊबकर तनिक गुस्से में बोती, 'सोते भी हैं तो अजीब ढंग से...बाई करवट ही सोते हैं लेकिन बायाँ गोड़ घुटने से मोड़कर और दायां उसके ऊपर चढाकर, सीधा करके. सीधा पैर तो नाप लेती हूँ, लेकिन मुड़े पैर पर जैसे ही जांघ के ऊपर मेरा बित्ता सरकता है कि चिहुँककर जाग जाते हैं और मेरा कंधा पकड़कर मुझे पटक देते हैं. इसी फेरे में तीन रात से भर नींद सो भी नहीं पाई हूँ. भगवान जाने कौन सी नींद सोते हैं ... कोए की नींद कि कुकुर की नींद !'

आखिर जिसका डर था, वही हुआ. . न जाने कैसे पूरे तेघरा गांव में, जीरो माइल चौराहे तक यह बात फैल गई कि चौधरी का दामाद 'ड़ेढ़ गोड़ा है.

दामाद को भी पता चला तो चीख-चीखकर इंकार करने लगा, 'यह कैसी बकवास फैला रखी है आप लोगों ने? मेरे दोनों पैर ठीक हैं, न चलने में दिक्कत है, न दौड़ने में. कहिए तो में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर दिखा दूं अगर मैं डेढ़गोड़ा होता तो मेरे अन्य पतलून भी ऊपर-नीचे होते. यह हलीम ही एकदम फालतू दर्जी है. फतुही-लंगोट सिलने वाला यह देहाती दर्जी पतलून सिलना क्या जाने ? मैं अभी जाकर उसका कल्ला तोड़े दे रहा हूँ.'

किसी अच्छे से डॉक्टर से चेक करवा लेने में क्या हर्ज है? चौधरी हाथ जोड़कर निहोरा करने लगे, "हलीम का कल्ता तोड़ने से तो बात पर और पक्की मुहर लग जाएगी ... तब किस-किसका कल्ला तोड़ेगें?

सास भी समझाने लगी, ज्ञानती भी समझाने लगी. जब सब कहने लगे तो दामाद बेचारे को भी यकीन-सा हो गया कि सचमुच कहीं पैर में ही खराबी तो नहीं है. अब कौन नौ दिन ठहरता है. अगले दिन ही उसने ससुराल छोड़ दी. अपने घर गया और वहाँ से सीधा शहर भागा. महीने भर लॉज में रहा, कई तरह से जांच करवाई, मगर 'कोई नुक्स पकड़ में नहीं आया. हो तब तो पकड़ में आए. खामखाह बेचारे के पंद्रह-बीस हजार रुपये गल गए, शहर के डॉक्टरों ने झिड़की दी सो अलग. बेचारे ने जिंदगी में अब कभी भी ससुराल न जाने की कसम खा ली. तो इस तरह हलीम दर्जी ने दामाद से ससुराल छुडवा दी." कहकर धूपन ड्राइवर चुप हुआ.

अपने रुतबे की संजीदगी भूलकर साहब तो यह किस्सा सुनकर हँसते हुए लोट-पोट हो गए. जब हँसी का दौर थमा तो उन्होंने यूं ही पूछ लिया, "वह लड़का पुलिस अफ़सर बना कि नहीं?"

"यह कोई मायने नहीं रखता." पी.ए. फट से बोल पड़े, "क्यों कि अफसर बनने के लिए तेज दिमाग के साथ-साथ यह पसमंजर भी मायने रखता है कि कौन किसका बेटा है या कौन किसका दामाद या कौन कैसे खानदान से है! यहाँ काबिले तारीफ बात यह है कि हलीम दर्जी ने चौधरी को बचा लिया, वरना जिंदगी भर उनकी वह पेराई होती कि खल्ली भी नहीं बचती, कहा गया है न...वेश्या रूसी तो अच्छा हुआ. धन-धरम दोनों बचा." पी. ए. हलीम दर्जी से काफी प्रभावित नजर आ रहे थे, "काश उस जैसा दर्जी अपने यहाँ भी होता!"

"कहीँ आपका यह दर्जी भी उसी हलीम की तरह तो नहीं है?" साहब ने पूछ ही लिया

"बिल्कुल नहीं साहब¡ कहां राजा भोज, कहाँ भोजुवा तेली." पी.ए. ने तपाक-से प्रतिवाद किया, "बाकर अली और हलीम में ज़मीन-आसमान का अंतर है."

"तो फिर मेरा गाउन सिलने में वह इतनी देरी क्यों कर रहा है?.”

"यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ-" पी.ए. भी असमंजस में दिखे, "दर्जी पूछ रहा था कि यह बताओ कि ये हाकिम नए…नए अफसर बने हैं, यानी सीधी भर्ती से आए हैं या तरक्की करते-करते इस ओहदे तक पहुंचे हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं?

`क्यों, इससे गाउन का क्या ताल्लुक?" '

'मैं कुछ समझ नहीं पा रहा, सर¡" पी. ए. का असमंजस बरकरार था, "न हो तो आज शाम चल कर हुजूर पूछ ही लें कि वह गाउन सिल पाएगा भी या नहीं?"

वे नए-नए हाकिम (अफसर) बने थे. पहली तैनाती ही एक देहाती जिले में हुई. जिले का फैलाव काफी दूर-दराज तक था. विकास का काम बहुत कम हुआ था. जिले में गांवों और ढाणियों की संख्या अधिक थी. एकमात्र शहर जिला मुख्यालय ही था. यह भी नाम का ही शहर था, प्रशासनिक केंद्र होने के नाते, वरना अपने मिजाज में, चाल-ढाल में वह एक बड़ा गाँव ही था. राजधानी से काफी दूर होने की वजह से उस जिले पर ध्यान कम ही दिया जाता था. यहीं के सीधे-सादे अनपढ़ लोग, जिन्हें नए जमाने की हवा की छुअन तक न लगी थी, अपने ढंग से जीवन जी रहे थे. जिले का एक बड़ा हिस्सा जंगलों से ढंका था. लोग कुदरत की रहमत पर ही जिंदा रहते थे. काफी बड़ा जिला होने के चलते साहब को लंबे-लंबे दौरे करने पड़ते थे. जिस इलाके में जाते, कई-कई दिन रुक जाना पड़ता. वे दिन-भर तो तहसील और महकमे की जांच में ही व्यस्त रहते, लेकिन सुबह-शाम डाक बंगले में मुलाकातियों का आना-जाना लग जाता. इलाके के मोतबर लोगों से अंतरंग मुलाकात शाम ढले ही होती. साहब दिन-भर तो 'चुस्त-दुरुस्त चाक-चौबंद पोशाक पहने रहते, लेकिन सुबह-शाम कुछ ढीला-ढाला पहनने का जी करता. हालांकि उस वक्त वे कुरते-पायजामे में भी रह सकते थे, लेकिन कुरते-पायजामे में वह रोब नमूदार न हो पाता था, जिसकी उम्मीद एक ऊंचे अफसर से की जाती है. मानना पड़ेगा विलायती हाकिमों को भी. ऐसे ही मौके पर वे गाउन का इस्तेमाल करते थे. बाज हाकिम तो दफ्तर या कचहरी में भी गाउन पहने रहते थे. एकदम ढीला-ढाला आरामदायक चोगा (गाउन), लेकिन रोब ऐसा कि एक…एक धागे से टपके..

