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रविवार, 17 जुलाई 2011

हम कहाँ से आरंभ कर सकते हैं?

'जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा' पर आई टिप्पणियों में सामान्य तथ्य यह सामने आया कि समाज का मौजूदा शासन गंभीर रूप से रोगी है। उसे इतने-इतने रोग हैं कि उन की चिकित्सा के प्रति किसी को विश्वास नहीं है। इस बात पर लगभग लोग एकमत हैं कि रोग असाध्य हैं और उन से रोगी का पीछा तभी छूट सकता है जब कि रोगी का जीवन ही समाप्त हो जाए। यह विषाद सञ्जय झा  की टिप्पणी में बखूबी झलकता है। वे कहते हैं, - जो रोग आपने ऊपर गिनाए हैं वे गरीब की मौत के बाद ही खत्म होंगे क्यों कि अब बीमारी गहरी ही इतनी हो चुकी है।
क निराशा का वातावरण लोगों के बीच बना है। ऐसा कि लोग समझने लगे हैं कि कुछ बदल नहीं सकता। इसी वातावरण में इस तरह की उक्तियाँ निकल कर आने लगती हैं-
सौ में से पिचानवे बेईमान,
फिर भी मेरा भारत महान...
या फिर ये-
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी था,
याँ हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्ताँ क्या होगा
निराशा और बढ़ती है तो यह उक्ति आ जाती है -
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी।

निराशा के वातावरण में कुछ लोग, कुछ आगे की सोचते हैं-
देखना तो यह है कि अपने रोज के झमेलों को पीछे छोड कर कब आगे आते हैं ऐसे लोग।
जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही क्रांति करनी होती है... बाकी तो सुविधा भोगी हैं...
और ये भी -
निश्चय ही, ऐसे नहीं चल सकता है, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो?
शायद उपरोक्त नियम का समय आया ही समझिये।

में यहाँ भिन्न भिन्न विचार देखने को मिलते हैं। सभी विचार मौजूदा परिस्थितियों से उपजे हैं। सभी तथ्य की इस बात पर सहमत हैं कि शासन का मौजूदा स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, यह वैसा नहीं जैसा होना चाहिए। उसे बदलना चाहिए। लेकिन जहाँ बदलाव में विश्वास की बात आती है तो तुरंत दो खेमे दिखाई देने लगते हैं। एक तो वे हैं जिन्हें बदलाव के प्रति विश्वास नहीं है। सोचते हैं कि बदलाव के नाम पर सिर्फ नाटक होगा। उन का सोचना गलत भी नहीं है। वे बदलाव को पाँच वर्षीय चुनाव में देखते हैं। चुनाव के पहले वोट खींचने के लिए जिस तरह की नौटंकियाँ राजनैतिक दल और राजनेता करते रहे हैं, उस का उन्हें गहरा अनुभव है। लेकिन क्या पाँच वर्षीय चुनाव ही बदलाव का एक मात्र तरीका है? 
 
हीं कुछ लोग ऐसा नहीं सोचते। वे सोचते हैं कि बदलाव के और तरीके भी हैं। वे कहते हैं, हमें कुछ करना चाहिए,  जो लोग बदलना चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा। इस का अर्थ है कि ऐसे लोग बदलाव में विश्वास करते हैं कि वह हो सकता है। लेकिन वे भी पाँच वर्षीय चुनाव के माध्यम से ऐसा होने में अविश्वास रखते हैं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो परिवर्तन को जगत का नियम मानते हुए और उन का यह विश्वास है कि वक्त आ रहा है परिवर्तन हुआ ही समझो। यहाँ एक विश्वास के साथ साथ आशा भी मौजूद है। 

