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रविवार, 29 जून 2008

ब्रह्मा, विष्णु और महेश को पत्नियों का दास बनाया, किसने ?

भर्तृहरि की शतकत्रयी की तीनों कृतियाँ न केवल काव्य के स्तर kam1पर अद्वितीय हैं, अपितु विचार और दर्शन के स्तर पर भी उस का महत्व अद्वितीय है। अधिकांश संस्कृत की कृतियों में सब से पहला चरण मंगलाचरण का होता है। जिस में कृतिकार अपने आराध्य को स्मरण करते हुए उसे नमन करता है। साथ ही साथ यह भी प्रयत्न होता है कि जो काव्य रचना वह प्रस्तुत कर रहा होता है, उस की विषय वस्तु का अनुमान उस से हो जाए।  शतकत्रयी की कृतियों में श्रंगार शतक एक अनूठी कृति है जो मनुष्य के काम-भाव और उस से उत्पन्न होने वाली गतिविधियों और स्वभाव की सुंदर रीति से व्याख्या करती है। युगों से वर्षा ऋतु को काम-भाव की उद्दीपक माना जाता है। वाल्मिकी ने भी रामायण में बालि वध के उपरांत वर्षाकाल का वर्णन करते हुए सीता के विरह में राम को अपनी मनोव्यथा लक्ष्मण को व्यक्त करते हुए बताया है। वैसे भी रामायण की रचना का श्रेय संभोगरत क्रोंच युगल की हत्या से उत्पन्न पीड़ा को दिया जाता है।।

यहाँ श्रंगार शतक का मंगला चरण प्रस्तुत है......

madan44

शम्भुः स्वयम्भुहरयो हरिणेक्षणानां
येनाक्रियन्त सततं गृहकर्मदासाः ||
 
वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय
तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय || १||

यहाँ भर्तृहरि कुसुम जैसे कोमल किन्तु सुगंधित और सुंदर आयुध का प्रयोग करने वाले कामदेव को नमन करते हुए कह रहे हैं- जिन के प्रभाव से हिरणी जैसे नयनों वाली तीन देवियों (सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती) ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे तीन महान देवताओं को अपने घरों के काम करने वाले दास में परिवर्तित कर दिया है, जिन की अद्भुत और विचित्र प्रकृति का वर्णन करने में स्वयं को अयोग्य पाता हूँ, उन महान भगवान कुसुमयुधाय (कामदेव) को मैं नमन करता हूँ।।

  madan_kamdevयह मंगलाचरण श्लोक यहाँ यह भी प्रकट करता है कि मनुष्य ने अपने मानसिक-शारिरीक भावों को जिन के वशीभूत हो कर वह कुछ भी कर बैठता है देवता की संज्ञा दी है, और यह देवता (भाव) इतना व्यापक है कि उस के प्रभाव से सृष्टि के जन्मदाता, पालक और संहारक भी नहीं बच पाए।

इस आलेख को पढ़ने के उपरांत इस श्लोक पर आप के विचार आमंत्रित हैं।

शुक्रवार, 27 जून 2008

महेन्द्र नेह के दो 'कवित्त'

(1)


धर्म पाखण्ड बन्यो........


ज्ञान को उजास नाहिं, चेतना प्रकास नाहिं
धर्म पाखण्ड बन्यो, देह हरि भजन है।

खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।

यार नाहिं, प्यार नाहिं, सार और संभार नाहिं
लूटमार-बटमारी-कतल कौ चलन है।


पूंजीपति-नेता इन दोउन की मौज यहाँ
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।


(2)
पूंजी को हल्ला है.......


बुझवै ते पैले ज्यों भभकै लौ दिवरा की
वैसे ही दुनियाँ में पूंजी को हल्ला है।


पूंजी के न्यायालय, पूंजी कौ लोक-तंत्र
पूंजी के साधु-संत फिरत निठल्ला हैं।


पूंजी के मनमोहन, पूंजी के लालकृष्ण
पूंजी के लालू, मुलायम, अटल्ला हैं।


पूंजी की माया है, पूंजी के पासवान
हरकिशन पूंजी के दल्लन के दल्ला हैं।।

*** *** ***

बुधवार, 25 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-२.....समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही और जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड

दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।

Shiv Kumar Mishra ने लिखा धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान और अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा हैइन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।

इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।

ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।

अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।

किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।

इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।

अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का लीनियन एसेंडेंट हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।

मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति लीनियन एसेंडेंटएक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।

मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।

समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

सोमवार, 23 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-1 ....एक दुपहर शमशान में

आज मुझे फिर एक अस्थि-चयन में जाना पड़ा। मेरे एक नित्य मित्र के भाई का शुक्रवार को प्रातः एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया। मैं अन्त्येष्टी में नहीं जा सका था। सुबह नौ बजे एक मित्र का फोन मिला, वहाँ चलना है। मेरे पास उस समय कोई वाहन नहीं था, पहले तो फोन पर मना किया, कि शाम को बैठक में ही जाना हो सकेगा। संयोग से कुछ ही समय में वाहन आ गया, और मैं तुरंत ही रवाना हो गया। सुबह 9.50 पर मुक्तिधाम पहुँचा। (मेरे नगर में यहाँ श्मशान को मुक्तिधाम कहने की परंपरा चल निकली है) तब तक चिता को पानी डाल कर शीतल किया जा चुका था। अस्थियाँ धोकर, एक लाल थैली में बंद की गईं। राख को चम्बल में प्रवाहित करने के लिए कुछ लोग जीप से केशवराय पाटन के लिए रवाना हो गए।

कोटा जंक्शन से कोई दस किलोमीटर दूर, चम्बल के दक्षिणी किनारे पर रंगपुर नाम का गाँव है। सामने ही चम्बल के उस पार केशवराय पाटन है। सड़क मार्ग से यही 30 किलोमीटर पड़ता है। चम्बल के पूर्वोन्मुखी बहने से वहाँ तीर्थ है। चम्बल किनारे केशवराय भगवान का विशाल प्राचीन मन्दिर है, उस से भी प्राचीन शिव मंदिर है, प्राचीन जैन तीर्थ भी है। कोटा के अधिकांश लोग इसी तीर्थ में राख प्रवाहित करने के लिए जाते हैं। किसी को यह भान नहीं कि राख से चम्बल मे प्रदूषण होता होगा, राख को भूमि में भी दबाया जा सकता है। खैर!!

दाह-स्थल गोबर से लीपा गया। स्थान की गर्मी से लीपा गया तुरंत ही सूख गया। उस पर गोबर के ही उपले गोलाई में इस तरह जमाए गए कि उन पर मिट्टी का कलश रखा जा सके। फिर उन में आग चेताई गई और एक कलश में चावल पकाने को रख दिए गए। नम हवा और नम उपले। बहुत धुआँ करने के उपरांत ही उपलों ने आग पकड़ी। आधा घंटा चावल पकने में लगे। चावल पकने के बाद उन्हें पत्तल में घी और चीनी के साथ परोसा गया। मृतक को भोग अर्पित करने का प्रक्रम प्रारंभ हुआ। यह एक लगभग पूरी तरह सुलग चुके उपले पर घी छोड़ कर, पानी से आचमन करा कर, पत्तल के दूसरी और मृतक की कल्पना करते हुए, उसे प्रणाम कर के किया जाता है। उठने के बाद व्यक्ति अपने हाथ जरूर धो लेता है। एक व्यक्ति द्वारा इस कर्म कांड को करने में कम से कम दो मिनट तो लगते ही हैं।

पहले पुत्रों ने भोग अर्पण किया, फिर परिवार के दूसरे लोगों ने, फिर रिश्तेदारों ने। उस के बाद बिरादरी के लोगों ने भोग अर्पण किया। एक सुलगता हुआ उपला घी से तर-बतर हो कर बुझ गया। उसे माचिस से फिर सुलगाया गया। आग की लपटें हवन की तरह उठने लगीं। एक घंटे में कुल तीस लोग भोग अर्पण कर चुके थे, और अभी दस के लगभग पास खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बैठे हुए लोगों में भी कुछ जरुर इस कर्मकाण्ड को करने के इच्छुक जरूर रहे होंगे। नजदीक ही एक गाय ध्यान मग्न पत्तल पर रखे चीनी और घी से सने चावलों को देख रही थी, जिसे वहाँ आस पास खड़े लोग नहीं देख रहे थे।

