यादवचंद्र पाण्डेय |
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का तृतीय भाग यहाँ प्रस्तुत है, मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *
सत्रहवाँ सर्ग
मुक्ति पर्व
भाग तृतीय
......
और यह कविता ---
वेश्या है !
वेश्या है !
विद्यापति - केशव - भूषण
बैरन - कीटस् - पोप
कौन नहीं था वहाँ ....
उस के साथ उन के
क्या रिश्ते थे ?
बहुत तो पीते भी थे
उमर खैयाम
जिसे जामे शराब में
अल्ला का
दीदार हो जाता था
लेकिन मेरी जहालत
उसे नहीं दिखाई देती थी
और,
जब मैं
अपने जिस्म के
फोड़ों के दर्द से
चीख उठत
तो यह कविता
मुझे मूर्ख कहती थी
मुझे चुप रहने का
आदेश कराती थी
आत्मतोष का
प्रवचन सुनवाती थी
तब मेरे फोड़ों पर
दो - चार हंटर
और पड़ जाते
और मेरे घाव ...
मुक्ति पुरुष !
आज तुम ने
मुझे छेड़ा है
मेरे फफोलों को
खुरचा है,
मैं आज तक
सच नहीं बोला था
(बोला ही नहीं था)
लेकिन
आज सुन लो
सच कहता हूँ -
जी में आया
कि इन शास्त्रों में
आग लगा दूँ
और जेलर के
उन भड़ैतों को
और इस वेश्या को
उठा कर
उसी में फेंक दूँ
लेकिन .......
इस वेश्या को
अपना पाठ पढ़ा कर
(साहित्य पढ़ा कर)
हर बार जेलर
मेरे पास भेजता था
मेरी पीठ पर
संगीन टिकी होती थी
यह चुड़ैल
घण्टों बक - झक करती
और मैं
जेल के
खेत गोड़ता
या बिक्री के
जूते सीता
चुप - चाप सुना करता था
यह राक्षसी
मेरे दर्द
मेरी खैरियत
और मेरी मुक्ति के सिवा
हर बात करती थी
और फिर
जेलर के
लोगों के साथ
फरनासस--
या, कहाँ जाती थी
क्या करती थी,
हम में से
किसी को नहीं मालूम
एक दिन
कह रही थी
कि मेरी
हर बात याद कर लो
तुम्हें भी
मेरी तरह
सब मौज आराम
नसीब हो जाएगा
जानते हो
सेल नम्बर - 6 की
उस लड़की को ?
नगमा नाम है उस का--
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने
उस चुड़ैल के मुहँ पर
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर
फिर सेल में
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में
लिख दिया--गद्दार !
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !
आनन्दित कर दिया श्रीमन!
जवाब देंहटाएंदर्द बेबसी ओर दुख को दरशाती है यह कविता, आप का ओर यादवचंद्र पाण्डेय जी का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत जबरदस्त कविता पढ़वाई आपने..झकझोर दिया.
जवाब देंहटाएंसमीर लाल जी से सहमत
जवाब देंहटाएंउभरता विद्रूप
जवाब देंहटाएंपंक्तियों में झलकती आग मन के उबाल की।
जवाब देंहटाएंगहनतम दर्द महसूस कराती रचना, आभार.
जवाब देंहटाएंरामराम
अद्भुत है , इसे एक प्रवाह में पढ़ना अच्छा लगता ।
जवाब देंहटाएं