आज मुझे फिर एक अस्थि-चयन में जाना पड़ा। मेरे एक नित्य मित्र के भाई का शुक्रवार को प्रातः एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया। मैं अन्त्येष्टी में नहीं जा सका था। सुबह नौ बजे एक मित्र का फोन मिला, वहाँ चलना है। मेरे पास उस समय कोई वाहन नहीं था, पहले तो फोन पर मना किया, कि शाम को बैठक में ही जाना हो सकेगा। संयोग से कुछ ही समय में वाहन आ गया, और मैं तुरंत ही रवाना हो गया। सुबह 9.50 पर मुक्तिधाम पहुँचा। (मेरे नगर में यहाँ श्मशान को मुक्तिधाम कहने की परंपरा चल निकली है) तब तक चिता को पानी डाल कर शीतल किया जा चुका था। अस्थियाँ धोकर, एक लाल थैली में बंद की गईं। राख को चम्बल में प्रवाहित करने के लिए कुछ लोग जीप से केशवराय पाटन के लिए रवाना हो गए।
कोटा जंक्शन से कोई दस किलोमीटर दूर, चम्बल के दक्षिणी किनारे पर रंगपुर नाम का गाँव है। सामने ही चम्बल के उस पार केशवराय पाटन है। सड़क मार्ग से यही 30 किलोमीटर पड़ता है। चम्बल के पूर्वोन्मुखी बहने से वहाँ तीर्थ है। चम्बल किनारे केशवराय भगवान का विशाल प्राचीन मन्दिर है, उस से भी प्राचीन शिव मंदिर है, प्राचीन जैन तीर्थ भी है। कोटा के अधिकांश लोग इसी तीर्थ में राख प्रवाहित करने के लिए जाते हैं। किसी को यह भान नहीं कि राख से चम्बल मे प्रदूषण होता होगा, राख को भूमि में भी दबाया जा सकता है। खैर!!
दाह-स्थल गोबर से लीपा गया। स्थान की गर्मी से लीपा गया तुरंत ही सूख गया। उस पर गोबर के ही उपले गोलाई में इस तरह जमाए गए कि उन पर मिट्टी का कलश रखा जा सके। फिर उन में आग चेताई गई और एक कलश में चावल पकाने को रख दिए गए। नम हवा और नम उपले। बहुत धुआँ करने के उपरांत ही उपलों ने आग पकड़ी। आधा घंटा चावल पकने में लगे। चावल पकने के बाद उन्हें पत्तल में घी और चीनी के साथ परोसा गया। मृतक को भोग अर्पित करने का प्रक्रम प्रारंभ हुआ। यह एक लगभग पूरी तरह सुलग चुके उपले पर घी छोड़ कर, पानी से आचमन करा कर, पत्तल के दूसरी और मृतक की कल्पना करते हुए, उसे प्रणाम कर के किया जाता है। उठने के बाद व्यक्ति अपने हाथ जरूर धो लेता है। एक व्यक्ति द्वारा इस कर्म कांड को करने में कम से कम दो मिनट तो लगते ही हैं।
पहले पुत्रों ने भोग अर्पण किया, फिर परिवार के दूसरे लोगों ने, फिर रिश्तेदारों ने। उस के बाद बिरादरी के लोगों ने भोग अर्पण किया। एक सुलगता हुआ उपला घी से तर-बतर हो कर बुझ गया। उसे माचिस से फिर सुलगाया गया। आग की लपटें हवन की तरह उठने लगीं। एक घंटे में कुल तीस लोग भोग अर्पण कर चुके थे, और अभी दस के लगभग पास खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बैठे हुए लोगों में भी कुछ जरुर इस कर्मकाण्ड को करने के इच्छुक जरूर रहे होंगे। नजदीक ही एक गाय ध्यान मग्न पत्तल पर रखे चीनी और घी से सने चावलों को देख रही थी, जिसे वहाँ आस पास खड़े लोग नहीं देख रहे थे।
मैं दूर एक बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था, जहाँ अनेक खूबसूरत ग्रेनाइट की बेन्चें अभी कुछ माह पहले विधायक कोष से लगाई गई थीं। उन में से कुछ पर धूल जमा थी, कुछ पर से लोगों ने बैठने से पहले हटा दी थी और कुछ पर से उन के बैठने के कारण स्वतः ही हट गई थी। एक बैंच पर कुछ कचरा सा पड़ा था। देखने पर पता लगा कि वह राल का पाउडर है जो चिता को चेताने के लिए काम आता है। एक बैंच के नीचे एक पांच-छह माह का कुत्ता चुपचाप आकर लेट गया था। उस के दो जुड़वाँ भाई दूसरे बरामदे में सुस्ता रहे थे। तीनों अभी अभी दूसरे मुहल्ले के कुत्तों से भिड़ने के लिए अभ्यास कर रहे थे। मुक्तिधाम के दूर के कोने में पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपे एक चबूतरे के पास दो नौजवान स्मैक या कोई अन्य पदार्थ का सेवन कर निपट चबूतरे पर पड़ी नीम की निमोलियों को साफ कर रहे थे, जिस से वहाँ सो कर दिन गुजारा जा सके।
मुझ से कर्मकाण्ड की लम्बाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी। मैं नें पास बैठे लोगों से पूछा, -क्या बीस-तीस साल पहले भी ऐसा ही होता था?