लेकिन, फिर प्रश्न यही सामने आ खड़ा होता है कि ये सब कैसे होगा? निश्चित रूप से राजनेताओं और नौकरशाहों के भरोसे तो यह सब होने से रहा। जब बात शासन परिवर्तित करने की न हो कर सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने मात्र की है तो भी यह बात सामने आ रही है कि ये सिविल सोसायटी क्या है और इस सिविल सोसायटी को इतनी बात करने का क्या हक है? क्या वे चुने हुए लोग हैं? हमें देखो, हम चुने हुए लोग हैं, इस जनतंत्र में वही होगा जो हम चाहेंगे। यह निर्वाचन में सभी तरह के निकृष्ठ से निकृष्टतम जोड़-तोड़ कर के सफल होने की जो तकनीक विकसित कर ली गई है उस का अहंकार बोल रहा है। सिविल सोसायटी कुछ भी हो। उसे किसी का समर्थन प्राप्त हो या न हो। वे इस विशाल देश की आबादी का नाम मात्र का हिस्सा ही क्यों न हों। पर वे जब ये कहते हैं कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कारगर तंत्र बनाओ, तो ठीक कहते हैं। सही बात सिविल सोसायटी कहे या फिर एक व्यक्ति कहे। उन चुने जाने वाले व्यक्तियों को स्वीकार्य होनी चाहिए। यदि यह स्वीकार्य नहीं है तो फिर समझना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के पक्ष में नहीं हैं। 

निर्वाचन के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने की तकनीक के स्वामियों का अहंकार इसलिए भी मीनार पर चढ़ कर चीखता है कि वह जानता है कि सिविल सोसायटी की क्या औकात है? उन्हों ने भारत स्वाभिमान के रथ को रोक कर दिखा दिया। अब वे अधिक जोर से चीख सकते हैं। उन्हों ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानून के मसौदे पर सिविल सोसायटी से अपनी राय को जितना दूर रख सकते थे रखा। उस के बाद राजनैतिक दलों के नेताओं को बुला कर यह दिखा दिया कि वे सब भी भले ही जोर शोर से सिविल सोसायटी के इस आंदोलन का समर्थन करते हों लेकिन उन की रुचि इस नियंत्रण कानून में नहीं मौजूदा सरकार को हटाने और सरकार पर काबिज होने के लिए अपने नंबर बढ़ाने में अधिक है। इस तरह उन्हों ने एक वातावरण निर्मित कर लिया कि लोग सोचने लगें कि सिविल सोसायटी का यह आंदोलन जल्दी ही दम तोड़ देगा। इस सोच में कोई त्रुटि भी दिखाई नहीं देती। 

ज ही जनगणना 2011 के कुछ ताजा आँकड़े सामने आए हैं। 121 में से 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। आज भी दो तिहाई से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और कृषि या उस पर आधारित कामों पर निर्भर है। इस ग्रामीण आबादी में से कितने भूमि के स्वामी हैं और कितनों की जीविका सिर्फ दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर करती है? यह आँकड़ा अभी सामने नहीं है, लेकिन हम कुछ गाँवों को देख कर समझ सकते हैं कि वहाँ भी अपनी भूमि पर कृषि करने वालों की संख्या कुल ग्रामीण आबादी की एक तिहाई से अधिक नहीं। नगरीय आबादी के मुकाबले ग्रामीण आबादी को कुछ भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। उन का जीवन किस तरह चल रहा है। हम नगरीय समाज के लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी तरह नगरों में भी उन लोगों की बहुतायत है जिन के जीवन यापन का साधन दूसरों के लिए काम करना है। दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवनयापन करने वालों की आबादी ही देश की बहुसंख्यक जनता है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस देश में दो तरह के जनसमुदाय हैं, एक वे जो जीवन यापन के लिए दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर हैं। दूसरे वे जिन के पास अपने साधन हैं और जो दूसरों से काम कराते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस देश में ये दो देश बसते हैं। 

स वक्त बदलाव की जरूरत यदि महसूस करता है तो वही बहुसंख्यक लोगों का देश करता है जो दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवन चलाता है। यह भी हम जानते हैं कि दूसरा जो देश है वही शासन कर रहा है। पहला देश शासित देश है। हम यह भी कह सकते हैं कि बहुसंख्यकों के देश पर अल्पसंख्यकों का देश काबिज है। यह अल्पसंख्यक देश आज भी गोरों की भूमिका अदा कर रहा है। बहुसंख्यक देश आज भी वहीं खड़ा है जहाँ गोरों से मुक्ति प्राप्त करने के पहले, मुंशी प्रेमचंद और भगतसिंह के वक्त में खड़ा था। इस देश के कंधों पर वही सब कार्यभार हैं जो उस वक्त भारतीय जनता के कंधों पर थे। अब हम समझ सकते हैं कि बदलाव की कुञ्जी कहाँ है। यह बहुसंख्यक देश बहुत बँटा हुआ है और पूरी तरह असंगठित भी। उस की चेतना कुंद हो चुकी है। इतनी कि वह गर्मा-गरम भाषणों पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करती। इस देश को जगाने की हर कोशिश नाकामयाब हो जाती है। 