कुछ यही सोचकर साहब ने भी अपने लिए गाउन सिलवाने की सोची. अपनी ख्वाहिश उन्होंने अपने पी. ए. के सामने जाहिर की, "यहाँ, गाउन कहाँ मिलेगा?

"गाउन¡" पी.ए. की पेशानी पर बल पड़ गए, "गाउन का चलन तो आजकल रहा नहीं, सर!...इसलिए सिला-सिलाया गाउन मिलना तनिक नामुमकिन लगता है."

"कोई दर्जी है ऐसा...जो गाउन सिल सके?"

"हाँ, है न, हुजूर!" पी.ए. को अचानक याद आया, "अपना बाकर अली...वह नई-पुरानी सब काट की पोशाक सी देता है"

"तो आज शाम चलते हैं, उस के पास...माप दे जाएंगे" साहब खुश होकर बोले थे.

"उसकी जरूरत न पडेगी, हुजूर!” मैं ही चला जाऊंगा. वह ऐसा अकेला हुनरमंद है कि उसके सामने फकत हुलिया बयान कर दीजिए किसी ... आदमी का...अंदाज से ही वह ऐसी पोशाक सिल देता है कि फिटिंग में सूत बराबर भी झोल न आए." साहब, के खुश होते ही पी. ए. और खुश होकर बोले थे, "मेरी चौथी बेटी का ब्याह लगा था, सर! दामाद ने हठात् सूट की फरमाइश कर दी...वह भी ब्याह से केवल चार दिन पहले प्राइवेट कंपनी में नौकरी की वज़ह से न दामाद को यहीं जाकर माप दे जाने की छुट्टी थी, न मुझे फुर्सत कि जाकर माप ले आऊं. बाकर अली के सामने मैंने दामाद का सिर्फ हुलिया भर बयान कर दिया था. सुथरे ने सलेटी रंग का ऐसा सूट सिलकर दिया है कि मेरा दामाद हर खास मौके पर वही सूट पहनकर निकलता है...कहता है कि मेरी शख्सियत इसी सूट में खिल-खिल उठती है. कई बार उसने कहा भी कि एक बार दर्जी बाकर अली से मुझे मिलवा दें..." पी..ए. जरा धीरे बोले थे, "लेकिन सर! उसकी इस ख्वाहिश पर मैं ज्यादा तवज्जो नहीं देता...कि कहीं दुबारा कुछ फरमाइश न कर दे ... दामाद से ना कहते भी ना बनेगा."

साहब भी मुस्कुरा दिए थे, "ठीक कहते हो आप! अपने ससुर से नजदीकी और दामाद से दूरी बनाकर चलने में ही अक्लमंदी है."

दर्जी बाकर अली की दूकान में पहुँचते ही साहब ने कड़कदार आवाज़ में कहा, "क्यों जी! हमारे पी. ए. तो आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे कि आदमी को बिना देखे, फकत हुलिया के आधार पर आप कपड़े सिल देते हैं.”

"हुजूरे आला! वे कपड़े आम आदमी के होते हैं" बाकर अली मन-ही-मन गदूगद होते हुए दस्तबस्ता होकर बोला, "आम आदमी के चेहरे और लिबास में बहुत फर्क नहीं होता. अलबत्ता हाकिमों के लिबास अलहदा किस्म के होते हैं. वे उन के ओहदे और उस ओहदे पर उन के बिताए गए वक्त के हिसाब से तय होते हैं.” सीधेपन से कहकर दर्जी ने इधर उधर देखा. वहाँ कायदे की कोई कुर्सी न थी. कारीगरों के बैठने के लिए दो-चार तिपाइयां बेतरतीब पडी हुई थीं. उन्हीं में से एक तिपाई को फूँक मारकर साफ करते हुए उसने एक बिना कटे कपड़े को उस पर बिछा दिया और बोला, "तशरीफ़ रखें, हुजूर ¡ आपका गाउन तो कब का सिल चुका होता!"

साहब लेकिन तिपाई पर बैठे नहीं. शायद ऐसा शान के खिलाफ होता. उन्होंने खड़े-खड़े ही पूछा, '"...तो अब तक सिला क्यों नहीँ? गाउन का क्या! वह तो बिना माप का भी सिल सकता है...वह तो फ्री साइज होता है.'

“यही तो राज की बात है, हुजूर ! जो कपडा एक बार कैंची से कट गया, सुई से बिंध गया, धागे से नथ गया...वह कभी फ्री साइज नहीं हो सकता...उसे तो किसी-न-किसी साइज में जाना ही है. फ्री साइज़ कपडा तो बिना कटे…सिले पहना जाता है, जिसे मोटे-पतले, लंबे-ठिगने, जवान-बूढे हर किस्म के लोग पहन सकें.”

"भला ऐसा कौन सा कपडा है, जिसे बिना सिले पहना जा सके?" साहब को हँसी आ गई. उन्होंने तनिक तंज करते हुए कहा, "कहीं थान भी पहना जाता है, क्या?'

दर्जी के चेहरे पर नामालूम दर्द की एक लहर-सी उभरी, मानो सिलाई करते वक्त बेखयाली में अचानक सूई चुभ गई हो, "हुजूर । अब तो चंद पहरावे ही अपने मुल्क में ऐसे बचे हैं, जिन्हें वाकई फ्री साइज कहा जा सके!" दर्जी बाकर अली ने गहरे अफसोस से कहा, '"...मसलन साडी, धोती, कुंठा वगैरह...ऐसा कि सास की साड़ी बहू पहन ले या बाप की धोती बेटा पहन ले, उसके इंतकाल करते ही अपने तमाम विरसे और जिम्मेदारियों के साथ बाप का कुंठा बेटे के सिर पर बंध जाए...अपने यहाँ बिना सिला हुआ पहरावा ही उम्दा और पाक माना जाता है...पूजा-पाठ में ऐसा ही पहनावा मुबारक और मुकद्दस माना जाता है. शायद हुजूर को इल्म हो कि देवी माँ को जो चुनरी और गंगा मैया को जो पियरी चढ़ती है वह भी बिना सिली होती है. हज को जाने वाले हुज्जाज अपने साथ जो एहराम (हाजियों का वस्त्र, वे दो बिन सिली हुई चादरें जिनमें एक बांधी और एक ओढ़ी जाती है) ले जाते हैं वह भी बिन सिला ही होता है. यह उसकी अलामत है कि इंसान अपनी जिंदगी में चाहे जितना और जैसा पहनावा ओढ़ ले, लेकिन कफ़न ही होगा आखिरी पैरहन अपना…कफ़न ही एक ऐसा पहरावा है, जिसके आड़े किसी भी मुल्क और मजहब की दीवारें नहीं जाती" इस शदीद अफसोस से निजात पाने के लिए दर्जी ने जरा-सा दम लिया, फिर बोला, आपके मामले में देर इसलिए हुई कि पहले मैं यह जानकर तसल्ली कर लेना चाहता था कि आप किस तरह के हाकिम हैं... और कितने दिनों से हाकिम हैं?"

