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गुरुवार, 31 मार्च 2011

शील ने इत्मिनान से क्रिकेट मैच देखा

सुरेश के सुबह सो कर उठने के पहले अखबार आ जाता है। शील ही पहले उसे पढ़ती है। सुरेश यदि बीच में उठ जाए तो उसे कॉफी बना कर दे देती है और फिर अखबार पकड़ लेती है। जब तक पूरा न पढ़ लिया जाए, उसे नहीं छोड़ती। यह अपने शहर, देश दुनिया के बारे में ताजा होने का सब से अच्छा तरीका है। फिर उसे अक्सर यह भी तो देखना होता है कि उस दिन पूनम, प्रदोष या कृष्णपक्षीय चतुर्थी तो नहीं पड़ रही है या कोई ऐसा त्यौहार तो नहीं है जिस में व्रत या पूजा वगैरा करनी हो। कहीं ऐसा न हो कि उन में से कोई छूट जाए। सोने से ले कर दाल-चावल तक के भाव उसी से तो पता लगते हैं और किसी के मरने-गिरने की खबर भी। अखबार से उसे यह सब जानकारी सुबह-सुबह मिल जाती है और दिनचर्या तय करना आसान हो जाता है। उसी से उसे यह भी खबर लगती है कि आज अदालत में काम होगा या वकील लोग यूँ ही मुकदमों में तारीखें ले कर वापस लौटेंगे। पिछले दो-एक बरस से यह खूब होने लगा है। महीने में दो-चार दफ़े तो वकील हड़ताल कर ही देते हैं और साल में कम से कम एक बार लंबी हड़ताल  भी करते ही हैं। इस से वह जान जाती है कि सुरेश को दिन में आज कितनी फुरसत रहेगी? उसी हिसाब से वह सुरेश से करवाए जाने वाले बाहर के कामों की उसे याद दिलाती है। 
शील को सप्ताह भर से ढोल पीट रहे टीवी चैनलों से पता चल गया था कि बुधवार को क्रिकेट विश्व-कप का फाइनल मैच होने वाला है। वह समझ गई थी कि सुरेश की कोशिश रहेगी कि ढ़ाई बजे के पहले घर पहुँच जाए और बिस्तर पर बैठे-लेटे वह मैच का आनंद ले सके। पहले तो सुरेश को क्रिकेट का बहुत ज़ुनून होता था। लेकिन अब उस पर उतना ध्यान नहीं देता। आखिर दे भी कब तक? वह ऐसा करने लगे तो धंधा ही चौपट हो जाए। फिर भी अगर भारत की टीम खेल रही हो तो मैच देखने की उस की कोशिश जरूर रहती है। उसे सुबह के अखबार से ही पता लग गया था कि आज के मैच के लिए वकील लोग अदालतों में काम नहीं करेंगे। सुबह जब सुरेश कॉफी पी रहा था तो शील ने पूछ लिया "आज अदालत में काम कितना है?" सुरेश भी अब इस तरह के सवालों का आदी हो चला है। वह तुरंत ही भाँप गया कि उसे कुछ काम बताया जाने वाला है। उस ने केवल इतना ही उत्तर दिया "कोई अधिक काम नहीं है।" तब शील ने बताया कि अदालत में तो आज वकील काम ही नहीं करेंगे। 
-हाँ, काम तो नहीं करेंगे, लेकिन अदालत तो जाना पड़ेगा। जो मुकदमे आज लगे हैं उन में पेशी तो लानी पड़ेगी। तुम तो अपना काम बताओ जो मुझे करने के लिए कहने वाली हो। सुरेश ने कहा। 
शील बताने लगी - मैं सोचती थी कि पोस्ट ऑफिस जा कर पोस्ट मास्टर को नया पता दे आओ। कहीं ऐसा न हो बच्चों की डिग्रियाँ आएँ और लौट कर फिर से युनिवर्सिटी चली जाएँ। फिर वहाँ से निकालना बहुत मुश्किल काम होगा। बच्चों को ही आ कर लेनी होंगी। वैसे भी वे घर कितने दिन के लिए आते हैं। फिर जब आते हैं तो युनिवर्सिटी में अवकाश होता है। वो गुप्ता जी की लड़की उसकी डिग्री आज तक भी युनिवर्सिटी से नहीं ला पाई है। जब गुप्ता जी पत्नी सहित एलटीसी पर गए थे तब आई थी, डाकिए ने लौटा दी। 
शील कुछ देर के लिए रुकी तो सुरेश बोल उठा -अगला काम बताओ। एक वो आप के मिर्च वाले को फोन कर के पूछ लो कि वह मिर्चें कब ला कर देगा? गरमी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। अधिक देर हो गई तो उन्हें पीसने में परेशानी होगी। यदि वह एक दो दिनों में ला दे तो ठीक, वर्ना पोस्ट ऑफिस के नजदीक की दुकान पर अच्छी वाली मिर्चें हैं, आधा किलो लेते आना। बिलकुल खतम हो हो जाएंगी तो परेशानी आ जाएगी। गणगौर नजदीक है, गुणे तो बनाने पड़ेंगे। बिना मिर्च के तो बनने से रहे।
... और? सुरेश ने पूछा? 
..... यूआईटी हो कर भी आना। नयी आवासीय योजना में  प्लाटों के आवंटन के फार्म मिलने लगे हों तो वह भी लाना। गुल्लू कह रहा था कि इस बार जरूर भर देना चाहिए। यदि आवंटन मिल गया तो फायदा हो जाएगा। उसे वैसे भी इस बार प्रोपर्टी में इन्वेस्ट के लिए लोन लेना पड़ेगा। वर्ना बहुत सा पैसा सिर्फ इन्कमटैक्स में कट जाएगा। गुल्लू की सैलरी स्लिप ले जा कर लोन एजेंट को दिखा कर पूछ भी लेना कि उसे कितना लोन मिल सकता है। 
... और?  इस बार सुरेश ने पूछा तो यकायक शील हँस पड़ी। कहने लगी - आज के लिए इतना ही बहुत है, फिर अदालत जा कर आज की पेशियाँ भी तो लेनी हैं और  फिर मैच भी तो देखना है। आज शाम तुम्हें दूध लेने नहीं जाना है, मैं ने गाँव वाले से एक किलो ले लिया है। 
सुरेश कहने लगा -कभी कभी बहुत समझदारी करती हो। सच में, आज मैच शाम पाँच बजे क्रिटिकल हो जाता तो मैं नहीं ही जाता।
-कभी कभी क्यों जनाब? हमेशा क्यों नहीं कहते। क्या कभी मैं ने कोई बेवकूफी भी की है? 
सुरेश की कॉफी कभी की खत्म हो चुकी थी, तम्बाकू को चूने के साथ घिस कर सुपारी मिला कर भी फाँक चुका था। वह उठा टॉयलेट में घुसते हुए बोला -मुझे बता कर दिन थो़ड़े ही खराब करना है। शील फिर हँस पड़ी। स्नानादि से निवृत्त हो कर सुरेश ने भोजन किया और निकल गया। उस ने शील के बताए सारे काम कर डाले थे। अदालत पहुँचा तो दुपहर का अवकाश होने में पंद्रह मिनट ही शेष बचे थे। उसे रोज ही अपनी कार पार्क करने के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी। कभी कभी तो इस तलाश में कार को एक किलोमीटर बेशी चलाना पड़ जाता था। पर आज तो सारी ही जगह खाली पड़ी थी। कार को एक पेड़ की छाँह भी मिल गई थी। वरना कई सप्ताह से कार दिन फर धूप में तपती रहती थी। ज्यादातर लोग अपना काम निपटा कर घरों को जा चुके थे। अदालत में सन्नाटा पसरा था। मुवक्किलों का तो नाम भी नहीं था। वहाँ या तो अदालतों के कर्मचारी थे या फिर कुछ वकील, मुंशी और टाइपिस्ट आदि ही बचे थे। उन में से भी कुछ जाने की तैयारी में थे। कुछ ने मैच की एक पारी यहीं बार एसोसिएशन के टीवी पर मैच देखना था। जब भीड़ मैच देखती है तो उस का आनंद कुछ और ही होता है। 
सुरेश ने जल्दी-जल्दी देखा कि उस के आज के मुकदमों की तारीख उस के जूनियर और मुंशी ले आए हैं या नहीं। देखा कि एक-दो ही मुकदमे रह गए हैं तो मुंशी को हिदायत दी कि लंच होने के पहले ही शेष तारीखें भी नोट कर ले और बस्ता गा़ड़ी में रख दे। मुंशी ने एक दो नोटिसों पर दस्तखत कराए, जिन्हें आज ही डिस्पैच करना था। कुछ और अदालती कागजों पर दस्तखत करने के बाद सुरेश अपनी लंच-टीम के साथ चाय के लिए निकल गया। उस ने साथियों से पूछा -मैच देखने की क्या तैयारी है? अधिकतर चाय के बाद घर जाने वाले थे। एक दो ने वहीं मैच देखना था। जगदीश कोई गाना गुनगुना रहा था। सुरेश ने पूछा -क्या गुनगुना रहे हो?
-कुछ नहीं, यार! हर कोई ऐरा-गैरा, नत्थू खैरा किरकेट पर गाना बना रहा है तो मैं ने सोचा मैं भी क्यूँ न बना दू? 
-फिर कुछ सूझा? सुरेश ने पूछा।
-हाँ, दो पंक्तियाँ तो सूझ गई हैं। पर गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। 
-तो दो ही सुना दो। गाना वर्डकप फाईनल शुरू होने तक तो बन ही जाएगा। पूरा तब सुन लेंगे। 
- तो सुन ही लो। जगदीश सचमुच गाने लगा ....

देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ
भारत-पाक भिड़ते देखो S S S S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
राष्ट्रमण्डल को भूलो S S S S S S S S ओ
धोनी-सहबाग-सचिन याद रखो S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
कलमाड़ी की कालिख भूलो S S S S S S ओ
देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ ...

सुरेश ने जगदीश को बाहों में भर लिया। उस्ताद आज तो मिर्जा और मीर भी तुम्हें दाद दे रहे होंगे। 

चाय से निपट कर सुरेश घर पहुँचा तो टीवी से मैच की आवाजें आ रही थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि पंद्रह दिन पहले तक अपने फेवराइट सीरियल के समय शील उसे कहती थी कि वह मैच इंटरनेट पर देख ले।  आज अपने फेवराइट सीरियल के समय क्रिकेट मैच देख रही है। उस ने गेट खोल कर कार अंदर रखी। शील ने दरवाजा खोला और तुरंत अंदर जा बैठी। बेडरूम का टीवी चल रहा था। दो ओवर हो चुके थे। शील जम कर बेड पर बैठ कर मैच देखने लगी। सुरेश ने कपड़े बदले और वह भी बेड पर लेट कर मैच देखने लगा। 
शील ने पूरा मैच तन्मय हो कर देखा। आखिरी ओवर की पहली गेंद फेंकने के बाद जब सुरेश ने कहा कि अब भारत जीत गया। तो शील बोली -जीत गया, तो फिर अब गेंद क्यों फैंकी जा रही है? जब तक आखिरी पाक खिलाड़ी आउट न हो गया तब तक वह नहीं उठी। उठी तो सब से पहले घड़ी देखी। उस की प्रतिक्रिया थी -अरे! ग्यारह बज गए! मैं तो सोच रही थी अभी साढ़े नौ ही बजे होंगे।
सुरेश ने कहा -अब भोजन भी बना लो। वर्ना जीत की खुशी में भूखा ही सोना पड़ेगा। 
-भोजन मैं ने दो बजे के पहले ही बना लिया था। बस, गरम कर के लाती हूँ। 
सुरेश सोच रहा था ... तो ये वजह थी, कि शील ने बड़े इत्मिनान से मैच देखा।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

ज़ुनून और नशे का दौर क्यूँ?

