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सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

दिनकर जी के परिवार के साथ न्याय कैसे हो?

दो दिनों से व्यस्तता रही। शनिवार को मकान की छत का कंक्रीट डलता रहा, वहाँ दो बार देखने जाना पड़ा। रविवार सुबह एक वैवाहिक समारोह में और दोपहर बाद एक साहित्यिक स्मृति और सम्मान समारोह में बीता। रात नौ बजे ही घर पहुँच सका। घर पहुँच कर खबरें देखीं तो एक खबर यह भी मिली कि पटना में दिनकर जी की  वृद्ध पुत्र-वधु हेमन्त देवी का किराएदार लीज अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी दुकान खाली नहीं कर रहा है और उपमुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने के कारण वह उन्हें धमकियाँ दे रहा है। 
ह समाचार भारतवर्ष की कानून और व्यवस्था की दुर्दशा की कहानी कहता है। हेमन्त देवी का कहना है कि वे मुख्यमंत्री तक से मिल चुकी हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। मुख्यमंत्री क्या करें? वे एक व्यक्ति, जो कानूनी रूप से किसी संपत्ति के कब्जे में आया था, जिस का कब्जा अब लीज अवधि समाप्त होने के बाद  अवैध हो गया है और जो अतिक्रमी हो गया है, से मकान कैसे खाली करवा सकते हैं? यह मामला तो अदालत का है। महेश मोदी यदि दुकान खाली नहीं करता है और अगर यह मामला किराएदारी अधिनियम की जद में आता है तो उस के अंतर्गत मकान खाली करने का दावा करना पड़ेगा, और अगर लीज से संबंधित कानून के अंतर्गत यह मामला आता है तो कब्जे के लिए दावा करना पड़ेगा। हमारे अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारें इस काम में बरसों से लापरवाही कर रही हैं। पूरे देश में जरूरत की केवल 20 प्रतिशत अदालतें हैं जिस के कारण एक मुकदमा एक-दो वर्ष के स्थान पर 20-20 वर्ष तक भी निर्णीत नहीं होता। जो कानून और अदालतें सब के लिए हैं, वे ही दिनकर जी के परिजनों के लिए भी हैं। इस कारण उन्हें भी इतना ही समय लगेगा। सरकार या कोई और ऐजेंसी इस मामले में कोई दखलंदाजी करती है या ऐसा करने का अंदेशा हो तो महेश मोदी खुद न्यायालय के समक्ष जा कर यह व्यादेश ला सकता है कि दुकान पर उस का कब्जा सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से न हटाए।
क मार्ग यह दिखाई देता है कि इस मामले में राज्य सरकार कोई अध्यादेश जारी करे, या फिर कानून बनाए जो संभव नहीं। एक मार्ग यह भी दिखाई देता है कि यदि राज्य में वरिष्ठ नागरिकों को उन के मकान का कब्जा दिलाने मामले में कोई विशिष्ठ कानून हो तो उस के अंतर्गत तीव्रता से अदालती कार्यवाही हो, अथवा अदालत हेमंत देवी को वरिष्ठ नागरिक मान कर त्वरित गति से मामले में फैसला सुनाए और यही त्वरण अपीलीय अदालतों में भी बना रहे। तब यह प्रश्न भी उठेगा कि हेमंत देवी के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह देश के सभी नागरिकों के लिए क्यों न किया जाए? वस्तुतः पिछले तीस वर्षों में जो भी केंद्र और राज्य सरकारें शासन में रहीं, उन्हों ने न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हों ने उसे अपना कर्तव्य ही नहीं समझा।
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बहुत बदली हैं। इस अतिविलंबित न्याय व्यवस्था ने समाज के ढाँचे को बदला है। अब हर अवैध काम करने वाला व्यक्ति धमकी भरे स्वरों में कहता है तु्म्हें जो करना हो कर लो। वह जानता है कि अदालत में जूतियाँ घिस जाती हैं बीसियों साल तक अंजाम नहीं मिलता। जिस के पास लाठी है वही भैंस हाँक ले जा रहा है, भैंस का मालिक अदालत में जूतियाँ तोड़ रहा है। ये पाँच-पाँच बरसों के शासक, इन की दृष्टि संभवतः इस अवधि से परे नहीं देख पाती। यह निकटदृष्टि राजनीति लगातार लोगों में शासन सत्ता के प्रति नित नए आक्रोश को जन्म देती है और परवान चढ़ाती है। पाँच बरस के राजा नहीं जानते कि  यह आक्रोश विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता।

17 टिप्‍पणियां:

  1. न्याय में विलंब होने का लाभ दुष्ट उठा रहे हैं।

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  2. कोई त्वरित प्रयास इस दिशा में करना होगा वर्ना विलम्बित न्याय का लाभ अवसरवादी उठाते रहेंगे.

