बहुत दिनों के बाद अदालत आबाद हुई थी। जज साहब अवकाश से लौट आए थे। जज ने कई दिनों के बाद अदालत में बैठने के कारण पहले दिन तो काम कुछ कम किया। दो-तीन छोटे-छोटे मुकदमों में बहस सुनी। उसी में 'कोटा' पूरा हो गया। लेकिन वकीलों और मुवक्किलों को पता लग गया कि जज साहब आ गए हैं और अदालत में सुनवाई होने लगी है। लोगों को आस लगी कि अब काम हो जाएगा। इस बार उन के मुकदमे में अवश्य सुनवाई हो जाएगी। जज साहब ने दूसरे दिन कुछ अधिक मुकदमों में सुनवाई की। एक बड़े मुकदमे में भी बहस सुन ली लेकिन वह किसी कारण से अधूरी रह गई। शायद जज साहब ने एक पक्ष के वकील को यह कह दिया कि वे किसी कानूनी बिंदु पर किसी ऊँची अदालत का निर्णय दिखा दें तो वे उन का तर्क मान कर फैसला कर देंगे। वकील के पीछे खड़े मुवक्किल को जीत की आशा बंधी तो उस ने वकील को ठोसा दिया कि वह नजीर पेश करने के लिए वक्त ले ले। वकील समझ रहा था कि जज ने कह दिया है कि यदि ऐसा कोई फैसला ऊँची अदालत का पेश नहीं हुआ तो उस के खिलाफ ही निर्णय होगा। पर मुवक्किल की मर्जी की परवाह तो वकील को करनी होती है। कई बार तो जज कह देता है कि वह उन की बात को समझ गया है, वह वकील को बता भी देता है कि उस ने क्या समझा है। पर फिर भी वकील बहस करता रहता है, ऊँची और तगड़ी आवाज में। तब जज समझ जाते हैं कि वकील अब मुवक्किल को बताने के लिए बहस कर रहा है, जिस से वह उस से ली गई फीस का औचित्य सिद्ध कर सके।
दूसरे दिन शाम को ही मेरा भी एक मुवक्किल दफ्तर में धरना दे कर बैठ गया। उस का कहना था कि इस बार उस की किस्मत अच्छी है जो जज साहब उस की पेशी के दो दिन पहले ही अवकाश से लौट आए हैं। वरना कई पेशियों से ऐसा होता रहा है कि उस की पेशी वाले दिन जज साहब अवकाश पर चले जाते हैं या फिर वकील लोग किसी न किसी कारण से काम बंद कर देते हैं। उसे कुछ शंका उत्पन्न हुई तो पूछ भी लिया कि कल वकील लोग काम तो बंद नहीं करेंगे? मैं ने उसे उत्तर दिया कि अभी तक तो तय नहीं है। अब रात को ही कुछ हो जाए तो कुछ कहा नहीं जा सकता है। मैं ने भी मुवक्किल के मुकदमे की फाइल निकाल कर देखी। मुकदमा मजबूत था। वह पेट दर्द के लिए डाक्टर को दिखाना चाहता था। नगर के इस भाग में एक लाइन से तीन-चार अस्पताल थे। पहले अस्पताल बस्ती की आबादी के हिसाब से होते थे। लेकिन दस-पंद्रह सालों से ऐसा फैशन चला है कि जहाँ एक अस्पताल खुलता है और चल जाता है, उस के आसपास के मकान डाक्टर लोग खरीदने लगते हैं और जल्दी ही अस्पतालों और डाक्टरों का बाजार खड़ा हो जाता है। वह किसी जनरल अस्पताल में जाना चाहता था, उस ने एक अस्पताल तलाश भी लिया था। वह अस्पताल के गेट से अंदर जाने वाला ही था कि उसे एक नौजवान ने नमस्ते किया और पूछा किसी से मिलने आए हैं। जवाब उस ने नहीं उस के बेटे ने दिया -पिताजी को जोरों से पेट दर्द हो रहा है। वे किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना चाहते हैं।