ह चेतना कहीं बाहर से नहीं टपकती। यह लोगों के अंदर से पैदा होती है। यह आत्मविश्वास जाग्रत होने से उत्पन्न होती है। लेकिन यह आत्मविश्वास पैदा कैसे हो। आप सभी दम तोड़ते हुए पिता का आपस में लड़ने-झगड़ने वाली संतानों को दिए गए उस संदेश की कहानी अवश्य जानते होंगे जिन से पिता ने एक लकड़ियों का गट्ठर की लकड़ियाँ तोड़ने के लिए कहा था और वे नाकामयाब रहे थे, बाद में जब उन्हें अलग अलग लकड़ियाँ दी गईं तो उन्हों ने सारी लकड़ियाँ तोड़ दीं। निश्चित रूप से संगठन और एकता ही वह कुञ्जी है जो बहुसंख्यकों के देश में आत्मविश्वास उत्पन्न कर सकती है। हम अब समझ सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए? हमें इस शासित देश को संगठित करना होगा। उस में आत्मविश्वास पैदा करना होगा। यह सब एक साथ नहीं किया जा सकता। लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में किया जा सकता है। हम जहाँ रहते हैं वहाँ के लोगों को संगठित कर सकते हैं, उन्हें इस शासन से छोटे-छोटे संघर्ष करते हुए और सफलताएँ अर्जित करते हुए इन संगठनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयत्न कर सकते हैं। बाद में जब काम आगे बढ़े तो इन सभी संगठित इकाइयों को जोड़ सकते हैं। 

ब सब कुछ स्पष्ट है, कि क्या करना है? फिर देर किस बात की? हम जुट जाएँ, अपने घर से, अपनी गली से, अपने मुहल्ले से, अपने गाँव और शहर से आरंभ करें। हम अपने कार्यस्थलों से आरंभ करें। हम कुछ करें तो सही। कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे.

24 टिप्‍पणियां:

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  2. संगठन और लोग। सही है।



    अब सिविल सोसायटी का अर्थ। जब कुछ लोग छलांग लगा कर, आगे की पंक्ति में कूद कर नेताओं से कहें कि वे सिविल सोसायटी के हैं, तो उन्हें कहते हैं सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि। ये लोग कम खतरनाक नहीं लगते। सुना है कि एक मुकद्दमे के लिए 25 लाख लेते हैं और कहते हैं खुद को सिविल सोसायटी के? अब मुझे कोई बताए कि 25 लाख किसके पास है एक मुकद्दमे में देने के लिए? या तो नेता, बदमाश, गुंडे या चोर उद्योगपतियों के पास ही न? तो यही है हमारी असली सिविल सोसायटी।

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  3. आपकी बातें हमेशा तर्कपूर्ण और सचिंतित होती हैं। अच्‍छा लगता है इतने सुलझे विचारों को पढकर।

    ------
    जीवन का सूत्र...
    NO French Kissing Please!

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  4. स्‍वर्ग देखने के लिए मरना पडता है। मर-मर कर जीने से बेहतर है जीने के लिए मरा जाय। ऐसे मामलों में 'एकला चालो रे' वाला मन्‍त्र ही लागू होता है।

    पोस्‍ट के अन्तिम वाक्‍य '' कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे.'' को मैं इस तरह लिखना चाहूँगा - '' कुछ करेंगे तभी परिणाम सामने आएंगे.''

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  5. शासक भ्रष्ट है कह कर आम जानता अपना दामन छुड़ा नहीं सकती क्यों की उन भ्रष्ट शासकों को चुन के इसी जानता जनार्दन ने भेजा है. बदलना जानता को है भ्रष्ट शासक को बदलना नहीं हटना है.

