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रविवार, 30 नवंबर 2008

कहाँ तक गिरेगी राजनीति?

राजस्थान में 4 दिसम्बर को विधानसभा के लिए मतदान होगा। मेरे शहर कोटा में दो पूरे तथा एक आधा विधानसभा क्षेत्र है जो कुछ ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ कर पूरा होता है। वैसे तो इस इलाके को बीजेपी का गढ. कहा जाता है। लेकिन इस बार कुछ अलग ही नजारा है।

मेरे स्वयं के विधानसभा क्षेत्र से और एक अन्य विधानसभा क्षेत्र से राजस्थान के दो वर्तमान संसदीय सचिव बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों को संघर्ष करना पड़ रहा  है। संघर्ष का मूल कारण उन दोनों का जनता और कार्यकर्ताओँ के साथ अलगाव और एक अहंकारी छवि का निर्माण कर लेना है।

कुछ दिन पहले मुझे दो अलग अलग लोगों के टेलीफोन मिले। दोनों ही बीजेपी के सुदृढ़ समर्थक हैं। दोनों ने ही बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की अपील मुझे की। कारण पूछने पर उन्हों ने बताया कि भाई साहब इन दोनों ने राजनीति को अपनी घरेलू दुकानें बना लिया है, ये दुकानें बन्द होनी ही चाहिए। इस का अर्थ यह है कि बीजेपी की घरेलू लडाई को जनता तक पहुँचा दिया गया है।

चुनाव ने नैतिकता को इतना गिरा दिया है कि एक घोषित संत मेरे विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ब्राह्मणों से उन्हें वोट देने की अपील की जा रही है। कल तो हद हो गई कि बीजेपी के अनेक पदाधिकारी पार्टी से त्यागपत्र दे कर संत जी के पक्ष में खड़े हो गए। अपनी लुटिया को डूबते देख कल ही एक तथाकथिक संत ने बीजेपी उम्मीदवार का अपने ठिकाने पर स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि संसदीय सचिव भले ही बनिए हैं लेकिन इन की पत्नी तो ब्राह्मण है इस लिए सभी ब्राह्मणों को इन्हें ही वोट देना चाहिए। मैं ने चुनावी राजनीति के इतना गिर जाने की उम्मीद तक नहीं की थी।

13 टिप्‍पणियां:

  1. यह सब पहले भी होता था लेकिन अब खुलकर होने लगा है, कोई अपनी जात के नाम पर मांग रहा है तो कोई भाषा के नाम पर। जनता भी वैसे ही है, दे देती है ....ले जाओ हमारा भी वोट। तभी तो इन जैसे नेताओं की हिम्मत बढती है यह सब करने में।

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  2. राजनीति की अवसरवादिता ने मन गिरा दिया है आम नागरिक का . विश्वास उठ-सा गया है इस राजनीति व राजनेताओं से .
    मेरा क़स्बा जिस लोकसभा क्षेत्र में आता है, उस सीट से वर्तमान 'सपा' का उम्मीदवार लगभग हर पार्टी से इसी सीट से चुनाव लड़ चुका है और कई बार जीत भी चुका है. तंग आ गए हैं उसे देखते हुए, उसकी अवसरवादिता और टुच्चे स्वार्थ को निरखते हुए .
    वोट नहीं दूंगा इस बार, नाम मतदाता सूची से निकाल दिया गया है . कारण तो आप सब जानते हैं .

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  3. क्या कहूं सर, बिहार में यह बहुत पहले से देख रहा हूं.. भूरा बाल साफ करो जैसे नारे शायद आपने भी सुने होंगे..

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  4. तो भी इन्हीं में से किसी एक तो सत्ता मिलेगी ... कैसा भयानक दुःस्वप्न है!

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  5. जहाँ निर्वाचन में एक व्यक्ति को वोट दिया जा सकता है वहीं पर सारे प्रत्याशियों को नकारने का विकल्प भी हो तो जनता कह सकती है कि वह किन-किन व्यक्तियों को संसद-विधायिका में देखना नहीं चाहती है. एक निश्चित प्रतिशत से अधिक नकारात्मक वोट पाने वालों पर अगले कुछ (३, ५, ७) वर्षों तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए.

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  6. बड़ा विचारणीय सवाल खडा किया है आपने !

    रामराम !

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  7. जात-पात की गंदगी तो ये नेता ही फ़ैलाते है। चुनाव मे टिकट बांटने से पहले उसके जातीय समीकरण देखे जाते हैं। जनता बेकार मे कट्टरपंथियों को कोसती रहती है। और चुनाव तो मानो गटर मे से फ़ूल चुनने जैसा ही है सारे सुअर तमाम गंदगी से लैस होकर एक दूसरे से ज्यादा गंदगी फ़ैलाने की होड़ मचा देते हैं। आज-कल तो टिकट के बटंवारे के समय ही पूछ लिया जाता है कितना खर्च कर सकते हो। और फ़िर चुनाव मे बहती है दारू और नोटों की नदियां। घात-भीतरघात तो पुराने ज़माने की बात हो गयी अब तो सीधे दल-बदल और हरवाओ राजनिती चलती है।बेशर्मी की कोई हद नही होती चुनाव में।

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  8. जो जात पात पर, धर्म के नाम पर वोट मांगे सब से पहले उसे अपनी वोट मत दो....
    ऎसे कमीने तो अपनी मां बहन को भी पेश कर दे कुर्सी के लिये

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  9. सिर्फ यही कहा जा सकता है के

    "हर शाख पे ऊल्लू बैठा है
    अंजाम-ए-गुलिस्तां कया होगा"

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  10. यह सब तो आजादी की पहली सुबह के साथ शुरू हुआ था. जो बीज उस समय बोया गया था आज फल फूल कर विशाल बन चुका है.

    बहुत पहले की बात है, पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक कसबे की, मैंने अपने एक मित्र से पूछा कि वह किसे वोट देंगे. उनका जवाब था इंदिरा गाँधी के प्रतिनिधि को. मैंने पूछा क्यों? उनका जवाब था - हम ब्राम्हण है और इंदिरा गाँधी भी ब्राह्मण है, इस लिए हम सब ब्राहमणों का वोट उन्हीं को जायेगा. मैंने कहा कि वह तो ब्राह्मण नहीं हैं,उनकी शादी एक पारसी से हुई है. मेरे मित्र ने कहा तो क्या हुआ, वह पंडित जी की बेटी हैं, इसलिए ब्राह्मण हैं.

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  11. हम सब सुविधा की राजनीति करते हैं और तदनुसार ही सोचते भी हैं । हम कोई कीमत भी नहीं चुकाना चाहते और चाहते हैं कि हमें सब कुछ मिल जाए । 'नो रिस्‍क, नो गेन' वाली बात लागू होगी । हम सबको खुश करने में लगे रहते हैं फलरूवरूप हम किसी को खुश नहीं रख पा रहे हैं, दूसरों की छोडि दीजिए, खुद को भी खुश नहीं रख पा रहे हैं ।
    यदि हम जीना चाहते हैं तो हमें मरना सीखना होगा ।

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  12. pataal se bhi neechey koi jagah hogi.
    wahin jaane ki hod mein hain sabhi.aur saath le jayengey desh ko bhi.

    kya karnaa chaheeye???

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