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  3. ओह यह तो हर ओर से निराशा है ..

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  4. द्विवेदी सर के एक-एक शब्द से सहमत...

    दिनकर जी के जिस घर को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया जाना चाहिए वहां राजनीति कब्जे के लिए रास्ता निकाल
    रही है...

    जय हिंद...

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  5. त्रासद स्थिती है । यही कह सकते हैं शर्मनाक। आभार।

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  6. अदालत के चक्कर लगाते जूतियां घिस जाती हैं। मुकदमों पर निर्णय होने में विलंब न्यायाधीशों के तबादलों से भी होता है।

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  7. @ ललित शर्मा
    आप की बात सही है, न्यायाधीशों के तबादलों से भी देरी होती है। लेकिन अदालतों का अभाव इतनी बड़ी चीज है कि उस में तबादलों से बड़ा फर्क नहीं पड़ता। जितनी अदालते हैं उस की दस प्रतिशत जजों की कमी से खाली पड़ी रहती हैं। इसी कारण तबादले भी जल्दी करने पड़ते हैं। एक अदालत को साल दो साल से अधिक खाली तो रखा नहीं जा सकता। उस में न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है तो दूसरी अदालत खाली हो जाती है।
    बुरा न मानें, यदि हम बड़ी समस्या की बात कर रहे हों तो छोटी समस्या का स्मरण कराना बड़ी समस्या से ध्यान हटाने का काम करता है।

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  8. बदकिस्मती हमारे देश की ...हम सब जानते हैं कि गलत हो रहा है फिर भी होता रहता है :-(

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  9. बेहद शर्मनाक है. आपसे पूरी सहमति.

    रामराम.

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  10. न्याय व्यवस्था की इन खामियों का कोई तात्कालिक समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आता.

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  11. अफसोसजनक .
    "might is right" आख़िर कब तक चलेगा ?

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  12. यह आक्रोश, विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता....

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  13. अभी खबर पढ़ी तो पता चला ठीक इसी मोहल्ले में मेरे दोस्त का घर है. जा चूका हूँ इस जगह पर. आशा है मीडिया में खबर आ गयी तो कुछ होगा.

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  14. समझ मे नही आता लोग दुसरो का दिल दुखा कर दुसरो का हक मार कर केसे खुश रह पाते हे.

    दिनेश जी लगता हे अब आप का मकान आधे से ज्यादा बन गया हे, बस अब अंदर ओर बाहर सीमेंटे होना, ओर फ़िर खिडकी दरवाजे ओर फ़र्श रह गया, अब कुछ दिन तो लगेगे छत पक्की होने मे.

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  15. द्विवेदी साहब, आम तौर पर एक जज कितने निर्णय देते हैं एक साल में... यह जानकारी के लिये...
    न्याय में देरी भी एक तरह का अन्याय ही है, कारण कुछ भी हों....
    आम आदमी थोड़े ही न भर्ती करेगा जजों की...

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  16. अलग-अलग प्रकरणों के माध्‍यम से आप यह समस्‍या लगातार रेखांकित करते चले आ रहे हैं। अब तो पढ्ने से पहले ही लगने लगता है कि आप न्‍यायालयों और न्‍यायाधीशों की कमी का उल्‍लेख करनेवाले हैं।

    इसके समुचित समाधान के लिए सरकार को कैसे विवश किया जाए - अब तो इस दिशा में बात की जानी चाहिए। वकीलों के संगठन ही इस दिशा में प्रभावी कार्रवाई कर सकते हैं क्‍योंकि पक्षकार तो असंगठित हैं।

    सम्‍भव है, मेरे विचार में 'कच्‍चापन' हो किन्‍तु यदि समस्‍या का साधान स्‍पष्‍ट और सुनिश्चित है तो समाधान के लिए ही प्रयास करना बुध्दिमानी होगी।

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....