ज कुल जमा चार मुकदमे थे। सोचता था कि मध्यान्ह अवकाश के पहले ही कोर्ट का काम निपट लेगा और मैं कुछ घरेलू काम निपटा लूंगा। लेकिन सोचा हुआ कब होता है। एक मुकदमा बरसों से चल रहा है। विपक्षी के वकील मुझ से 11 वर्ष अधिक वरिष्ट हैं। वे मेरे उस्तादों में से एक हैं। अदालत भी उन की बहुत इज्जत करती है। वे यदि कह दें कि आज बहस का समय न मिलेगा तो अदालत को तारीख बदलनी ही होती है। आज वे मुकदमे में बिलकुल तैयार हो कर आए थे। मुझे भी प्रसन्नता हुई कि एक पुराने मुकदमे का निपटारा हो सकेगा। लेकिन मध्यान्ह के पहले जिला जज कुछ अधिक आवश्यक कामों में उलझे रहे। सुनवाई मध्यान्ह अवकाश के बाद के लिए टल गई। इस बीच एक अन्य न्यायालय में एक आवेदन का फैसला करवाया, तीसरा और चौथा मामला अदालत को समय न होने से आगे सरक गया। 
ध्यान्ह दो बजे बाद मैं जिन कामों में जुटना चाहता था उन्हें स्थगित किया और ठीक सवा दो बजे जिला जज के यहाँ पहुँच गया। वरिष्ठ विपक्षी वकील भी ढाई बजे तक पहुँच गए और न्यायाधीश भी न्यायालय में विराज गए। लेकिन आते ही फिर कुछ कामों में ऐसे उलझे कि हमारे मुकदमे की और कोई तवज्जो नहीं हुई। मैं ने एक बार न्यायाधीश का ध्यान आकर्षित भी किया कि हम दोनों पक्ष के वकील हाजिर हैं हमारा मुकदमा सुन लिया जाए। हमे थोड़ा ठहरने को कहा गया। उसी वक्त एक कागज जिला जज के समक्ष लाया गया, जिसे पूरा पढ़ कर जज ने अजीब  तरीके से मुस्कुराते हुए कहा -अब ये भी कोई बात हुई? मैं ने पूछा -क्या हुआ? उत्तर था कि अभिभाषक परिषद का पत्र था कि कल भारत-पाक क्रिकेट मैच होने से वकील काम नहीं कर सकेंगे। न्यायिक कार्य स्थगित रखने में सहयोग किया जाए। सहयोग की तो केवल अपेक्षा थी। वस्तुतः यह फरमान था कि वकील काम नहीं करेंगे। मैं ने पूछा मध्यान्ह पश्चात का काम स्थगित करने की बात होगी? जज का उत्तर था -नहीं, पूरे दिन काम न होगा।
खैर! साढ़े तीन बजे तक हमारे मुकदमे की सुनवाई न हो सकी। साढ़े तीन बजे जज साहब ने हमारे मुकदमे की फाइल हाथ में ली। मैं ने कहा -हम दोनों ढाई बजे से हाजिर हैं। जज साहब अत्यन्त विनम्रता से बोले -मैं खुद महसूस करता हूँ कि आप लोग बहुत देर से बैठे हैं। लेकिन मैं ही आज समय नहीं निकाल सका। पूछने लगे -कितना समय लगेगा। हम समझ गए कि आज सुनना नहीं चाहते। अब किसी जज को जबरन सुनाना तो अपने मुकदमे को बरबाद कर देने के बराबर था। मैं ने कहा -कोई पास की तारीख फरमा दें। फाइल तुरंत पेशकार के पास चली गई। पेशकार ने पूछा -क्या लिख कर तारीख बदलूँ? तो जज का उत्तर था -आज तो अपनी ओर से ही लिख दो कि अदालत को अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण समय नहीं मिला। मैं तारीख सुन कर वापस लौटा ताकि अपने कुछ काम तो निपटा सकूँ। 
ब कल काम नहीं होगा। अदालत हम जाएंगे। लेकिन सिर्फ एक-दो घंटों में मुकदमों में तारीखें बदलवा कर लौट पड़ेंगे। यह भी मुकम्मल है कि बाद का समय टीवी के सामने ही गुजरेगा। राहत यही है कि चलो कुछ घंटे आराम तो मिलेगा।  शाम को बेटी ने भी बताया कि दिल्ली और हरियाणा में कई संस्थानों ने कल का अवकाश कर दिया है। कुछ संस्थानों में आधे दिन का अवकाश है। अब हम इसे लादा हुआ जुनून ही कह सकते हैं। देश सारे न्यूज चैनल जब हर पंद्रह मिनट बाद क्रिकेट मैच के लिए ज़ुनून जगाने के लिए नगाड़े पीट रहे हों और प्रधान मंत्री क्रिकेट के इकलौते मैच को इतना महत्व दें कि खुद तो देखने पहुँचे ही, साथ में पडौसी देश के राजप्रमुखों को न्यौता भी दे डाले तो लोग क्यों न उस का अनुसरण करेंगे? इस राजनैतिक पहल ने इस खेल को खेल न रहने दिया। इसे लखनवियों की मुर्गा-जंग बना कर रख दिया है। इस राजनीति/कूटनीति से कुछ हल हो, न हो, इतना तो पता लग ही रहा है कि दोनों देशों के शासक चाहते हैं कि उन की जनता किसी न किसी नशे में डूबी रहे। जिस से उन की असफलताओं की ओर से जनता का कुछ तो ध्यान हटे।  कारपोरेट चाहते हैं कि उन की लूट के किस्से कुछ दिनों के लिए ही सही इस क्रिकेटीय ज़ुनून में दब जाए।
दोनों टीमों और खिलाड़ियों पर मुझे दया आ रही है। वे अपने देश की नुमाइंदगी का भ्रम पाले हुए हैं और जानते नहीं कि उन की तपस्या का इस्तेमाल राजनेता अपने मतलब के लिए और कारपोरेट अपने फायदे के लिए कर रहे हैं: या फिर जानते हुए भी चुप हैं और अपना लाभ देख रहे हैं। फिर भी उन का काम तपस्या का है। उन्हों ने अपने कौशल को लगातार माँजा है, चमकाया है। अब गेंद, और बल्ले उन्हें भारी नहीं पड़ते। वे क्रिकेट और भौतिकी के नियमों से खेलते हैं। वे वैसे ही खेल रचते हैं जैसे कभी ग़ालिब और मीर ग़ज़लें रचा करते थे। मैं चाहता हूँ कि कल फिर से सारे खिलाड़ी मिल कर मैदान में ग़ज़लें रचें, कि कल का खेल एक नशिस्त बन जाए। 