कहाँ तो जाए थे गाउन सिलवाने और यहाँ अजीब फैलसूफ़ से पाला पड़ गया. साहब ने तो कभी कपडों के मामले में इस तरह सोचा भी न था, जबकि रोज़ देखते थे रैयतों को धोती-साडी पहनते हुए-बिना सिले कपड़े का इतना इस्तेमाल¡ साहब बुरी तरह चकरा गए, "किस तरह के हाकिम?...और कितने दिनों से हाकिम?"

"जी हां! जाप अभी-जभी हाकिम बने हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं या तरक्की करते-करते हाकिम के इस ओहदे तक पहुंचे हैं?"

साहब की त्यौरी चढ़ गईं. ये बौड़म-सी बातें उनकी समझ में न आ रही थीं. उन्होंने हैरानी से पूछा, 'एक अदद नए गाउन की सिलाई से इन सब बकवासों का क्या लेना-देना?"

'बस, इसी बात पर तो गाउन की माप और काट तय होती है, हुजूर!' दर्जी ने निहायत मासूमियत से कहा.

साहब ने आंखें तरेरते हुए कहा, "वह कैसे?"

दर्जी ने ज़वाब दिया, "अगर आप नए-नए हाकिम बने हैं तो दफ्तर में सारे काम बड़ी तेजी से निपटाने पड़ते हैं. अपने यहाँ रिवाज है की तमाम पेचीदा और बहुत दिनों से लटके काम अपने मातहत पर डाल दो. चूंकि नए अफसर को अभी खुद को काम का साबित करने का वक्त होता है और इसी पर उसकी अगली तरक्की मबनी होती है, सो एक तरह से कहें तो उसे खड़े-खड़े सारे काम निपटाने होते हैं. इस हालत में उसके गाउन के आगे की लंबाई ज्यादा और पीछे से कम " होनी चाहिए...क्योंकि नए अफसर के बदन की लंबाई भी सामने से ज्यादा और पीछे से कम होती है. चूंकि नए अफसर को कुर्सी पर बैठते ही लगता है कि दोनों जहान उसकी मुट्ठी में आ गए हैं, सो उसकी रीढ़ की हड्डी यूं तन जाती है मानो फौलाद हो, सो नए हाकिम कुछ ज्यादा ही घमंडी और अक्खड़ हो जाते हैं, वे हर वक्त अपना सिर ऊंचा उठाए रहते हैं, नाक चढाए और छाती फुलाए रहते हैं, सो शरीर के पिछले हिस्से पर मार ज्यादा पड़ने से वह तनिक छोटा पड़ जाता है."

साहब तो काठ की मूरत की तरह दर्जी को देखते रह गए.

वह अपनी रौ में कहता गया, "जो तरक्की करते-करते यानी प्रोमोशन पाकर अफसर बनते हैं, वे हर घाट का पानी पिये होते हैं, हर फटे में उनके पांव कभी न कभी दब चुके होते हैं. अपने से नीचे वालों पर वे जितनी हेकड़ी दिखाते हुए उतान होते हैं, अपने से ऊपर वालों की घुड़की के आगे वे बेचारे उतने ही निहुर भी जाते हैं. ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने और पीछे की लंबाई एक बराबर रहनी चाहिए."

अफसरी के बारे में दर्जी के इस अकथ ज्ञान के आगे साहब तो फक पड़ गए थे. चुपचाप उसका चेहरा निहारे जा रहे थे. अब उनसे ख़ड़ा न रहा गया. धम से तिपाई पर बैठ गए.

लेकिन दर्जी अपनी ही धुन में कहता गया, "रही बात पुराने हाकिमों की...तो उनका गाउन एकदम अलग किस्म का होता है. उनको इतनी बार अपने से उँचे और आला अफसरों की डाँट खानी पड़ती है कि वे उनके सामने बराबर झुके रहते हैँ...वह रीढ़ जो कभी फौलादी हुआ करती थी अब टेबिल लैंप के स्टैंड की तरह लचकदार और हर तरफ से मुड़ जाने वाली हो जाती है. चूंकि पुराने हाकिमों के कंधे झुके रहते हैं, गर्दन सामने की ओर लटकी रहती है, ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने की लंबाई कम और पीछे की लंबाई बेशी होती है."

दर्जी ने कैची से एक उभरा धागा काटते हुए कहा, "रही बात किसी महकमे के सबसे ऊंचे अफ़सर की...तो उनका साबका अपने मंत्री से पड़ता है. उन्हें मंत्रीजी के अगल-बगल रहना पड़ता है, क्योंकि सिर्फ आलाकमान को छोड़कर मंत्रीं अपने सामने किसी को जगह देते नहीं, उनके पीछे चापलूसों की जमात होती है, सो ऊँचे अफसर को जगह मंत्रियों के अगल-बगल ही मिल पाती है. अब मंत्रियों की सनक और जहल तो बेलगाम होती है, वे कब किसी अफसर को दाएँ झुकने को कह दें और कब किसी को बाएँ, इसका पता उन्हें खुद नहीं रहता. अब मंत्रियों के दबाव और भार को झेल पाना सबके बूते की बात नहीं...यह हाथी को नाव पर चढाकर दरिया पार कराने जैसा मुश्किल होता है. हुजूर! हाथी की रुजूआत (प्रवृत्ति, झुकाव) भी अजीब होती है, जब वह इत्मीनान में होता है तो फकत तीन टांगों पर खडा हो जाता है, इस तरह से वह बारी-बारी से अपनी एक-एक टांग को आराम देता जाता है....अब वह कौन सी टांग कब उठा ले और नाव को किस तरफ झुका दे, कहा नहीं जा सकता...ऐसे में महावत और मल्लाह दोनों की साँसें टंगी रहती हैं ...नाव के तवाजुन के लिए उन्हें भी बार-बार दाएं-बाएं झुकना पड़ता है ... और अपने यहाँ के मंत्री¡ वल्लाह…सरापा सफेद हाथी होते हैं! ऐसी हालत में आला अफ़सर के गाउन में आगे-पीछे की लंबाई पर उतना खयाल नहीं किया जाता. उनके गाउन में घेर बडा रखना होता है, क्योंकि उम्र के उस मुकाम पर पेट भी कुछ आगे निकल आया रहता है, सो आला अफसर के गाउन में दोनों बगल देर सारी चुन्नटें डालनी पड़ती हैं. चुन्नटों से गाउन – तो शानदार बनता है, लेकिन जरा भारी भी हो जाता है. खैर, हाकिमे आला का गाउन ! वह तो बदन की निसबत में भारी होगा ही.' इतना कहकर दर्जी साहब की चौंधिया-सी गई आँखों में झांकते हुए बोला, "अब बताएं, हुजूर ! कि आप इनमें से कौन-सा हाकिम हैं, ताकि मैं उसी के मुताबिक मनमाफिक गाउन सिल सकूँ?"