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  6. भारत में लोकतंत्र को जिस गैताल खाते में डाल दिए गया है -दुरभि संधियों का खेल चलता रहेगा ...मगर मनुष्य भी कम आशावादी नहीं है झेलता जाएगा सब !

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  7. बिना मरे ही स्वर्ग देखने की ठाननी है हम सबको।

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  8. करो या मरो की रणनीति अपनानी पड़ेगी

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  9. बदलाव कौन लायेगा, आम जनता जो वोट डालने में हिचकिचाती है. जहां अनिवार्य मतदान नहीं है. जहां निगेटिव वोटिंग नहीं है. जहां किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनमत संग्रह नहीं किया जा सकता. जहां बाप बेटे को और फिर पोते तक राजतिलक कर लोकतन्त्र के नाम पर गद्दी भेंट की जाती है. जहां जनता को पढ़ने नहीं दिया गया. जहां अमीर के लिये अलग और गरीब के लिये अलग व्यवस्था हो.

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  10. और दूसरे समूह की रहनुमाई
    पहले समूह में शामिल होने
    की कोशिश में लगे बन्दे,
    बड़े गंदे ही कर रहे हैं ||
    प्रभावी प्रस्तुति ||
    आभार ||

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  11. हर एक को अपनें सोच में बदलाव लाने की जरूरत है बगैर इसके सब कुछ बेमानी है.

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  12. दिनेश जी, बहुत अच्छा विशलेषण किया है आप ने.

    मुझे यह भी लगता है कि जो अल्पसंख्यक समूह शासन कर है और गोरों की भूमिका निबाह रहा है, उससे शासित बहुसंख्यक समाज ने, विभिन्न स्तरों पर, छोटे बड़े तरीकों से समझौते कर रखे हैं, जिसमें सबकी यही चाह है कि मेरा जितना फायदा हो सकता है वह हो. पिसता है तो वह गरीब जो सबसे नीचे स्तर पर है, पर वह गरीब भी अधिकारों और कर्तव्यों की बात नहीं समझता, बल्कि यही सोचता लगता है कि दुनिया इसी तरह से चलती है. इसलिए मेरे विचार में समाज बदलने के लिए आज नयी सम्पूर्ण क्राँती की ज़रूरत है. उस क्राँती के नये गाँधी कहाँ मिलेंगे?

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  13. एक ऐसे समय में

    एक ऐसे समय में
    जब काला सूरज ड़ूबता नहीं दिख रहा है
    और सुर्ख़ सूरज के निकलने की अभी उम्मीद नहीं है

    एक ऐसे समय में
    जब यथार्थ गले से नीचे नहीं उतर रहा है
    और आस्थाएं थूकी न जा पा रही हैं

    एक ऐसे समय में
    जब अतीत की श्रेष्ठता का ढ़ोल पीटा जा रहा है
    और भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित दिख रहा है

    एक ऐसे समय में
    जब भ्रमित दिवाःस्वप्नों से हमारी झोली भरी है
    और पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक रही है

    एक ऐसे समय में
    जब लग रहा है कि पूरी दुनिया हमारी पहुंच में है
    और मुट्ठी से रेत का आख़िरी ज़र्रा भी सरकता सा लग रहा है

    एक ऐसे समय में
    जब सिद्ध किया जा रहा है
    कि यह दुनिया निर्वैकल्पिक है
    कि इस रात की कोई सुबह नहीं
    और मुर्गों की बांगों की गूंज भी
    लगातार माहौल को खदबदा रही हैं

    एक ऐसे समय में
    जब लगता है कि कुछ नहीं किया जा सकता
    दरअसल
    यही समय होता है
    जब कुछ किया जा सकता है

    जब कुछ जरूर किया जाना चाहिए

    ०००००
    रवि कुमार

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  14. सही लिखा है आपने. बूंद बूंद से तालाब भर जाता है.

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  15. उम्दा विचार, चिन्तन, मार्गदर्शन....सभी अपने हिस्से का करते जायें- परिवर्तन होकर रहेगा....

    अच्छा लगा विचार पढ़कर.