नौजवान ने जल्दी ही उस से पहचान निकाल ली। वह उन की ही जाति का था और उन के गाँव के पड़ौस के गाँव में उसकी रिश्तेदारी थी। उस ने नौजवान का विश्वास किया और उस की सलाह पर उस के साथ नगर के सब से प्रसिद्ध अस्पताल में पहुँच गया। नौजवान इसी अस्पताल में नौकर था और उस ने आश्वासन दिया था कि वह डाक्टर से कह कर फीस कम करवा देगा। इस अस्पताल में दो-तीन बरसों से धमनियों की बाईपास की जाने लगी थी। देखते ही देखते अस्पताल एक मंजिल से चार मंजिल में तब्दील हो गया था। छह माह से वहाँ एंजियोप्लास्टी भी की जाने लगी थी। उसे एक डाक्टर ने देखा, फिर तीन चार डाक्टर और पहुँच गए। सबने उसे देख कर मीटिंग की और फिर कहा कि उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए,जाँचें करनी पडेंगी, हो सकता है ऑपरेशन भी करना पड़े। उन्हें उस की जान को तुरंत खतरा लग रहा है, जान बच भी गई तो अपंगता हो सकती है। वह तुरंत अस्पताल में भर्ती हो गया। बेटे को पचासेक हजार रुपयों के इन्तजाम के लिए दौड़ा दिया गया। जाँच के लिए उसे मशीन पर ले जाया गया। शाम तक कई कई बार जाँच हुई। फिर उसे एक वार्ड में भेज दिया गया। आपरेशन की तुरंत जरूरत बता दी गई। दो दिनों तक रुपए कम पड़ते रहे, बेटा दौड़ता रहा। कुल मिला कर साठ सत्तर हजार दे चुकने पर उसे बताया गया कि उस का ऑपरेशन तो भर्ती करने के बाद दो घंटों में ही कर दिया गया था। उस की जान बचाने के लिए जरूरी था। फीस में अभी भी पचास हजार बाकी हैं। वे जमा करते ही अस्पताल से उस की छुट्टी कर दी जाएगी। उस के पेट का दर्द फिर भी कम नहीं हुआ था। वह दर्द से कराहता रहता था। डाक्टर और नर्स उसे तसल्ली देते रहते थे। उस ने बेटे से हिंगोली की गोली मंगा कर खाई तो गैस निकल गई, उसे आराम आ गया। उसे लगा कि अस्पताल ने उसे बेवकूफ बनाया है। वह मौका देख बेटे के साथ अस्पताल से निकल भागा।
दूसरे डाक्टर को दिखाया तो उसे पता लगा कि उस की एंजियोप्लास्टी कर दी गई है, जब कि वह कतई जरूरी नहीं थी। अब तो उसे जीवन भर कम से कम पाँच सात सौ रुपयों की दवाएँ हर माह खानी पडेंगी। उसे लगा कि वह ठगा गया है। उस ने अपने परिचितों को बताया तो लोगों ने अस्पताल पर मुकदमा करने की सलाह दी जिसे उस ने मान लिया। इस तरह वह मेरे पास पहुँचा। मैं ने देखा यह तो जबरन लूट है। बिना रोगी की अनुमति के ऑपरेशन करने का मामला है। मैं ने मुकदमा किया। साल भर में मुकदमा बहस में आ गया। फिर साल भर से लगातार पेशियाँ बदलती रहीं। मैं भी सोच रहा था कि कल यदि बहस हो जाए तो मुकदमे में फैसला हो जाए।
अगले दिन मैं, मेरा मुवक्किल और डाक्टरों व बीमा कंपनी के वकील अदालत में थे। जज साहब बता रहे थे कि बड़ी लूट है। उन का एमबीबीएस डाक्टर बेटा पीजी करना चाहता था। बमुश्किल उसे साठ लाख डोनेशन पर प्रवेश मिल सका है। रेडियोलोजी में प्रवेश लेने के लिए एक छात्र को तो सवा करोड़ देने पड़े। वैसे भी आजकल एमबीबीएस का कोई भविष्य नहीं है, इसलिए पीजी करना जरूरी हो गया है। ये कालेज नेताओं के हैं, और ये सब पैसा उन की जेब में जाता है। अब डाक्टर इस तरह पीजी कर के आएगा तो मरीजों को लूटेगा नहीं तो और क्या करेगा? मैं समझ नहीं पा रहा था कि जज लूट को अनुचित बता रहा है या फिर उस का औचित्य सिद्ध कर रहा है।
