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बुधवार, 10 जनवरी 2024

भारत सम्राट अकबर का श्रीराम-प्रेम या रामनिष्ठा! -बोधिसत्व


देश में श्रीराम पर सिक्का जारी करने वाले अकेले बादशाह हैं अकबर

मुग़ल सम्राट अकबर की श्रीराम निष्ठा आज तक के भारतीय इतिहास के सभी शासकों और राष्ट्र प्रमुखों से विशेष रही है! यह दावा राम पर अकेले दावा करने वालों को अखर सकती है! भला बाबर के पौत्र और हुमायूँ-हमीदा बानो के पुत्र की राम निष्ठा कैसी? वह सम्राट परधर्मी है! जिस लोगों की दृष्टि में अकबर के लिये राम काफिरों के देवता हैं! उसके मन में राम प्रीति कैसी! राम निष्ठा कैसी! प्रश्न उठता है इतिहास प्रमाण से निर्धारित हो या अफ़वाह से?

अफ़वाह से राजनीति की जा सकती है! इतिहास नहीं लिखा जा सकता! अकबर का इतिहास बोलता है! उसकी सर्व धर्म निष्ठा उसे सम्राट अशोक के बाद का सर्वोच्च शासक बनाती है जहां वह अपने निजी धर्म से बाहर निकल कर प्रजा के धर्म-समुदायों को मान महत्त्व देकर उसने वास्तविक सम्राट की गरिमा हासिल की!

अपने जीवन के लगभग अंतिम वर्षों में अकबर ने तीन ऐसे सिक्के जारी किए जिसने भारत के इतिहास में उसे अव्वल मुकाम पर पहुँचा दिया! ये सिक्के थे ‘सीयराम’ सिक्के! इनके जारी किए जाने के पीछे संभव है अकबर के जीवन पर उसकी हिंदू रानियों का प्रभाव भी रहा हो! इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता!


राम कथा के विद्वान स्वर्गीय भगवती प्रसाद सिंह ने अपने ग्रंथ ‘राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन’ में अकबर की राम निष्ठा पर कुछ रोचक निष्कर्ष निकाले हैं! उनका कहना है कि ‘राजपूताने में रसिकसाधकों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा और अवध में तुलसी साहित्य के व्यापक प्रचार का प्रभाव उदारमना अकबर पर भी पड़ा । उसके द्वारा प्रचारित 'रामसीय' भाँति की स्वर्ण एवं रजत मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है।’

काशी वासी विद्वान राय आनंद कृष्ण के हवाले से वे बताते हैं कि ‘अब तक इस भाँति के तीन सिक्कों का पता चला है-दो सोने की अर्धमोहरें और एक चाँदी की अठन्नी । इनमें एक सोने की अर्धमोहर, कैबिनेट डे फ्रांस में है, दूसरी ब्रिटिश म्युजियम में और तीसरी चाँदी की अठन्नी भारत कलाभवन, काशी में संग्रहीत है।
 
लेखक : बोधिसत्व

भारत कला भवन वाली यह (तीसरी मुद्रा) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी को लखनऊ के किसी व्यापारी से प्राप्त हुई थी । दोनों साँचों में एक ओर राम- सीता की आकृति अंकित है और दूसरी और उनका प्रचलन काल दिया हुआ है, जिससे पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों भाँति की मुद्रायें भिन्न काल में और दो भिन्न साँचों में ढाली गयी थीं- बाबू भगवती प्रसाद सिंह और श्रीयुत राय आनन्दकृष्णजी के लेख के आधार पर अकबर द्वारा जारी किए गये सीय-राम सिक्के का विवरण यहाँ दे रहा हूँ! इस विवरण का आधार राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन में अकबर की राम निष्ठा नामक आलेख है:

( 1) सोने की दो अर्धमुहरें ( ब्रिटिश म्यूजियम और कैबिनेट डे फ्रांस ) इनमें राम प्राचीन वेश में उत्तरीय तथा धोती धारण किये हुए और सीता लहंगा, ओढ़नी और चोली पहने, अवगुंठन यानी घूँघट को सम्हालती हुई अंकित की गई हैं। इस सिक्के के जारी करने का काल ५० इलाही, परवरदीन उत्कीर्ण है । ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित अर्धमोहर में चित ओर 'रामसीय' नागरी अभिलेख मिट गया है किंतु 'कैबिनेट डे फाँस' की अर्धमुहर में वह ज्यों का त्यों बना हुआ है ।