सोमवार, 28 मार्च 2011

शील की कहानी - गैस खत्म

शील का ये तिरेपनवाँ साल है। हाँ, अब वह शील ही रह गई है। उस का पति सुरेश उसे इसी नाम से बुलाता है। यूँ उस के दादा ने उस का नाम शीलवती रखा था। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे चरण में जो पैदा हुई थी। पर दादी को यह नाम लंबा लगता था वह उसे शीला कहने लगी। फिर स्कूल में भी यही नाम लिखवा दिया गया। सब लोग उसे शीला ही कहने लगे थे। विवाह के निमंत्रण में भी यही नाम छपा था। पर शादी के बाद पति ने उसे कहा कि वह उस के नाम से नहीं पुकारेगा, अच्छा नहीं लगता लेकिन दूसरा नाम क्या हो? इस पर पहले ही दिन दोनों के बीच बहस हो गई थी। फिर तय हुआ कि शील कहेगा। फिर ससुराल में यही नाम चल निकला। सब उसे शील ही कहने लगे। वह जब भी मायके जाती है तो उसे शीला कहा जाता है।  
शादी तो उस की तभी हो चुकी थी जब उस ने मेट्रिक की परीक्षा दी थी। ससुराल में उसे सिर्फ चार-पाँच साल बिताने पड़े। उन दिनों को याद करती है तो उसे अब भी रोना आ जाता है। फिर सुरेश ने घर छोड़ने की ठान ली। वह तो दिल्ली या मुंबई जैसी जगह जा कर पत्रकार बनना चाहता था। वह चला भी गया था। पर शायद शील के प्रेम की डोरी ही थी जो उसे वापस खींच लाई थी। उसे एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक में उप संपादक का काम मिला था। लेकिन जब वह रहने का स्थान तलाशने निकला तो महानगर की सचाई सामने आ गई थी। जितनी तनख्वाह उसे मिलनी थी वह अपने कस्बे के हिसाब से तो सही थी, लेकिन मुंबई में उस से क्या होता? आधा तो किराए में ही चला जाता। वह भी तब जब वह दो और लोगों के साथ अपना कमरा साँझा करता। यदि वह साँझे कमरे में रहता तो शील को अपने साथ कैसे रख सकता था। उस ने यह भी अनुमान लगाया कि कितने बरस बाद वह ऐसा स्थान ले सकता था जिस से शील को साथ रख सके। अनुमान आया सात बरस। सात बरस! इतने दिन वह शील के बिना कैसे रहेगा। वह इतने साल अपने पीहर में तो नहीं ही रह सकती, और ससुराल में? वहाँ तो इतने दिन में उस का दम कितनी ही बार घुट चुका होगा। सुरेश ने उसी दिन साप्ताहिक के दफ्तर को टा-टा कर दिया। चार दिन के काम की मजदूरी छोड़ कर वापसी की ट्रेन का टिकट लिया और अगली शाम वह ट्रेन में वापसी की यात्रा कर रहा था। शील सोचती है कि तब सुरेश ने यदि वह नौकरी न छोड़ी होती तो वह घुट कर ही सही जैसे-तैसे सात बरस काट ही लेती। ससुराल में दम घुटने लगता तो दम लेने को कुछ महिने अपने पीहर में काट लेती। लेकिन सुरेश अवश्य ही देश का शीर्ष पत्रकार होता। शायद किसी शीर्ष समाचार पत्र का प्रमुख संपादक। जरूर कोई टीवी चैनल उस का भी आधे घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम चला रहा होता। तब शील की हैसियत भी वैसी ही होती। 
सुरेश ने मुंबई से लौटते ही फैसला ले लिया कि जैसे ही उस की कानून की पढ़ाई पूरी होगी वह वकालत शुरू कर देगा। फिर देखेगा कि कोई नौकरी करनी है या नहीं। यदि कोई ढंग-ढांग की नौकरी मिली तो करेगा, नहीं तो वकालत कोई बुरी नहीं। कम से कम खुद-मुख्तार तो रहेगा। उस ने यही किया भी, जिस रात वह कानून का आखिरी पर्चा देकर घर लौटा उस के अगले ही दिन अल्ल सुबह वह वकील के दफ्तर में पहुँच गया और कहने लगा -मैं आ गया हूँ मुझे आप की फाइलें संभला दो। उसी दिन वह उन के साथ अदालत में था। तीन महीने परीक्षा का परिणाम आने में लगे और तीन माह सनद आने में। जिस दिन डाक से बार कौंसिल का लिफाफा मिला सुरेश ने सीधा अपने बॉस को ले जाकर दिया। उन्हों ने खोल कर देखा तो उस में वकालत की सनद जारी करने की सूचना थी। बॉस ने तीन दिन पहले ही सिल कर आया नया कोट अपने शरीर पर से उतार कर सुरेश को पहना दिया। उस दिन सुरेश काला कोट पहने ही घर लौटा था। वह दिन शील आज तक नहीं भूल सकती। उसे लगा था कि वह उस की आजादी की शुरुआत थी। 
सोचते-सोचते शील का ध्यान रसोई में गैस पर चढ़े ओवन में सिकने को रखी बाटियों की ओर गया। आज रविवार था और सुरेश अक्सर उसे कहता था रविवार को तो दाल बाटी बना लिया करे। आज उस ने सुरेश की यह बात मान ली थी। दाल तो उस ने नहीं बनाई लेकिन कढ़ी बना ली थी और ओवन में बाटियाँ सेकने को डाल दी थीं। उस ने ओवन का ढक्कन उठा कर देखा तो बाटियाँ जस की तस थीं। वह हैरान रह गई कि यह हुआ क्या? उस की निगाह गैस की ओर गई तो चूल्हा बुझा हुआ था। गैस टंकी को हिला कर देखा तो वह बिलकुल खाली थी। ओवन भले ही ठंडा हो गया हो पर उस के दिमाग तुरंत गरम हो गया। वह एक महीने से सुरेश को याद दिला रही थी कि गैस सिलेंडर ले आओ। लेकिन उसे फुरसत हो तब न। अब कैसे भोजन बनेगा? सुरेश तो अब तक बिना नहाए बैठा इंतजार कर रहा था कि कब शील उसे भोजन बनने की सूचना दे और कब वह स्नानघर में प्रवेश करे। उस की आदत जो है कि इधर स्नानघर से निकला कपड़े पहने, ठाकुर घर में घुस कर सैंकंडों में माथे पर टीका लगाया और तुरंत भोजन चाहिए। जरा भी देरी उस से बर्दाश्त नहीं होती। इस नए मुहल्ले में वह सिलेंडर भी किस से मांगेगी? यहाँ तो उसे कोई ठीक से जानता भी नहीं। सुरेश को भी नहीं कह सकती, उस के पास दफ्तर में कोई क्लाइंट जो बैठा है। 
ह सोच में ही पड़ी हुई थी कि सुरेश पानी पीने के लिए दफ्तर से अंदर आया। उस ने तपाक से कहा गैस खत्म हो गई है। सुरेश ने पूछा -खाना बना? -नहीं अभी कहाँ बस कढ़ी बनी है, बाटी सिकने को डाली ही थी। सुरेश भी सोचने लगा कि अब क्या किया जाएगा? गलती तो उसी की है। शील तो महीने भर से कह रही थी गैस लाने को। लेकिन उसे फुरसत मिले तो। एक दिन पहले फोन करना पड़ता है दूसरे दिन ऐजेंसी से लाना पड़ता है, वह भी दुपहर को जब उस का अदालत का समय होता है। वह देख ही रहा था कि किस दिन वह अदालत से दोपहर को निकल सकता है। कल ही उस ने ऐजेंसी को फोन किया था और उसे सोमवार को गैस लानी थी। लेकिन इस गैस को भी रविवार को ही खत्म होना था। एक छोटा सिलेंडर और था जिसे वह इमरजेंसी में काम ले सकता था। लेकिन उसे भी वह पिछले महीने शील की बहिन के बच्चों को दे आया था जो उसी शहर में कमरा ले कर पढ़ रहे थे। सुरेश को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि शील बोल पड़ी। अभी घर में बहुत नाश्ता पड़ा है, तुम तो नाश्ता कर लो। सुरेश समझ गया कि वह उसे ताना दे रही है। थोड़ी देर और गैस का कोई हल न हुआ तो साक्षात दुर्गा के दर्शन संभव हैं। सुरेश ने कहा -तुम जानती हो मुझे स्नान के पहले कहाँ भूख लगती है। तुम गुस्सा न करो, अभी कुछ न कुछ करता हूँ। 
तना कह कर वह फिर अपने दफ्तर में जा बैठा। क्लाइंट ने अपनी राम-कथा फिर जारी कर दी, जिस का मुकदमे से कोई ताल्लुक न था। पर वकील को सुननी तो सब पड़ती है वर्ना क्लाइंट समझता है उस की पूरी बात सुनी ही नहीं वकील वकालत कैसे करेगा? वह सुनता रहा। लेकिन अब एक भी शब्द उस के कानों तक नहीं पहुँच रहा था। उसे तो तुरंत गैस का इन्तजाम करना था। उसे कुछ ही दूर रहने वाले अपने एक शिष्य का ख्याल आया तो तुरंत फोन की ओर उस का हाथ बढ़ गया। यह सुखद ही था कि फोन पर शिष्य मिल गया था। उस के घर तो कोई भरा सिलेंडर उपलब्ध नहीं था, लेकिन इतना जरूर कह दिया था कि वह कुछ मिनटों में कोई न कोई इंतजाम कर के फोन करेगा। वह शील को बताना चाहता था। लेकिन उसे अपने गुरू का मंत्र याद आ गया कि कभी अधूरी सफलता का उल्लेख किसी से न करो। यह सही भी था। यदि वह शील को बताता कि गैस का इंतजाम अभी हुआ जाता है, और गैस का इंतजाम दो घंटे भी न हुआ तो दुर्गा के साथ काली के दर्शन होना भी स्वाभाविक था। वह चुपचाप अपने क्लाइंट की राम-कथा फिर सुनने लगा। हालाँकि उस का पूरा ध्यान फोन की तरफ था कि कब घंटी बजे और कब उसे राहत मिले। 
स मिनट में ही घंटी बज उठी। संदेश था कि तुरंत गैस ले जाओ। सुरेश ने क्लाइंट को भी अपने साथ उठाया और गाड़ी में बैठाया। शिष्य एक पडौ़सी के घर के बाहर ही दिखे। वहाँ दरवाजे पर गैस सिलेंडर तैयार था। वह सिलेंडर रखवा कर घर लौटा। रसोई में सिलेंडर बदल कर चूल्हा जलाने को माचिस तलाशी तो वहाँ पड़ी माचिस खाली थी। उस ने कमरे में टीवी देखने जा बैठी शील को आवाज दी -माचिस कहाँ है? शील तुरंत उठ कर रसोई में घुसी। सुरेश गैस के सामने से हट गया। शील ने लाइटर से गैस जलाई। एक ही प्रयास में गैस जल उठी। सुरेश को आश्चर्य हुआ कि लाइटर पहली ही बार में कैसे काम कर गया? वह तो खराब हो चुका था और सात-आठ बार दबाने पर एक बार बमुश्किल काम करता था। पर इस से क्या शील के चेहरे पर से भी तनाव की सारी रेखाएँ पल भर में गायब हो चुकी थीं, दबी-दबी मुस्कान भी दिखाई दे रही थी। सुरेश को तसल्ली हुई। वह फिर से दफ्तर में आ गया। क्लाइंट की राम-कथा समाप्ति के दौर में थी। वह सोच रहा था कि क्लाइंट के उठते ही वह सीधा स्नानघर में घुस लेगा।

शनिवार, 26 मार्च 2011

कितने प्रोफेशन (व्यवसाय) और कितने प्रोफेशनल (व्यवसायी)?

मित्रों! एक जिज्ञासा थी, यह जानने की कि कितने तरह के व्यवसाय (प्रोफेशन) और व्यवसायी (प्रोफेशनल) हो सकते हैं। मुझे एक सूची मिली। कुछ मैं ने इस में वृद्धि की, अभी तक कुल 328 हुए। लेकिन यह सूची अधूरी है, और शायद हमेशा अधूऱी रहे। क्यों कि नये व्यवसाय (प्रोफेशन) हमेशा अस्तित्व में आते रहेंगे। आप भी देखिए इस सूची को। कुछ और प्रोफेशन/व्यवसाय स्मृति में आएँ तो उन्हें अपनी टिप्पणी के माध्यम से इस में अवश्य जोड़िए।

1.    अंगरक्षक
2.    अंडरटेकर 
3.    अंतरिक्ष यात्री 
4.    अंतरिक्ष वैज्ञानिक
5.    अग्निशमन अधिकारी
6.    अध्यापक
7.    अध्यापिका
8.    अनुवादक
9.    अनुसंधानकर्ता
10.    अभिनेता
11.    आंकलन करनेवाला
12.    आया
13.    आयातक
14.    आयोजक
15.    आविष्कारक
16.    आहार विशेषज्ञ
17.    इंजन चालक
18.    इंजन फिटर
19.    इंजीनियर
20.    इंटीरियर डिजाइनर
21.    इतिहासकार
22.    इथोनोलोजिस्ट
23.    इमाम
24.    उड़ान तकनीशियन (फ्लाइट इंजीनियर)
25.    उड़ान प्रशिक्षक
26.    उत्पादक
27.    उद्योगपति
28.    उपचारात्मक शिक्षक
29.    उपशिक्षक
30.     ऋण आयोजक
31.    एंटीक डीलर
32.    एक्सप्लोरर
33.    एजेंट
34.    एथलीट
35.    एयर ट्रैफिक कंट्रोलर 
36.    एल्डरमैन
37.    एस्टेट एजेंट 
38.    ऑपरेटर
39.    ओर्थपेडीस्ट
40.    कंडक्टर  (परिवहन)
41.    कंडक्टर  (संगीत)
42.    कंप्यूटर प्रोग्रामर
43.    कचरा कलेक्टर 
44.    कप्तान
45.    क़ब्र खोदनेवाला
46.    कला निर्देशक
47.    कलाकार
48.    कवि
49.    कसाई
50.    कानून  प्रवर्तक
51.    कारपोरेट 
52.    कारिंदा
53.    किताब  बेचनेवाला
54.    किसान
55.    कुलाधिपति
56.    कूरियर
57.    केवट
58.    कैबिनेट निर्माता
59.    कैमरामैन
60.    कॉपीरायटर
61.    कॉर्पोरेट लाइब्रेरियन
62.    कोच
63.    कोरियोग्राफर
64.    कोरोनर
65.    कोषाध्यक्ष
66.    कौंसल
67.    क्यूरेटर
68.    क्लर्क
69.    क्लारिनेटिस्ट
70.    क्षतिनिर्धारक
71.    खगोल विज्ञानी
72.    खनिक
73.    खुफिया अधिकारी
74.    खेल कमेंटेटर
75.    गणितज्ञ
76.    गाइड
77.    गाड़ीवान
78.    गायक
79.    गार्ड
80.    गिटारवादक
81.    गीतकार
82.    गुब्बाराकार
83.    गेट कीपर
84.    गेम शो होस्ट
85.    गोदी मजदूर
86.    ग्राफिक  कलाकार
87.    घरेलू  नौकर
88.    चक्कीवाला
89.    चरवाहा
90.    चालक
91.    चिकित्सक
92.    चिकित्सा-सहायक
93.    चित्रकार
94.    चिमनी-स्वीपर
95.    छाता  मिस्त्री
96.    जन सम्पर्क अधिकारी 
97.    जनसंख्या विज्ञानी
98.    जम्मू
99.    जल्लाद 
100.    जासूस
101.    जिल्दसाज
102.    जीव विज्ञानी 
103.    जुलाहा
104.    जॉकी
105.    ज्योतिषी
106.    टर्नर
107.    टेलिग्राफ़-आपरेटर
108.    टेलिफ़ोन-आपरेटर
109.    टेस्ट डेवलपर
110.    टैक्सी चालक
111.    टैक्सी ड्राइवर
112.    डाकिया 
113.    डिजाइनर
114.    डिस्क जॉकी
115.    डेंटिस्ट
116.    ढंढोरची
117.    तकनीकी इंजीनियर
118.    तकनीशियन
119.    तट रक्षक
120.    तलवारबाज
121.    ताबूत निर्माता
122.    दर्जी
123.    दलाल
124.    दाई
125.    दार्शनिक
126.    दुभाषिया
127.    दूत
128.    धर्माध्यक्ष
129.    ध्वनि तकनीशियन
130.    नर्तकी/नर्तक
131.    नर्स
132.    नलसाज
133.    नाई
134.    नाटककार
135.    नालबन्द
136.    नाविक
137.    निजी  जासूस
138.    नियंत्रक
139.    निर्माण मजदूर
140.    निर्माता
141.    निशानेबाज़
142.    निश्चेतक
143.    निष्पादक
144.    नेत्र-विशेषज्ञ
145.    नौकर
146.    नौकरशाह
147.    न्यायाधीश
148.    पंच
149.    पक्षी विज्ञानी
150.    पत्रकार
151.    पदवाहक
152.    पनडुब्बी चालक
153.    परिचारक
154.    परीक्षक
155.    पर्यावरण वैज्ञानिक
156.    पशु ट्रेनर
157.    पशुचिकित्सा
158.    पादरी
159.    पायलट
160.    पार्क रेंजर
161.    पार्टी नेता
162.    पियानोवादक
163.    पुरातत्त्ववेत्ता
164.    पुरालेखपाल
165.    पुरोहित
166.    पुलिस इंस्पेक्टर
167.    पुलिस अधिकारी
168.    पुलिस-जासूस
169.    पेडीक्योरिस्ट
170.    पैमाइश करनेवाला
171.    पोप
172.    प्रकाश तकनीशियन
173.    प्रकाशक
174.    प्रकाश-विज्ञानी
175.    प्रणाली डिजाइनर
176.    प्रणाली विश्लेषक
177.    प्रधान
178.    प्रधानमंत्री 
179.    प्रधानाचार्य
180.    प्रधानाध्यापक
181.    प्रबंधक
182.    प्रयोगशाला कार्यकर्ता
183.    प्रशासक 
184.    प्रशिक्षक
185.    प्रश्नकर्ता
186.    प्रस्तुतकर्ता
187.    प्राध्यापक
188.    प्रूफ रीडर
189.    फायर फाइटर
190.    फार्मेसिस्ट
191.    फिजियोथेरेपिस्ट
192.    फिटर
193.    फुटकर विक्रेता
194.    फैक्ट्री मजदूर
195.    फैशन डिजाइनर
196.    फोटोग्राफर
197.    बंदूकची
198.    बाल-चिकित्सक
199.    बढ़ई
200.    बनिया
201.    बन्दूक बनानेवाला
202.    बहेलिया
203.    बाज़ को सिखानेवाला
204.    बाज़ीगर
205.    बार कीपर 
206.    बारटेन्डर
207.    बालवाड़ी शिक्षक
208.    बिजली इंजीनियर
209.    बिल्डर
210.    बिशप
211.    बीमाकर्ता
212.    बेकर
213.    बैंकर
214.    भंडारी 
215.    भाषणकर्ता
216.    भाषाविद
217.    भाषाविद्
218.    भूगोलिक
219.    भूभौतिकीविद्
220.    भूविज्ञानी
221.    भौतिक विज्ञानी
222.    मंजिल प्रबंधक
223.    मंत्री
224.    मकान मालिक
225.    मछुआरा
226.    मजिस्ट्रेट
227.    मनोरंजन उद्यमी
228.    मनोविज्ञानी
229.    मरम्मत करनेवाला
230.    महापौर
231.    मांझी
232.    मार्शल
233.    मार्शल आर्टिस्ट
234.    मालिश करनेवाला
235.    माली
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256.    राज्यपाल
257.    राष्ट्रपति
258.    रिसेप्शनिस्ट
259.    लकड़हारा
260.    लक्ष्यभेदक
261.    लाइब्रेरियन
262.    लाईफगार्ड
263.    लेखक
264.    जीवाणुतत्ववेत्ता 
265.    लेखाकार (ऑडिटर)
266.    लेपकर्ता
267.    लोहार
268.    वकील
269.    वनवासी
270.    वस्त्र विशेषज्ञ
271.    वायरलेस आपरेटर
272.    वायलनिस्ट
273.    वायोलिनिस्ट
274.    वास्तुकार
275.    विक्रेता
276.    विदूषक
277.    विद्युतकार
278.    विधिवेत्ता
279.    विलेख-लेखक
280.    विश्लेषक
281.    वीडियो संपादक
282.    वेटर 
283.    वेल्डर
284.    वेश्या
285.    वैज्ञानिक
286.    वैयाकरण
287.    व्यापारी
288.    व्यावसायिक चिकित्सक
289.    शब्द-व्युपत्तिशास्री
290.    शराब बनानेवाला
291.    शराब पारखी
292.    शहद की मक्खियां पालनेवाला
293.    शिकारी
294.    शिक्षक
295.    शिक्षाशास्री
296.    शेयर ब्रीडर
297.    संकेत से ख़बर भेजनेवाला
298.    संगीत निर्देशक
299.    संगीतकार
300.    संपादक
301.    संवाददाता
302.    सचिव
303.    थड़ी विक्रेता
304.    सरकारी एजेंट
305.    सराय कीपर
306.    सर्जन
307.    सर्वेक्षक
308.    सलाहकार
309.    साधु
310.    सामाजिक कार्यकर्ता
311.    साहूकार
312.    सीनेटर
313.    सुरक्षा गार्ड
314.    सेक्सोफोनिस्ट
315.    सेवक
316.    सैनिक
317.    सॉफ्टवेयर इंजीनियर
318.    सौंदर्य विशेषज्ञ 
319.    स्काउट
320.    स्कूल संचालक
321.    स्टन्टमैन
322.    स्टेज डिजाइनर
323.    हलवाई
324.    हाइड्रोलिक  इंजीनियर
325.    हास्य अभिनेता
326.    हुंडी  का  दलाल
327.    हृदयरोग विशेषज्ञ
328.    होटल  मालिक