आखिर हमारे केस में सुनवाई का नंबर आ गया। जज ने मुझे आरंभ करने को कहा। तभी डाक्टरों का वकील बोला कि पहले उस की बात सुन ली जाए। मैं आरंभ करते करते रुक गया। डाक्टरों का वकील कहने लगा -वह कल देर रात तक एक समारोह में था। इसलिए आज केस तैयार कर के नहीं आ सका है। आज इन की बहस सुन ली जाए, वह कल या किसी अन्य दिन उस का उत्तर दे देगा। जज साहब को मौका मिल गया। तुरंत घोषणा कर डाली। आज की बहस अगली पेशी तक कैसे याद रहेगी? मैं तो सब की बहस एक साथ सुनूंगा। आखिर दो सप्ताह बाद की पेशी दे दी गई। मैं अपने मुवक्किल के साथ बाहर निकल आया। मेरा मुवक्किल कह रहा था। अच्छा हुआ, आज पेशी बदल गई। अब इस जज के सामने बहस मत करना। यह दो माह में रिटायर हो लेगा। फिर कोई दूसरा जज आएगा उस के सामने बहस करेंगे। मैं उसे समझा रहा था कि आने वाले जज का बेटा या दामाद भी इसी तरह डाक्टरी पढ़ रहा हआ तो क्या करेंगे? इस से अच्छा है कि बहस कर दी जाए। यदि जज गलत फैसला देगा तो अपील कर देंगे। मुवक्किल ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय कहा कि अभी पेशी में दो हफ्ते हैं, तब तक हमारे पास सोचने का समय है कि क्या करना है?
ये जो आपने कहा है कि साठ लाख रूपये देने के बाद लूटेगा नहीं तो क्या करेगा? इससे एकदम असहमत, यह सोच पसन्द नहीं।
जवाब देंहटाएंये सब चोर हैं, डॉक्टर नहीं। भले यही लोगों को बचाते हैं।
एक तो डोनेशन शब्द का अर्थ दान है और ये सारे दुष्ट दान लेते/देते हैं?
साठ लाख और सवा करोड़ तो हमारे पूरे शहर में शायद गिनती के लोगों के पास ही हो सकता है। और जिनके पास यह है वह निश्चित तौर पर चोरी का पैसा है और उससे फिर ये चोरी ही बढ़ाना चाहते हैं।
बनेंगे सब डॉक्टर ही?
फिर से देखा। लुटेरों की करामात का तांडव।
जवाब देंहटाएंमेरे अन्तिम वाक्य को फिर दुहराता हूँ कि क्यों सारे पगलाए माँ-बाप मान बैठे हैं कि उनके बेटे-बेटी डॉक्टर या इंजीनियर ही बनेंगे?
दुर्भाग्य है इस देश के नागरिकों का जिनको इस तरह की व्यवस्थाएं मिली है|
जवाब देंहटाएंपिछले वर्ष जब मैं जोधपुर गया तो एक निजी अस्पताल की एक घटना सुनने को मिली|- एक वृद्ध के इलाज के एक अस्पताल ने चार लाख रूपये लेने के बाद हाथ खड़े कर दिए कि अब इसे सरकारी अस्पताल में ले जाये, सरकारी अस्पताल में उस वृद्ध का निधन हो गया,उसके पुत्र ने उसका मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया और डाक्टरों से अनुरोध कर बिना पोस्टमार्टम के लाश लेकर फिर उसी निजी अस्पताल में पहुंचा और सरकारी डाक्टरों को बुरा भला कह अपने पिता का इलाज करने का आग्रह किया, अब जब वह बेवकूफ बनने को तैयार था तो अस्पताल वाले क्यों न बनाये, उन्होंने वृद्ध की लाश को भर्ती कर लिया और उसे पचास हजार रूपये जमा करने को कहा,वृद्ध के पुत्र ने रूपये जमा करा दिए, दूसरे दिन फिर उसे पचास हजार जमा करने के लिए कहा गया उसने जमा करा दिए, तीसरे दिन फिर अस्पताल वालों ने पचास हजार रूपये मांगे तब उस वृद्ध के पुत्र ने मृत्य प्रमाण पत्र दिखाते हुए जूता खोल लिया कि वे मरे व्यक्ति का क्या इलाज कर रहे है?
