@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: परिवार के बाहर महिलाओं का अस्तित्व स्वीकार्य क्यों नहीं ?

शनिवार, 12 जुलाई 2008

परिवार के बाहर महिलाओं का अस्तित्व स्वीकार्य क्यों नहीं ?

हमारे संभाग का श्रम न्यायालय अपने आप में उल्लेखनीय है, वहाँ वे सब रोग दिखाई नहीं पड़ते, जो अन्य न्यायालयों में सहज ही नजर आते हैं। वहाँ के सभी कर्मचारियों का व्यवहार वकीलों, श्रमिक प्रतिनिधियों, प्रबन्धक प्रतिनिधियों और पक्षकारों के साथ सहज है। सब को सहयोग प्राप्त होता है, किसी को असुविधा नहीं होती। इस अदालत में वकीलों के सिवा श्रमिक और नियोजकों के संगठनों के पदाधिकारी भी पैरवी का काम कर सकते हैं और करते हैं, जिन में अनेक में निरंतरता भी है। नियोजकों और श्रमिक प्रतिनिधियों के बीच अक्सर तीखा और कटु व्यवहार देखने को मिलता है, जिस के कुछ दृष्य यहाँ इस न्यायालय में भी देखने को मिलते हैं। फिर भी हमारे आपसी संबंध सहज बने रहते हैं। इन्हें सहज बनाए रखने के लिए हम लोग वर्ष में कम से कम एक बार, अक्सर ही बरसात के मौसम में किसी अवकाश के दिन, किसी प्राकृतिक स्थल पर बिताने के लिए तय करते हैं। वहाँ हाड़ौती का प्रसिद्ध भोजन कत्त -बाफला बनता है, कुछ मौज-मस्ती होती है। इस आयोजन में उस अदालत में पैरवी करने वालों के अतिरिक्त अदालत के सभी कर्मचारी भी साथ रहते हैं।
विगत दसेक वर्षों से न्यायालय की एक मात्र महिला लिपिक अमृता जी भी हैं। वे कभी भी इस तरह के आयोजन में दिखाई नहीं देतीं। अक्सर होता यह है कि जब सब लोग मौज मस्ती के स्थान पर पहुँच कर, न पहुँचे लोगों को गिनना प्रारंभ कर डेट हैं, तो पता लगता है कि वे भी औरों के साथ गायब हैं। कल जब इस साल के कार्यक्रम की तजवीज चल रही थी, तो मुझे याद आया वे कभी इस प्रोग्राम में शिरकत नहीं करतीं। मैं ने अमृता जी से आग्रह किया कि वे हमेशा गैरहाजिर रहती हैं, इस बार तो चलें, कोई परेशानी हो तो बताएँ। हल करने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन वे जवाब देने के बजाय चुप रहीं। किसी ने कहा कि वे बच्चों में व्यस्त रहती हैं, एक यही दिन तो बच्चों के लिए होता है। मैं ने कहा वे बच्चों को भी साथ लाएँ। उन्हों ने ही बाद में बताया कि उन के जीवन साथी को यह पसंद नहीं।
मैं महिलाओं के स्वावलंबी होने का जबर्दस्त समर्थक हूँ। समाज में हर बात में उन के बराबरी के हक का हामी भी। लेकिन अमृता जी की बात सुन कर मेरा मन खिन्न हो आया। मैं ने बहुत देर तक किसी से बात नहीं की। सोचता रहा, जब हम लोग इस आयोजन से वापस लौट कर उस दिन की बातें स्मरण कर रहे होते हैं, तब उन पर क्या बीत रही होती है?
यह केवल एक अमृता जी की बात नहीं है। जब कभी केवल वकीलों के इस तरह के आयोजन होते हैं, तो वहाँ भी महिला वकीलों की संख्या कम ही रहती है। अधिकांश कामकाजी महिलाओं की यही स्थिति है। स्वावलंबी होने और परिवार में महत्वपूर्ण योगदान करते हुए भी, समाज महिलाओं को उन के परिवार से बाहर गतिविधियों की स्वतंत्रता नहीं देता। जब कि पुरुषों को यह सब प्राप्त हैं। अक्सर अविवाहित महिलाएं भी इस तरह की स्वतंत्रताएँ लेने से कतराती हैं। या तो उन का परिवार उन्हें इस की अनुमति नहीं देता, या फिर अपने वैवाहिक जीवन के भविष्य की सुरक्षा का विचार उन्हें इस से रोकता है।
पुरुष और परिवार, जो महिलाओं के महत्वपूर्ण आर्थिक योगदान को तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन उन्हें बराबरी का हक देने को क्यों नहीं तैयार होते? कुछ सीमाएँ, कुछ व्यवहार क्यों केवल महिलाओं के लिए ही होते है? यह स्थितियाँ कब तक नहीं बदलेंगी? और बदलेंगी तो किस तरह बदलेंगी?
क्या इन के लिए किसी सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता नजर नहीं आती? आखिर परिवार के बाहर महिलाओं का अस्तित्व समाज और पुरुषों को स्वीकार्य क्यों नहीं है?