मैं दूर एक बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था, जहाँ अनेक खूबसूरत ग्रेनाइट की बेन्चें अभी कुछ माह पहले विधायक कोष से लगाई गई थीं। उन में से कुछ पर धूल जमा थी, कुछ पर से लोगों ने बैठने से पहले हटा दी थी और कुछ पर से उन के बैठने के कारण स्वतः ही हट गई थी। एक बैंच पर कुछ कचरा सा पड़ा था। देखने पर पता लगा कि वह राल का पाउडर है जो चिता को चेताने के लिए काम आता है। एक बैंच के नीचे एक पांच-छह माह का कुत्ता चुपचाप आकर लेट गया था। उस के दो जुड़वाँ भाई दूसरे बरामदे में सुस्ता रहे थे। तीनों अभी अभी दूसरे मुहल्ले के कुत्तों से भिड़ने के लिए अभ्यास कर रहे थे। मुक्तिधाम के दूर के कोने में पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपे एक चबूतरे के पास दो नौजवान स्मैक या कोई अन्य पदार्थ का सेवन कर निपट चबूतरे पर पड़ी नीम की निमोलियों को साफ कर रहे थे, जिस से वहाँ सो कर दिन गुजारा जा सके।

मुझ से कर्मकाण्ड की लम्बाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी। मैं नें पास बैठे लोगों से पूछा, -क्या बीस-तीस साल पहले भी ऐसा ही होता था?

जवाब मिला, -पहले तो परिवार के लोग भी इस कर्मकाण्ड में सम्मिलित नहीं होते थे।

मैं ने बताया, केवल लीनियल एसेन्डेण्टस् ही यह कर्मकाण्ड करते थे। यानी मृतक/मृतका के पुत्र, पौत्र, पौत्री और नाती और उन के पुत्र आदि। वहाँ बैठे लोगों ने इस पर सहमति जताई।

मैं ने पूछा, -तो अब ये क्या हो रहा है?

प्रश्न का उत्तर नहीं था, सो नहीं मिला।

जवाब में मिला प्रश्न – इस में बुराई क्या है?

बुराई यह है कि उम्र में बड़ा तर्पण ले तो सकता है, दे नहीं सकता। दूसरे यह कि यहाँ आए लोगों का समय भी तो कीमती है वह जाया हो रहा है।

हम तो बर्दाश्त कर रहे थे। लेकिन गाय से इतनी देर बरदाश्त नहीं हुई, वह आस पास के लोगों की निगाहें न अपनी ओर देखती न पा कर शीघ्रता से चबूतरे पर चढी और चावलों पर झपटी। वह चावलों को लपकती इस से पहले ही वहाँ खड़े लोगों में से तीन-चार उस पर टूट पड़े। गाय खदेड़ दी गई।

हम में से एक ने कहा, - एक व्यक्ति नहा कर घर जा चुका है ताकि महिलाएँ नहाने जा सकें।

दूसरा बोला, -तो हम भी चल सकते हैं।

हम उठे और शमशान के बाहर आ गए। अपने अपने वाहन पर सवार हो चल दिये अपने घरों की ओर। हमारे बाहर आने तक कतार में छह व्यक्ति थे, और हमारे इर्द-गिर्द बैठे वे लोग जो बाहर नहीं आए थे कतार में सम्मिलित होने चल दिए थे।

शुक्रवार, 20 जून 2008

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

वाह क्या? सीन है! 

महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।

सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....

फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!

स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........

गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी,  महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।  

विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ,  कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।

सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....

इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?

गुरुवार, 12 जून 2008

हमारी मुहब्बत बज़रिए अभिषेक ओझा।

जी, उस से हमें बहुत मुहब्बत थी बचपन से ही। स्कूल जाने की उमर के पहले से ही, और वह तब तक प्रेरणा भी बनी रही, जब तक हम किशोर न हो गए। फिर समाज, या यूँ कहिए कि बाजार,  एक विलेन की तरह बीच में आ गया। दरअसल हमारी माशूक की उन दिनों बाजार में हालत बड़ी खस्ता थी। हमारी वह मुहब्बत बडी़ ही सफाई से कत्ल कर दी गई। हमें जिन्दा हकीकतों के साथ बांध दिया गया। पर मुहब्बत कत्ल होने पर भी मरती नहीं। वह कहीं दिल में, या जिगर में, या दोनों के बीच कहीं फंस imageकर जिन्दा रही।

