@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनवरी 2013

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं

कोई पाँच बरस पहले ब्लागिरी शुरु हुई थी। पहले ब्लाग तीसरा खंबा आरंभ हुआ और लगभग एक माह बाद अनवरत। धीरे धीरे गति बढ़ी और हर तीन दिन में कम से कम दो पोस्टें लिखने लगा। लेकिन 2011 में आ कर गति कम हुई,  सप्ताह में तीन चार पोस्टें रह गईं। 2012 में केवल 53 पोस्टें हुई, औसत सप्ताह में केवल एक पर आ कर टिक गया। इस वर्ष तो जनवरी निकला जा रहा है लेकिन एक भी पोस्ट न हो सकी। कहा जा सकता है कि ब्लागिरी से मोह टूट रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। अखबार, पत्रिकाएँ और पुस्तकें जिस तरह लेखन और विचारों को प्रकाश में लाने के माध्यम है उसी तरह ब्लागिरी भी है। सब से अच्छा तो यह है कि यह एक स्वयं प्रकाशन माध्यम है। जिस पर आप केवल खुद ही नियंत्रण रखते हैं। 
ब्लागिरी की गति कम होने के अनेक कारण रहे हैं। जिन में कुछ तो मेरे अपने स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं। दिसंबर 2011 में हर्पीज जोस्टर का शिकार होने के बाद, दाँतों ने कष्ट दिया और उस के तुरंत बाद ऑस्टिओ आर्थराइटिस ने जकड़ा जिस के कारण एक पैर में लिगामेंट का स्ट्रेन भुगतना पड़ा। ऑस्टियो आर्थराइटिस नियंत्रण में है पर उस ने दोनों घुटनों के कार्टिलेज को जो क्षति पहुँचाई है उस की भरपाई में समय लगेगा। जब किसी व्यक्ति के चलने फिरने में बाधा आती है तो उस की सभी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। आय के साधन जो व्यक्ति और परिवार को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं उन्हें नियमित रूप से चलाए रखना आवश्यक होता है।  उन कामों को करने के उपरान्त समय इतना कम शेष रहता है कि अन्यान्य गतिविधियों मंद हो जाती हैं। यही मेरे साथ भी हुआ।
र्ष 2011 के अंत में तीसरा खंबा ब्लाग को एक स्वतंत्र वेबसाइट में परिवर्तित किया गया था। यह साइट कानूनी विषयों पर है और जोर इस बात पर है कि कानूनी मामलों पर पाठकों का विधिक शिक्षण हो तथा अधिक से अधिक मामलों पर आम पाठक की सहायता की जा सके। तीसरा खंबा अनेक बाधाओं के बावजूद लगभग निरंतर है। वर्ष 2012 में उस पर 330 पोस्टें लिखी गईं। यदि सप्ताह का एक दिन अवकाश का समझ लें तो औसतन प्रतिदिन एक पोस्ट से अधिक इस साइट पर लिखी गई है। अधिकांश पोस्टों में पाठकों को उन की कानूनी समस्याओं के हल सुझाए गए हैं। एक समस्या का हल सुझाने और उसे वेबसाइट पर लाने में कम से कम एक से दो घंटे तो लगते ही हैं।  मैं समझता हूँ कि एक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन के लिए इतना समय व्यतीत करना पर्याप्त है।
तीसरा खंबा का एक खास उद्देश्य है। लेकिन अनवरत ब्लाग अपने विचारों व लेखन को और अपनी मनपसंद रचनाओं को सामने लाने का माध्यम बना। उसी से हिन्दी के ब्लाग जगत में मेरी पहचान बनाई।  पाँच वर्ष की ब्लागिरी की ओर पीछे मुड़ कर झाँकता हूँ तब महसूस होता है कि बिना किसी योजना के बहुत कुछ कर डाला गया।  लेकिन जो कुछ किया गया उसे कुछ योजना बद्ध रीति से और तरतीब से भी किया जा सकता था। पिछले दो माह इसी विचार में निकले कि वहाँ क्या किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह समय भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जब समाज पूरी तरह से बदलाव चाहता है। लेकिन प्रश्न यही हैं कि समाज में किस तरह का बदलाव कैसे संभव है।  समाज कोई एक  व्यक्ति या समूहों की इच्छा से नहीं बदलता। समाज की भौतिक आर्थिक परिस्थितियाँ उसे बदलती हैं।  वे ही नए शक्ति समूह खड़े करती हैं जो समाज को बदलते हैं। निश्चित रूप से यह अध्ययन का विषय है।  इस समय में मुझे क्या करना चाहिए? अनवरत ब्लाग का उपयोग किस तरह करना चाहिए? यही सोच रहा हूँ।  पर सोच की इस प्रक्रिया के बीच अनवरत का यह ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है। अनवरत को अनवरत रहना चाहिए। इस लिए यह तय किया है कि सप्ताह में कम से कम एक बार पोस्ट अवश्य लिखी जाए और इस की गति को बढ़ा कर सप्ताह में 3-4 पर लाया जाए।