पेज

गुरुवार, 24 जून 2010

'काला शुक्ल पक्ष' यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का दशम् सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के नौ सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का दशम् सर्ग ' काला शुक्ल पक्ष' प्रस्तुत है ......... 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

दशम् सर्ग

' काला शुक्ल पक्ष'


काव्य-न्याय, अलंकार-रक्षा स्तुत्य है कि,
सब कुछ सुखान्त पूर्ण, वाणी है गेय भी
स्वर्णयुग- भारत का लक्ष्यकाल, व्यास है
वृत्त विशद्, दिव्य पात्र, निष्ठा अजेय भी

अन्तर के तेजस से जगमग मिलिन्द है
ज्योतित कनिष्क का विस्तृत आदर्श देख
प्रखर ध्रुव युगादित्य भासित है विश्व में
शीतल समीर फैल गया हर्ष देख


भास, नाग, कालिदास, कवि बाणभट्ट से
अक्षर कृतिकारों की रचना अमर हुई
रत्नों का तेज जो न छीजता कभी भी
कि जो कुछ अव्यक्त-गेय, वाणी मुखर गई

वीणावर वादिनी किस की अनुगामिनी ?
भूपति के राज दण्ड, विधि-विद्या की। किन्तु 
सत्य शिव सुन्दर की परिणति नैराश्य क्यों
ऊसर पुण्य कुक्षि हाय, सूखा क्यों सिंधु

स्वर्णयुग-साधन सब सुंदरतम हैं
स्वर्णयुग-ब्राह्मण की शक्ति न कम है
स्वर्णयुग-कविगण वृत्ति मिल गई
स्वर्णयुग-राजा को भक्ति न कम है

शाश्वत, वृहत्तम तब साधनों की परिणति
अन्धकार घोर पतन, अनिश्चितता क्यों
स्वर्णयुग कि संकर गुण ऊर्ध्वमुख हो गये
सिंहासन बत्तीसी का ढूह बचा क्यों?


नाम हीन, गोत्र हीन वीर्य बने भूपति
'रक्षां मा चलऽ....'  द्विज सूत्र आबद्ध हो
स्वर्णयुग आज जनगण से कटा कटा है
समीपस्थ, सब प्रमाण दौड़ खड़े हो

बुद्धवाद के विरुद्ध तू चक्रवात है
साम्राज्यवाद के बीज-मंत्र देख !
तेरे अखण्ड जाप चल रहे आज भले
किन्तु रश्मि-हीन रवि होगा द्रुत शेष

देख! भवभूति, भास चीख रहे क्लेश से
 सत् जन गुणवान सुलभ, पारखी नहीं,
लेकिन अवरोधों की गोद पली लली कला
हुई कैद महलों में आज तक कहीं ?

स्वस्ति पाठ- 'द्रोह शांत युग के रहा करें
शास्त्रानुकूल हो मेनका प्रवृत्ति
तुंगऽस्तनी की दुन्दुभी बजा करें'
अपहृता नारियाँ निरीह भला कला कृति!

बोद्ध श्रमण-शीर्ष का उच्छेदन-घोर पाप!
धिक धिक ! रे स्वर्णयुग तू कितना निकृष्ट है
चाटुकार विधि-विधान खड़े क्लीव मुद्रा में
ऐसे में न्याय धर्म - धोखे का पृष्ठ है

बुद्धवाद गंदला है, फिर भी निःसीम है
व, गति औ विस्तार का बन्धन अधर्म है
स्वर्णयुग भारत का - बन्धन की क्रिया है
जो न तो साधन है, साध्य का सुकर्म है

बातें अजंता, ऐलोरा की व्यर्थ हैं
मूल बात दर्शन की व्यापकता, थिरता है
जन जीवन-दर्शन में साम्य नहीं होगा तो
कौतुहल मात्र से क्या बनता, बिगड़ता है

औ, पशु पक्षी पर बाह्य कला हावी है
मानव है सृष्टि का विशेष रत्न चिन्तन से
त्रस्त-दृष्टिकोण जन्य काव्य कला जो भी हो
सुघड़ पर दिशाहीन और हीन जीवन से

चांद क्षीण होता है, फिर भी सैद्धांतिक है
जीवन में प्रतिमाह पूनम ध्रुव, सत्य है
शासन के बनते इकाई-दहाई से 
होता क्या, जब तक जन-जीवन विभक्त है

गतिशील दृष्टिकोण जीवन का और है
देश-राज गौण वहाँ, धरती अविभाज्य है
उस का परिधि-मान पूर्णमुक्त शासक से 
बन्धन है पूर्वाग्रह और रूढ़ि त्याज्य है

शंबूक का शीश राम काटे अन्याय है
चाहे हो गुप्त काल या कि राम राज हो
भ्रम पर भी स्वर्णिम नक्काशी हो सकती है
तर्क भला मानेगा श्रद्धा के जाल को?


कौपणीय कर्म से न जीवन समावृत्त है
वह तो जगाता है मरघट, मसान को 
रूढ़ रीति नीत, बनी विमुख जमाने से 
कैसे उभारेगी उर्ध्वमुख ज्ञान को ?

बुद्ध की बगावत में जनता प्रतिबिंबित है
गुप्तकाल इस के विरुद्ध घोर मट्ठा है
यूनानी फरमा जो मध्य एशियाई को
राजतिलक दे दे कर राजपूत बनाता है

बनती-बिगड़ती चली गईं कलाकृतियाँ
किन्तु वह 'छठांश कर' अन्त तक समान है
ले कर चाणक्य से आवर्तक त्रिमूर्ति तक
एक ही व्यवस्था के भिन्न-भिन्न मान हैं

नश्वर है ! पतित है ! यह समुद्र गुप्त भी 
और राज तन्त्र भी, जनता की वाणी है
पूरब से पश्चिम औ उत्तर से दक्षिण तक
जीता है कौन, बनी किस की कहानी है?

कलियुग व स्वर्णकाल कहने से होता क्या
कहना ही है, तो दो उत्तर इन प्रश्नों का -
धरती की जोतों का हलधर से रिश्ता क्या,
कर विहीन कौन वर्ग वृत्त रहा जोतता ?


हस्तशिल्प जिस का सर्वाधिक महत्व है
वैसे शिल्पकारों की कैसी प्रतिष्ठा है
मूल श्रम, जिस पर युग कोई भी टिकता है
स्वर्णयुग की इस में प्रदर्शित क्या निष्ठा है ?

मूल प्रश्न का जो आधार वर्ग होता है
उस की उपेक्षा-विनाश, घोर पातक है
जिस का श्रम महलों का बनता कंगूरा है
उस की न चर्चा-जघन्य कर्म, घातक है

स्वर्णकाल दासों के शोषण  पर कुण्डलिस्थ
अन्तिम भू-भक्षक है, अन्तिम मणियारा है
रोमन साम्राज्य स्वतः अन्तर्विरोधों में
टिम्-टिम कर बुझता सुबह का सितारा है

दीर्घबाहु सिमटे हैं, मनु का जनाजा है
वर्णों का एकाधिकार देख, जलता है 
कटा-छटा दुनिया से, एक निष्ठ, आत्मसात
सत्ता के सिर पर विशाल विश्व चलता है

* * * * * * * * * *

यादवचन्द्र पाण्डेय

2 टिप्‍पणियां:

कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....