हमें जिन जिन्दा हकीकतों से बांधा गया था, हम उन के न हुए, और वे हमारी। वे जल्दी ही अपनी मीठी-कड़वी यादें छोड़ कर अपने रास्ते चल दीं। हम कानून के पल्ले आ बंधे।
फिर वह न जाने कब, दिल और जिगर के बीच से निकल, हमारे बरअक्स आ खड़ी हुई। अब हमारे पास उस की मुहब्बत तो थी, वहीं दिल में, मगर वस्ल की उम्र विदा हो चुकी थी। हम अब भी उस की मुहब्बत की गिरफ्त में हैं। वस्ल नहीं तो क्या? मुहब्बत वस्ल की मोहताज तो नहीं।

अब हमारी उस मुहब्बत को ले कर हाजिर हैं, "अभिषेक ओझा"। उसे ला रहे हैं अपने चिट्ठे " कुछ लोग... कुछ बातें... !" पर। कल 11 जून को वे जन्मपत्री बांच चुके हैं, हमारी मुहब्ब्त की। इंतजार कर रहे हैं हम, कि कैसे? किस लिबास में? और किस सज्जा  के साथ पेश करेंगे, वे हमारी मुहब्बत को? और साथ ही जान पाएंगे, कि हमारी वह मुहब्बत ओझा जी के सानिध्य में किस हालात में जी रही है?

आप भी देखिएगा।

मंगलवार, 10 जून 2008

पितृशोक,..... हिन्दी चिट्ठाकार श्री राज भाटिया वापस जर्मनी पहुँचे

दो हिन्दी चिट्ठों पराया देश और मुझे शिकायत है के चिट्ठाकार श्री राज भाटिया 29 मई की सुबह भारत से पुनः बेयर्न, जर्मनी अपने वर्तमान आवास पर पहुँच गए हैं। उन की दिली तमन्ना थी कि वे जब भी भारत आएँ जितना संभव हो सके अधिक से अधिक हिन्दी चिट्ठाकारों से मिलें। लेकिन यह नहीं हो सका।

Raj Bhatiya's profile दिनांक 15 मई को राज जी के पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण अनायास और तुरंत ही भारत आना पड़ा। वे 16 मई को सुबह ही भारत पहुँच गए थे। 

राज जी  कुल तेरह दिनों तक भारत में अपनी माँ और अन्य परिजनों के साथ रहे। इस बीच वे नैट की दुनियाँ से दूर रहे। कल ही चैट सूची में उन की बत्ती हरी दिखाई देने पर उन से सम्पर्क हुआ। वे अपने पिता के निधन पर बहुत दुखी थे।  वे उन से जीवित अवस्था में ही मिलना चाहते थे, लेकिन उन की यह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी।

मैं ने उन्हें अपने ब्लाग पर कुछ लिखने को कहा लेकिन वे अभी मन  नहीं बना सके हैं। कहने लगे। 14 जून को उन के पिता का पहला मासिक श्राद्ध है। उस दिन घर में पूजा है। उसी दिन जर्मनी में उन के परिचित आदि, सब लोग पूजा पर उन के घर आएँगे। उसी के बाद वे अपने ब्लॉग पर आने का मन बना सकेंगे।

अपने पिता से उन की जीवित अवस्था में भेंट न कर पाने का दुखः क्या होता है? यह मैं समझ सकता हूँ।

मैं उन के पिता श्री को अपनी ओर से तथा समस्त हिन्दी चिट्ठाकार परिवार की और से श्रद्धाँजली अर्पित करता हूँ और कामना करता हूँ कि उन्हें और उन के परिजनों विशेष रूप से उन की माताजी को इस दुखः से बाहर आने की शक्ति प्राप्त हो। सभी हिन्दी चिट्ठाकार इस दुखः की घड़ी में राज जी के साथ हैं।