मामला बिगड़ने पर अस्पताल ने उसे पिछले लिए गए पुरे रुपयों के साथ और ज्यादा रूपये देकर पीछा छुडवाया|
कभी कभी नहले पर दहला पड़ ही जाता है|
कसाई का भी अपमान है इन डाक्टरो का कसाई कहना
जवाब देंहटाएंसवाल यही है कि एक जज के पास इत्ते पैसे कैसे आये कि वह अपने बेटे की पढ़ाई के लिये इत्ता डोनेशन दे सके। :)
जवाब देंहटाएंthik kiya jnab jj aahb ke bete or bitiya khud doktr hain isliyen doktrs ke khilaaf fesle ki unse ummid krnaa bhi bemaani thi ..akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंइंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी भविष्य बेहतर हो इसकी गारंटी नहीं है. करने के बाद कोई छोटी-मोटी प्राइवेट प्रैक्टिस करके भी बहिया गुज़ारा कर सकता है. इसीलिए डॉक्टर के का प्रोफेशन अभी भी सुनहरा है.
जवाब देंहटाएंबाकी रही सेवाभाव की बातें... यह भी उन बहुत सारी बातों में से एक है जो अब किताबों में ही मिलतीं हैं.
रतन सिंह जी के कमेन्ट में जो बेटा है वह तो बहुत शातिर निकला. पैसा बनाने के लिए उसमें मुर्दा बाप को भी नहीं छोड़ा!
और अनूप शुक्ल जी का कमेन्ट?:)
संशोधन...
जवाब देंहटाएं"MBBS करने के बाद कोई छोटी-मोटी प्राइवेट प्रैक्टिस..."
पेट का दर्द, हार्ट अटैक और गैस्ट्रिक। एक और घटना देखी थी जब हार्ट अटैक को गैस्ट्रिक समझ कर ध्यान नहीं दिया था एक व्यक्ति ने।
जवाब देंहटाएंबड़ा प्यारा वर्णन है अदालत का भाई जी ....कई भेद अब पता चल रहे हैं ! वकीलों की अपनी समस्याएं होती हैं :-)
जवाब देंहटाएंभगवान बचाए इन डाक्टरों से...अगर गलती से भी फँस गए तो इतनी बीमारियाँ बता देंगे कि आप कम से कम छः माह तक अपने आपको गंभीर बीमार मानते रहें !
बीमारी से ज्यादा यह डॉ खतरनाक हैं !
हार्दिक शुभकामनायें !
दिनेश जी, आप की पोस्ट पढ़ कर तीस चालिस पहले की एक घटना याद आ गयी, जब दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में गाँव की एक औरत जो पैर के अँगूठे में दर्द के लिए आयी थी, उसकी एक शौध कार्यक्रम के लिए बिना उसे कुछ ठीक से बताये या पूछे, उसकी हड्डी की बायोप्सी कर दी गयी थी, और वह बेचारी ओपरेशन के बाद सबको कह रही थी कि मेरे अंगूठे में दर्द है कूल्हे में नहीं था जहाँ मेरा ओपरेशन किया है, पर कौन सुनता था वहाँ.