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  16. भारत में समस्या यह है कि दूसरो को सुधारना सभी चाहते है, खुद सुधारना कोई नहीं चाहता ! हर किसी को सीस्टम गलत लगता है लेकिन खुद की गलतीयां किसी को नहीं दिखती है! लोगो को नेता गलत, राजनीती गलत, सत्ता धारी पक्ष गलत दिखेगा लेकिन इन गलतीयों में खुद का हिस्सा नहीं दिखेगा!

    शुरुवात स्वयं से होनी चाहिए लेकिन लोग दूसरो की प्रतीक्षा करते रहते है. महात्मा गांधी सभी के लिए महान है लेकिन अपने घर में कोई महात्मा गांधी नहीं चाहता.

    हम सुधरेंगे जग सुधरेगा, परिवर्तन के लिए दूसरो कि चिंता छोड़ कर खुद को परिवर्तित कर ले, देश पर एक बहुत बड़ा एहसान होगा.

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  17. देश की ताज़ा स्थिति की बेहतरीन और विस्तृत विवेचना की है आपने ...

    आवश्यकता यही है कि हम सचेत रहें और कोई भी हमारा दुरुपयोग न कर सके , समय के साथ और शिक्षित होने के साथ साथ परिक्वता आएगी ऐसा भरोसा है मगर हमारे जीवनकाल में आ पाएगी इसमें संशय सा है :-(

    हार्दिक शुभकामनायें !

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  18. अब सब कुछ स्पष्ट है, कि क्या करना है? फिर देर किस बात की? हम जुट जाएँ, अपने घर से, अपनी गली से, अपने मुहल्ले से, अपने गाँव और शहर से आरंभ करें। हम अपने कार्यस्थलों से आरंभ करें। हम कुछ करें तो सही। कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे. sahi kaha bhaijaan yeh alakh to apne ghar se hi jgaana pdhegi ..akhtar khan akela kota rajsthan

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  19. द्विवेदी सर,
    देश में नॉन वोटर्स का एक मंच बनाया जाए...ऐसे लोग जो ये सोचकर वोट डालने नहीं जाते कि सब एक थैली के चट्टे बट्टे हैं...इस देश का कुछ नहीं हो सकता...मेरे अनुमान से ऐसे लोगों का आंकड़ा चालीस से पैंतालीस फीसदी तो होगा ही...अगर ये मंच खुद ही अच्छे लोगों को खड़ा कर वोट देने लगे तो सूरत बदली जा सकती है...

    जय हिंद...

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  20. प्रभावी प्रस्तुति,सही लिखा है आपने,शुरुवात स्वयं से होनी चाहिए !

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  21. सरकार अच्छी तरह जानती है कि जनता बटी हुई है और उसे खानों में बांट कर ही वे राज कर रहे है। तंत्र और न्यायप्रणाली भी अंगरेज़ों के ज़माने के हैं तो ‘बांटो और राज करो’ की पालिसी जम गई:(

