पशुओं के रूप में उत्पन्न हुई
संपत्ति ने मातृवंश को पितृसत्ता में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रीति से
चुपचाप अवश्य हुआ, लेकिन इस का सफर आसान नहीं था। पशुपालन के पूर्व तक गोत्रों के
पास संपत्ति थी ही नहीं। पशुओं को पकड़ कर लाने, उन्हें पालतू बनाने और युद्ध
बंदियों को दास बना कर रखने का काम पुरुषों ने किया था, इस कारण समूह के पुरुष ही इस
पहली संपत्ति के स्वामी थे। पशुपालन और रेवड़ों में पशुओं की संख्या बढ़ने से उन
के बदले कुछ भी प्राप्त किया जा सकता था। वे विनिमय का साधन हो गए, वे मुद्रा का
काम करने लगे। पशुओं के बदले प्राप्त वस्तुएँ भी पुरुषों की संपत्ति हो गईं।
पुरुषों ने घर के बाहर के सब काम संभाले और स्त्री के पास पहले से घर के अंदर के जो
काम थे वे ही उन के पास रह गए। आजीविका का काम पुरुषों के पास आ जाने से घर के अंदर
के कामों के कारण जो प्रमुख स्थान स्त्रियों को प्राप्त था, अब उसी कारण से स्त्रियों का स्थान गौण हो
गया। उन के घरेलू कामों का महत्व जाता रहा। सामाजिक उत्पादन में उस का कोई योगदान
नहीं रहा। इसी से हम आज यह सीख ले सकते हैं कि जब तक केवल घर के काम स्त्रियों के पास रहेंगे
उन का पुरुषों के साथ बराबरी का हक प्राप्त करना असंभव है, और असंभव ही रहेगा। वे
तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब बड़े सामाजिक पैमाने पर वे उत्पादन में भाग लेने
लगें। मातृवंश के स्थान पर पितृसत्ता के कायम होने से समूह पर पुरुष की तानाशाही पूरी तरह
स्थापित हो गयी। इस तरह संपत्ति के उद्भव ने स्त्री-पुरुष के बीच जो भेद कायम किया वह आज तक चला आ रहा है।
लोहे के आविष्कार ने जंगलों
को काट कर खेती योग्य भूमि तैयार करने और भूमि को बड़े पैमाने पर जोतना संभव कर
दिया। इस से खेती का विस्तार होने लगा। दस्तकारों को सख्त और तेज औजार मिल गए।
धीरे धीरे पत्थर के औजार गायब होने लगे। कबीलों के और कबीलों के महासंघ के मुख्य स्थान नगर हो गए। बुर्जों और दरवाजों से
युक्त चहारदिवारी के घेरे में पत्थर और ईंटों के मकान बनने लगे। यह वास्तुकला के
विकास और संपदा के कारण उत्पन्न खतरों से प्रतिरक्षा की आवश्यकता के द्योतक थे।
संपत्ति बढ़ रही थी और यह अलग अलग व्यक्तियों की थी। बुनाई, धातुकर्म, दस्तकारों
का अपना विशिष्ठ रूप होता जा रहा था। खेती से अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ ही नहीं तेल और शराब भी मिलने लगे। कुछ लोग इन्हें
बनाने की कला में विशिष्ठता हासिल करने लगे। इतने तरह के काम होने लगे थे कि हर कोई
सब काम नहीं कर सकता था। इस से श्रम विभाजन हुआ और खेती से दस्तकारी अलग हो गई। इस
से उत्पादन क्षमता बढ़ी, उस ने मानव की श्रम शक्ति का मूल्य बढ़ा दिया। इस से दासों का
महत्व बढ़ गया। अब वे केवल सहायक नहीं रह गये। उन्हें कई तरह के कामों में झोंका जाने
लगा। उत्पादन के खेती और दस्तकारी में बंट जाने से विनिमय के लिए ही माल का
उत्पादन होने लगा। इस से कबीलों की सीमाओं के पार यहाँ तक कि समुद्र पार तक व्यापार
होने लगा।
अब स्वतंत्र
लोगों और दास के भेद के साथ ही अमीर गरीब का भेद भी दिखाई देने लगा। सामुदायिक