जवाब देंहटाएंपर आप के मुवक्किल के केस के बारे में यह कहने से पहले कि एन्जियोप्लास्टी गलत की गयी, उसके पुराने ईसीजी तथा अन्य टेस्टों की जाँच करा लीजिये. कभी कभी हार्ट अटैक पेट दर्द के रूप में आता है तो उस समय एन्जियोप्लास्टी करना जान बचाने का ओपरेशन हो जाता है. अगर उसने पहले कभी ईसीजी नहीं करवाया था, और उसे हार्ट अटैक नहीं भी था, अस्पताल वाले किसी ओर हार्ट अटैक वाले का ईसीजी दिखवा कर कह सकते हैं कि उन्होंने ओपरेशन जान बचाने के लिए किया.
यह भी हो सकता है कि अगर सचमुच हार्टअटैक नहीं था, तो पूरा एन्जियोप्लास्टी का पूरा ओपरेशन हुआ ही न हो, बल्कि बाहर से केवल ओपरेशन का दिखावा किया गया हो.
जो स्थिति भारत के बारे में बता रहे हैं, इसमें ईमानदार डाक्टरों को मिल कर अपनी कमेटी बनानी चाहिये ताकि इस तरह के मामलों की निष्पक्ष जाँच कर सकें क्योंकि बहुत सी बातें केवल अन्य डाक्टर समझते हैं, जज कैसे समझेंगे?
यह सच है की डोनेशन शिक्षा प्रणाली को प्रदूषित कर रहा है और इससे पैदा होने वाले डॉक्टर-इंजिनियर हमारी व्यवस्था को कलंकित कर रहे हैं ! दुर्भाग्य है इस देश के नागरिकों का जिनको इस तरह की व्यवस्थाएं मिली है| अनूप जी की बातों से सहमत की एक जज के पास कहाँ से आये इत्ते पैसे ?
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र प्रभात जी की बात कुछ तो सही है लेकिन जरा यह बताएँ कि बिना डोनेशन के 100 डॉक्टरों में कितने ऐसे हैं जिन्हें हम ईमानदार कहें।
जवाब देंहटाएंडॉक्टरों पर कुछ लिखा है यहाँ-http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
अस्पतालों के चक्कर लगाकर यही जाना कि भाग्य अच्छा तो सब अच्छे नहीं तो ऊपर वाला मालिक
जवाब देंहटाएंबहुत अफसोसजनक है डॉक्टरों का यह व्यवहार और जज के द्वारा भी इस तरह का वार्तालाप....अचरज पैदा करता है....क्या रास्ता है!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही चिंतनीय स्थिति है,पता नहीं इस देश को किसकी नजर लग गयी?
जवाब देंहटाएंअस्पताल और स्कूल दोनों ही आम आदमी के जरूरत की जगह हैं, जहाँ पर इस तरह का भ्रष्टाचार शोचनीय है।
जवाब देंहटाएंक्या कहें , सारे देश में ही लूट खसोट का माहौल बना हुआ है .डॉक्टर्स भी उसका ही एक हिस्सा हैं .
जवाब देंहटाएंकैपिटल फीस देकर जो डॉक्टर बनते हैं , निश्चित ही वह ऐसा ज्यादा करते हैं . आखिर सब नाप तोल की बात है .
लेकिन सब बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है . काम से काम इस पेशे में तो ऐसा होना मानवता के विरुद्ध है .
त्रुटी सुधार --कम से कम .
जवाब देंहटाएंसभी पेशे में ऐसे लोग आ गए हैं... बेहतरीन आलेख .. इस से जागरूकता बढ़ेगी...
जवाब देंहटाएंहर जगह बडा गोरखधंध चल रहा है। कहां कहां देखा जाए।
जवाब देंहटाएं------
जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!
sab jagah yahi aalam hai
जवाब देंहटाएंये सफ़ेद और काले कोट वाले लूट मचाए हुए हैं [आप को छोड कर:)]
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट का शीर्षक सही नहीं है। अब यह कोई नहीं सोचे कि सब पढ़ने के बाद कह रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंचंदन जी, आप कोई अच्छा सा शीर्षक सुझाएँ।
जवाब देंहटाएंलूट मची है लूट... अब तो चैरिटेबल ट्रस्ट बना लिये हैं इन सबने और टैक्स बचाने का भी साधन खोज लिया..