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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तुम्हें जन्मदिन की बधाई! (हैप्पी बर्डे टू यू)

क्सर होता ये है कि मैं तारीख बदलने के पहले नहीं सोता। लोगों से कहता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करता कि आज सोऊँ और कल उठूँ, इसलिए जिस तारीख में सोता हूँ उसी में उठता हूँ। या यूँ भी कहा जा सकता है कि जिस तारीख में उठता हूँ सोने के लिए उस तारीख का इंतजार करता रहता हूँ। इस का नतीजा ये भी है कि मुझे टेलीफोन पर जिन लोगों को जन्मदिन की मुबारकबाद देनी होती है। रात 12 बजे तारीख बदलते ही फोन की घंटी बजा देता हूँ। पर कल ऐसा नहीं कर सका। 
बेटी होली पर यहीं थी। उसे इस होली पर केवल एक रविवार का ही अवकाश था। दो अवकाश उस ने अपने खाते में ले लिए। बुध को सुबह चार बजे जाग कर यहाँ से गई थी। दोपहर में सीधी अपने दफ्तर पहुँची और शाम को अपने आवास पर। उस ने चार दिन की गर्द भी झाड़ी होगी। बहुत थक गई होगी और सो गई होगी इस कारण कल रात जब तारीख बदली तो मैं ने ही उसे फोन नहीं किया। सुबह भी उसे दफ्तर जाना था, उसे तैयार होने में बाधा होगी यह सोच कर उसे फोन नहीं किया। दोपहर के अवकाश में जब फोन किया तो वही सुनाती रही कि उस के दफ्तर की एक साथी ने उस का जन्मदिन याद रखा और अपने साथ केक ले आयी थी। फिर दफ्तर के लोगों ने उस का जन्मदिन मना डाला। कह रही थी कि लोगों ने उसे फूल भेंट किए जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूछने पर उस का उत्तर था कि उसे फूलों को भेंट करना कभी अच्छा नहीं लगता। फूल पौधे पर खिले रहें तो अन्तिम समय तक सुरभि बिखेरते हैं और उन की सुंदरता बनी रहती है। सजावट के काम में लेना तो वह बर्दाश्त कर लेती है लेकिन भेंट करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कुछ ही देर में बेकार हो जाते हैं। उस का यह कहना मुझे अच्छा लगा और मैं उसे मुबारकबाद देना ही भूल गया।  
शाम को उस का फोन आया तो भारत-आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच आधा हो चुका था। वह बताने लगी कि उस के सहपाठियों ने उसे जन्मदिन मुबारक कहते समय उसे मजाक में भाई कह कर संबोधित किया। अन्य ने पूछा कि लड़की भाई कैसे हो सकती है? उन का कहना था कि हो सकती है, यदि वह सब पर अपना दबदबा बना कर रख सके। पहले वे लोग उसे झाँसी की रानी कहते थे। उस ने मुझ से ही प्रश्न कर डाला कि उस के साथी उसे ऐसा क्यों कहते हैं? जब कि वह तो किसी से कभी झगड़ती भी नहीं है। मैं ने उसे कहा झाँसी की रानी झगड़ालू नहीं जुझारू थी। शायद ऐसा ही तुम में भी उन ने कुछ देखा हो और कहने लगे हों। उधर भारत की पारी शुरू हो गई और वह अपनी मकान मालकिन के साथ क्रिकेट देखने लगी। बता रही थी कि वे हर वह मैच देखती हैं जिसे भारत खेल रहा हो। इन्हीं बातों के बीच मैं फिर उसे जन्मदिन की मुबारकबाद देना भूल गया। 
रात के क्रिकेट मैच खत्म होते ही फोन की घंटी बजी तो बेटी ही थी। इस बार मैं फिर मुबारकबाद देना न भूल जाऊँ, मैं ने सब से पहले उसे 'हैप्पी बर्डे' कह दिया। भारत की जीत से वह प्रसन्न थी। उस ने पूछा -मुझे जन्मदिन की बधाई दे रहे हो, या मैच जीतने की? मैं ने कहा -बधाई तो जन्मदिन की ही दे रहा हूँ, जीत को तो तुम तोहफा समझो भारतीय टीम की ओर से। फिर वह मैच की बात करने लगी, -बीच में तो लग रहा था कि भारत हारा! लेकिन रैना ने मैच जिता दिया। मैं ने पूछा, युवराज का कुछ नहीं? तो कहने लगी। युवराज तो मैन ऑफ मैच है ही। पर मैच तो असल में रैना ने जिताया। वह इतना अच्छा साथ न देता तो? इस बात पर हम दोनों सहमत थे।
विश्व चैम्पियन पर जीत





बुधवार, 23 मार्च 2011

सपने को सच होने से कोई रोक नहीं सकता

ह निरा मूर्ख, दीवाना और निहायत पागल इंसान ही रहा होगा। उस की कौम के करीब डेढ़ सौ लोगों को जिन्दा जला डाला गया था। पूरी कौम सदमे में थी और बदले की आग से जल रही थी। तब वह अपनी मादरेजुबान पढ़ रहा था। उस पर लिख रहा था कि उस का क्या महत्व है। फिर उस ने दुनिया भर के सारे प्रसिद्ध लेखकों को पढ़ना आरंभ कर दिया। वह खुद तो उन्हें पढ़ता ही था, औरों को भी पढ़ने को कहता था। बदले की आग लगातार सीने में धधक रही थी। वह केवल उन लोगों से बदला नहीं लेना चाहता था जिन्हों ने, जिन के इशारे पर और जिन की मदद से कौम के लोग मारे गए थे। वह तो उन तमाम लोगों से बदला लेना चाहता था जो इंसान का खून चूसते थे और अपने कपड़ों पर दाग भी नहीं लगने देते थे। 
फिर उस ने अपने ही जैसे मूर्खों, पागलों और दीवानों को तलाश करना आरंभ कर दिया। वह सब  को किताबें पढ़ने को कहता, जो नहीं पढ़ते उन्हें खुद पढ़ाता। उसे अपने जैसे लोग मिलने लगे। वह फिर भी संतुष्ट नहीं था कि वह दुनिया के तमाम कातिलों को समाप्त कर सकता है। वह जानता था कि यह लंबा काम है और शायद अपने जीवन में न कर पाए। उस में जरा भी अक्ल होती तो असंभव दिखने वाले काम को छोड़ता। अपनी पढ़ाई का लाभ उठाता, रायबहादुर बन बैठता, और रुतबा बढ़ाता। लेकिन उस मूर्ख पर तो पागलपन सवार था। उस ने घर भी छोड़ दिया और इधर-उधर घूमता रहा। जरूरत पड़ती तो भेस भी बदलता। धीरे-धीरे उस ने गिरोह बना लिया। 
भी पागलों की तरह उसे भी विश्वास हो चला था कि लोग बहरे हो चुके हैं, उनकी खालों पर परत-दर-परत मैल जम गया है। खालों का मैल उतारने को उन की धुलाई करनी होगी, बहरों को सुनाने को धमाका करना पड़ेगा। पर उस में तो खतरा था, जान जाने का खतरा। पर पागलों के लिए जान की क्या कीमत है?  लोग भी तो चाहते हैं कि ऐसे पागल जो सभी को परेशान करते हैं, मर ही जाएँ तो अच्छा है। उस ने मरना कबूल कर लिया। कुछ लोगों ने कहा कि वह फिजूल मर रहा है, वह पढ़ा-लिखा है कुछ कर के दिखा सकता है। उस की जगह वे मरने को तैयार हैं। पर पागल की जिद तो जिद है, उसे कोई जीत पाया है? फिर पढ़ा-लिखा पागल, उस ने सब को तर्क-हीन कर दिया। अब उसे मरने से कौन रोक सकता था? वह मरने चल दिया। मरने से पहले उस ने धमाका किया। बहरों के कान खुल गए। वे सुनने लगे, समझने लगे। पर उन की समझ कमजोर रह गई। उन्हों ने कौम के हत्यारों के मददगारों को तो अपने देस से जाने को मजबूर कर दिया। लेकिन हत्यारों के साथ समझौता कर लिया। अब हत्यारे सरे आम हत्या करते हैं। लेकिन किसी पागल का खून नहीं उबलता। कोई मूर्ख उत्तेजित नहीं होता, दीवानगी इतिहास की चीज हो गई। 
लोग उस की शहादत के दिन मेले लगाते हैं, उस की मूर्तियाँ तलाश कर उन्हें धोते हैं, रंगते हैं और मालाएँ चढ़ाते हैं। उन्हों ने उस मूर्ख, दीवाने और पागल को भगवान का दर्जा दे दिया है। वे सोचते हैं कि एक दिन भगवान अवतार लेगा और उन की धरती को हत्यारों से मुक्ति दिला देगा। वे भूल गए कि उन का भगवान तो खुद किसी भगवान को नहीं मानता था और न ही पुनर्जन्म को। वह जानता था कि हत्यारों से मुक्त होना है तो दीवानों की फौज खड़ी करनी होगी। हत्यारों को नष्ट करना होगा। फिर दुनिया बदलनी होगी। एक नई दुनिया बनानी होगी। जिस में कोई हत्यारा नहीं होगा, किसी को किसी का खून चूसने की आजादी नहीं होगी। लोग कहते हैं, यह उस का सपना था, और सपने भी कहीं सच होते हैं? 
ज कुछ लोग मिले, जो उसी की तरह मूर्ख थे, पागल भी और दीवाने भी। उन्हों ने भी उस की तस्वीर को माला पहनाई और कसम खा कर कहा कि वे भी उसी का जैसा सपना देखते हैं और उसे सच कर के दिखाएंगे। सपने को सच कर दिखाने के लिए कुछ भी करेंगे। अपने जीवन में उसे सच न कर सके तो ऐसे लोगों की फौज खड़ी करेंगे जिन की पीढ़ियाँ भी मूर्खों, पागलों और दीवानों की होंगी, और तब तक होती रहेंगी जब तक सपना सच नहीं हो जाता।  मुझे लगा कि अब सपने को सच होने से कोई रोक नहीं सकता। 