कुटुम्ब कायम थे लेकिन उन के मुखियाओं के पास अधिक या कम संपदा होने के आधार पर वे
टूटने लगे। समुदाय द्वारा मिल कर खेती करने की प्रथा भी समाप्त होने लगी। जमीन
परिवारों में बंटने लगी। इस तरह निजि स्वामित्व में संक्रमण आरंभ हुआ। परिवार भी
निजि स्वामित्व के बढ़ने के साथ ही एकनिष्ठ होने लगे। परिवार समाज की आर्थिक इकाई
बन गए। आबादी के घनी होने से यह आवश्यक हो गया कि वह आंतरिक और बाह्य रूप से पहले
से अधिक एकताबद्ध हो। पहले एक दूसरे से रिश्ते से जुड़े कबीलों के महासंघ बने और
फिर कुछ समय बाद उन का विलय होने लगा। कबीलों के इलाके मिल कर एक जाति का इलाका बन
गए। गोत्र समाज एक सैनिक लोकतंत्र के रुप में विकसित होने लगे। युद्ध करना और
युद्ध के लिए संगठन करना जन जीवन का नियमित अंग बनने लगा। पड़ौसी जाति की दौलत देख
कर ललचाना, उसे हासिल करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। उत्पादक श्रम से दौलत
हासिल करने के स्थान पर लूटमार कर के हासिल करना अधिक आसान और सम्मानप्रद था। पहले
जहाँ आक्रमण का बदला लेने या अपर्याप्त क्षेत्र को बढ़ाने के लिए ही युद्ध होते थे
अब संपदा हासिल करने के लिए भी होने लगे। युद्धों ने सेना नायकों, उपनायकों की
शक्ति को बढ़ा दिया। एक ही परिवार से उत्तराधिकारी चुने जाने की प्रथा वंशगत
उत्तराधिकार में बदल गई। इस तरह वंशगत बादशाहत और अभिजात वर्ग की नींव पड़ गई।
गोत्र व्यवस्था की जड़ें जनता के बीच से उखाड़ दी गईं। अपने मामलों की खुद
व्यवस्था करने वाले कबीलों के संगठन अब पड़ौसियों को लूटने और सताने के संगठन
बन गए। उसी के अनुसार गोत्र संगठनों के निकाय जनता की इच्छा को कार्यान्वित करने के स्थान पर
जनता पर शासन करने और अत्याचार करने वाले स्वतंत्र निकाय बन गए।
इन नयी परिस्थितियों ने श्रम
विभाजन को और मजबूत किया। शहर और देहात का अंतर और अधिक बढ़ गया। एक और श्रम
विभाजन हुआ। इस से एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो उत्पादन में बिलकुल भाग नहीं
लेता था। वह केवल विनिमय करता था। यह व्यापारी वर्ग था। यह ऐसा वर्ग सामने आया था
जो उत्पादन में बिलकुल भी भाग न लेते हुए भी उस के प्रबंध पर पूरा अधिकार जमा लेता
था और उत्पादकों को अपने अधीन कर लेता था। वह उत्पादकों के बीच ऐसा बिचौलिया बन
गया था जिस के बिना उन का काम नहीं चलता था और वह दोनों का शोषण करता था। इस
अवस्था में इस नवोदित व्यापारी वर्ग को कल्पना भी नहीं थी कि भविष्य में उस के
भाग्य में कितनी ही बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं।
9 टिप्पणियां:
अच्छा लगा। बढ़िया।
जैसे जैसे हम सभ्य होते गए संवेदन हीन होते गए.
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
रुचिकर आलेख.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
शुभ विजया ||
अभी अधिक व्यस्तता के चलते आपके आलेख को पढ़ नहीं पा रहा ,एक दो दिन बाद पढ़ कर विस्तार से लिखना चाहूँगा.
kramasha.....chalta rahe
abhar.
pranam.
क्रमिक विकास का सजीव चित्र।
बढ़िया आलेख.
द्वितीय नगरी करण नें भी कृषि उपज को बहुत मजबूत किया था.
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