जवाब देंहटाएंलेकिन अभी भी हैं, कम हैं बहुत कम. हाथ में सर्चलाईट लेकर खोजने से मिल जाते हैं. दिक्कत यह है कि समाज अब ईमानदारों को ........ की श्रेणी में रखता है..
जवाब देंहटाएंआपने तो मुझे डरा दिया या कहें चक्कर में डाल दिया। मुझे लिखना था शीर्षक अच्छा नहीं लग रहा है। कहा गया अच्छा नहीं है, एकदम जज के माफ़िक। लेख का आधा हिस्सा और मूल विषय पेट नहीं अन्याय है और शोषण है, डोनेशन भी है, भ्रष्टाचार भी है। इसलिए कहा कि पेट का दर्द तो चिकित्सा विज्ञान का शीर्षक ही हो जाता है।
जवाब देंहटाएंआपको मैं शीर्षक सुझाऊँ, ये तो मेरे वश का नहीं है। माफ़ करेंगे।
गुरुवर जी, आपकी कुछ पोस्टों पर कुछ दिनों से मरता व पड़ता ही आता हूँ. तब तक बहुत सारी टिप्पणियाँ आ चुकी होती है. सबसे बाद मेरी टिप्पणी आपको मिलती है. उसके बाद लोग टिप्पणी करना भूल जाते हैं और मुझे सबसे नीचे आपको चरणों में स्थान मिल जाता हैं, यह मेरा सौभाग्य है.आपका पूरा लेख पढकर गंभीर हुआ और कुछ टिप्पणियाँ पढकर बहुत हँसी भी. इसका कारण उनकी टिप्पणियों में हास्य का पुट था.
जवाब देंहटाएंटिप्पणीकर्त्ता ध्यान दें-कृपया आप बुरा न माने-समय के अभाव में छोटे नाम लिख रहा हूँ किसी का सर नेम आदि नहीं लगा रहा हूँ.श्री चन्दन ने अपनी पहली दो टिप्पणी में हँसा दिया.श्री रतन ने जोर का झटका धीरे से दिया.अच्छा सबक मिला होगा शायद डाक्टरों को.श्री धीरू ने नया शब्द सोचने पर मजबूर किया. श्री अनूप ने खोज का विषय दे दिया. श्री अख्तर साब ने अंग्रेजी में कठुआ सच कह दिया जिसको समझने ही देर हो गई.श्री निशांत के पहले पैराग्राफ से सहमत और दूसरे से असहमत हूँ.श्री प्रवीन की टिप्पणी में डाक्टरी भाषा कहूँ या अंग्रेजी के शब्द होने के कारण सिर के ऊपर से चली गई. श्री सतीश आपकी किसी बात विरोध ही नहीं कर सकते हैं? हमेसा आपकी .....में लगे रहते हैं. श्री सुनील ने अपने अनुभव ज्ञान देकर मस्तिक प्रकाशमय कर दिया.श्री रविन्द्र ने गहरा चिंतन किया.आदरणीय मीनाक्षी ने भाग्य और भगवान से गहरा नाता जोड़ लिया. उड़न तश्तरी ने ऐसा यक्ष प्रश्न किया जिसका किसी के पास उत्तर नहीं.मेरे पास हैं तो स्वार्थी नेता और जज उसको हजम नहीं कर पाएंगे. इसलिए मैं भी अन्य की तरह ऐसे ही काम चला लेता हूँ.श्री मनोज से लेकर श्री प्रसाद तक सब चिंतित. अब दुबारा चन्दन ने प्रश्न पर दगा और भूल गया आप वकील है,जल्दी से हार नहीं मानेंगे. आप उनको ही प्रश्न का उत्तर देने के लिए बोल दिया.उसके बाद आई दो टिप्पणियों में श्री भारतीय ने एक में पोल खोल दी और दूसरी को रहस्यमयी बना दिया. फिर श्री चन्दन ने आपसे तौबा कर ली. अपने बनाये जाल में जो फंस गए थें.मेरे ख्याल से पहले शीर्षक सुझाते फिर कहते तब अच्छा होता. वैसे इसके यह शीर्षक भी हो सकते है.
