बड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो। महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले, पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए।
नगरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए। आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।
लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977 में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं।
वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं 'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा। लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।
बहुत सारी सुविधाएँ गिनाई हैं आपने। ऐसे वह सब 21-2200 तक पूरी हो जाएंगी, यह माना जा सकता है। अन्तिम वाक्य अवतार की प्रतीक्षा में सोए हुओं के लिए है।
जवाब देंहटाएंमैं तो कहता था कि चुनाव में मत यानि वोट ऐसे मांगूंगा-"अगर मैं चुनाव के बाद अच्छा काम करूंगा तो आपको फायदा है और नहीं किया तो कोई बात नहीं क्योंकि अब तक वही हुआ है, इसलिए मुझे वोट देने में कहीं घाटा नहीं है। इसलिए मुझे वोट दीजिए।"
मैंने तो अपने इलाके में बिजली की हालत पर कहा है कि बिजली आफिस में जाकर सभी लोग एक आवेदन दें कि हमें बिजली नहीं चाहिए क्योंकि बिजली का होना हमारे काम का नहीं है। ऐसी घटिया हालत में रहने से अच्छा है कि हमारी बिजली काट दी जाय।
और आप ईमानदार, मनमोहन को कह रहे हों, तो यह मैं नहीं मान सकता। वह बहुत बड़ा बेईमान है। चुप रहना ईमानदारी का सबूत नहीं है क्योंकि उसे अपने जबान पर नियंत्रण नहीं है और सच निकल जाने का डर सता रहा है। ऐसे घटिया ईमानदारों से अच्छा लालू और राजा जैसा नेता ही ठीक है।
एक बात याद आ रही है। विषय से हटकर है लेकिन है महत्वपूर्ण। लालू से एक दर्शक ने इंडिया टीवी पर आपकी अदालत में पूछा था- सभी लोग पार्टी की बात करते हैं, सत्ता की बात करते हैं, क्या एक भी ऐसा नेता है जो देश को आगे ले जाने की बात करता है?
लालू का जवाब था- एको ऐसा नहीं है पोलिटिशियन जो आगे ले जाने की बात नहीं करता हो। लालटेन लेके हमलोग सब जगह ढूंढते हैं? कोई ऐसा आदमी आपको बिरले ही मिलेगा जो देश को पीछे ले जाने की बात करता हो। अब आगे ले जाने में कहीं छूट जाता है।
यह वीडियो यूट्यूब पर है।
अब हम क्या ऐसे लोगों से उम्मीद करेंगे? मैं तो नहीं कर सकता।
गुरुवर जी,आपने सही कहा कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा। कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।
जवाब देंहटाएंमगर जिस देश के अन्धिकाश मतदाता वोट ही नहीं डालते है और कुछ अपनी वोट का सौदा एक शराब की बोतल व एक-दो हजार रूपये में बेच देते हैं. उनसे क्या ऐसी जंग या आंदोलन की उम्मीद कर सकते हैं.मुर्दों को जीवित करने की दवाई आज तक हमारे देश क्या पूरे विश्व में तैयार नहीं हुई है.सोये हुए व्यक्तियों को उठाना फिर भी आसान है,मगर मरे हुए लोगों को जिन्दा करना मुश्किल काम है.
इसके अलावा श्री चन्दन कुमार मिश्र जी के व्यक्त विचारों पूर्णत: सहमत हूँ.
सौ में से पिचानवे बेईमान,
जवाब देंहटाएंफिर भी मेरा भारत महान...
जय हिंद...
बर्बाद गुलिस्तान करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी है,
जवाब देंहटाएंहर यहाँ हर शाख पे उल्लू बैठे हैं अंजाम ए गुलिस्तान क्या होगा.
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी|
जवाब देंहटाएंमहेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंअपना विरोध सहने की और उससे प्रेरित होने की पर-पाटी राजनेताओ में कभी रही भी थी --
शंका है ||
ओह! महेन्द्र जी की बात के लिए कहना भूल ही गया। महेन्द्र जी ने एक जबरदस्त हमला बोला था, इसके लिए वे अत्यन्त सम्मान के पात्र हैं। इससे ज्यादा कहा तो नेताओं की श्रद्धान्जलि जैसी बात हो जाएगी।
जवाब देंहटाएंjo rog aapne ne upar likhe hain....
जवाब देंहटाएंo garib ke maut ke baad hi khatm hogi.....kyunki ab bimari gahri hi
itni ho chuki hai........
pranam.
इस विचारोत्तेजक और जागरूकता लाने वाले लेख के लि्ये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसही कहा। पर देखना तो यह है कि अपने रोज के झमेलों को पीछे छोड कर कब आगे आते हैं ऐसे लोग।
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जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!
बेहतरीन आलेख... जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही क्रांति करनी होती है... बाकी तो सुविधा भोगी हैं...
जवाब देंहटाएंनिश्चय ही, ऐसे नहीं चल सकता है, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।
जवाब देंहटाएंप्रेरक पोस्ट है। परम्पराओं के नाम ऑंखें मूँदकर मूर्खताऍं ढोना अविवेक ही होता है। आपने बिलकुल ठीक सोचा है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि इस अभियान में आप अन्त तक भी अकेले ही रह जाऍं। किन्तु आपकी बात बिलकुल सही है। आपकी शुरुआत निश्चित रूप से अपेक्षित परिणाम देगी। आप न केवल सही है अपितु आपकी पहल में 'बहुजन हिताय' भी है।
जवाब देंहटाएंआपको अनन्त शुभ-कामनाऍं। आपकी सफलता की कहानी जल्दी ही पढने को मिलगी - यह विश्वास मुझे तो है।
सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो?
जवाब देंहटाएंशायद उपरोक्त नियम का समय आया ही समझिये. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी|
जवाब देंहटाएंसही बात.
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