पिछले कुछ वर्षों में भारत के लगभग सभी राज्यों ने अपने यहाँ विधानसभाओं में कानून बना कर अपने-अपने राज्य में कम से कम एक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय स्थापित किया है। हालाँ कि ये सभी स्वायत्त निकाय हैं लेकिन इन में धन राज्य सरकारों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का ही लगा है। ये विश्वविद्यालय क्या कर रहे हैं? इस बात की जानकारी भी जनता को होनी चाहिए। लेकिन जनता इस से लगभग अनभिज्ञ है। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जोधपुर ने अपनी वेबसाइट पर जो वक्तव्य दे रखा है वह निम्न प्रकार है-
The National Law University, Jodhpur is an institution of national prominence established under the National Law University, Jodhpur, Act, 1999 (Act No. 22 of 1999) enacted by the Rajasthan State Legislature. The University is established for the advancement of learning, teaching, research and diffusion of knowledge in the field of law. It caters to the needs of the society by developing professional skills of persons intending to make a career in advocacy, judicial service, law officer / managers and legislative drafting as their profession.
यह वक्तव्य बताता है कि 'राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह संस्थान राजस्थान विधान सभा द्वारा पारित 1999 के कानून सं.22 से स्थापित किया गया है। इसे विधि क्षेत्र में शिक्षा, शिक्षण, शोध और ज्ञान के प्रसार की उन्नति के लिए स्थापित किया गया है। यह वकालत, न्यायिक सेवा, विधि प्रबंधन और विधायी प्रारूपण के क्षेत्र में कैरियर बनाने के इच्छुक व्यक्तियों की पेशेवर कुशलता को विकसित कर के समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है'।
इस संस्थान में शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी है। हिन्दी का वहाँ कोई महत्व नहीं। यहाँ तक कि राज्य की राजभाषा हिन्दी और स्थानीय राजस्थानी भाषाओं की विद्यार्थियों की योग्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब कि राजस्थान के सभी अधीनस्थ न्यायालयों की कामकाज की भाषा हि्न्दी है। अब जो विद्यार्थी इस संस्थान से निकलेंगे वे कैसे राजस्थान की जनता की समस्याओं को समझेंगे और किस तरह उन की मदद कर सकेंगे? यह समझ में आने वाली बात नहीं है।
इन संस्थानों में सर्वाधिक जोर प्लेसमेंट पर है। लगभग सभी विद्यार्थी उन का अध्ययन पूरा होने के पहले ही किसी न किसी निजि कंपनी द्वारा नियोजित कर लिए जाते हैं, उन के वेतन भी अच्छे होते हैं। इस विश्वविद्यालय का कोई भी स्नातक शायद ही अभी तक वकालत के व्यवसाय में आया हो, न्यायिक सेवा में भी अभी तक कोई नहीं आया है। न ही किसी सरकार के विधायी विभाग में किसी को नियोजन हासिल हुआ है। वे वहाँ आएँगे भी कैसे? उन्हें कारपोरेट सैक्टर में पहले ही अच्छे वेतनों पर नौकरियाँ जो मिल रही हैं।
इस तरह इन विश्वविद्यालयों के जो उद्देश्य नियत किए गए थे उन में से वकालत, न्यायिक सेवा और विधायी प्रारूपण के लिए अच्छे कर्मी तैयार करने के उद्देश्य की पूर्ति बिलकुल नहीं हो रही है। केवल कॉरपोरेट सैक्टर की मदद के लिए विधिज्ञान से युक्त कर्मचारी तैयार करने के एक मात्र उद्देश्य की पूर्ति ये विधि विश्वविद्यालय कर रहे हैं। इस तरह जनता के धन से केवल देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा के लिए कार्यकर्ता तैयार किए जा रहे हैं। हमारी सरकारें किस तरह से इन देशी विदेशी धनकुबेरों की सेवा के लिए संस्थान स्थापित करती है यह इसी से स्पष्ट है। इन विश्वविद्यालयों से निकलने वाले विधि विशेषज्ञ अपने कैरियर में यूनियन कार्बाइड जैसी कंपनियों को कानून के शिकंजे से बचाने, उन से पीड़ित जनता के हकों को प्राप्त करने के मार्ग में काँटे बिछाने और एंडरसन जैसे देश की जनता और संपूर्ण मानवता के अपराधियों को बचा कर निकालने का काम ही करेंगे, देश की जनता को उन के हक दिलाने, और जनता व मानवता के अपराधियों को दंडित कराने का काम नहीं।