16 टिप्‍पणियां:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

यहाँ भारतीय मूल की स्त्रियाँ कयी पार्टी और सामाजिक उत्सवोँ मेँ अकेली आती जातीँ हैँ
शायद, अपनी कार चलाकर पहुँचना आम बात
हो गयी है - जोब पे भी जातीँ हैँ
पर, यहाँ पर भी अकेले किसी गैर मर्द के साथ कोफी पीने जाने से सभी कतरातीँ हैँ --
समूह मेँ हो तब चली जातीँ हैँ जहाँ पहुँचकर दूसरी महिलाएँ भी मिल जातीँ हैँ -
भारत मेँ अभी ऐसा भी नही होता होगा --
- लावण्या

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

इस कोण से कभी विचार नहीं किया। पर छोटे-मंझोले शहरों में यह वर्जनायें हैं जरूर। विषेशत: मध्यवर्ग में। उच्च और निम्न वर्ग वर्जनाओं से सामान्यत: कम आतंकित रहते हैं।

Rachna Singh ने कहा…

आजादी मिलती नहीं अर्जित की जाती हैं . भारतीये पत्निया मानसिक रूप से परतंत्र है और सामाजिक सुरक्षा का भूत इस कदर हावी हैं उनकी मानसिकता पर की वो अपनी स्वंत्रता , आत्म सम्मान सब को इसके लिये भूल जाती हैं . अगर कोई महिला अपनी इच्छा से ना करे तो कोई बात नहीं पर इस सोच से ना करे की "घर मे शान्ति रहे " तो गलत हैं . पति से permission का प्रश्न ही क्यों हो { परस्पर घर के हिसाब से एक दुसरे की सुविधा से तो कोई दोष नहीं } पर permission क्यों ? और एक दुसरा आयाम भी जो मुझे रोकता रहा कभी भी official parties मे जाने से , अविवाहित महिला के प्रति जो पूर्वाग्रह है समाज का की she is always available .एक सुलझी हुई पोस्ट एक बहुत गहरी असुल्झी समस्या पर हैं दिनेश जी आप की .

Anil Kumar ने कहा…

भारतसमाज की एक संवेदनशील रग पर हाथ रखा है आपने। प्राचीन भारत में महिलाओं का बहुत आदर-सम्मान होता था। वे सब कुछ कर सकतीं थीं जो पुरुष किया करते थे। अंग्रेज़ों के आने के बाद बहुत सारे बदलाव आये। लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी जैसी हस्तियां पैदा हुईं। हर महिला को उसके पालन-पोषण के दौरान आत्मनिर्भर होने की शिक्षा मिलनी चाहिये। न सिर्फ मानसिक ताकत, बल्कि शारीरिक ताकत का भी विकास करना चाहिये सभी महिलाओं को। थोड़ा बहुत संकोच तो उनमें रहेगा ही - उसे कोई नहीं बदल सकता। कोई भी महिला ये ना सोचे कि "मैं तो महिला हूं, अबला हूं"!

रंजू भाटिया ने कहा…

कुछ संस्कार की बात है कुछ माहोल की ..बदलाव है पर अभी मध्यम वर्ग की स्त्री इतनी स्वंत्रता की बात सोच नही पाती है

डॉ .अनुराग ने कहा…

बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर है की आप किस पेशे में है ओर किस जगह पर है ......पर ज्यादातर मामले में बिल्कुल वैसा ही जैसा आपने कहा है....दरअसल सब पुरूष मानसिकता का खेल है.......

