बड़ी बहस छिड़ी है। नतीजा सभी को पता है।
भारत सभी भारतीयों का है।
इस बीच मराठियों, बिहारियों, उत्तर भारतीयों - सभी की बातें होंगी, हो रही हैं
इस बीच आदमी गौण हो रहेगा और राजनीति प्रमुख
राजनीति वह जो जनता को बेवकूफ बनाने और अपना उल्लू सीधा करने की है।
मुझे इस वक्त महेन्द्र 'नेह' की कविता 'धूप की पोथी' का स्मरण हो रहा है।
आप भी पढ़िए .......
धूप की पोथी
-महेन्द्र 'नेह'
रो रहे हैं
खून के आँसू
जिन्हों ने
इस चमन में गन्ध रोपी है !
फड़फड़ाई सुबह जब
अखबार बन कर
पांव उन के पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उन के सांकलों में थे
सी रहे हैं
फट गई चादर
जिन्हों ने
इस धरा को चांदनी दी है !
डगमगाई नाव जब
पतवार बन कर
देह उन की हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उन की हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं
धूप की पोथी
जिन्हों ने बरगदों को छाँह सोंपी है !
छलछलाई आँख जब
त्यौहार बन कर
प्राण उन के युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश हो कर
कदम उन के अग्नि-पथ पर थे
सह रहे हैं
मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को जिन्दगी दी है !