मंगलवार, 22 मार्च 2011

'कविता' ... औरतों का दर्जी -अम्बिकादत्त

कोई भी रचना सब से पहले स्वान्तः सुखाय ही होती है। जब तक वह किसी अन्य को सुख प्रदान न कर दे उसे समाजोपयोगी या रचनाकार के अतिरिक्त किसी भी अन्य को सुख देने वाली कहना स्वयं रचनाकार के लिए बहुत बड़ा दंभ ही होगा। इस का सीधा अर्थ यह है कि कोई भी रचना का स्वयं मूल्यांकन नहीं कर सकता। किसी रचना का मूल्यांकन उस के प्रभाव से ही निश्चित होगा। इस के लिए उस का रचना के उपभोक्ता तक पहुँचना आवश्यक है। उपभोक्ता तक पहुँचने पर वह उसे किस भांति प्रभावित करती है, यही उस के मूल्यांकन का पहला बिंदु हो सकता है। तुलसी की रामचरितमानस से कौन भारतीय होगा जो परिचित नहीं होगा। इस रचना ने पिछली चार शताब्दियों से भारतीय जन-मानस को जिस तरह प्रभावित किया है। संभवतः किसी दूसरी रचना ने नहीं। लेकिन उस का रचियता उसे स्वान्तः सुखाय रचना घोषित करता है। तुलसीदास रामचरित मानस जैसी कालजयी रचना को रच कर भी उसे स्वांतः सुखाय घोषित करते हैं, यह उन का बड़प्पन है। लेकिन कोई अन्य किसी अन्य की रचना लिए यह कहे कि वह स्वांतः सुखाय है, तो निश्चित रूप से उस रचना ने कहीं न कहीं इस टिप्पणीकार को प्रभावित किया है और यही घोषणा उस रचना के लिए एक प्रमाण-पत्र है कि वह मात्र स्वान्तः सुखाय नहीं थी।
मैंने पिछले दिनों हमारे ही अंचल के कवि अम्बिकादत्त से परिचय करवाते हुए उन की कविताएँ प्रस्तुत की थीं। आज प्रस्तुत है उन की एक और रचना। इसे प्रस्तुत करते हुए फिर दोहराना चाहूँगा कि कवि का परिचय उस की स्वयं की रचना होती है। 


औरतों का दर्जी
  • अम्बिकादत्त


झूठ नहीं कहता मैडम!
सब औरतें आप की तरह भली नहीं होतीं
दोजख से भी दुत्कार मिले मुझ को यदि मैं झूठ बोलूँ
अल्लाह किसी दुश्मन के नसीब में भी न लिखे
औरतों का दर्जी होना! अगर होना ही पड़े तो
औरतों के दर्जी के लिए अच्छा है
गूंगा या बहरा होना
क्या कोई तरकीब ईजाद हो सकती है नए जमाने में
कि अंधा हो कर भी औरतों का दर्जी हुआ जा सके
हालांकि, आवाज से किसी औरत का 'पतवाना' लेना जरा मुश्किल काम है
किसी भी वक्त बदल जाती हैं-वो
नाप लेने के सारे साधन
अक्सर ओछे और पुराने पड़ जाते हैं
लगता है, एक तिलिस्म है/मिस्र के पिरामिड, दजला फरात या 
सिंधु घाटियों में जाने जैसा है, उन्हें नापना/
जरा सा चूक जाएँ तो लौटना मुश्किल है- नस्लों तक के सुराग न मिलें

उन की आवाज में चहकते सुने हैं पंछी मैं ने
सपनों में तैरते सितारे
'लावणों' में लहराते बादल
तरह-तरह के कालरों और चुन्नटों में चमकते इन्द्रधनुष
वरेप, मुगजी, बटन, काज, हुक, बन्द, फीतों में
तड़पती देखता हूँ हजारों हजार मछलियाँ
और इन की हिदायतें ओS
इतनी हिदायतें, इतनी हिदायतें कि क्या कहूँ
कई बार तो लगता है, वे कपड़े सिलवाने आई हैं या पंख लगवाने
मेरे हाथ से गज और गिरह गिरने को होते हैं
बार बार
अरजुन के हाथ से गिरता था धनुष जैसे महाभारत से पहले
अपनी बातों ही बातों से कतरनों का ढेर लगा देती हैं
मेरी कैंची तो कभी की भोथरी साबित हो चुकी
कपड़े वक्त पर सिल कर देने का वादा, और वक्त पर न सिल पाना अक्सर
दोनों ही मेरी मजबूरियाँ हैं जिन्हें मैं ही जानता हूँ
और कोई नहीं जानता, मेरे ग्राहकों और खुदा के सिवा
आसमान की ऊँचाइयाँ कम हैं उन के लिए
समुन्दर की गहराइयाँ भी/कम हैं उन के सामने
कैसे कैसे ख्याल सजाए होती हैं, कैसे कैसे दर्द छिपाए होती हैं वे
मुझे रह रह कर याद आता है,
मेरी पुरानी ग्राहक की नई सहेली की ननद का किस्सा 
जिस की कहीं बात चल रही थी, फिर टूट गई 
उस ने जहर खाया था अनजान जगह पर 
लावारिस मिली उस की लाश को पहचाना था पुलिस ने कपड़ों से 
उस ने मेरे सिले हुए कपड़े पहन रक्खे थे, मुझे उस दिन लगा
औरतों के कफन और शादी के जोड़े क्या एक जैसे होते हैं
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को। 

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सोमवार, 21 मार्च 2011

कल की बासी खबर : श्रीमान पिट लिए नहीं आए, सम्मान समारोह कैंसल ... चंदे की ठंडाई छानी गई