ghughutibasuti ने कहा…

स्त्री के अलावा समाज का हर व्यक्ति जानता है कि स्त्री की क्या आवश्यकताएँ हैं, उसे क्या मिलना चाहिए क्या नहीं, उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं, उसे कितना कमाना चाहिए, कितनी इच्छाएँ रखनी चाहिए,कितनी उन्नति करनी चाहिए, कितनी प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए,क्या विशेषताएँ होनी चाहिएँ,क्या उसका गहना है (जैसे लज्जा, सहनशक्ति, शील आदि आदि)। एक बेचारी वह स्वयं है जो यह सब अपने लिए जान समझ नहीं सकती, निर्धारित नहीं कर सकती। ऐसे में समाज को उसके लिए सबकुछ निर्धारित करना पड़ता है। यह भी कि वह कैसा मनोरंजन करे,कितना करे,किसके साथ करे और कितने बजे तक करे। ऐसी स्थिति में यदि आप अपनी सहयोगी को इन कार्यक्रमों में सबके साथ देखना चाहते हैं तो बेहतर है कि निमंत्रण उसके परिवार को दीजिए न कि उसे। वैसे कोई आश्चर्य नहीं होगा जब महिला लिपिक ही क्या महिला जज भी अपने परिवार से पूछे कि क्या उसे पिकनिक पर जाना चाहिए। वह किसे फाँसी पर चढ़ाना है का तो निर्णय ले सकती है परन्तु क्या उसे पिकनिक में जाना का है का निर्णय लेने में अयोग्य होगी।
घुघूती बासूती

bhuvnesh sharma ने कहा…

गुरूजी इसका सबसे सटीक उत्‍तर तो परसाईजी दे चुके-
" हमारे जामने में नारी को जो भी मुक्ति मिली है, क्‍यों मिली है ? आंदोलन ? आधुनिक दृष्टि से ? उसके व्‍यक्तित्‍व की स्‍वीकृति से ? नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है। नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्‍य अमर रहेगा- एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता। "

मसिजीवी ने कहा…

अहम विषय पर लिखा है आपने...समस्‍या जाहिर है जटिल है।

यह सही है कि अलग अलग पेशों में समस्‍या का रूप अलग अलग है मसलन विश्‍वविद्यालयी शिक्षण में ये मुद्दे बाकायदा चिंता के केंद्र में रहते हैं- पुरुष सहकर्मियों से संवेदनशीलता की मुखर अपेक्षाएं रखी जाती हैं पर इससे फर्क नहीं पड़ता मूल सोच बनी रहती है।
सच्‍चाई ये हे कि हम भारतीय पुरुष बेहद पाखंडी जीव होते हैं। चूंकि ढेर सी कलुषता हम अपने मन में लिण्‍ फिरते हैं इसलिए जानते हैं कि 'हमारी' स्‍ित्रयों के लिए भी ऐसी ही कलुषता दूसरों के मन में होगी इसलिए हम उससे उन्‍हें दूर रखना अपनी जिम्‍मेदारी मान लेते हैं। स्‍ित्रयों के जर-जमीन की तरह 'हमारी' या 'पराई' माने जाने में ही शोषण की जड़ छिपी है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

मे Lavanyam - Antarman जी की टिपण्णी से सहमत हु,बाकी permission तो मे भी लेता हु, कुछ भी करना हो नयी कार लेनी हो, कही घुमने जाना हो, या घर पर किसी को बुलाना हो,ओर हमारी बीबी भी हम से permission लेती हे, जिसे सभ्य भाषा मे सलाह कह सकते हे, तो क्या मतलब permission लेना गुलामी हे,

मीनाक्षी ने कहा…

आखिर परिवार के बाहर महिलाओं का अस्तित्व समाज और पुरुषों को स्वीकार्य क्यों नहीं है? ---- आपके इस प्रश्न का बहुत ही सटीक जवाब मसिजीवी ने दिया. इस कड़वे सच को भारतीय पुरुष जानते हुए भी अंजान बना रहता है...
प्रभावशाली लेख में एक गम्भीर विषय पर पढ़कर शायद स्त्री पुरुष दोनों ही चिंतन करें ...