(2) चाँदी की अठन्नी (भारत कलाभवन, काशी)का विवरण : इसमें सीताराम अकबरकालीन वेश में दिखाये गये हैं। राम सिर पर तीन कंगूरे वाला मुकुट, (जैसा अकबर के समय के ब्राह्मण देवताओं के चित्रों में भी प्राप्त, होता है) घुटने तक जामा, दुपट्टा, जिसके दोनों छोर इधर-उधर लटक रहे हैं बायें हाथ में धनुष की कमानी की मध्य, जिसकी प्रत्यंचा भीतर की ओर है, पीठ पर तूणीर और दाहिने हाथ में धनुष पर चढ़ा हुआ बाण धारण किया है। राम की अनुगामिनी सीता चोली या अँगिया, लहंगा, ओढ़नी और हाथों में चूड़ियाँ पहने हैं। सीता का बायाँ हाथ सामने उठा हुआ है और दाहिना पीछे लटकता हुआ अंकित है । उनके दोनों हाथों में फूल का गुच्छा है। ‘रामसीता’ के ऊपर बीच में नागरी अक्षरों में 'रामसीय' अंकित है इसके पट की ओर 50 इलाही अमरदाद लिखा हुआ है।

इससे यह बात पता चलती है कि ये दोनों मुद्रायें, अकबर की मृत्यु के पहले एक वर्ष के भीतर, उनके द्वारा प्रचलित इलाही सम्वत् के 50वें वर्ष के दो भिन्न महीनों में प्रचलित की गई थीं ।

भगवती बाबू के अनुसार यह प्रश्न उठता है कि 'रामसीय' भाँति की ये दो भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्रायें उनके जीवन की किस स्थिति की परिचायक हैं। मोटे तौर से सीताराम का दांपत्य जीवन तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

पहला- विवाह के पश्चात् और वनगमन के पूर्व अयोध्या में व्यतीत होने वाला उनका गार्हस्थ्य जीवन

दूसरा- चौदहवर्षीय वनवास में सीताहरण से पूर्व का जीवन और
 
तीसरा- लंका विजय के पश्चात् उनके पुनर्मिलन के समय से लेकर सीता के द्वितीय वनवास के पहले तक उनका अयोध्या का राजैश्वर्यपूर्ण जीवन।
 
इन तीनों के अन्तर्गत ही किसी अवस्था में उनकी स्थिति का अंकन उपर्युक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं में सम्राट अकबर द्वारा अंकित और जारी करवाया हुआ है। यह स्पष्ट ही है कि इन तीनों समयों में में प्रथम तथा तृतीय दाम्पत्य की अवधि या क्रीड़ाभूमि अयोध्या रही है और दूसरी अवस्था राम-सीता की 'वनलीला' की है।

राय आनंद कृष्ण जी कहते हैं कि सोने की मुहरों में दंपति की जिस मुद्रा का चित्रण हुआ है वह उनके गार्हस्थ्य जीवन के अधिक मेल में है। पति के पीछे चलती हुई सीता का दाहिना हाथ कमर पर रखना और बायें हाथ से घूँघट संभालना, उनके दांपत्य जीवन के आारंभिक काल की मुद्रा प्रतीत होती है। सीता में नव दाम्पत्य का भाव प्रबलता से परिलक्षित होता है! लज्जा का जो भाव इससे व्यक्त होता है, उसकी व्याप्ति इसी नव दाम्पत्य की अवस्था में अधिक संगत जान पड़ती है। यह भी असंभव नहीं कि यह उनके चित्रकूट के वन-विहार की किसी स्थिति का द्योतक हो । अतः इसे प्रथम तथा द्वितीय अवस्था के अन्तर्गत मानना उचित होगा यानी वनवास के पूर्व या वनवास की अवधि को अंकित किया गया है!