साहब तो जैसे मंत्रबिद्ध होकर तिपाई से उठे और दर्जी बाकर अली के पहलू में खड़े हो गए. पहले तो कुछ बोला नहीं गया, फिर जरा साहस संजोकर उसके कान में कुछ कहा. शायद अपनी अफसरी की बाबत कुछ बताया.

बाकर अली की आंखें सीप के बटन की तरह चमक उठी, "समझ गया, हुजूर ! अब आपको यहाँ आने की जरूरत नहीं! परसों शाम को ..इसी वक्त पी. ए. साहब को भेज दीजिएगा-आपका गाउन मिल जाएगा-''

रविवार, 28 दिसंबर 2014

'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' .... सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भारत में धर्म और संस्कृति का ऐसा घालमेल हुआ है कि साम्प्रदायिक लोग तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को धार्मिक मूल्य प्रदर्शित करते हुए वैसे ही साम्प्रदायिकता का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जैसे साम्प्रदायिक लोग विवेकानन्द की छाप का झंडा उठा कर साम्प्रदायिकता उत्थान में जुट जाते हैं।

इन्हीं दिनों मुझे निराला जी की जनवरी 1938 में माधुरी मासिक में छपी कहानी 'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' पढ़ने को मिली। कहानी का आरंभिक अंश तमाम धर्मों के बारे में उन की समझ को अभिव्यक्त करता है। देखिए और निराला के व्यंग्य का आनन्द भी लीजिए ...

“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है -धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी जी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा -धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किए शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने साथ 'शास्त्रिणी' का साइन-बोर्ड टाँगा-धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रीणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं-धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-धर्म की रक्षा के लिए।

इस से सिद्ध है, धर्म बहुत ही व्यापक है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वालों का कहना है कि नश्वर संसार का कोई काम धर्म के दायरे से बाहर नहीं। सन्तान पैदा होने के पहले से मृत्यु के बाद-पिण्डदान तक जीवन के समस्त भविष्य, वर्तमान और भूत को व्याप्त कर धर्म-ही-धर्म है।

जितने देवता हैं, चूँकि देवता हैं, इसलिए धर्मात्मा हैं। मदन को भी देवता कहा है। यह जवानी के देवता हैं। जवानी जीवन भर का शुभमुहूर्त है, सबसे पुष्ट कर्मठ और तेजस्वी देवता मदन, जो भस्म हो कर नहीं मरे, लिहाजा काल और काल के देवता, सब से ज्यादा सम्मान्य, फलतः क्रियाएँ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण, धार्मिकता को लिए हुए। मदन को कोई देवता न माने तो न माने, पर यह निश्चय है कि आज तक कोई देवता इन पर प्रभाव नहीं डाल सका। किसी धर्म शास्त्र या अनुशासन को यह मान कर नहीं चले, बल्कि धर्म, शास्त्र और अनुशासन के मानने वालों ने ही इन की अनुवर्तितता की है। यौवन को भी कोई कितना निन्द्य कहे, चाहते सभी हैं, वृद्ध सर्वस्व भी स्वाहा कर। चिन्ह तक लोगों को प्रिय हैं - खिजाब की कितनी खपत है? धातु पुष्ट करने की दवा सब से ज्यादा बिकती है। साबुन, सेण्ट, पाउडर, क्रीम, हेजलीन, वेसलीन, तेल-फुलेल, के लाखों कारखाने हैं इस दरिद्र देश में। जब न थे रामजी और सीताजी उबटन लगाते थे। नाम और प्रसिद्धि कितनी है- संसार की सिनेमा स्टारों देख जाइए। किसी शहर में गिनिए-कितने सिनेमा हाउस हैं। भीड भी कितनी- आवारागर्द मवेशी काइन्ज हाउस में इतने न मिलेंगे। देखिए-हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, क्रिस्तान-सभी; साफा, टोपी, पगड़ी, कैप, हैट और पाग से लेकर नंगा सिर-घुटन्ना तक; अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, साम्राज्यवादी, आतंकवादी, समाजवादी, काजी, सूफी से लेकर छायावादी तक, खड़े-बेड़े, सीधे-टेड़े,-सब तरह के तिलक-त्रिपुण्ड; बुरकेवाली, घूंघटवाली, पूरे और आधे और चौथाई बालवाली, खुली और मुंदी चश्मेवाली आँखें तक देख रही हैं; अर्थात् संसार के जितने धर्मात्मा हैं, सभी यौवन से प्यार करते हैं। इसलिए उन के कार्य को भी धर्म कहना पड़ता है। किसी के कहने-न मानने से वह अधर्म नहीं होता।...”

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

'हाडौती कहानी' प्यास लगे तो .....(2)


दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद अनवरत पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन पर अपने ब्लाग समञ्जस पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। अब इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का उत्तरार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(2) 