जवाब मिला, -पहले तो परिवार के लोग भी इस कर्मकाण्ड में सम्मिलित नहीं होते थे।
मैं ने बताया, केवल लीनियल एसेन्डेण्टस् ही यह कर्मकाण्ड करते थे। यानी मृतक/मृतका के पुत्र, पौत्र, पौत्री और नाती और उन के पुत्र आदि। वहाँ बैठे लोगों ने इस पर सहमति जताई।
मैं ने पूछा, -तो अब ये क्या हो रहा है?
प्रश्न का उत्तर नहीं था, सो नहीं मिला।
जवाब में मिला प्रश्न – इस में बुराई क्या है?
बुराई यह है कि उम्र में बड़ा तर्पण ले तो सकता है, दे नहीं सकता। दूसरे यह कि यहाँ आए लोगों का समय भी तो कीमती है वह जाया हो रहा है।
हम तो बर्दाश्त कर रहे थे। लेकिन गाय से इतनी देर बरदाश्त नहीं हुई, वह आस पास के लोगों की निगाहें न अपनी ओर देखती न पा कर शीघ्रता से चबूतरे पर चढी और चावलों पर झपटी। वह चावलों को लपकती इस से पहले ही वहाँ खड़े लोगों में से तीन-चार उस पर टूट पड़े। गाय खदेड़ दी गई।
हम में से एक ने कहा, - एक व्यक्ति नहा कर घर जा चुका है ताकि महिलाएँ नहाने जा सकें।
दूसरा बोला, -तो हम भी चल सकते हैं।
हम उठे और शमशान के बाहर आ गए। अपने अपने वाहन पर सवार हो चल दिये अपने घरों की ओर। हमारे बाहर आने तक कतार में छह व्यक्ति थे, और हमारे इर्द-गिर्द बैठे वे लोग जो बाहर नहीं आए थे कतार में सम्मिलित होने चल दिए थे।
इसी विषय पर मेरा अलेख है मगर जन भावनाओं पर कुठाराघात न हो जाये, इस बाबत पोस्ट नहीं कर पाया. आपने हिम्मत दी है, साधुवाद. जरुर पोस्ट करता हूँ..मौका देखते ही. जरा समर्थन दे दिजियेगा कि पिटूँ न ज्यादा. :) आपका ही आसरा है अब तो. हा हा!!!
जवाब देंहटाएंदिनेश जी आपने बहुत ही सयंत शब्दों मे लिखा है जो तारीफ के काबिल है क्यूंकि ये बहुत ही नाजुक विषय है।
जवाब देंहटाएंबघेली में एक लोकोक्ति है-
जवाब देंहटाएंजियत न पूछैं मही
मरे पियावैं दही.
मही: छाछ, मट्ठा
कहीं-कहीं इसे यूँ भी कहते हैं-
जियत न पूछैं माड़
मरे खबाबैं खांड.
माड़: भात पसाने से निकलता है
खांड: राब, गुड़ का शुद्धतम रूप.
धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान
जवाब देंहटाएंतेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान
अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा है.
धर्म त्याग और विद्वता से उन्नत होता है और कर्मकाण्ड की जड़ता से पतित होता जाता है।
जवाब देंहटाएंअब अनुमान लगा लें कौन पलड़ा भारी है!
ज्ञान जी की टिपण्णी से पूर्णतया सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंवास्तव में कुछ चीजो को बदलने में वक़्त लगेगा........ओर कुछ चीजे यथ्वत रहेगी....
जवाब देंहटाएंमैं ना भूत मानता हूं ना भगवान.. सो मेरे लिये ये सब पाखंड ही है.. मगर मैं किसी को आहत करने से भी डरता हूं सो नो कमेंट.. :)
जवाब देंहटाएंजिनके अपने जाते हैँ वे शोक सँतप्त अवस्था मेँ जैसा अधिक लोग कहते हैँ , करते हैँ -
जवाब देंहटाएंमृत्यु, ब्याह और जन्म के साथ ये सारे रीति रीवाज, हर सम्प्रदाय मेँ देखे जा सकते हैँ पर इनका रुप अलग हो जाता है
-लावण्या
सब अपनी अपनी क्षेत्रीय परम्पराओ का कुसूर है अपने अपने रिवाज है . पर कभी कभी किसी रिवाज को लंबा खीचना कभी कभी सामने वाले को अखरने लगता है . धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमृत को मुक्तिधाम में ही भोग लगाया जाता है ये तो मुझे पता ही नहीं था अब आप की पोस्ट से पता चला। खैर अपने अपने मन का मानना है, हमें तो इन सब रिवाजों में कोई विश्वास नहीं, जो गया सो गया।
जवाब देंहटाएं