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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।