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शनिवार, 20 दिसंबर 2025

"बेटियाँ"

'लघुकथा'
दिनेशराय द्विवेदी 
गाँव का चौधरी अपनी बेटी को मार कर खेत के किनारे नाले में फेंक आया था.

लोगों ने कहा, “ठीक किया, बेटी बेजात के साथ भाग कर अपनी मर्जी से शादी करना चाहती थी.”

बेटी के इस अन्त से दुःख में डूबी हुई आंगन के एक कोने में राख से बर्तन माँजती चौधराहन ने दबे स्वर में चौधरी से कहा,

“कुछ भी हो मेरी बेटी हीरा थी. हमने उसे खो दिया. वह भाग कर शादी कर लेती तो उसे गाँव में न आने देते. पर यह सोच कर कि वह कहीं किसी के साथ खुश खुश अपना जीवन जी रही है, हम अपना जीवन गुजार लेते. अब तुम खुद बेटी के हत्यारे हो.”

चौधरी ने क्रोध से पत्नी की ओर देखा और फिर अपना सिर ऊँचा करके कहा, “अपनी ही इज्ज़त खोकर जिन्दा रहना भी कोई जीवन है. मैं तो जीते जी ही मर जाता. लोग मुझ पर और पूरे खानदान के लोगों पर उंगलियाँ उठा कर कहते कि, इस चौधरी को देखो¡ इसकी बेटी बेजात के साथ भाग गई और यह सिर ऊँचा कर के चल रहा है. इसे तो चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए था. मैंने अपनी ही नहीं पूरे खानदान की इज्जत बचा ली.”

“वैसे भी अब तुम हत्यारे कहलाओगे, तब तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी? और पुलिस ने पकड़ लिया और सजा हो गयी तो जिन्दगी जेल में गुजरेगी.” इस बार चौधराहन की आवाज कुछ तल्ख और ऊंची थी.”

“जेल में गुजरेगी तो गुजर जाएगी. लोग नाम तो इज्जत से लेंगे. अब तू बड़बड़ाना छोड़ और चाय बना कर दे मुझे.” इतना कह कर चौधरी ने अपनी पगड़ी उतार कर आँगन में पड़े पलंग के कोने में रखी और लेट गया.

चौधराहन उठ कर रसोई की ओर चल दी.

उसी रात, गाँव के हैंडपम्प पर स्त्रियाँ फुसफुसा रही थीं,
“चौधरी की इज्ज़त बची या इंसानियत मर गई?”

“इज्ज़त तो चौधरी की बची, पर हमारी बेटियाँ तो अब और डर गईं.” एक स्त्री ने जवाब में कहा.

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