संस्कृति के चार अध्याय से ...
वैष्णवों के तीन प्रसिद्ध पुराण हरिवंश, विष्णुपुराण और भागवत हैं। लेकिन, उनमें से किसी में भी राधा नाम का उल्लेख नहीं है। भागवत में कथा आयी है कि कृष्ण ने सभी गोपियों को छोड़कर एक गोपी से अलग मुलाकात की। बस, भक्तगण इसे ले उडे, और उसी गोपी को राधा मानने लगे। पण्डितों का यह भी विचार है कि कृष्ण-चरित' के साथ बाल लीला की कथा पहले शुरु हुई, राधा तथा अन्य गोपियों के साथ उनकी प्रेम-लीला की कहानियाँ बहुत बाद में आयी हैं।
राधा का नाम कैसे चला, यह गहरे विवाद का विषय है। नारद-पाँच-रात्र संहिता में लिखा है कि एक ही भगवान पुरुष और स्त्री रूप में प्रकट होते हैं। संभव है, इस दार्शनिक कल्पना से ही बाद के कवियों ने, जैसे शिव के साथ पार्वती और विष्णु के साथ लक्ष्मी है, वैसे ही, कृष्ण के साथ एक जोडी मिलाने के लिए राधा की कल्पना कर ली हो।
लेकिन, यह राधा नाम आया कहाँ से? और फिर यह क्या हुआ कि बालक कृष्ण के साथ युवती राधा की अनमेल जोडी मिला दी गयी? भागवत सम्प्रदाय और माध्य संप्रदाय राधा को नहीं मानते हैं। असम में भी वैष्णवों के बीच राधा की पूजा का चलन नहीं है। पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी्* ने “मध्यकालीन धर्म-साधना" में यह भी लिखा है कि प्रेम-विलास और भक्ति-रत्नाकर के अनुसार "नित्यानन्द प्रभु की छोटी पत्नी जाह्नवी देवी जब वृन्दावन गयी, तो उन्हें यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि श्रीकृष्ण के साथ राधा नाम की मूर्ति की कहीं पूजा नहीं होती थी। घर लौटकर उन्होंने नयन भास्कर नामक कलाकार से राधा की मूर्तियाँ बनवायीं और उन्हें वृन्दावन भिजवाया। जीव गोस्वामी की आज्ञा से ये मूर्तियाँ श्रीकृष्ण के पार्श्व में रखी गयीं और तब से श्रीकृष्ण के साथ राधिका की भी पूजा होने लगी।"
दूसरी ओर, जो भी संप्रदाय भागवत के बाद वाले पुराणों को मानते हैं, वे राधा को भी स्वीकार करते हैं। इसलिए, यह बहुत संभव दीखता है कि आर्यों के वैष्णव धर्म में आर्य-आर्येंतर संस्कृतियों का मिलन कृष्ण की बाल-लीला और राधा से उनके प्रेम की कल्पना किन्हीं आर्येतर जाति से आयी हो। इस सम्बन्ध में एक मत यह है कि बाल-लीला की कल्पना आभीर-जाति के किसी बालदेवता से मिली है और राधा भी, सम्भवतः, दक्षिण के किसी आर्येतर समाज की कोई प्रेम की देवी रही होगी। कालक्रम में ये दोनों कथाएँ वासुदेव धर्म से आ मिली और धीरे-धीरे, बदल कर कृष्ण का वह रूप हो गया, जिसे हम आज देखते हैं। इस अनुमान को एक समर्थन तो इस बात से भी मिलना चाहिए कि राधावाद के प्रचारक निम्बार्क महाराज दक्षिण के ही थे और उत्तर भारत में फैलने के पहले कृष्ण-भक्ति के सिलसिले में राधा-भक्ति का भी प्रचार दक्षिण में ही हुआ, जिसके प्रचारक आलवार भक्त थे। दक्षिण की भगतिन ओन्दाल, जो मीरा से बहुत पहले हुई, अपने-आपको राधा मानती थी। इसके विपरीत, डॉ. फरकोहार यह कहते है कि "कोई आधार नहीं मिलने से अनुमान यही होता है कि राधा की कल्पना भागवत की खास गोपी को लेकर वृन्दावन में उठी और वहीं से वह सर्वत्र फैली है।"
* "विष्णु-पुराण में गोपियों के प्रेम की चर्चा है, पर भागवत पुराण में वह बहुत विस्तृत रूप में है। रास-पंचाध्यायी भागवत का सार कहा जाता है। इस पुराण में राधा का नाम नहीं आता। माया-सप्तशती में, पंचतंत्र में और ध्वन्यालोक में 'राधा' का नाम आया है, पर, कृष्ण की सर्वाधिक प्रिया गोपी के रूप में उनका नाम भागवतोत्तर साहित्य में ही अधिक है। ब्रह्मवैवर्त-पुराण में राधा प्रमुख गोपी है। रा०व० योगेशचन्द्र राय का अनुमान है कि ब्रह्मवैवर्त पुराण 17वीं शताब्दी में पश्चिम बंगाल में लिखा गया और उसके लेखक का गीतगोविन्द से परिचय था। पद्म-पुराण में वृन्दावन की नित्य-लीला की चर्चा है, राधा का नाम आता है, पर यह पुराण बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता और जिस अंश में राधा-कृष्ण के नित्यविहार की चर्चा है, वह तो निस्सन्देह परवर्ती है।"-हजारीप्रसाद द्विवेदी (मध्यकालीन धर्मसाधना)
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