राज जी को उन के ई-मेल पते rajbhatia007@googlemail.com  

पर संदेश प्रेषित किए जा सकते हैं।

सोमवार, 9 जून 2008

लौट कर बुद्धू घर को आए

कोई एक पखवाड़े पहले 'इन्टेन्स डिबेट' (Intense Debate) से साक्षात्कार हुआ, कैसे? यह मुझे अब पता भी नहीं। यूँ ही, नेट पर चलते चलते। मुझे उस के पोस्ट पेज पर टिप्पणी फार्म और क्लिक करते ही सैकण्ड़ों में पोस्ट पर शामिल होने के गुण से आकर्षित किया। इस में और भी अनेक फीचर्स थे, जैसे आप एक ही पेज पर अपने ब्लॉग की अब तक की सारी टिप्पणियां देख सकते थे, और अपने ब्लॉग पर की गई खुद की सारी टिप्पणियाँ भी अलग से। टिप्प्णियों की स्टेटिस्टिक्स भी। और भी अनेक विशेषताएँ हैं इस में।

लेकिन दोष भी साथ ही। जैसे शायद सर्वर का सीमित होना जिस के कारण कभी समय पर टिप्पणी फार्म का ब्लॉग के साथ शीघ्र् नहीं जुड़ पाना, जिस के कारण ब्लॉगर के टिप्पणी फार्म का दिखना और टिप्पणी वहाँ चले जाना। इस समस्या का हल था उस की टिप्पणी फार्म को जो मैं ने पेज एलीमेंट के रूप में जोड़ा था उसे एचटीएमएल के रूप में  जोड़ देना। वह मैं ने किया भी। लेकिन एक अन्य समस्या सामने आ गई। सर्वर की अक्षमता के कारण अनेक टिप्पणियाँ बार बार धकेलने पर भी नहीं चढ़ पाना और टिप्पणीकर्ता का परेशान होना। जिस में बालकिशन जी और समीर भाई तो बहुत ही परेशान हुए। समीर भाई ने तो मुझे अनेक मेल भी किये।

एक और दोष था कि टिप्पणियाँ मेल द्वारा मुझे आती तो उस में यूटीएफ-8 एनकोडिंग के शामिल न  होने से उन्हें पढ़ नहीं पाना।

इन सब कमियों को मैं ने इंटेन्स डिबेट को सूचित किया और उन्हों ने वायदा भी किया। लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें ठीक होने में अभी समय लगेगा। हो सकता है वे शीघ्र ठीक कर लें। लेकिन हिन्दी ब्लॉग्स के लायक होने में उन्हें समय लगेगा। तब तक टिप्पणी करने वाले पाठकों से अन्तर्क्रिया न कर पाना या उस में व्यवधान बर्दाश्त करने काबिल नहीं।

खैर हम वापस ब्लॉगर टिप्पणी फार्म पर आ गए हैं और ऊंचा और सुन्दर पहाड़ चढ़ कर उतरने पर मैदान की यह यात्रा अधिक प्रिय प्रतीत हो रही है। खोए हुए परिचित वापस मिल गए हैं। इस बीच जिन पाठकों को परेशानी हुई और टिप्पणियों से दोनों को वंचित होना पड़ा उन से क्षमा प्रार्थी हूँ, मेरी इस सनक के लिए।

हो सकता है इन्टेन्स डिबेट शायद कुछ महिनों या कुछ बरसों के बाद एक अच्छा साधन  बने ब्लॉगर्स के लिए। या तब तक कुछ ब्लॉगर टिप्पणी फार्म और सिस्टम ही वे सब सुविधाएं प्रदान कर दे जो इंटेन्स डिबेट पर हैं।

पर फिलहाल इंटेन्स डिबेट को विदा। खुले में सांस लेने के लिए। या यूँ कहें लौट कर बुद्धू घऱ को आए।

शुक्रवार, 6 जून 2008

चिट्ठाकारों के लिए सबसे जरुरी क्या है?

आप अपना ब्लॉग बना कर एक ब्लॉगर हो गए हैं। आप को तकनीकी सूचनाएँ भी मिल ही जाती हैं। हिन्दी चिट्ठाजगत में बहुत से वरिष्ठ चिट्ठाकार हैं जो तकनीकी रुप से सक्षम हैं और चिट्ठाकारों को सब जरुरी जानकारियाँ आप को जुटाते हैं। जरूरी होने पर उस के लिए अपने बहुमूल्य समय में से समय निकाल कर भी आप की सहायता करते हैं। इस तरह आप को तकनीकी जानकारी की कोई कमी नहीं रहती है। नई से नई जानकारी को सभी के साथ बांटते हैं। लेकिन तकनीकी रुप से सक्षमं होना मात्र एक श्रेष्ठ चिट्ठाकार होने के लिए बहुत कम योग्यता है। फिर वह क्या है जो चिट्ठाकार के लिए सब से जरुरी है?