भारत कलाभवन काशी की अठन्नी में अंकित सीताराम की मुद्रा के विषय में भगवती प्रसाद सिंह जी का विचार है कि इसमें उनके चित्रकूट अथवा पंचवटीवास के समय किये आखेट एवं वन-विहार का दृश्य अंकित है। यह स्मरणीय है कि पंचवटी वास के समय यह उस स्थिति का द्योतक नहीं माना जा सकता, जब सीता ने राम को सुवर्णमृग दिखाया था और उनकी प्रेरणा से वे उसके आखेट में प्रवृत्त हुए थे । यदि उस स्थिति से इसका सम्बन्ध होता तो सीता मृग को इंगित करती हुई दिखाई जातीं, किन्तु प्रस्तुत चित्र में ऐसा कुछ लक्षित नहीं होता। सीता का, निःसंकोच भाव से दोनों हाथों में फूल के गुच्छे लिये हुए पत्ति का अनुगमन वन-विहार का द्योतक हो सकता है।

भगवती बाबू का अनुमान है कि इस लीला का क्षेत्र माने जाने की संभावना पंचवटी से चित्रकूट की अधिक है । कारण यह है कि राम- भक्ति साहित्य में 'अहेरी' राम की मुख्य क्रीड़ा-भूमि तथा सीताराम की बिहार स्थली के रूप में इसी स्थल की सर्वाधिक प्रतिष्ठा है । रसिक-साहित्य में चित्रकूट-वासी राम तापस नहीं, राजैश्वर्यपूर्ण और नित्यरासलीलारत चित्रित किये गये हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस, गीतावली और विनयपत्रिका में चित्रकूट का स्मरण दम्पति की विहार भूमि के रूप में किया है।

उनके परवर्ती राम चरित रसिकों ने भी उसे इसी रूप में देखा है। भगवती प्रसाद सिंह जी के शब्दों में ‘इस प्रकार दोनों भाँति की मुद्राओं में सीताराम की श्रृंगारी भावना प्रकट होती है । उदार अकबर को इन माधुर्यव्यंजक दृश्यों के सिक्कों पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा रामभक्ति में बढ़ती हुई रसिक भावना से प्राप्त हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।’
राय आनन्दकृष्ण जी ने इन सिक्कों के प्रचलित करने का कारण, जीवन के अंतिम दिनों में उद्बुद्ध, अकबर की रामभक्ति बताया है। इनका प्रचलन उसने जिस किसी भाव से भी प्रेरित होकर कराया हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि उसकी 'रामसीय' में निष्ठा थी और उनके 'स्वरूप-प्रचार' में वह प्रजा और राजा दोनों का हित देखता था । अकबर के मन में राम-प्रीति या राम निष्ठा न रही होती तो वह ‘रामसीय’ जारी करने पर विचार ही नहीं करता!

शताब्दियों पहले से भारतीय शासकों द्वारा शिलालेखों और मूतियों में प्रतिष्ठित विष्णु और कृष्ण को छोड़कर अन्य धर्मी अकबर का 'रामसीय' के नाम पर सिक्का चलाना इस देश के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। भगवती बाबू दावे से कहते हैं कि ‘जहाँ तक उनको याद है किसी हिन्दू सम्राट ने भी शासन अवधि में सीताराम को इतना महत्त्व नहीं दिया था । इससे तत्कालीन समाज पर रामभक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

मुगल शासकों के बारे में भ्रम फैलाने का लाभ किसे मिलना है और हानि किसे होनी है इस चक्कर में बिना पड़े यादव बात की जाये तो अकबर और अशोक द्वारा स्थापित शासन के नियम शासक की उदारता और प्रजा को बराबर मानने की पैरवी करते हैं! चार सौ इक्कीस से अधिक वर्ष बीत गये अकबर की राम भक्ति पर मुख्य धारा के इतिहास कार चुप रहे! उस पर चर्चा की तो साहित्य और संस्कृति के दो धुरन्धरों ने! एक राम कथा के बेजोड़ मर्मज्ञ बाबू भगवती प्रसाद सिंह जी और दूसरे संस्कृति और कला मर्मज्ञ राय आनंद कृष्ण जी ने!
 
पूर्व में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के श्रीराम भक्ति अंक में ‘रामसीय’ सिक्के का एक विवरण प्रकाशित किया गया था! जिसमें विद्वान लेखक श्री ठाकुर प्रसाद वर्मा जी ने ‘रामसीय’ सिक्कों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है! श्री ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में इन सिक्कों पर लिखते हुए अकबर की मानसिक आध्यात्मिक स्थिति पर एक महत्व की टिप्पणी की है! वे लिखते हैं ‘यह राम सीय मुद्रा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि राम और सीता की आकृतियों को पुरोभाग पर अंकित किया गया है, जो सदैव केवल कलमा के लिए ही सुरक्षित समझा जाता है। यह बात इस तथ्य को उजागर करती है कि अकबर ने राम की आकृति को पूरोभाग में स्थान देकर उनकी ईश्वरीय महत्ता को स्वीकार किया था’! इसी बात के आकलन में मैं इस बात को अलग से कहना चाहूँगा कि अकबर ने श्रीराम प्रेम और निष्ठा में कलमा त्याग कर राम रूप को स्वीकार किया!

