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शनिवार, 29 नवंबर 2008

आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार

कल 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' पर मैं ने अपनी एक अपील 'यह शोक का वक्त नहीं, हम युद्ध की ड्यूटी पर हैं' प्रस्तुत की थी। अनेक साथियों ने उस अपील को उचित पाते हुए अपने ब्लाग पर और अन्यत्र जहाँ भी आवश्यक समझा उसे चस्पा किया। उन सभी का आभार कि देश-जागरण के इस काम में उन्हों ने सचेत हो कर योगदान किया।

कल के दिन अनेक ब्लागों के आलेखों पर मैं ने टिप्पणियाँ की हैं। अनायास ही इन्हों ने कविता का रूप ले लिया। मैं इन्हें समय की स्वाभाविक रचनाएँ और प्रतिक्रिया मानता हूँ। सभी एक साथ आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कोई भी पाठक इन का उपयोग कर सकता है। यदि चाहे तो वह इन के साथ मेरे नाम का उल्लेख कर करे। अन्यथा वह बिना मेरे नाम का उल्लेख किए भी इन का उपयोग कहीं भी कर सकता है। मेरा मानना है कि यह आतंकवाद के विरुद्ध इन का जिस भी तरह उपयोग हो, होना चाहिए।

ईश्वर का कत्ल
  • दिनेशराय द्विवेदी
कत्ल हो गया है
ईश्वर
उन्हीं लोगों के हाथों
पैदा किया था
जिन्हों ने उसे
मायूस हैं अब
कि नष्ट हो गया है।
उनका सब से बढ़ा
औज़ार





अब तो शर्म करो

  • दिनेशराय द्विवेदी
तलाशने गया था वह
अपनों के कातिलों को 


कातिल पकड़ा गया
तो कोई अपना ही निकला


फिर मारा गया वह 

अपना कर्तव्य करते हुए,

अब तो शर्म करो!


दरारें और पैबंद

  • दिनेशराय द्विवेदी
दिखती हैं
जो दरारें
और पैबंद
यह नजर का धोखा है 


जरा हिन्दू-मुसमां
का चश्मा उतार कर
अपनी इंन्सानी आँख से देख


यहाँ न कोई दरार है
और न कोई पैबंद।




आँख न तरेरे
  • दिनेशराय द्विवेदी
शोक!शोक!शोक!

किस बात का शोक?
कि हम मजबूत न थे
कि हम सतर्क न थे
कि हम सैंकड़ों वर्ष के
अपने अनुभव के बाद भी
एक दूसरे को नीचा और
खुद को श्रेष्ठ साबित करने के
नशे में चूर थे। 


कि शत्रु ने सेंध लगाई और
हमारे घरों में घुस कर उन्हें
तहस नहस कर डाला।

अब भी
हम जागें
हो जाएँ भारतीय 


न हिन्दू, न मुसलमां 
न ईसाई


मजबूत बनें
सतर्क रहें 


कि कोई
हमारी ओर
आँख न तरेरे।





बदलना शुरू करें

  • दिनेशराय द्विवेदी
हम खुद से
बदलना शुरू करें
अपना पड़ौस बदलें
और फिर देश को
रहें युद्ध में
आतंकवाद के विरुद्ध
जब तक न कर दें उस का
अंतिम श्राद्ध!




युद्धरत

  • दिनेशराय द्विवेदी

वे जो कोई भी हैं
ये वक्त नहीं
सोचने का उन पर

ये वक्त है
अपनी ओर झाँकने और
युद्धरत होने का

आओ संभालें
अपनी अपनी ढालें
और तलवारें

13 टिप्‍पणियां:

  1. "आओ संभालें
    अपनी अपनी ढालें
    और तलवारें "

    लोहे की तलवार, काठ की ढाल ?

    मन थोडा सांत्वना के घूँट पीने लगा. धन्यवाद.

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  2. यह समय है कश्मीरी आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों पर बिना समय गवाए पूरी शक्ति के साथ सैन्य कार्यवाही का ! एक मुक्तिवाहनी सेना के हस्तक्षेप की !

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  3. किस बात का शोक?
    कि हम मजबूत न थे
    कि हम सतर्क न थे....kya hum satark the?

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  4. युद्ध खत्म हो गया है ! राज ठाकरे बिल से बाहर आगया है ! अब जनता को दिलासा देने के लिए शान्ति मार्च और मोमबती युद्ध की तैयारियां करनी है !

    @Arvind Mishraa ji कहीं कुछ हुआ था क्या ?

    इब रामराम !

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  5. हां ये बात सही है कि शुरुआत खुद से होनी चाहिये।

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  6. आप काफी संतुलित रहे अपनी प्रतिक्रिया में। अच्छा है, व्यर्थ का उबाल क्या कर लेगा?

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  7. द्विवेदी जी, मुझे किसी कवि-सम्मलेन में सुनी पंक्तियाँ याद आ रही हैं. "अगर एक बार भी देश ने इस्लामाबाद की ओर सफ़ेद कबूतरों की जगह गुरु गोविन्द सिंह के बाज छोड़े होते तो आज आलम कुछ और होता."

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  8. ये वक्त है
    अपनी ओर झाँकने और
    युद्धरत होने का

    आओ संभालें
    अपनी अपनी ढालें
    और तलवारें
    --हर एक को सतर्क रह कर ख़ुद अपनी रक्षा का भार लेना होगा.

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  9. सामयिक व स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

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  10. व्‍यक्ति का नियन्‍त्रण स्‍वयम् से आगे तनिक भी नहीं है। इसलिए यह स्‍वाभाविक है कि कोई भी शुरुआत स्‍वयम् से ही की जा सकती है।
    इस बात को जानते और समझते तो सब हैं किन्‍तु मानने को तैयार नहीं हैं। यही हमारी सबसे बडी समस्‍या है।
    ज्ञानजी ने सटीक टिप्‍पणी की है। भावाकुलता के अतिरेकी क्षणों में आपने प्रशंसनीय और अनुरकणीय संयमित प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त कीं।

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  11. आँख तरेरे वाली पसन्द आई।

    दरारें और पैबंद में पाँचवीं पंक्ति में मुसलमां होना चाहिए।

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....