क दिन सुगन ने चम्पा के हाथ अंग्रेजी की पुस्तक देखी। पहले तो गौर से उसे देखता रहा। फिर पूछा “कैसी पुस्तक है?” चम्पा को ध्यान न था कि चोरी पकड़ी जाएगी। वह लज्जा से गुलाबी हो गई। धीमे स्वर में बोली -क्या करूँ? मन नहीं लगता तो ऐसे ही पन्ने पलटने लगती हूँ”।
चंपा का पढ़ने में मन देख सुगन ने सुझाया -माँ साब¡  से पूछ लो। वे कह देंगी तो मैं घड़ी दो घड़ी आ कर पढ़ा दूंगा।  चाहो तो सैकण्डरी का फार्म भर देना। पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी और पढ़ने की आप की। पटेल पटेलिन ने सोचा-इस बहाने से दोनों का मन मिल जाए तो क्या बुरा है? है तो जात का बेटा ही।
पाँच बरस गुजर गए।  इस अरसे में गाँव में शायद ही कोई घर बचा हो जिस के दुःख दर्द में सुगन काम न आया हो।  वह रोगी की सेवा भगवान की सेवा मानता।  किसी के बीमार होने का पता लगता तो वह तुरन्त पहुँचता। उस के पहुँचते ही लोग विश्वास से भर जाते -लो सुगन जी आ गए अब चिन्ता किस बात की?
चम्पा ने सैकण्डरी पास कर ली। उस के जीवन में नया प्रकाश फूटने लगा था।  बोलने-चलने से उठने-बैठने तक उस का व्यवहार सब के लिए मिठास बाँटने लगा।  गाँव में स्त्रियों के लिए खिंची लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में जितना कर सकती थी लोगों के काम आती। रात के खाने-पीने से निपट कर अपने घर के बंगले में लड़कियों को इकट्ठा करती और उन्हें पढ़ाती।
सुगन पास के गाँव हाट में सामान लेने आया हुआ था। सूरज अस्ताचल को जाए उस से पहले ही काम निपटा कर उस ने अपने गाँव की राह पकड़ी। यूँ और लोग भी हाट से गाँव लौट रहे थे। लेकिन उस के बीस तीस कदम आगे पीछे कोई नहीं था, वह अकेला ही चल रहा था। आगे के तिराहे से उसे गाँव की ओर मुड़ना था। वहीं से रास्ता चम्पा के ससुराल की ओर निकलता था।  तिराहे से कुछ पहले एक पेड के पास दो व्यक्ति बैठे दिखे।  उस ने अनुमान किया कि हाट में थके होंगे तो विश्राम के लिए रुक गए होंगे। वह तो दिन बाद होने वाले स्कूल इंस्पेक्टर के गाँव आने की सूचना के बारे में  सोच रहा था।  पिछली बार जब डिप्टी इंस्पेक्टर जाँच करने आए तो हेड मास्टर ने चंपा के अलग से स्कूल चलाने से सरकारी स्कूल में लड़कियों की अनुपस्थिति बढ़ने की शिकायत की थी। लेकिन गाँव के लोगों ने चम्पा के स्कूल बहुत प्रशंसा की थी। तब डिप्टी साहब रात रुके और चम्पा का स्कूल चलाना देखा।  आज सुबह ही सूचना मिली थी कि खुद इंस्पेक्टर साहब आएंगे और चम्पा का स्कूल का भी देखेंगे। वह सोच रहा था कि चंपा के स्कूल में कुछ कार्यक्रम भी करना चाहिए। यदि इंस्पेक्टर को चंपा का स्कूल अच्छा लगा तो जरूर वे चंपा के स्कूल और उस के विद्यार्थियों को सरकारी मदद दिलवा देंगे। तभी सुगन के कानों में आवाज पड़ी।
-ये जाने वाला कौन है?
-सुगन मास्टर है। दूसरे ने जवाब दिया।
फिर दोनों सुगन के पीछे पगडंडी पर उतर आए। सुगन का ध्यान उधर न था। वह तो सोचता जा रहा था -कैसे चंपा के स्कूल में कार्यक्रम कराना होगा, स्वागत गान किस से कराएंगे कौन सी लड़कियों से गीत-कविताएँ प्रस्तुत कराना उचित होगा, कैसे सभा का संचालन होगा आदि आदि ...
तभी सुगन से जोर से सुना –ठहर जा रे¡ उस ने पीछे मुड़ कर देखा। दो अनजान जवान थे।
-क्या बात है? सुगन ने पूछा।
-सुगन है ना तू? एक ने डपट कर पूछा।
-हाँ, पर आप कौन हैं? सुगन ने पलट कर उन से पूछा।
-हम कौन हैं? अभी बताते हैं।  सुगन कुछ संभलता उस के पहले ही एक ने अपनी लाठी उस के माथे पर दे मारी। सुगन गिरा तो दोनों उसे लाठियों से मारते चले गए। आगे पीछे के लोग कुछ समझ कर उस तरफ आते उस से पहले ही दोनों उसे छोड़ कर भाग छूटे।
सुगन ने लाठी अपने सिर पर उठती देखी।  फिर खोपड़ी में पटाखे सा धमाका हुआ. आखों में पहले तेज रोशनी सी चमकी फिर अंधेरा छा गया।  पीछे क्या हुआ ये उसे नहीं पता। कितनी लाठियाँ उस के शरीर पर कहाँ पड़ीं? सब सपने जैसा लगा। पीछे उन दोनों में से कोई बोला था -मेरी सगी भावज को घर में डाल कर पूछता है कि तुम कौन हो? फिर डरावनी सी हँसी सुनाई दी थी।
सुगन की निद्रा टूटी तो उसे लगा उस का सिर किसी नरम तकिए पर है।  सोचा थोड़ा और सो लिया जाए। फिर याद आई कि इंस्पेक्टर साहब आएंगे। चम्पा चिन्ता में घुली होगी। फिर भी मन ने कहा कुछ देर और सो लेने से क्या बिगड़ेगा? अभी तैयारी को पूरा दिन पड़ा है। उस ने करवट बदलनी चाही। शरीर हिला तो  सिर में तेज दर्द की लहर दौड़ गई, कण्ठ से कराह फूट पड़ी। तभी गरम पानी की दो बूंदे उस के गाल पर गिरीं। ये कहाँ से आईं? देखने के लिए आँखें खोली। आँखों से आधे हाथ दूर चम्पा का चेहरा दिखा। इतने नजदीक से वह उसे पहली बार देख रहा था। सुगन के कण्ठ से बोल न फूटा। चम्पा की बरसती और सूजी आँखों से उसे रात की घटना याद आ गई। पर ये न समझ आया कि वह कहाँ है और यहाँ कैसे पहुँचा?  उस ने पूछना चाहा -मैं कहाँ हूँ?
दर्द और कराह के बीच मुहँ से पूरा वाक्य भी न निकल सका, आँखों से आँसू निकल पड़े। चंपा ने उस की उस की आँखें अपने लूगड़े के पल्ले से पोंछीं। उसे न बोलने का इशारा करते हुए धीमे से बोली – सब बता दूंगी।
सुगन ने आसपास निगाह दौड़ाई तो समझ में आया कि चंपा के सोने का कमरा है। उस का सिर चंपा की गोद में है। आसपास चंपा की माँ और सयानी उम्र की कुछ औरतें-आदमी बैठे हैं। उस के सिर पर पट्टी बंधी है, फिर भी उस का सिर फटा जा रहा है।  
एक आदमी दूसरे से कह रहा था – आगे ही आगे मैं था। मैं तो अचानक देखते ही हक्का-बक्का रह गया। डरते डरते नजदीक पहुँचा तो देखा “सुगन जी”। इतने में तुम आ गए ...
-आ क्या गया? वो तो बच्चे के ससुर जी मिल गए। उन के साथ तम्बाकू पीने में पीछे रह गया। नहीं तो तुम्हारे साथ ही था। दूसरे ने बात को पूरा किया।
-फिर तो लोग इकट्ठे हो गए।  पीछे सभी तो आ रहे थे। मगन जी ने खुद का साफा फाड़ा और जला कर घाव में ठूँसा। खून रुका तो बचे हुए साफे से सिर पर पट्टा बांधा। फिर कांधे-माथे उठा के ले आए। आधा कोस ही तो था।
सुगन ने फिर करवट लेने की कोशिश की। चम्पा की माँ पूछने लगी। आँखें खुली क्या बेटी? हल्दी, गुड़ दूध के साथ ओटा कर रखी है, लाउँ?
चंपा ने सिर हिला कर हाँ का इशारा किया। सहारा दे कर सब ने सुगन को बैठाया। ओटावा पिला कर सुगन को फिर लिटा दिया। चंपा की माँ ने सब से कहा- होश आ गया अब खतरे की कोई बात नहीं।  आप सब सारी रात से बैठे हो। अब  जा कर थोड़ा आराम भी कर लो। सुगन को फिर निद्रा आ गई। उसे आराम से सोता देख सब लोग बिछड़ गए।
अगले दिन इंस्पेक्टर साहब आए।  बंगले में चलता चंपा का स्कूल देखा।  बंगले बाहर के चौक में ही कार्यक्रम हुआ। सुगन को सिर पर पट्टी बांधे देख सब काम करते देखा। कार्यक्रम हुआ। लड़कियों को पुरस्कार भी दिए। सुगन और चंपा के गाँव की लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयासों की प्रशंसा भी की। सरकार की ओर से चंपा के स्कूल को हर महीने आर्थिक सहायता की घोषणा भी की। गाँव के सभी लोग खुश थे। सब काम से ठीक से हो जाने पर सुगन जाने लगा तो चंपा की माँ ने रोका। बोली - भोजन बन रहा है, कर के ही जाना। इस घर को अपना ही समझो। सुगन को रुकना पड़ा।
भोजन के  बाद सुगन घर जाने लगा तो चम्पा की माँ बोली –सुनो तो .....
सुगन जाते जाते ठिठक कर रुक गया।  लेकिन चम्पा की माँ चुप खड़ी रह गई।  सुगन ने ही मौन तोड़ा – कहो न, आप क्या कह रही थीं?
-अब क्या कहूँ?  मैं तो कहूँ अब तो दस्तूर .....।
-कैसा दस्तूर? मैं नहीं समझा। सुगन बात काट कर बोला।
-चंपा की माँ ने सिर से पल्लू कुछ और खींचा और मंद स्वरों से अटक अटक कर कहने लगी – गाँव की चार बायरों को बुला कर घर में लेने का दस्तूर हो जाता तो ...।
-सुगन मौन खड़ा रह गया। फिर होठों में ही बोला – माँ, साब¡ आप ने मुझे धरम संकट में डाल दिया।
-कैसा धरमसंकट?
-आप की बात मानूंगा तो लोग कहेंगे -आया जब से चम्पा पर डोरे डाल रहा था, अब घर में डाल कर ही माना।  और न मानूंगा तो आप की बात का अपमान कर बैठूंगा।  आप ही बताओ जो भी मैं ने किया इसलिए थोड़े ही किया?  मेरे मन में ऐसी बात कभी सपने में भी नहीं आई।
-अब आप की भावना कुछ भी रही हो।  पर जो कुछ आप ने चंपा के लिए किया।  कोई पराया थोड़े ही करता? आप के मन में चंपा के लिए अपनापन है .... और मैं तो कहूँ ये अपनापन सारे जीवन बना रहे।
-इस से क्या होगा? अपनापन तो वैसे भी बना ही रहेगा।
-इस से मेरे मन का बोझ उतर जाएगा। मैं चंपा का घर बसता देखना चाहती हूँ।
सुगन सोच में पड़ गया। वह क्या जवाब दे? फिर कुछ सोच कर बोला – चंपा से पूछा?
-चंपा से क्या पूछना? वह कौन होती है?
-पर फिर भी हर्जा क्या है?
चंपा किवाड़ के पीछे खड़ी दोनों की बातों पर कान लगाए थी।  वह कुछ कहना भी चाहती होगी पर उस ने नकली खाँसी खाँस कर अपनी उपस्थिति जताई।
सुगन ने लगभग हथियार डालते हुए कहा – फिर भी उस की इच्छा जाने बिना ...
सुगन की बात को बीच में ही काट कर चम्पा की माँ ने कड़ाई से बोली  –मर्दों की जात हम बायरों की भावना समझने लगे  तो सारे झगड़े ही नहीं रहें।  जमाना कितना बुरा है। अकेली विधवा आदमी के सहारे बिना कैसे जीवन काट सकेगी? और चंपा के लिए आप से ज्यादा अपना कोई नहीं।  अब मैं आप की कुछ न सुनूंगी।
जाते हुए कार्तिक की रात ठंडाने लगी थी। सुगन ने नीचा सिर कर के धीमे से कहा - आप को हुकुम...।
-जाओ अब सोवो। कह कर पटेलन धीरे धीरे औसारे की ओर मुड़ गई। जाते जाते कहती गई –चंपा¡ पानी का लोटा भर के रख लेना।
... प्यास लगे तो?  
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संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल- 09636403452