श्रीराम अंक का वह आलेख पूरा पढ़ा जाना चाहिए! ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने सिक्कों की बनावट और राम सीता के परिधान पर अलग ढंग से प्रकाश डाला है! (कल्याण श्रीराम भक्ति अंक, पृष्ठ 400)

कुछ अन्य लेखकों ने भी अकबर की राम भक्ति को रेखांकित किया है! अपनी पुस्तक ‘हमारे देश के सिक्के’ में डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त ने भी बादशाह अकबर के ‘रामसीय’ सिक्कों को एक महत्त्व की घटना माना है! (हमारे देश के सिक्के, पृष्ठ 36)

लेकिन अकबर की उदारता को प्रचारित करने के पक्ष में बहुधा इतिवृत्त और इतिहास लेखक लोग मौन रहे! उस मौन से अकबर की सर्व धर्म उदारता वाले उसके महान चरित्र पर तो आँच नहीं आई लेकिन इतिहास लेखकों का चरित्र अवश्य लांछित होता दिखा!
 
अंत में एक बात फिर कहूँगा! श्रीराम पर मुद्रा या सिक्का जारी करने वाला अकबर अब तक का अकेला बादशाह या सम्राट है! समय बिता लेकिन उसकी राम निष्ठा अछूती और बेजोड़ बनी रही!
 
नोट: लेख के शीर्षक में ‘अकबर की राम निष्ठा’ वाला पद भगवती बाबू का दिया हुआ है!
 
संदर्भ पुस्तकें :
 
*राम काव्यधारा
अनुसंधान और अनुचिंतन
लेखक: भगवती प्रसाद सिंह
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
इलाहाबाद
प्रकाशन वर्ष: 1976

*श्रीरामभक्ति अंक
कल्याण कार्यालय
गीता प्रेस, गोरखपुर

*हमारे देश के सिक्के
लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त
प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन
वाराणसी

रवि रतलामी : एक विनम्र श्रद्धांजलि

वह 2007 का साल था। घर में पहला कम्प्यूटर आया था। बीएसएनएल का पहला इंटरनेट कनेक्शन लिया था। इन्टरनेट का संसार खुल गया था। सारी धरती वहाँ थी। मैं धरती के किसी कोने को खंगाल सकता था। हिन्दी साहित्य तलाश रहा कि मुझे हिन्दी ब्लागों की दुनिया नजर आयी। मैं ब्लॉग पढ़ने लगा, उन पर टिप्पणियाँ करने लगा। फिर अनूप शुक्ल ने सुझाव दिया कि मुझे ब्लॉग लिखना चाहिए। कुछ समझ नहीं आया कि क्या लिखूँ। मैंने ब्लॉगस्पॉट पर अपना पहला ब्लॉग “तीसरा खंबा” बनाया। यह कानून और न्याय व्यवस्था पर आधारित ब्लाग था। पर लगा कि ब्लाग पाठकों का उस पर ध्यान कम है। सीधे जीवन से जुड़ी चीजें पढ़ना पसंद करते हैं और तीसरा खंबा पर भी पाठकों को लाने के लिए अपना कोई सामान्य ब्लाग बनाना पड़ेगा, जो जीवन के अनुभवों से जुड़ा हो। कोई दो माह बाद अपना सामान्य ब्लॉग “अनवरत” बनाया।

रवि रतलामी

कंप्यूटर आने के बाद मैं क्रुतिदेव फॉण्ट में टाइप करने लगा था। उसी में अपना काम करता था। क्रुतिदेव का की बोर्ड वही था जो उन दिनों हिन्दी टाइप मशीनों का था। इंटरनेट पर केवल यूनिकोड फॉण्ट ही चलते थे। हिन्दी के लिए यूनिकोड फॉण्ट का इनस्क्रिप्ट की बोर्ड तैयार हो चुका था लेकिन उसका मूल की बोर्ड अलग था। लोगों ने अपने टाइपिंग अभ्यास के लायक (आईएमई) बना ली थीं। लेकिन वे प्रारंभिक अवस्था में थीं। आईएमई से टाइप करने पर ब्लागस्पॉट के ब्लाग में संयुक्ताक्षर और मात्रा वाले शब्द फट जाते थे। अक्षर, मात्रा और अर्धाक्षर अलग अलग दिखाई देते थे बीच में स्पेस आ जाती थी। बहुत बुरा लगता था। मैं परेशान हो गया। आखिर रवि रतलामी जी से पूछा क्या करूँ? इसका क्या उपाय है. तो वे बोले सबसे बेहतर उपाय तो इनस्क्रिप्ट की बोर्ड सीख लो।