ये जो होली है ना!  आती है, तो महिने भर पहले से जितनी भी सीरियस बातें होती हैं, वे सब सिर पर से रपट कर निकलने की कोशिश में रहती हैं।  पूरे महीने के अभ्यास के बाद होली के एक दो दिन पहले तक सीरियस बातों को इतना अभ्यास हो जाता है कि वे भेजे का रुख करना बंद कर देती हैं। भूले-भटके कोई सिर पर लेंड हो भी जाए तो तुरंत ही रपट कर निकल लेती है। जितनी भी जन-मन-रंजन की बातें होती हैं, उन्हें भेजे में  खेले कूदने को अच्छी खासी जगह मिल जाती है। वे चाहें तो उस पर क्रिकेट या गोल्फ भी खेल सकती हैं। किसी किसी का भेजा तो शानदार पिकनिक स्पॉट की तरह हो जाता है। वहाँ वे पूरी मौज में रहती हैं। ऐसे में कोई गंभीर विषय पर कुछ करना चाहे तो वह निश्चय ही चरम-मूर्ख कहा जाएगा। लेकिन वही व्यक्ति यदि जन-रंजन के लिए अपनी पर उतर आए तो उस की पौ-बारह हो जाती है। वह जनता के दिल में तीर की तरह घुसता है और वहीं चिपक कर रह जाता है। जो लोग साल भर बेसिर-पैर की बातों और हरकतों से लोगों को हँसाने का निष्फल प्रयास करते हैं उन की इन दिनों भारी पूछ हो जाती है। वे चैनल और अखबारों को ब्लेक मेल पर उतर आते हैं। लेकिन ये जो सीरियस बातें करने वाले लोग हैं ना, वे भी कम चालू किस्म के नहीं होते। मौसम की नजाकत को वे पूरी तरह समझते हैं और अपनी सारी सीरियसता को पोटली में बांध कर घर के किसी अंधेरे कमरे में महीने-डेढ़ महीने के लिए दफ़्न कर देते हैं।
ये सीजन होली के ठीक एक महीने पहले के पूरे चांद के दिन आरंभ हो जाता है। पहचान के लिए चौराहों पर जहाँ हो कर भारी ट्रेफिक गुजरता है बीचों बीच गड्ढ़ा खोद कर गाड़ दिया जाता है, अक्सर उस पर निशान के रूप में खजूर का बना पुराना घिसा-पिटा-गंदा झाड़ू बांध दिया जाता है। आज कल शहरों के सोफिस्टिकेट लोग उस पर झाड़ू बांधना पसंद नहीं करते, वे उस पर लाल रंग का झंड़ा बांध देते हैं। (कलयुग में जैसे होली के दिन फिरे वैसे सब के फिरें)
धर होली जलते ही लोग अपनी पर उतर आते हैं। दूसरे दिन जो सब कुछ होता है, उसे बताने से कोई लाभ नहीं है, आप सब जानते ही हैं। जानने की तो बात ही क्या, आप तो भुक्तभोगी भी हैं। यह सीजन हमारे हाड़ौती में तेरह दिन बाद न्हाण तक चलता है, मध्यप्रदेश में पाँच दिन बाद रंगपंचमी तक चलता है। पर जो लोग इस सीजन का यहीं अन्त समझ लेते हैं वे भी निरे मूर्ख हैं। जब से अंग्रेज हिन्दुस्तान में आए इस सीजन को एक अप्रेल तक का जीवन दे गए हैं। आप भी तब तक सावधान रहिएगा।
स बार हम भी रपट गए। सीरियस टाइप की बातें करते रहते तो ब्लाग पर कोई नहीं पूछता। दो चित्रों को आपस में घस्स-मस्स कर एक पहेली पूछ डाली। हमने सोचा था कि ऊपर की मंजिल सरकने के इस काल में कोई तो सही सलामत बचा होगा। पर जो लोग ब्लाग पर आए उन में से अनेक तो टिपियाये बिना ही खिसक लिए। जो पाँच-सात परसेंट लोग टिपियाए उन में से कोई भी सही सलामत नहीं निकला। सब कोई होली के मूड़ में थे। हमने ईनाम घोषित किया था। लेकिन एक भी उसे पाने को लालायित नहीं था। झक मार कर हमने ही पहेली का उत्तर बताया। पर इस बार हमने बिलकुल सीजनल वाली पहेली पूछ डाली। ऐसी कि जो देखे उसे ही उत्तर समझ में आ जाए। पर शायद यह सीजनल खतरनाक वाला ईनाम पाने से हर कोई कतरा रहा था, इधर-उधर की बातें सब करते रहे। कोई कहता मैं  ने और आप ने उस के साथ शाम का भोजन किया था। (यह भी याद नहीं रहा कि भोजन दोपहर को किया था) उस शाम का भोजन तो मैं ने अपनी बेटी के घर जा कर किया था। कोई कह रहा था -पहचान तो लिया है पर नाम नहीं बताएंगे। कोई कह रहा था -ठंडाई जरा ज्यादा हो गई है, असर खत्म होने पर बताएँगे। किसी ने कहा ये तो अपने कार्टूनिस्ट बाबू हैं। संकेत तो लोग देते रहे पर नाम बताने में सब को नानी याद आ रही थी। अब इस में डरने की बात क्या थी? ये कोई गिल्ली-डंडा का खेल तो था नहीं, जो बाद में कावड़* भरनी पड़ती। 
मारे कवि महोदय पिट-लिए उर्फ श्रीमान सतीश सक्सेना जी ही एक मात्र सीधे-सादे प्राणी निकले जो उधर ताऊ के गरही कवि सम्मेलन में सब के लट्ठ खा कर, वहाँ से किसी तरह जान बचा कर भागे थे। जल्दी में उन की अक्ल की पोटली ताऊ के घर ही छूट गई थी या फिर रास्ते में छोड़ आए थे। (रास्ते में छूटी होगी तो भी ताऊ के किसी बंदे ने ताऊ के पास पहुँचा दी होगी, इसी तरह दूसरों की अक्ल की पोटलियाँ समेट कर आज कल ताऊ अक्ल का जागीरदार बना बैठा है) उन्हों ने लौटते ही हाँफते-हाँफते पहेली पढ़ डाली, चित्र देखा,  और फट्ट से पहचान लिया, अरे! ये तो हमारे कार्टूनिस्ट बाबू हैं। आव देखा न ताव तुरंत टिपियाए "यह इरफ़ान तो नहीं"।  
ब क्य़ा था तीर कमान से निकल चुका था। टिप्पणी छप गई थी। उसे हटाते तब भी हमारे डाक डब्बे में मौजूद रहती। बहुत बाद में उन्हें समझ आया कि ईनाम के लालच में फँस गए। सोचने लगे ... अब ईनाम दिए जाने में अपनी हालत न जाने क्या की जाएगी? ताऊ के यहाँ से तो कविता सुना कर बच निकले पर यहाँ से निकलना आसान नहीं है। कहीं जान के लाले ही न पड़ जाएँ। पर अब क्या होता? चिड़िया चुग गई खेत पाछे पछताए क्या होत? अब करते भी तो क्या? फिर सोचा ईनाम लेने वाला मैं अकेला थोड़े ही हूंगा, और भी बहुतेरे होंगे। जो सब के साथ होगा, वही मेरे साथ हो जाएगा। लेकिन धुलेंडी की सुबह जब उठ कर देखा कि बंदा अकेला ही रह गया है तो बहुत घबड़ाए। श्रीमान पिट-लिए को ताऊ के घर हुआ लठियाया सम्मान याद कर के रोना आने लगा। सुबह-सुबह उन की हालत देख भाभी जी ने पूछ लिया -लट्ठ की मार तो कल की मालिश से निकल गई होगी, अब क्या हो गया? सूरत सरदारों का टाइम क्यों बजा रही है? वे क्या कहते? सीधे अनवरत की पोस्ट पर अपना कमेंट पढ़ाया।
-ओ...हो! बस इस में ही घबरा गए। तुम ईनामी समारोह में जाओ ही मत। एक तार कर दो, कि ट्रेन छूट गई है सड़क पर हुरियाए लोगों ने जाम कर रखा है। बस बात बन जाएगी। तुम अकेले ही तो हो, तुम्हारा तार मिलेगा तो आयोजकों को प्रोग्राम रद्द ही करना पड़ेगा। इस में उन का भी फायदा है। आयोजन न करने से सारा खर्चा बच जाएगा। जितना चंदा प्रोग्राम के लिए इकट्ठा किया है आयोजक का बैंक बैलेंस बढ़ाएगा। एक अप्रेल निकलने पर जब सीजन खत्म हो जाए तो आयोजकों को फोन कर के कहना -मेरे कारण आप ने बहुत रुपया कमाया है, उस में आधा हिस्सा मेरा है, सीधे-सीधे भेज दो, वर्ना अदालत में दावा कर दूंगा। पिटे-पिटाए महाशय बोले -भली मनख! दो नंबर के कामों के पैसे का हिस्सा मांगने के लिए अदालत में दावा नहीं होता। भाभी बोलीं -नहीं होता तो क्या जनता का चंदा हजम करने के लिए चार सौ बीस का इस्तगासा भी नहीं होता? कर के देखना आधा तो क्या उन्हें पौना देना पड़ेगा। नहीं तो पुलिस उन्हें भी पिटा-पिटाया बनाए बिना नहीं छोड़ेगी।
म क्या करते जैसे ही हमें पिट-लिए महाशय का तार मिला, ईनाम का कार्यक्रम कैंसल करना पड़ा। भाभी के प्लान की खबर हमें लीक हो गई, सो हमने इकट्ठा होने वालों को बोल दिया कि शाम को नहा-धो कर, रंग छुड़ा कर आ जाओ, सारे चंदे की ठंडाई छानी जाएगी। (चार सौ बीस के इस्तगासे से बचने का और कोई तरीका नजर ही नहीं आया) अब कल शाम जो-जो भी ठंडाई छान कर गया आज शाम तक नींद निकाल रहा था। हमारी भी नींद शाम को खुली है, तब जा कर यह सारा कच्चा-चिट्ठा मांडा है।

जय बोलो नीलकंठ, भोले भंडारी की!!
जय बोलो आषुतोष प्रिया विजया मैया की!!!
फिर मिलेंगे ... जल्दी ही ... 


*कावड़ भरना = गिल्ली डंडा में हारने वाला जीतने वाले को अपनी पीठ पर बैठा कर वापस खेल के स्थान पर लाता है उसे कावड़ भरना कहते हैं।

शनिवार, 19 मार्च 2011

कल कोई नहीं जीता, मौका है, आज जीत लें

जंगल में होली
मैं ने कल की पोस्ट में उस ख्यातनाम ब्लागर का नाम पूछा था, जिस के घर से मैं दो तस्वीरें उतार लाया था और आप को दोनों तस्वीरें मिला कर दिखाई थीं। तस्वीर देख कर उड़नतश्तरी वाले समीरलाल जी ने तुरंत आरोप लगाया कि "ओह! तो आप आये थे घर पर...पता चला कि तस्वीरें खींच कर ले गये हैं. :)" अब उन के घर कौन आ कर चित्र उतार कर ले गया? यह मुझे नहीं पता। कम से कम मैं तो नहीं ही गया था। वैसे भी वे तो इन दिनों कनाडा में रह रहे हैं, अपनी बिसात कहाँ कि उड़ कर वहाँ जा सकें। हमारे पास उन की तरह उड़नतश्तरी जो नहीं है।
धिकतर टिप्पणीकर्ताओं ने तस्वीरों को पाबला जी के घर की बताया जिन में डा० अमर कुमार, योगेन्द्र पाल, निर्मला कपिला और सञ्जय झा शामिल हैं। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि ये तस्वीरें पाबला जी के घर की नहीं हैं। उन के घर तो गए हमें दो बरस हो चुके हैं। इन में सञ्जय झा ने तो उत्तर में ई-स्वामी जी और रवि-रतलामी जी को भी शामिल कर लिया। इन के घर तो हम ने आज तक नहीं देखे हैं। ई-स्वामी जी का तो निवास का नगर भी हमें पता नहीं। रवि रतलामी जी के घर जाने का सौभाग्य अभी तक नहीं मिला। पिछली बार भोपाल गए थे तो वे पहले ही कहीं बाहर चले गए और हम उन के घर नहीं जा सके। Neeraj Rohilla जी ने तो पंकज सुबीर का घर बता डाला। ये ठीक है कि हम उन से मिल चुके हैं, उन का कंप्यूटर इन्स्टीट्यूट भी देख चुके हैं, लेकिन तीन दिन उन के शहर में रहने के बावजूद भी उन के घर नहीं जा सके। लेकिन ये तस्वीरें तो उन के घर क्या, उन के इंस्टीट्यूट के किसी कोने की भी नहीं हैं। 
ये किस का घर है? और यहाँ क्या हो रहा है?
तीश सक्सेना जी ने अनुमान लगाया कि ऐसा काम तो कोई सरदार ही कर सकता है। हम समझ नहीं पा रहे कि वे किस की तरफ इशारा कर रहे हैं? ये कबाड़ इकट्ठा करने वाले की तरफ या फिर चित्र खींचने वाले की तरफ। चित्र खींचने वाला तो यकीनन सरदार है। पर उन का इशारा कबाड़ इकट्ठा करने वाले की ओर हो तो वो यकीनन सरदार नहीं है। हमारे शहर के नौजवान वकील और साल में सर्वाधिक पोस्टें लिखने वाले हिन्दी ब्लागर akhtar khan akela, आए और ना समझा जा सकने वाला जुमला मार गए। पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने उन्हीं की तरफ इशारा कर दिया कि मेरे पडौसी तो वे ही हैं। खुशदीप सहगल सहगल आए और पूरे कबीराना अंदाज में लिख गए, "ये तो उसी ब्लॉगर का घर लगता है जिसका फ़लसफ़ा हो...  आई मौज फ़कीर की, दिया झोपड़ा फूंक..." अब खुशदीप का लिखा समझना खुद एक पहेली हो गया। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, सञ्जय झा और रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" इसे अपना ही घर समझ बैठे। 
राज भाटिय़ा जी तो हम पर ही चढ़ बैठे, कहने लगे -अजी यह तो हमारे वकील बाबू दिनेशराय जी का ही कमरा लग रहा हे:) हमारा ईनाम भाभी जी को दे दें। अब उन्हें कौन समझाए कि जो ईनाम देना है वह तो उन्हीं के सौजन्य से दिया जाने वाला है। अब वे खुद के लिए तो अपना सौजन्य इस्तेमाल करने से रहीं। काम की बात कही प्रवीण पाण्डेय जी ने कि, "जो भी हों, असरदार तो हैं"। निश्चित रूप से जिन ख्यातनाम ब्लागर के घर की ये तस्वीर है वे असरदार तो हैं। लेकिन सटीक और सही उत्तर कोई भी नहीं दे सका।
वाकई कलम तोड़ते हुए
प इतना भी नहीं समझ पाए। अरे! एक ही तो ख्यातनाम है, हिन्दी ब्लागजगत में जो खम ठोक कर लिखता और कहता है कि "बंदा 16 साल से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा है"। अब भी आप न समझें हो तो मै ही बता देता हूँ, यह ख्यातनाम ब्लागर खुशदीप सहगल हैं। जो बंदा 16 बरस से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा हो उस के घर का ये हाल तो होना ही था। 
क टिप्पणी ऐसी भी थी, जिस ने हमें ही पशोपेश में डाल दिया। रचना कह रही थी, " invasion of privacy पर कौन सी धारा लग सकती है? कल से समीर ई-मेलकर कर के पूछ रहे हैं, दिनेश जी क्या करूँ?" अब ऐसे प्रश्न हम से तीसरा खंबा कानूनी सवाल पूछने के लिए आते हैं।  लेकिन यदि समीर जी को ही पूछना होता तो मुझ से पूछ सकते थे। वैसे इशारे में तो उन्हों ने कह ही दिया था। कुछ भी कहो समीर जी ने ये सवाल बार-बार रचना से पूछ कर जो उन्हें हलकान किया उस पर कुछ धाराएँ अवश्य लग सकती हैं। पर आज दिन में एक पुलिस वाला बता रहा था कि वे सभी धाराएँ सरकार ने होली का डांडा गाड़ दिए जाने के बाद से होली के बारहवें दिन तक के लिए सस्पेंड कर दी गई हैं। अब मैं रचना जी को बताऊँ तो क्या बताऊँ? समीर जी उन्हें सवाल पूछ कर होली की तेरहीं होने तक हलकान तो कर ही सकते हैं। वैसे भी इस एक माह बारह दिन की अवधि में सभी को अपनी निजता की सुरक्षा के लिए चैतन्य रहना चाहिए। क्यों कि सरकार और उस की पुलिस तो कुछ करने से रही। रात में ही नहीं दिन में भी हर आधे घंटे बाद तीस बार "जागते रहो" का नारा बुलंद करते रहना ही इस समस्या का तात्कालिक इलाज है। फिर निजता की सुरक्षा में कुछ सेंध लग भी जाए तो चिंता की बात कुछ नहीं इस से व्यक्ति सेलेब्रिटी हो जाता है। क्यों कि उन की निजता में सेंध लगते ही खबर पैदा होती है और कोई मुकदमा नहीं होता। बहुत सारे तो सेलेब्रिटी कहलाने के लिए अपनी निजता में सेंध लगवाने के लिए ठेके तक देते हैं। 
कौन है यह ब्लागर?
वैसे किसी की निजता में सैंध लगा कर हम ने अब तक कोई एक नहीं, बहुत से लिए हैं। एक चित्र यहाँ पेश है, आप बता सकते हों, तो बताएँ ये किस ब्लागर का चित्र है? चूँकि आज कोई ईनाम का हकदार नहीं है इसलिए कल वाला ईनाम बरकार है, यानी वही कि सही सही बताने वालों का धुलेंडी की सुबह नौ बजे खतरनाक वाला सम्मान किया जाएगा। सब से पहले सही जवाब देने वाले को उस दिन का सब से बड़ा सरदार ब्लागीर घोषित किया जाएगा। ईनाम आज जीता जा सकता है।  