स्वप्नदर्शी ने कहा…

सही मुद्द्दा उठाने के लिये धन्यवाद. मेरा आनाजाना अधिकतर शिक्षा संस्थानो तक रहा है, पर भारत मे पुरुष सहकर्मी, और महिला सहकर्मी, भी एक दूसरे का नाम लेकर कम और दीदी, भाभी के सम्बोधन मे ज्यादा बन्धे रहते है. एक व्यक्ति के बतुअर सम्म्मान औरतो को नही मिलता. महानगरो मे ये सम्बोधन नही है, तो काम करने वाली हर महिला के लिये वेश्यावाचक सम्बोधनो से पुरुष सहकर्मी परहेज नही करते. और जो पुरुष ऐसा नही करते, वो भी इन सम्बोधनो, और द्विअर्थी, सेक्षुअल भाषा का मजा लेते है.
ऐसे मे सहज ही कोन सी स्त्री अपना समय ऐसे सहकर्मीयो के साथ बिताना चाहेगी?
ले देकर, घर और बाहर का महौल, इस बात की इज़ाज़त कम ही देता है, कि स्त्री पुरुष एक दूसरे को, एक मनुश्य की तरह देख पाये. बहन, प्रेमिका, पत्नी और वेश्या के विक्रित मानसिक फ्रेम के बाहर देख पाना, अभी भी बहुत से लोगों के लिये मुश्किल है.
जब तक लिंग-भेद से उपर उठकर और इन खांचो से अलग, स्त्री और पुरुष की दोस्ती हमारे समाज मे स्वीकार्य नही होती, तब तक स्त्री के सार्वजनिक जीवन मे जगह बनाना आसान नही है. लोगों का एक मनुष्य के बतौर मिलना भी सम्भव नही है.
मुझे हमेशा से ही ऐसे पुरुषो से आपत्ति रही है, जो पहला मौका देखते ही, आपको, बेटी और बहन, भाभी के सम्बोधन से नावाज़ते है. उनसे मै साफ कहती हू, कि मेरे पिता और भाई है, और बहुत लायक है, मुझे दूसरे पिता और भाईयो की ज़रूरत नही है.
और भाभी बनने का शौक भी नही है. मेरा नाम ले, और जो मै काम करती हू, वही मेरी पहचान है, उसे घर के दायरे मे न घसीटे.

पहली बार जब मै शोध-छात्रा थी, तब मेने ये बात एक सीनीयर वैग्यानिक से कही थी.
अभी कुछ दिन पहले एक पुराने दोस्त से फिर कही कि दोस्त ही समझो, अगर तुम्हे ये कहने की ज़रूरत पडती है, कि तुमने हमेशा मुझे छोटी बहन जाना है, तो मुझे खेद है. उठो भई, सिर्फ एक इंसान के तरह देखो. मै एक औरत से पहले एक इंसान हू.

Rachna Singh ने कहा…

मुझे हमेशा से ही ऐसे पुरुषो से आपत्ति रही है, जो पहला मौका देखते ही, आपको, बेटी और बहन, भाभी के सम्बोधन से नावाज़ते है. उनसे मै साफ कहती हू, कि मेरे पिता और भाई है, और बहुत लायक है, मुझे दूसरे पिता और भाईयो की ज़रूरत नही है.
और भाभी बनने का शौक भी नही है. मेरा नाम ले, और जो मै काम करती हू, वही मेरी पहचान है, उसे घर के दायरे मे न घसीटे.
mae bhi swapndarshi aap ki tarah is baat sae bilkul sehmat hun aur apney jeevan mae bhii isii baat ko maantee hun

Admin ने कहा…

महोदय, क्या परिवार में स्वीकार्य है?

subhash Bhadauria ने कहा…

हक़ अपना फकीरों की तरह मांगने वालो,
मांगे से यहाँ हर दम खैरात मिली है.
आज की नारी मांगने में नहीं छीनने में विश्वास रखती है.मैंने अपने अनेक अनुभवों में देखा है नारी में पुरुष से ज्यादा साहस,बुद्धिमता,निर्णय शक्ति,व्याप्त है. ब्लॉग की दुनिया में ही देखिये
नारी ब्लॉगर ज्यादा संज़ीदा और एक मिसन को ले कर चल रहीं हैं.
तो दूसरी तरफ हो हल्ला ज्यादा है निर्रथक प्रलाप,पैतरेबाजी दिखाई देती है उनमें मैं भी हूँ.कभी कभी सोचता हूँ वे बीच में भले न बोले पर ये जरूर सोचती होगी -
हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्ता क्या होगा.
साहित्या ,कला,ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहिचान ही नहीं दर्ज की पुरषो को पछाड़ा है.आप इस तरह के दृष्टांत देकर क्यों मायूसी का आलम खड़ा कर रहे हैं.

इज़्ज़त से वो जीने की हकदार नहीं होती.
जिस कोम के हाथों में तलवार नहीं होती.
उसे मांगने से नहीं छीनने से मिलेगा.आमीन.

Abhishek Ojha ने कहा…

आपने सही समस्या उठाई है... मैंने ज्यादातर अकेली रहने वाली लडकियां को ही देखा है जो यहाँ सॉफ्टवेयर कम्पनियों में काम करती हैं... उनके साथ ये समस्या थोडी कम दिखती है... समय के साथ बदलाव होंगा ऐसी आशा है.