दिनेश जी आज दुनिया के नक्शे को अगर हम ध्यान से देखे तो कुछ जगह को छोड कर सब जगह गोरो का राज है, ओर जहां नही वहा अगले सॊ सालो मै हो जायेगा, अफ़्रीका,अस्ट्रेलिया, नुजीलेंड, अमेरिका, कानाडा, ब्राजील यह सब इलाके जहां अब गोरो का राज है कभी किसी जमाने मै यह स्थानिया लोगो के हुआ करते है, अफ़्रीका ओर ब्राजील सिर्फ़ कहने को आजाद है, जब की वहां के स्थानिया लोग आज भी भुखे मरते है गरीब है ओर गोरो ने उन की प्राकिर्ति समपदा पर कबजा कर रखा है, ओर यह वहा उन देशो मै महा राजो की तरह रहते है, क्योकि वहां के लोग पहले पहल इन युरोपियन को सर पर बिठाते थे, हमारी तरह से, फ़िर इन देशो मै यह गोरे सात समुंदर पार कर के अपनी भाषा फ़ेलाने मै कामयाब रहे...... ओर फ़िर इन्होने भोले बन कर, चलाक बन कर उन्हे गुलाम बना लिया, अब ना हमारा है, हम बढ चढ कर इन युरोपियन का साथ दे रहे है, इन्हे सर आंखो पर बिठा रहे है, यह लोग अच्छे है, लेकिन अपनो के लिये, अपने देश के लिये, ओर हम हम अपने ही लोगो को दबाते है,अपने ही देश को बेचते है इन के हाथो.... कल आने वाली पीढी क्या सोचे गी जब उन के गले मै गुलामी की जंजीर होगी, मेने अपने तीस साल के समय मै कभी नही देखा कि मेरे कारण एक गोरा दुसरे गोरे को डांटे, ओर हमारे भारत मै गोरे को देख कर हम अपने भारतीया भाई को ही दबाना शुरु कर देते है.... इन की भाषा को ही हम उच्च मानते है, पेसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नही मान सम्मान भी कुछ माने रखता है, एक गोरा जो पक्का जाहिल हे उसे भी भाग कर वीजा देते है जेसे वो वीजा ले कर हम पर कोई एहसान कर रहा है, ओर यहां टुच्चे से टुच्चा देश मै हमे वीजा देने मै सॊ नखरे दिखाता है, जब तक हम जागरुक नही होगे तब तक हम अपने आने वाली पीढी को गुलामी की ओर धकेलते रहे गे, भारत मै बेठे हमे यह सब नही दिखता, जब हम बाहर आते है तो बहुत कुछ महसुस करते है, तभी हमे अपनी गल्तिया भी नजर आती है, आप के लेख से १००% सहमत हुं, यह हमे नोकरिया दे कर कोई एहसान नही करते, बल्कि अपना पेसा बचाते है
जवाब देंहटाएंबात तो कुछ हद तक सही लगाती है !!
जवाब देंहटाएंआपका कहना बिल्कुल सही है । एण्डरसन की तरह फँसा व्यक्ति कितना भी धन खर्च कर सकता है, न्याय पाने वाले से पैसा उगाही करना भी अन्याय जैसा लगता है । न्याय के नवोदित सूर्य धन की ऊँचाई पर जा चमकना चाहते हैं ।
जवाब देंहटाएंthats blasphemous you know, why don't the blogger goes into the roots before blabbering, primarily go to any NLU's and find out where its alumni's are. just making hollow statements wont suffice. its true that a bigger bunch is running towards corporate sector, but there is another lot who is taking up litigation as their career.
जवाब देंहटाएंand for English being a concern, English is the language of the Supreme Court and I am Pretty sure dat no NLU'ite will waste his talent in lower court.
@ kunal bhardwaj
जवाब देंहटाएंमित्र!न तो यह राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों के प्रति तिरस्कार है और न ही जो कुछ यहाँ लिखा गया है वह बकबक है। हो सकता है आप खुद इन में से किसी विश्वविद्यालय के स्नातक रहे हों। जोधपुर एनएलयू का कोई भी विद्यार्थी अभी तक वकालत के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से नहीं आया है। वे या तो कंपनियों की सेवाएँ कर रहे हैं या फिर बड़ी लॉ फर्मों से जुड़ चुके हैं। वहाँ भी वे कारोपोरेट को उन के अपराधों से बचाने का ही काम कर रहे हैं। आप खुद श्रम कर के बताएँ कि देश के सभी एनएलयू से निकलने वाले कितने विद्यार्थी ऐसे हैं जो कंपनियों या बड़ी लॉ फर्मों के अतिरिक्त कोई अन्य काम कर रहे हों। इन में से कितने ऐसे हैं जो न्यायिक सेवा में या फिर विधि प्रारूपण के क्षेत्र में आए हैं?