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

पूरा एक सप्ताह गुजर चुका है, इस ब्लाग पर एक शब्द भी नहीं लिख सका हूँ। हुआ यूँ कि पिछले शुक्रवार को एक विवाह में जाना हुआ। शनिवार को लौटा तो थका हुआ था। रविवार को इस सप्ताह में होने वाला अदालत का काम देखा, तो लगा कि कैसे इतना सब कर पाऊंगा? तुरंत काम में लगना पड़ा। इसी सप्ताहान्त में होली का त्यौहार आ रहा है। बेटा तो इस होली पर नहीं आ पाएगा, लेकिन बिटिया आ रही है। उस की आवश्यकताएँ पूछी गईं। उस के बाद पत्नी जी को भी तुरंत काम में लग जाना पड़ा। उन्हें बाजार से अपनी तैयारियों के लिए बहुत कुछ लाना था, सो कल और आज की शाम खरीददारी में उन के साथ जाना पड़ा। वापस लौटीं तो कहने लगी, दो दिन बहुत समय खराब हो गया। इस से अच्छा तो यह था कि मैं ऑटोरिक्शा से चली जाती। कम से कम आप का ऑफिस का समय तो खराब न होता। 
ल अदालत में काम कम है। कुछ फुरसत मिली है, तो टिपियाने बैठ गया हूँ। पिछले सप्ताह एक लंबी कहानी आरंभ की थी। दो किस्तें लिखीं और प्रकाशित भी कर दीं, लेकिन आगे ब्रेक लग गया।  विवाह में जाने ने सब क्रम तोड़ दिया। अब होली के पहले उस क्रम को आरंभ कर पाना संभव नहीं। इधर हिन्दी ब्लागजगत में होली आरंभ हो चुकी है। लोग फगुनाए मूड में हैं। मैं ने भी सोचा, देखा जाए ब्लागरों के घरों का क्या हाल है? तो चल दिया। एक ख्यात नाम ब्लागीर के घर पहुँचा, वे तो काम पर गए हुए थे। भाभी जी से मुलाकात हुई। हमने पूछा भाई साहब के क्या हाल हैं? 
भाभी बताने लगीं, मैं क्या बताऊँ? आप खुद ही देख लीजिए। वे मुझे एक कमरे में ले गईं। वहाँ देखा तो बहुत बुरा हाल था, पूरा कमरा कबाड़ से अटा पड़ा था। मैं हैरान रह गया। आखिर कोई कैसे अपने घर का ऐसा हाल बना कर रख सकता है। मैं ने जल्दी से अपने मोबाइल से दो चित्र लिए और कमरे से बाहर निकल आया। अब आप ही देख लिजिए कोई अपने घर का ऐसा हाल बना सकता है भला? अब आप इस चित्र को देख कर खुद ही समझ जाएंगे कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? समझ गए हों, तो झट से टिपियाइये और बता दीजिए कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? सही सही बताने वालों का धुलेंडी की सुबह नौ बजे खतरनाक वाला सम्मान किया जाएगा। सब से पहले सही जवाब देने वाले को उस दिन का सब से बड़ा सरदार ब्लागीर घोषित किया जाएगा। 


बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

गुरुवार, 10 मार्च 2011

यात्रारंभ : बिन्दु और वृत्त

पिछले अंक रूप बदलती आकृतियाँ  से आगे  .....
कृतियों के बनने का आरंभ हमेशा की तरह इस बार भी एक बिंदु से हुआ था, पहले की तरह उस में से कोई रेखा बाहर की ओर नहीं निकली थी। इस बार वह बिंदु ही एक गुब्बारे की तरह फूलने लगा था। वह एक वृत्त में तब्दील हो गया था। वृत्त के भीतर खाली स्थान था, जो शनै-शनै वृत्त की परिधि के साथ-साथ बढ़ता जाता था। अचानक वह प्रस्थान बिंदु उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण लगने लगा था। वह सोचने लगा कि जीवन में हर चीज एक बिंदु से ही तो आरंभ होती है। उस ने जब पहली बार ईंट के टुकड़े से लिखने का प्रयास किया था तब भी सब से पहले बिंदु ही तो बना था और उसी से वह आड़ी-तिरछी रेखा फूट पड़ी थी जिस से उस ने बाद में अक्षर बनाए थे, अक्षरों से शब्द और शब्दों से वाक्य। अब तो वह उस बिंदु से आरंभ कर के कुछ भी सिरज सकता था, कोई संदेश, मन की बात या फिर कोई ऐसी चीज जो किसी के दिल में तीर सी जा कर लगे। वह उसी से फूलों का रूप और गंध पैदा कर सकता था और किसी चिट्ठी के माध्यम से अपने किसी प्रिय तक पहुँचा सकता था। वह बिंदु से ऐसी चीज भी पैदा कर सकता था, जिस से लोग चिढ़ने लगते। वह उसी बिंदु से रेखाएँ उपजा कर किसी और के सिरजे को ढक भी सकता था। वह बिन्दु से पहिया भी बना सकता था जिस पर दुनिया घूमी जा सकती थी। वह पत्थर का ढेला भी सिरज सकता था, जो पहिए की ओट बन कर उसे रोक ले, गिरा दे। ओट में उस की कोई रुचि नहीं थी। उस से पहिए की गति रुक जाती है। गतिशील दुनिया थम जाती है। एक थमी हुई दुनिया भी कोई दुनिया है। गति उसे पसंद थी। उसे लगा कि गति ही जीवन है। गति समाप्त हो जाए तो सब कुछ रुक जाएगा। गति ही तो समय है, वह समाप्त हो गई तो समय का क्या होगा? क्या वह भी समाप्त हो जाएगा? समय समाप्त हुआ तो क्या शेष  रहेगा? सिर्फ ढेला, या  फिर सिर्फ बिंदु?
सोच में व्यक्ति अंतर्मुखी होने लगता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों से रूबरू होता रहता है। नवीन का संज्ञान, उस के बस का नहीं रहता। ऐसा लगता है, जैसे वह किसी महासागर के तल में पहुँच गया है, जहाँ एक नई दुनिया है। जब कि वाकई वह नई नहीं होती। वह केवल उस के पूर्व अनुभवों के मेल से निर्मित कोई चीज होती है, जिसे वह नया समझ बैठता है। सोच ने उस का ध्यान बंटा दिया था। उस की यात्रा बिन्दु से आरंभ हो कर वृत्त पर आ कर रुक गई थी। उसे बिंदु याद आ रहा था। वही सब से ताजा प्रस्थान बिंदु। उस ने अपने सोच की यात्रा को ढेला लगा दिया। परिधि की ओर से ध्यान हटा, उस ने वृत्त के केंद्र पर देखा, वहाँ एक और बिंदु विराजमान था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह वही प्रस्थान बिंदु था या कोई और। तभी परिधि ने अपनी गोलाई को त्याग दिया। वह हिल-डुल रही थी। उसे देख उसे अमीबा याद आया। जिसे पहले पहल उस ने बायो-लैब में बनाई एक स्लाइड को माइक्रोस्कोप पर लगा कर देखा था। वह भी ऐसे ही हिलता-डुलता था, हर समय अपनी आकृति बदलता रहता था। उसे ड्रॉ करना सब से मुश्किल काम था। ऐसी आकृति को कैसे उकेरा जा सकता था जो कभी स्थिर होती ही न हो? फिर जब उस ने उसे ड्रॉ करने की कोशिश की तो उसे वह बहुत आसान लगा था। एक बिंदु से आरंभ करो और कैसे भी आड़े-तिरछे पेंसिल घुमाते हुए वापस बिंदु पर ले जा कर छोड़ दो। बस तैयार हो गई अमीबा की बाह्याकृति। 
ब तक वृत्त के भीतर वाला बिंदु भी विस्तार पा चुका था। पर इस बार उस के भीतर खाली स्थान न था, कुछ भरा था।  उस ने देखा, यह तो वैसी ही आकृति है जैसी उस ने पहली बार अमीबा को ड्रॉ कर के बनाई थी। उसे अपनी बायो-साइंस की पढ़ाई स्मरण आने लगी। अमीबा तो सब से सरल जीव था, एक कोषीय। शायद यही गतिमय जीवन का प्रस्थान बिंदु भी था। क्या अजीब बात थी? एक बिंदु, उस से वृत्त। वृत्त में  फिर एक बिंदु, विस्तार पाता हुआ। उस से बना एक अमीबा, जो फिर एक प्रस्थान बिंदु है। इस के आगे? उसे पढ़ी हुई बायो-साइंस याद आने लगी। बहुकोषिय सरल जंतु, पाइप जैसे। आगे, कुछ बड़े और जटिल भी। कुछ पानी में रहने वाले, कुछ गीली जमीन में और कुछ सूखी जमीन पर रहने वाले, कुछ हवा में उड़ने वाले जन्तु। रीढ़ वाले और बिना रीढ़ वाले जंतु। विविध जंतुओं की विशाल श्रंखला। इतनी विशाल कि मनुष्य उन्हें सूचीबद्ध करने लगे तो सूची हमेशा अनन्तिम ही बनी रहे। विशाल, विस्तृत, विविध दुनिया। ज्ञात और अज्ञात, अनन्त विश्व। फिर एक सवाल उस के जेहन में उमड़ पड़ा, कहाँ से आया यह सब? क्या एक बिन्दु मात्र से?
स विचार से उसे हँसी आने लगी। क्या मजाक है? एक बिन्दु से यह सब कुछ कैसे उपज सकता है? पर उस का अनुभव और तर्क तो यही इशारा करते हैं, कि यह सब, सब का सब, एक बिन्दु से ही उपजा है। अब उसे आश्चर्य हो रहा था। एक बिन्दु से सब का सब उपज गया। उसे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा कि ऐसा हो सकता है। बल्कि ऐसा ही हुआ होगा। निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ है। बिन्दु में गति, गति से समय, बिन्दु से आकृतियाँ, बिन्दु से वृत्त, बिन्दु से ही स्थान, बिन्दु से दुनिया, बिन्दु से विश्व, अखिल विश्व। तभी अचानक अमीबा सिमटने लगा। शनै-शनै सब कुछ सिमट गया। रह गया एक बिंदु। फिर वह भी गायब हो गया। अब कुछ नहीं था। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।  उसे अपने काम का अहसास हुआ। कितना बड़ा काम मिला है उसे। उस ने उसे समय सीमा में सफलता पूर्वक कर दिया तो वह एक नए प्रस्थान बिंदु पर खड़ा होगा। वह किस सोच में पड़ा है? उसे काम तुरंत आरंभ करना चाहिए। समय बहुत कीमती है, कम से कम इस नए प्रस्थान बिंदु पर जिस की मंजिल पर पहुँच कर वह एक नई दुनिया में होगा, एक नए प्रस्थान बिंदु पर, एक नई यात्रा आरंभ करने को तैयार। उसे मार्ग मिल गया था। एक बिंदु से सारी दुनिया, अखिल विश्व सिरजा जा सकता है तो वह इस काम को तयशुदा समय में नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। वह करेगा, और तयशुदा समय से कम समय में कर सकता है। वह उठा, और काम में जुट गया । उस की यात्रा आरंभ हो चुकी थी।
...... क्रमश: जारी