एक शौक के वशीभूत हो कर, किसी मिशन के तहत, पैसा कमाने के लिए, अपने को अभिव्यक्त करने के लिए या अन्य किसी प्रेरणा से कोई व्यक्ति चिट्ठाकार होता है। लेकिन यह केवल एक प्रारंभ मात्र है। आप ने एक नया जीवन आरंभ किया लेकिन उस में अभी बहुत चलना है। और किसी भी जीवन की पूर्णता के लिए मार्ग में बहुत कुछ सीखना पड़ता है। ऐसा ही कुछ चिट्ठाकारी में भी है। वह क्या है जो एक चिट्ठाकर को शीर्ष पर पहुँचा देता है।

मैं पहले भी अनवरत पर लिख चुका हूँ और फिर एक बार दोहराना चाहता हूँ कि वह प्रोफेशनलिज्म है जो व्यक्ति को जीवन में सफल बनाता है। आप मेरे इस मत से इन्कार कर सकते हैं। लेकिन फिर भी मेरा आग्रह है कि एक बार परख लें कि क्या आप वाकई एक श्रेष्ट चिट्ठाकार होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं या नहीं। आप खुद देखें कि एक शौकिया और प्रोफेशनल का क्या फर्क क्या है? और आप शौकिया रहना चाहते हैं या फिर प्रोफेशनल होना चाहते हैं?

प्रोफेशनल और शौकिया के फर्क

  • एक प्रोफेशनल काम के हर पहलू को सीखने का प्रयास करता है, जब कि एक शौकिया सीखने की प्रक्रिया को जब भी संभव हो त्याग देता है।
  • एक प्रोफेशनल सावधानी से यह तलाशता है कि उसे किस चीज की आवश्यकता है और उसे क्या चाहिए? जब कि एक शौकिया मात्र अनुमान करता है कि किस कीआवश्यकता है और उसे क्या चाहिए?
  • एक प्रोफेशनल की दृष्टि, वाणी और वस्त्र-सज्जा प्रोफेशनल जैसी होती है, जब कि एक शौकिया बोलने और देखने में बेढंगा, लापरवाह, और भावुक होता है, यहाँ तक कि वह कीचड़ से लथपथ भी हो सकता है।
  • एक प्रोफेशनल अपने कार्यस्थल को साफ और व्यवस्थित रखता है, जब कि एक शौकिया का कार्यस्थल गर्दी, गंदा और बिखरा-बिखरा रहता है।
  • एक प्रोफेशनल ध्यान-केंद्रित और स्पष्ट मस्तिष्क रहता है, जब कि एक शौकिया सदैव भ्रमित और विचलित।
  • एक प्रोफेशनल गलतियों की उपेक्षा नहीं करता, जब कि एक शौकिया गलतियों की उपेक्षा करता है और उन्हें छुपाता है।
  • एक प्रोफेशनल मुश्किल और दुष्कर कामों की जिम्मेदारी हाथों-हाथ ग्रहण करता है, जब कि एक शौकिया इन से भागने कोशिश करता है।
  • एक प्रोफेशनल हाथ में ली गई परियोजनाओं को जितनी जल्दी हो सके, पूरा करता है, जब कि एक शौकिया अधूरी परियोजनाओं से घिरा रहता है और उन की छत पर बैठा इधर-उधर ताकता रहता है।
  • एक प्रोफेशनल आशावादी और स्थिर मस्तिष्क होता है, जब कि एक शौकिया परेशान हो जाता है और सबसे खराब प्रदर्शन करता है।
  • एक प्रोफेशनल बहुत सावधानी से धन का उपयोग करता है और उस का स्पष्ट हिसाब रखता है, जब कि एक शौकिया धन के उपयोग और उस का हिसाब रखने में बेढंगा और लापरवाहीपूर्ण होता है।
  • बहुत सावधानी से प्रोफेशनल एक अन्य लोगों की परेशानी और समस्याओं को हल करता है, जब कि शौकिया समस्याओं से कन्नी काटता है।
  • एक प्रोफेशनल उत्साह , प्रसन्नता , रुचि , संतुष्टि और भावनात्मक ऊंचाइयों से लबरेज़ रहता है, जब कि शौकिया व्याक्ति सदैव दुर्भावनाओं, क्रोध, शत्रुता, रोष और भय का शिकार रहता है।
  • एक प्रोफेशनल लक्ष्य प्राप्त करने तक लगातार प्रयत्नशील रहता है, जब कि शौकिया पहला अवसर मिलते ही लक्ष्य को त्याग देता है।
  • एक प्रोफेशनल आशा से अधिक उत्पादन करता है, जब कि शौकिया मामूली उत्पादन को भी पर्याप्त समझता है और उस पर इतराता रहता है।
  • एक प्रोफेशनल उच्च गुणवत्ता के उत्पाद व सेवाएँ प्रदान करता है, जब कि एक शौकिया निम्न और मध्यम गुणवत्ता के उत्पाद व सेवाएँ।
  • एक प्रोफेशनल की आय या वेतन बहुत अच्छे होते हैं, जब कि एक शौकिया की कमाई बहुत कम होती है और वह हमेशा यह सोचता रहता है कि उस के साथ अन्याय हो रहा है।
  • एक प्रोफेशनल का भविष्य सुनिश्चित होता है, लेकिन एक शौकिया का भविष्य पूरी तरह से अनिश्चित।
  • एक प्रोफेशनल होने के लिए पहला कदम है कि आप यह तय करें कि आप को एक प्रोफेशनल बनना है।