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  22. गुरुवर जी, आपकी उपरोक्त पोस्ट बहुत अच्छी होने के साथ समाज और देश की चिंता करने वाले के रोगाटें खड़े कर देती है. जिससे को देश वो समाज से कोई सराकोर नहीं है. उनके लिए यह पोस्ट में लिखे 1000-2000 शब्द मात्र है और 20-25 वाक्यों की एक टिप्पणी देकर यहाँ से निकलना उचित समझते हैं. मगर आप अपने इस नाचीज़ शिष्य के विचारों से पूरी तरह से अवगत हैं. मुझे एक ईमेल से "सवाल-जवाब प्रतियोगिता-कसाब आतंकी या मेहमान" मैं विचार व्यक्त करने का सुअवसर मिला था.वहाँ लिखे विचारों से आप भी अवगत हो और आपके पाठक भी अवगत हो.
    श्री रमेश कुमार जैन ने कम से कम शब्दों में अपनी बात इस प्रकार कही है.
    श्रीमान जी, आपने शब्दों की सीमा से अवगत नहीं करा है. इसलिए कम से कम शब्दों में इसका उत्तर देने की कोशिश कर रहा हूँ. कसाब आतंकी या मेहमान है.वैसे कसाब और उसके साथी हमारे देश में आये तो आतंकी बनकर थें. उसने और उसके साथियों ने जितने चाहे लोगों मारा, विधवा किया, बच्चों को यतीम किया और हमारे देश की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया. हमारे देश के स्वार्थी नेताओं (जिन्हें अपना वोट बैंक की चिंता है) और कमजोर और भष्ट न्याय व्यवस्था के कारण आज हमारा मेहमान बनकर बैठा है. आज उसकी खान-पान, सुरक्षा और उसको करवाई जा रही न्याय प्रक्रिया की सुविधाएँ इतनी उच्च दर्जें की हैं. उस एक अकेले पर करोड़ों रूपये नष्ट किये जा रहे हैं और हमारे देश के व्यक्ति जो अपना ईमानदारी से टैक्स देते थें या हैं. उनके लिए क़ानूनी सहायता निम्न दर्जें की भी नहीं है. इसका जीता जागता सबूत मेरे लिंक पर आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो और "प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से" /2011/04/blog-post_29.html पर किल्क करके देख और पढ़ सकते हैं. हो सकता आपको मेरी टिप्पणी को प्रिंट करने से घबराट भी हो.लेकिन इस सच को आप झुठला नहीं सकते हैं. आप बेशक प्रिंट करें, मगर यह सिरफिरा सच लिखता आया है और लिखता रहेगा.

    वहाँ पर मेरी टिप्पणी यह थी:-रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" ने कहा…दोस्तों, मेरे पास तो जानकारी का अभाव है.मगर अगर आपको जानकारी हो तो इस पोस्ट कहूँ या टिप्पणी या विचारों को सरकारी कार्यालयों के साथ ही पुलिस विभाग और कानून मंत्रालय, संसद और सुप्रीम कोर्ट आदि में ईमेल करके एक जनांदोलन शुरू कर दियो. अगर किसी को कोई परेशानी हो तो मुझे सब की ईमेल का डाटा भेज दो.मैं अपना सबसे पहले सिर कटवाने के लिए तैयार हूँ और इसके लिए फांसी का फंदा सबसे पहले चूमना भी चाहूँगा. दोस्तों ! एक मंच पर मैं भी कुछ अच्छी-अच्छी बातें में लिख सकता हूँ मगर उनको आगे बढ़कर कुछ करना दूसरी बात है. देखते हैं कितने लोग मुझे मेरी मौत के करीब जाने में डाटा उपलब्ध कराकर मदद करते हैं.१७ जुलाई २०११ ४:२९ पूर्वाह्न

    गुरुवर जी, अब तक एक भी आदमी ने मुझे डाटा नहीं दिया है. जब कागज के शेर बैठे हो. तब देश में कौन आगे आयेगा? कोई नहीं आएगा, आपको और हमें आना होगा.हमें सबसे पहले स्वयं खुद सुधारना होगा. तब ही किसी और को सुधारने की कोशिश करें. आपकी बात सही है. पहले खुद को सुधारों, फिर समाज को सुधारों. तब उसके बाद देश को सुधारने के लिए कदम बढ़ा दो.आपके इस जनांदोलन में आपका नाचीज़ शिष्य तैयार बैठा "रुपरेखा" बनाये और जनांदोलन का एलान कर दीजिए. दो दिन से मौसम बदलने से बुखार व जुकाम हो रखा था और एक अन्य समस्या (समय हो तो जरुर देखे: "यहाँ चलता हैं बड़े-बड़े सूरमों का एक छत्र राज और अंधा कानून" और "नाम के लिए कुर्सी का कोई फायदा नहीं-रमेश कुमार जैन ने 'सिर-फिरा'दिया" अगर आप इसपर अपने विचार रखे किसने गलती की थी?) में फंस गया था. इसलिए इस पर टिप्पणी में देर हो गई और कल जैन धर्म केवल जल वाला व्रत भी था.जो अनजाने में हुई गलतियों के एवज में और आपके स्वास्थ्य ठीक रहे की भावना के मद्देनजर आपको समर्पित था.

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  23. कृपया "जिससे को देश वो समाज" इसको ऐसे पढ़े:- जिसको देश व समाज से.....

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....