बुधवार, 9 मार्च 2011

रूप बदलती आकृतियाँ

गातार रूप बदलती उन आकृतियों ने उसे बहुत परेशान कर रखा था। जब भी उस ने दिमाग को जरा भी फुरसत होती, वे सामने आने लगतीं। वे लगातार गतिमय रहती थीं और रूप बदलती रहती थीं। शुरु शुरू में उसे सिर्फ एक बिंदु दिखाई दिया था। जल्दी ही उस से एक रेखा निकल पड़ी और घूम कर वापस उसी बिंदु पर आ मिली। वह एक गोला था, पर वह गोला जैसा भी नहीं था। यूँ कहा जा सकता था कि वह किसी इंसान के पैर के अंगूठे जैसा दिखाई देता था। वह कुछ सोच पाता उस के पहले ही वह छोटा होना शुरु हो गया। लगता था जैसे वह अंगूठे के पास की उंगली हो गया हो, फिर उस के पास की उंगली, फिर उस के पास की उंगली, फिर पैर की सब से छोटी उंगली जैसा। फिर उस के जेहन में कोई और बात आ गई, सारी आकृतियाँ गायब हो गईं। कई दिन तक वे फिर नहीं दिखीं। हफ्ता भर ही निकला होगा, वह अपने दफ्तर में बैठा हुआ किसी समस्या के हल के बारे में कुछ सोच रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वे आकृतियाँ दिखना फिर आरंभ हो गयी। इस बार बिंदु सीधे एक पैर की शक्ल जैसी आकृति में बदल गया था जो जल्दी-जल्दी उलटा-सीधा होता रहा। कभी लगता वह दायाँ पैर है ते कभी लगता वह बायाँ पैर है। वह उस आकृति के बारे में कुछ अधिक सोच पाता, उसे अपनी समस्या के हल का मार्ग सूझ पड़ा और वह गतिमय आकृति अचानक लुप्त हो गई, जैसे वह कोई सपना देख रहा  था और पूरा होने के पहले ही नींद टूट गई हो।
ह व्यस्त हो गया। रोज काम के बाद इतना थक जाता कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाती। सुबह उठता तो महसूस होता कि अभी अभी सोया था और जाग पड़ा है, कुछ ही क्षणों में पूरी रात बीत गई। इस व्यस्तता के बीच उसे वे रूप बदलती आकृतियाँ दिखाई नहीं दीं, वह भी उन्हें भूल गया। लेकिन जैसे ही उसे कुछ फुरसत हुई वे फिर से टपक पड़ीं। इस बार भी वे एक बिंदु से आरंभ होती थीं, लेकिन इस बार बनी आकृतियों का पैरों से कोई सामंजस्य न था। अब उसे लगता कि ये आकृतियाँ पैरों के बजाय हाथों की उंगलियों के पौर बना रही हैं, फिर शनै शनै एक हाथ के पंजे में तब्दील हो रही हैं। हाथ के पंजे उसी तरह उलट-पलट हो रहे हैं कि कभी दायें हाथ का, तो कभी बाएँ हाथ का अहसास होता है। हर बार कुछ दिनों के अंतराल से ये आकृतियाँ दिखाई देतीं। धीरे-धीरे उसे मानव शरीर के सभी अंग उन बदलती हुई आकृतियों में दिखाई देने लगे। चेहरा भी बना पर यह पहचान पाना कठिन था कि वह चेहरा किसी स्त्री की तरह लगता था अथवा किसी पुरुष की तरह। वह परेशान हो गया, सोचने लगा कि यदि वह चेहरा किसी पुरुष  का होता तो उस पर दाढ़ी मूँछ अवश्य होते। लेकिन अब तक जितनी भी आकृतियाँ उसे दिखाई दी थीं, उन में केश या रोमों का नामो-निशाँ तक न था। उस ने ऐसे पुरुष भी देखे  थे जिन्हें  बार बार रेजर फेरते भी ता-उम्र दाढ़ी-मूँछ नसीब न हुई थी। कहीं यह आकृतियाँ किसी ऐसे ही पुरुष की ओर तो इशारा नहीं कर रही थीं? उस के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। फिर वे आकृतियाँ छिन भर को भी स्थिर नहीं रहती थीं, दिखाई देतीं, लगातार बदलती रहतीं और फिर गायब हो जातीं। कभी वह सोचता कि  काश वह चित्रकार होता, तो कितना अच्छा होता। वह इन आकृतियों को किसी कागज पर चित्रित करने का प्रयत्न करता। 
न आकृतियों में उसे गले के नीचे, और घुटनों के ऊपर के हिस्से का अहसास आज तक नहीं हो सका था। उन में से कुछ भी यदि दिखाई दिया होता, तो वह अनुमान कर सकता था कि ये आकृतियाँ उसे क्या दिखाना चाहती हैं? वह सोचता था कि आकृतियाँ एक स्त्री से संबंधित होना चाहिए। यदि वे आकृतियाँ किसी पुरुष  से संबंधित होतीं तो अभी तक उस के पुरुष होने की पहचान उजागर हो गई होती। पर फिर वह यह भी सोचता कि वह स्वयं एक पुरुष है, और एक नैसर्गिक आकर्षण के तहत एक स्त्री के बारे में सोच रहा है। पुरुषों को तो स्वप्न में भी स्त्रियाँ ही दिखाई पड़ती हैं। शायद इस कारण भी कि वे उसे प्रिय हैं। जब कभी उस के स्वप्न में पुरुष दिखाई दिया भी तो एक प्रतिस्पर्धी के रूप में, बल्कि एक प्रतिद्वंदी के रूप में। इसी लिए उसे हमेशा किसी भी तरीके की आकृतियों में स्त्रियाँ ही पहले दिखाई देती हैं। चाहे वे बाद में पुरुष ही क्यों न निकलें। उस ने अपने सिर को झटक दिया। वह क्या सोचने लगा? ऐसा क्या है स्त्री में जो हमेशा ही उस के जेहन पर कब्जा जमाए बैठी रहती है? वह फिर इन आकृतियों में स्त्री की कल्पना करने लगा। लेकिन अंत में ये भी कहीं किसी पुरुष से संबंधित ही निकलीं तो। उस का सोचना सब बेकार ही चला जाएगा। इस वक्त वह चाहने लगा था कि उसे वे आकृतियाँ फिर से दिखाई देने लगें।  वह उन में खोजने का प्रयत्न करेगा कि वे किसी पुरुष से संबंधित हैं या स्त्री से?  कुछ  देर के लिए उस ने अपनी आँखें बंद कर लीं और देखने का प्रयत्न करने लगा कि शायद वे आकृतियाँ उसे दिखने लगें। बचपन में उस के साथ ऐसा ही होता था। वह कोई खूबसूरत हसीन सपने में खोया होता, सपने का क्लाईमेक्स चल रहा होता कि कभी माँ या बहिन या कोई और उसे जगा देता। उसे बहुत झुँझलाहट होती। आखिर उस ने इन लोगों का क्या बिगाड़ा था जो सपना भी पूरा नहीं देखने दिया। तब उसे गुस्सा आने लगता, जब उसे जगा कर पूछा जाता कि क्या उसे चाय पीनी है? अब यह भी कोई बात हुई कि किसी को जगा कर पूछा जाए कि उसे चाय पीनी है। उस की तो नींद फोकट में खराब हो गई। सपना गया, सो अलग। वह गुस्से में चाय के लिए मना कर देता, नहीं पीनी उसे चाय। चादर तान कर फिर से सोने की कोशिश करता। इस कोशिश में कि उसे फिर से नींद लग जाए और टूटा हुआ सपना फिर से दिखाई देने लगे, उसे पता लग सके कि क्लाइमेक्स के बाद क्या हुआ?
स ने बहुत बार ऐसा किया। फिर से उसी सपने में लौटने की कोशिश की। लेकिन ज्यादातर वह सफल नहीं हुआ। अक्सर ही टूटी हुई नींद फिर से नहीं जुड़ती।  वह कुछ मिनट कोशिश करने के बाद उठ बैठता और माँ या बहिन को जोर से चिल्ला कर कहता। अब जगा दिया है, उसे नींद नहीं लग रही है लेकिन आलस भगाने को चाय चाहिए। पहले तो माँ या बहिन लड़ने लगती कि अब फिर से उस की चाय के लिए पतीली चढ़ाई जाए। पहले ही क्यों न बता दिया? लेकिन बाद में वे उस की आदत को समझने लगीं और उस के दुबारा सोने का प्रयत्न करने के समय कुछ देर इंतजार करतीं और जब वह पाँच-सात मिनट में चाय की मांग करने लगता तो पतीली चढ़ातीं। अब वे चाय चढ़ाने के समय के पंद्रह मिनट पहले ही उसे जगाने लगीं। कभी कभी नींद वापस लग भी जाती, लेकिन कोई सपना नहीं आता। कभी सपना आता तो वह कोई और ही सपना होता, वह नहीं, जिसे देखने के लिए वह फिर से नींद के आगोश में कूद पड़ा था। कभी वही सपना भी फिर से दिखाई देने लगता जिस के क्लाईमेक्स के बाद की कहानी जानने के लिए वह चादर फिर से तान लेता था। ऐसे में क्लाईमेक्स के बाद की कहानी हू-ब-हू वैसी ही होती जैसी वह सोचता जाता। कहानी पूरी हो जाती और वह उठ बैठता। फिर सोचने लगता कि उस की नींद दुबारा लगी भी थी या नहीं। या फिर वह जैसा सोचता था वैसा ही उसे दिखता जाता था। वह फिर वही कोशिश दुहरा रहा था। चाह रहा था कि वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखने लगें और उन का संबंध किसी स्त्री से ही हो। एक खूबसूरत सी स्त्री, जो उस की सारी आकांक्षाएँ पूरी कर सके। उस की कोशिश कामयाब न होनी थी और न हुई। कोशिश करने पर भी उसे वे आकृतियाँ नहीं दिखाई दीं। उस ने कोशिश छोड़ी नहीं, बार-बार करता रहा। कई दिनों, सप्ताहों और महिनों तक। लेकिन वे आकृतियाँ उसे दिखाई नहीं दीं। उस ने एक दिन सोचा, चलो उन से पीछा छूटा। उस ने उन के बारे में सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर धीरे-धीरे उन्हें भूल गया, जैसे उसे वे उसे कभी दिखाई दी ही नहीं थीं। वह अपने काम में जुट गया। अब तो फुरसत होने पर भी उसे वे दिखाई नहीं देतीं थीं। 
फिर एक दिन, जब उसे अपने जीवन का अब तक का सब से बड़ा और मुश्किल लगने वाला काम करना था। वह एक प्रोफेशनल था। उसे जो काम मिला था वह बहुत महत्वपूर्ण था, जिसे उसे एक निश्चित समय  पर पूरा कर के देना था। उस का कैरियर उस पर निर्भर करता था। यदि वह उस काम को निश्चित समय पर सफलता पूर्वक न कर सका तो उस का वर्तमान दाँव पर लग जाता, और कर लेता तो उसे उन ऊँचाइयों पर पहुँचा देता जिस की वह बरसों से सिर्फ कल्पना करता आ रहा था। वह उस काम को आरंभ करने की जुगत ही नहीं बैठा पा रहा था, कि उसे कहाँ से शुरु करे? ..... वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखाई देने लगीं। वह काम को भूल गया। आकृतियों में तलाशने लगा कि आखिर उन आकृतियों में स्त्री है या पुरुष।