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

हाडौती 'कहानी' प्यास लगे तो .....

दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद 'अनवरत' पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन के ऑथर ब्लाग 'समञ्जस' पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। आज से इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का पूर्वार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(1)

 गाँव के निकट पहुँचा तो अभी बाँस भर दिन शेष था। पहले पहल खेळ का कुआ, फिर मोती बलाई की झौंपड़ी और उस के बाद गाँव का सीधा गलियारा। इस के दो घर बाद ही उन का मकान। यहाँ गलियारा संकरा है। दोनों तरफ के दो चाँदे, बाएँ चांदे के सहारे बाड़ा जिस की टाँटी गलियारे से लगी हुई है।

वह बाड़े की तरफ झाँका। पीली वायल के लूगड़े में तुरई के फूलों के रंग की सूरत दिखाई दी। नजर मिली तो वह मुस्कुराई तो उस के गालों पर गुलाब उग आए। होठों पर गुलबाँसिये की कलियाँ आ चिपकीं। वह देखता रहा और चलता रहा। उसे शहर की औरतें याद आईं तो मन उबकाई लेने लगा। सोचा गाँव में भी फैशन आ ही गया। लिपिस्टिक लगा रखा था। अंदर ने नाह निकली। नहीं, लिपिस्टिक नहीं है, होठों का रंग ही ऐसा है।

दच्च…..¡ अचानक जैसे आखों के आगे मोर ने मोरपंखियाँ फैला दी हों। अंधेरा छा गया। अंधेरे में तारे नाचने लगे। गाल और आँख के बीच की हड्डी में सुन्न दौड़ गई। कुछ देर में समझ आया कि वह चांदे के कोने से टकरा गया है।