उन दिनों इनस्क्रिप्ट की बोर्ड के लिए कोई ट्यूटर भी नहीं था। अभ्यास कैसे करूँ। मैं हिन्दी टाइपिंग सीखने वाली किताब बाजार से खरीद कर लाया। उसमें जिन कुंजियों का अभ्यास क्रम से किया जाता था। उन्हीं कुंजियों का अभ्यास क्रम से करने के लिए अपने खुद के अभ्यास बना लिए। उनसे अभ्यास करना शुरू कर दिया। एक सप्ताह उस तरह का अभ्यास करने के बाद मैंने टाइपिंग शुरू कर दी। मैं दस दिन में इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइप करने लगा। एक महीने बाद तो मेरी टाइप गति क्रुतिदेव की बोर्ड से बेहतर हो गयी, लगभग अंग्रेजी वाली गति के मुकाबले। आज मैं अंग्रेजी से अधिक गति से हिन्दी टाइप कर लेता हूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने 2008 के बाद मेरी वकालत की तमाम प्लीडिंग मेरी खुद की टाइप की हुई है और मेरे कंप्यूटर में सुरक्षित है।

पहले टाइपिस्टों से टाइप कराने पर उनके फ्री होने का इंतजार करना पड़ता था और बहुत समय जाया होता था। मेरे यहाँ स्टेनो आता था। वह डिक्टेशन लेकर जाता था अगले दिन टाइप कर के लाता था। फिर करेक्शन के बाद दुबारा टाइप करता था। एक काम को कम से कम तीन दिन लग जाते थे। इन दोनों से मेरा पीछा छूटा। अपनी लगभग सारी प्लीडिंग खुद टाइप करने वाला हिन्दी बेल्ट का शायद मैं पहला वकील हूँ।

मुझे इस स्थिति में लाने का सारा श्रेय रवि रतलामी जी को है। मैं उनसे मिलना चाहता था। किन्तु उनसे न तो किसी ब्लागर मीट में भेंट नहीं हो सकी। मैं उनसे मिलने के लिए रतलाम या भोपाल भी न जा सका। 8 जनवरी, 2024 को सुबह अचानक समाचार मिला कि रवि रतलामी जी नहीं रहे।

५ अगस्त १९५८ को जन्मे, रवि रतलामी नाम से लिखने वाले रविशंकर श्रीवास्तव, रतलाम, मध्य प्रदेश, भारत से, मूलत: एक टेक्नोक्रैट थे, हिंदी साहित्य पठन और लेखन उनका शगल था। विद्युत यान्त्रिकी में स्नातक की डिग्री लेने वाले रवि इन्फार्मेशन टेक्नॉलाजी क्षेत्र के वरिष्ठ तकनीकी लेखक थे। उनके सैंकड़ों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आई.टी. तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं।

हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन इसका शौक था और इस क्षेत्र में भी इनकी अनगिनत रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखकर रह चुके हैं।

रवि रतलामी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के हिंदी-करण के अवैतनिक - कार्यशील सदस्यों में से एक थे और उनके द्वारा जीनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफ़ाइलों का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद किया गया, लिनक्स का हिंदी संस्करण मिलन (http://www.indlinux.org) 0.7 उन्हीं के प्रयासों से जारी हो सका।

रवि रतलामी हिन्दी ब्लाग के उन आरंभिक लोगों में से थे जिन्होंने हिन्दी ब्लागिंग और इन्टरनेट पर हिन्दी को पहुँचाने में अपनी बहुत ऊर्जा लगायी। तकनीक की मदद के लिए जाने जाने वाले मेरे अभिन्न मित्र Bs Pabla बी.एस.पाबला जी पहले ही हमें छोड़ कर जा चुके हैं।

आज रवि जी के साथ साथ पाबला जी की भी बहुत याद आ रही है।

रवि जी को हार्दिक श्रद्धांजलि¡