तो अब आप क्या बनना तय कर रहे हैं?

एक प्रोफेशनल चिट्ठाकार होना?

या फिर एक शौकिया बने रहना?

रविवार, 1 जून 2008

प्रजातंत्र के भविष्य पर संदेह

कल महेन्द्र नेह की कविता "प्रजातंत्र की जय हो!" पर अच्छी टिप्पणियाँ हुईं। टिप्पणीकारों ने जहाँ नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन पर प्रसन्नता व्यक्त की वहीं इस प्रजातंत्र के प्रसव में मुख्य भूमिका निभाने वाले नेतृत्व पर संदेह व्यक्त किया गया कि कहीं वह प्रजातंत्र को अधिनायकवाद में परिवर्तित न कर दे। महेन्द्र 'नेह' किसी काम से आए थे और उन्हों ने टिप्पणियाँ पढ़ने पर अपनी प्रति टिप्पणी भी अंकित की। उन की टिप्पणी यहाँ पुनः उदृत कर रहा हूँ......

यद्यपि सृजन के उपरांत कोई भी कृति उस के सर्जक से स्वतंत्र हो कर जनता की थाती बन जाती है। फिर भी मुझे लगा कि विनम्रता पूर्वक आप की टिप्पणियों पर अपना अभिमत व्यक्त करूँ।
वर्तमान समय की त्रासदी है कि दुनियाँ के कथित बड़े जनतंत्र फौज, पुलिस और हथियारों की भाषा में जनगण से बात करते हैं। वहाँ केवल 'तंत्र' कायम है, और जन हाशिए पर भी नहीं। इन तंत्रों ने नेपाली राजशाही की हर संभव मदद की, और गणतंत्र को आने से रोकते रहे। प्रचंड एक जनप्रिय दल के विवेकवान सारथी हैं। नवजात गणतंत्र के एक भी कदम आगे बढ़ाए बिना ही पूर्वाग्रह रखते हुए संदेह करना क्या पदच्युत राजशाही की अपरोक्ष मदद नहीं है? जनतंत्र प्रचंड व उन के जनता द्वारा परखे हुए नेतृत्व के हाथों में ही सुरक्षित रह सकता है। विश्वपटल पर उदित हो रही नयी जनतांत्रिक शक्तियों के प्रति हमें आशावान रहते हुए प्रफुल्लता से उन का हार्दिक स्वागत करना चाहिए।
.........' महेन्द्र नेह'

कृति सृजनोपरांत कृतिकार से स्वतंत्र हो जाती है, और कृतिकार तब क्या कर सकता है? इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना का संदर्भ स्मरण आ रहा है। आप के सामने प्रस्तुत करने का लालच नहीं छोड़ पा रहा हूँ।