सामने से तीन-चार मधुर कण्ठ खिलखिलाए। उसने जोर लगा कर आखें खोलीं और उन कण्ठों के चेहरे पहचानने का प्रयत्न किया। आँखों को लाल-पीले नाचते तारों के बीच गौने की उम्र की कुछ छोरियों की धुंधली छवि दीखाई पड़े। चोट के झन्नाटे के बीच सुनाई पड़ा।

-भड़बट खा गया बेचारा।

-चांदा भी न दिखा, पता नहीं, कहीं अंधा न हो।

-तेरी तरफ झाँकने का फल चख लिया।

-तेरे फूल¡ जा पट्टी बांध दे। तेरी वजह से भड़बट खाई, उस ने।

हँसी की लहर मोगरे की कलियाँ बिखरेते बालों के साथ फैल गई। लड़कियाँ खेळ के कुएँ पर पानी भरने चल दीं। वह नीचा सिर किए सोचता जा रहा था। “पता नहीं किस किस ने देखा? जो भी सुनेगा, हँसेगा।

फिर कानों ने सुना - लो सुगन जी भी आ गए। अब तक वह सचेत हो चुका था। सामने देखा, मन में सोचा – मेरा नाम जानने वाला यहाँ कौन होगा?

एक परोसगार पत्तलें हाथ में लिए पाहुनों से पंगत लगाने को कह रहा था। सुगन उसे नहीं पहचान सका। यहाँ गलियारा चौड़े चौक में बदल गया था। भैरू पटेल का मकान गलियारे से पच्चीस-तीस हाथ दूर था जिस से मकान के बाहर एक चौक बन गया था। मकान के आगे बंगले में गौने के पाहुन डोराड़ियों पर बैठे थे। परोसगार उन से बार बार पंगत लगाने का आग्रह कर रहे थे।

सुगन सब के साथ पंगत में बैठ गया।

पाहुन जीम-चूँट कर निपटे तो राव बोलने लगा। “धकड़ोल्या, धन्दोल्या राणा परताप ........। भैरू जी पटेल राणा परताप ........। ऊँटाँ, घोड़ाँ का दातार, घणी खम्माँ परथीनाथ, राजी खुसी बणया रह्यो”। राव लंबी डकारें लेता, लंबी मूँछो पर हाथ फेरता आज के अन्नदाता को आसीसता जा रहा था। दिया-बत्ती होते ही लुगाइयों से पोळ भर गई। पाहुनों के नाम ले ले कर सुरीले गलों से नेह के सुर फूटने लगे। वह डोराड़ी पर पसर गया।

तड़के ही भाई-सगे स्नान-ध्यान के लिए जाने की तैयारी में लगे थे। तभी एक जवान आता दीख पड़ा। सुगन ने दूर से ही पहचान लिया -माधो तू¡ वह सुगन की और मुळकता हुआ आ रहा था। तेल झरते अंग्रेजी कट के बाल, टेरीकोट की कमीज, लाल किनारी वाली सफेद झक्क टखने ढकती धोती और पैरों में दशहरे मेले से खरीदे सस्ते मोल के देसी बूट। माधो साली के गौने में बन-ठन कर आया था।

निकट आते ही सुगन ने मुलकते हुए पूछा। - रात देर से आया क्या?

-नहीं मैं तो जल्दी ही आ गया था। तू कब आया? माधो ने पलट कर पूछा।

-मैं तो दिन रहते ही पहुँच गया था। उत्तर देते देते सुगन का ध्यान कल की घटना पर चला गया।

-मुझे तेरे आने की आस नहीं थी। माधो कह रहा था।

-मुझे तो तुम्हारी पूरी आस थी। सुगन ने कहा। समधी जी समझेंगे कि हमें अब कौन गिनता मानता है। इस लिए आना ही पड़ा।

दोनों मित्र देर तक बातें करते रहे। सुगन और माधो आठवीं तक साथ ही पढ़ते थे। फिर माधो पढ़ाई छोड़ कर काम-धन्धे में लग गया। सुगन हायर सैकण्डरी कर के एस.टी.सी. कर ली। चार कोस दूर के गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया।

कलेवा कर निपटते निपटते दुपहर हो गई। लुगाइयाँ पाहुनों के मेहंदी लगाने लगीं। पाहुनों के बोल छेड़खानी पर उतर आए । सुगन अन्न की गेहल से अलसाने लगा। गर्मी की दुपहरी में भोजन के बाद सोने का सुख अनोखा होता है। सुगन ने सब से अलग हो भैरू पटेल के नोहरे का दरवाजा जा खोला। नोहरे के बीच नीम का घेर-घुमेर पेड़ था। पास में बिना मँजे बरतन फैले पड़े थे। वहीं एक चारपाई थी। सुगन की मुराद पूरी हो गई। कोई कच्ची नींद में न जगा दे। यह सोच कर उस ने दरवाजे के किवाड़ लगा कर अन्दर से साँकल चढ़ा दी और चारपाई बिछा कर पसर गया। नोहरे और भैरू पटेल के मकान के बीच के सराड़े में आर-पार जो दरवाजा था उस की ओर सुगन का ध्यान ही नहीं गया।

नींद में उसे लगा कि कोई उसे छेड़ रहा है। सुगन की चमक नींद खुल गई, वह उठ बैठा। चार-पाँच बरस की एक छोरी भागती नजर आई। हरी छींट का घाघरा और लाल वायल का सलूका पहने थी। चार पाँच कदम जा कर पीछे अंगूठा उठाती बोली –ऐ, ब्याई जी मुझे परण ले जाओ ....।

एक गहरी हँसी की गूंज सराड़े के दरवाजे के किवाड़ों के पीछे से आई। निगाह उधर गई तो किवाड़ों के पीछे पीली वायल का लूगड़ा हवा के संग उड़ता दिखाई दिया। सुगन समझ गया क्या चालाकी है? और किस की है? छोरी दौड़ कर किवाड़ों के पीछे गुम हो गई। कानाफूसी सुनाई दी। फिर किवाड़ों के पीछे से झाँक कर छोरी ने हँसी दबाते हुए पूछा – पानी लाऊँ, ब्याई जी¡ ... पियोगे?

सुगन ने अब सीधी बात करना ठीक समझा। वह जोर से बोला – क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ? ये कैसे हो सकेगा?