मैं ने राजस्थान का उदाहरण दिया था। जहाँ न्यायालयों की भाषा हिन्दी है। बिना हिन्दी जाने कोई भी राजस्थान में कैसे विधि के क्षेत्र में काम कर सकता है? यदि वह समस्या की नब्ज ही नहीं जानता है तो उस का इलाज कैसे करेगा। मैं इन विश्वविद्यालयों के विरुद्ध भी नहीं हूँ। जब इन से निकले 90% स्नातकों को कारपोरेट जगत की ही सेवा करनी है तो देश की जनता का पैसा और श्रम इन पर क्यों खर्च किया जाए। अपनी सेवा के लिए तो कारपोरेट जगत स्वयं अपने विश्वविद्यालय क्यों न स्थापित करे?
पर वह ऐसा करने में सक्षम नहीं है। वह अपनी पूंजी सिर्फ मुनाफे के कामों में लगा सकता है। उसे तो सार्वजनिक संपत्ति का उपयोग करने की आदत पड़ी है, वह ऐसा क्यों करेगा?
Author of the Blog:
जवाब देंहटाएंGreetings !
Your post seems to be missing factual inputs, is against the statistics, and with great respect, preposterous to an extent.
While I have no time, or inclination to enter into an argument on this, but just a piece of information that may help you to enlighten yourself of the contribution of NLUs: Research inputs, and drafting assistance for the Report submitted by the Expert Jurists Committee to the MP Government, and the recommendations of which were accepted not just by the MP Govt. but to a large extent by the EGOM of Central Government, was provided by a student of National Law University, Jodhpur. Infact, the important judgment of Thakur Ram v. State of Bihar (1966 SCR 740) was pulled out by this student, which formed the bedrock of the recommendation of this Committee as well as the EGOM that enhanced punishment could have been given in these facts and circumstances. His name finds mention in the 'credits' section of that report. This was the first report ex-post the trial court judgment, which sought for forming a joint task force to bring Anderson back to India, and which also recommended filing a supplementary chargesheet against Anderson, for offences under Sec. 304 II, inter alia.
@Rishabh Sancheti Advocate Supreme Court of India
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ऋषभ जी,
निश्चित रूप से इन विश्वविद्यालयों का स्तर अच्छा है। वहाँ अच्छी प्रतिभाएँ आ रही हैं और भविष्य के लिए उपयोगी भी हैं। छात्रों के रिसर्च इनपुट के बारे में भी कोई संदेह नहीं है।
लेकिन इन सब से मेरा जो कथन था वह मिथ्या नहीं हो जाता है। आज इन विश्वविद्यालयों के उत्पाद का सर्वाधिक लाभ भारतीय समाज के बड़े हिस्से को मिलने के स्थान पर कार्पोरेट जगत को मिल रहा है, जो 90% से अधिक ही है, कम नहीं। देश के सार्वजनिक धन के उपयोग का लाभ कारपोरेट ही उठा रहे हैं। इतने सारे विद्यार्थियों में से कुछ तो होंगे ही जिन का लगाव इस देश की गरीब जनता के साथ होगा। उन्हें तो कारपोरेट जगत किसी भी तरह अपने काम में नहीं ले सकेगा। मेरा सुझाव यह था कि इन विश्वविद्यालयों के पचास प्रतिशत से अधिक विद्यार्थियों को न्यायिक सेवा में,विधि प्रारूपण के क्षेत्र में तथा अभियोजन के क्षेत्र में आने चाहिए। निश्चित रुप से आने वाले पाँच दस वर्षों में जब इन विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी कारपोरेट जगत की जरूरतों से अधिक हो जाएंगे तो उन्हें इस क्षेत्र में भी आना पड़ेगा। लेकिन फिलहाल तो स्थिति यही है कि उन का अधिकतम लाभ कारपोरेट जगत ही उठा रहा है।
अच्छी पोस्ट ! मूलभावना से सहमत !
जवाब देंहटाएंआपके एक-एक शब्द से सहमत। ऐसे मुद्दों पर सहमत और एकमत लोग एकजुट नहीं हैं। इस स्थिति के विरुध्द किसे कहा जाए, कहॉं कहा जाए, कुछ भी तो पता नहीं।
जवाब देंहटाएंआपके पास कोई अता-पता, कोई सूत्र हो तो बताऍं। ऐसे किसी भी अभियान सु जुड कर आत्म सन्तोष होगा।
आपकी इस पोस्ट के लिए आपको अभिवादन।