पिता का हृदयाघात से देहान्त हो गया। बारह दिनों तक घर में पिता के साथियों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों,मिलने वालों का आना लगा रहा। पहले पाँच-छह दिनों में ही पता लग गया कि बड़ी पुत्री का पड़ौसी के लड़के से विशेष अनुराग है। पुत्री पर मां और परिजनों ने शिकंजा कसा तो पुत्री ने जिद पकड़ ली कि वह उस लड़के से ही विवाह करेगी। लड़का विजातीय था, लड़की से शैक्षणिक योग्यता में कम और एक कारखाने में मजदूर। माँ और भाई इस विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं। लगने लगा कि लड़की किसी दिन भाग कर शादी कर लेगी।

पिता थे सामाजिक संगठन के बहुत कुछ। संगठन के साथियों ने परिस्थिति पर विचार किया। बैठक हुई और तय हुआ कि दिवंगत साथी की पुत्री भाग कर विवाह करे यह ठीक नहीं। इस कारण पहले उस की माँ व भाई को तैयार किया जाए, और यह संभव न हो तो संगठन के प्रमुख साथी इस जिम्मेदारी को निभाएँ। साथियों ने लड़के को सब तरह से परखा कि कहीं वह केवल लड़की को फँसा तो नहीं रहा था। लड़के-लड़की दोनों इस परीक्षा में खरे उतरे।

लड़की की माँ-भाई से बात की उन्हें बहुत समझाया गया। बात के दौरान माँ ने संदेह व्यक्त किया कि अगर बाद में उस लड़के ने उन की बेटी को परेशान किया तो आप क्या कर लेंगे? जिन साथी के घर से विवाह होना था, उन का उत्तर था कि अगर लड़के ने परेशान किया, या उस से उन की बेटी का कोई वास्तविक विवाद पति से हुआ तो वे और उन के साथी बेटी का जम कर साथ देंगे। हर तरह के प्रयत्न के उपरांत भी माँ व भाई किसी प्रकार भी तैयार न हुए। प्रमुख साथी के घर से विवाह होना तय हो गया। साथी के घर ही बारात आई, विवाह हुआ। नगर में चर्चा का विषय भी रहा। साथी और उन की पत्नी ने माता-पिता के फर्ज पूरे किए और बाद में भी करते रहे

माँ और भाई विवाह में नहीं आए। विवाह सफल रहा और आज माँ और भाई से लड़की और उस के पति के गहरे आत्मीय संबंध हैं। विवाह कराने वाले पिता के साथियों से भी अधिक गहरे। मां के सन्देह निरापद सिद्ध हुए।

यहाँ यह भी हो सकता था कि लड़की और उस के पति में विवाद हो जाता। लड़की परेशानी में आ जाती। ऐसे में वे साथी लड़की का साथ देते।

इस घटना से हम समझ सकते हैं कि एक परिस्थिति में लड़की का उस की इच्छानुसार विवाह कराना एक प्रगतिशील कदम था।

विवाह होने के बाद वह उस के कराने वालों से स्वतंत्र हो गया था। बाद में वे केवल उचित का साथ दे सकते थे। विवाह के पूर्व विवाह की सफलता पर संदेह करना पूरी तरह गलत था।

यहाँ महेन्द्र 'नेह' ने नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन का उत्साह के साथ स्वागत किया है। वे उस की सफलता के प्रति आशावान हैं। उस की सफलता में किसी प्रकार का संदेह उन के मन में नहीं है। उन का यह कहना कि प्रजातंत्र की सफलता पर इस समय संदेह करना उस के शत्रुओं की सहायता करना है। मैं भी उन से सहमत हूँ।

हमारी राय है कि अगर भविष्य में प्रचंड और उन का दल जनता के हितों के विरुद्ध जाता है तो हम सभी को उस समय परिस्थितियों का मूल्यांकन करने और अपना पक्ष चुनने का पूरा अधिकार रहेगा।

और अन्त में कल के आलेख पर मिली सब से सुंदर, सटीक और संतुलित टिप्पणी रक्षन्दा जी की ......

नेपाल में प्रजातंत्र का नया सवेरा हुआ है, राज शाही की घुटन से जनता को छुटकारा मिला है , जो दल जीता है , वो लाख प्रजातंत्र से दूर हो, जालिम राज शाही से हज़ार दर्जे बेहतर है. बहुत सुंदर और सामायिक कविता.