कुछ देर में छोरी अपने नन्हें हाथों में एक पानी भरा लोटा लिए हाजिर थी। लेकिन सुगन का ध्यान तो किवाड़ों के पीछे लहराते पीले लूगड़े पर था। कल बाड़े में दिखी वही है। आधी किवाड़ों के पीछे और आधी दीखती खड़ी थी। इमली के कच्चे कटारों सी आँखें किनारे से पलकों तक बिखर बिखर हँस रही थीं। सुनहरी कढ़ाई वाला मूंगियां रंग का कब्जा और लाल चिकन का घाघरा पहने थी, पैरों में बाजणी पाजेब।

छोरी के लोटा पकड़े हाथ दुखने लगे, छूट कर लोटा नीचे गिरा। आवाज से सुगन चौंक कर होश में लौटा तो लोटा जमीन पर लुढ़क रहा था। छिटक कर पानी गिरने से उड़े धूल के गीले कणों ने सुगन की पेंट को चित्रित कर दिया था। उधर हँसी दरवाजे के किवाड़ों से न रुकी। छोरी सिटपिटा कर भाग गई। बाहर गलियारे में अभी भी बोल छेड़खानी पर उतारू थे। किसी ने आवाज लगाई – अरी..ई .... चम्पा...आ....¡ सुनते ही पीली वायल का लूगड़ा दरवाजे के पीछे गायब हो गया।

दो बरस पीछे सुगन का तबादला उसी गाँव में हो गया। उस ने स्कूल में उपस्थिति दी तब फागुन लग गया था। खेतों के ओढ़े सरसों के फूलों के लूगड़े फगुनाई हवा में लहराते थे। मानुष मन प्रकृति परिवर्तन से अप्रभावित कैसे रहता? सुगन के मन में भी रंगों का मेला सजा। पीले वायल का लूगड़ा स्मृति के किवाड़े खोल फागुन की हवा में लहराने लगा। मन कहता था वह अवश्य मिलेगी। स्मृति ने खुद का ही स्वर दोहरा दिया “क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ?” उस ने खुद से शरमा कर चारों ओर देखा। आस-पास कोई न दिखा तो संतोष हुआ।

पहले दिन का स्कूल कर के निकला तो उस के पैर सीधे भैरू पटेल के मकान की ओर चल पड़े। दरवाजे के बाहर जा कर आवाज लगाई तो अंदर से एक बदरंग लूगड़ा लपेटे एक बायर बाहर आई। देख कर सुगन सोच में पड़ गया। उनियारा तो चम्पा जैसा ही है पर इतना बदरंग कैसे? वह एकटक देखता रह गया। बायर ने ही मौन तोड़ा।

-ऐसे क्या झाँक रहे हो, निस्संग की नाईं? हँस कर उस ने पुरानी बात दोहराई तो विश्वास हुआ कि वह चम्पा ही है और उसे भूली नहीं। लेकिन? उस का मन दुख भरे विस्मय से भर गया। सचेत हो कर उस ने पूछा –पर ये क्या हुआ?

चम्पा की लंबी पलकें टप-टप गिरते मोतियों को न रोक सकीं। सुगन थैला लिए हक्का-बक्का खड़ा रह गया। चम्पा पहले होश में आई। मुड़ कर झट से घर के अंदर चली गई। जाती जाती कहती गई –बैठने को बिछावन लाती हूँ।

पीछे से चम्पा की माँ आ गई। खेत से हरे चनों का गट्ठर लाई थी। दरवाजे पर पाहुन दिखा तो थोड़ा पल्ला खींच लिया। सुगन ने उन्हें देख अभिवादन किया – ढोक देता हूँ।

आवाज सुन कर चम्पा की माँ समझ गई कि सुगन है। वारणे लेती हुई बोली – कब पधारया? सुगन कुछ बोलता उस के पहले ही हाँक लगा दी – चम्पा ... आ....¡ कुछ बिछाने को ला। पाहुन खड़े हैं। पानी का लोटा भी भर लाना ....।

चम्पा नई कथरी लाई और चबूतरे पर बिछा दी. फिर “पानी लाती हूँ” कहते हुए तुरन्त ही अंदर चली गई। चम्पा की माँ ने बूटों का गट्ठर चबूतरे पर एक ओर पटका और पाहुन से कुछ दूर बैठ घूंघट लिए लिए ही बतियाने लगी।

-भाग फूट गए बेचारी के। दो दिन भी सुहाग का सुख न देखा। ठीक से आती जाती भी न हुई थी। ...... बुढ़िया बिना किसी की हाँ हूँ के धाराप्रवाह बोलने लगी जैसे खुद से ही बतिया रही हो। चम्पा ने पानी का लोटा ला कर सुगन को थमा दिया था और वहीं माँ के समीप ही बैठ गई थी।

सुगन के पल्ले कुछ न पड़ा। वह बोला – मेरे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। आखिर ऐसा दुःख कैसे आन पड़ा?

चम्पा की माँ अनवरत बोलती रही। जवाँईं भी कैसा? देवता जैसा था। ऐसा तो कभी मेरे पाहुन भी न आया। कभी नीचे से ऊपर न देखा उस ने। ससुर के तो सामने भी न बोला। पर न जाने क्या हुआ बेचारे को। एक रात में ही .....। सुगन बीच बीच में हाँ हूँ करने लगा था। पर बुढ़िया उस पर ध्यान दिए बिना ही कहती जा रही थी।

-घर वालों ने भी ऐसी करी, नामुरादों ने कि बारह दिन भी साता से न काटने दिए। ताने देने लगे। ये आई है न सतवन्ती जो आते ही निहाल कर दिया। आते ही आदमी को खा गई। पटेल जी को सारी हालत का पता लगा तो पगफेरे के बहाने ले कर आए। तब जा कर साता आई इसे। सूख के पंजर हो गई थी।

-मैं कहती हूँ। रात दिन आँसू बहाने से क्या होगा? अभी तो तेरे खाने-खेलने के दिन हैं। पटेल जी से कह कर अच्छा घर-बार देख दूंगी। पर ये समझती नहीं। कुछ कहते ही मोरनी की तरह आँसू टपकाने लगती है। एक दिन ज्यादा कही तो बोली – मेरे भाग में सुख होता तो ऐसा क्यों होता?

उस दिन के बाद सुगन उस घर बे-रोक टोक आने जाने लगा। छोटा गाँव, मानुष बातों की लहरें बुनने लगे। गोबर फेंकती लुगाइयाँ रेवड़ी पर मिल जातीं तो चम्पा और नए मास्टर जी बात करने लगतीं।

-आज तो चम्पा बाई काजल लगाए थी। एक चर्चा छेड़ती तो दूसरी टीप लगाती।

-नए मास्टर जी रात ग्यारह बजे भैरू जी पटेल के यहाँ से आ रहे थे। मेरे वो जब बाहर निकले तो पूछा- कौन है? तो बोला –मैं हूँ, सुगन। राख होए को शरम भी नहीं आती। दो को बतियाते देख तीसरी भी रस लेने आ जाती और बात का सींग-पूँछ जाने बिना ही बीच में बोल जाती।

- इस से तो सब के सामने हाथ पकड़ ले वही अच्छा। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा हो जाएगा तो बेचारी की जिन्दगी खराब हो जाएगी।

गाँव के उठती रेखाओं और भरी कलाइयों वाले जवान भी सुगन को रास्ते में देखते ही खखारने लगे।

                                                                                                              ... क्रमशः


संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल - 09636403452