१. जज, डाक्टर और पेट दर्द २. पेट दर्द पीड़ित की, न्याय की पुकार ३. मैं और पेट दर्द पीड़ित ४. पेट दर्द और न्याय व्यवस्था. इस पोस्ट के शीर्षक बहुत सारे हो सकते हैं मगर मुझे यहाँ पोस्ट को शीर्षक नहीं देना, क्योंकि यहाँ संपादक नहीं हूँ.बल्कि एक टिप्पणीकर्त्ता हूँ.दोनों के कार्य अलग-अलग हैं.
गुरुवर जी, सबका पोस्टमार्टम कर दिया.मेरा अपने पेशेगत तीनों कोटों(काला कोट, सफेद कोट और खाकी वर्दी) वालों से वास्ता पड़ता रहता है.कहीं मरीज मजबूर, कहीं शिकायतकर्त्ता मजबूर, कहीं आरोपी कहूँ अपराधी मजबूर. उसके बाद कहीं आपका शिष्य मजबूर,जो करना बहुत चाहता हैं, मगर अव्यवस्था के आगे अपनी पूरी ईमानदारी से अच्छे बुरे शब्दों का प्रयोग करके समाचार प्रकाशित करके अपना फर्ज पूरा करके चलता बनता हैं, अपने घर की ओर ग्रहयुध्द(बर्तन मांजने और साफ़-सफाई करना आदि के साथ ही अपनी अन्य दिनचर्या निपटाने) लड़ने के लिये वहाँ भी मोर्चा लड़ना है और जीतना भी है.
क्यों सिरफ़िरा जी,
जवाब देंहटाएंआपने भी मुझे फँसा दिया। अपनी गलती मैंने स्वीकार ली थी। वकील साहब वकील तो हैं ही। लेकिन इसमें डरने और हार-जीत की कोई बात नहीं है। अब टिप्पणियों में हमेशा समर्थन थोड़े ही करेंगे? जहाँ लगेगा कि कुछ अलग है, वहाँ कहेंगे ही। द्विवेदी जी तो मेरे लिए भी सम्माननीय हैं। मैं उनका अपमान नहीं कर रहा था और वे भी मुझे अपमानित नहीं करना चाहते थे और सामान्य बात ही कही मुझसे। मैं भी वैसे ही हूँ और वे भी।
हार मानने का सवाल नहीं है। हार तो हम भी नहीं मानते। कितनी बार लोगों से सुन चुके हैं कि वकील ही बन जाओ!
पहली दो टिप्पणियों में मैंने अपनी तरफ़ से तो बात कही है। हँसी और रुलाई तो अपनी अपनी समझ है। आप भी बुरा नहीं मानेंगे। चलूं…
जयपुर की कल की ही एक घटना है...योगेश जो अब २७ साल का है, जब १३ साल का था तो आरोप के मुताबिक डॉक्टर की लापरवाही से उसका दायां हाथ कट गया...ज़िला उपभोक्ता फोरम ने फैसला अस्पताल के हक में दिया...केस राज्य उपभोक्ता आयोग के पास गया...आयोग ने कल अस्पताल को पचास लाख रुपये हर्जाना दो महीने में चुकाने का आदेश दिया है...लेकिन अस्पताल अब भी गलती मानने को तैयार नहीं है...यानि अस्पताल के पास अब भी राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग या सुप्रीम कोर्ट के पास जाने का रास्ता खुला है...योगेश को १४ साल कानूनी लड़ाई लड़ते हो गए है, अभी भी उसे इन्साफ़ का इंतज़ार है...और कौन जाने आखिर में क्या फैसला होगा...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
हाथ आया मौका कौन छोड़ता है?
जवाब देंहटाएं:-)
हास्य और व्यंग्य दोनों का अच्छा सम्मिश्रण किया है आपने अपनी पोस्ट में। साथ ही अस्पताल और अदालत दोनों की दुनिया की एक झलक भी दिखला दी। बहुत बढिया।
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