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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-7


मजदूरों के पलायन की वजह क्या थी?

भारत के प्रधानमंत्री ने 24 मार्च 2020 की शाम 8 बजे टीवी-रेडियो से जीवित प्रसारण में सूचना दी कि कोविद-19 महामारी से बचाव के लिए आधी रात अर्थात 25 मार्च शुरु होते ही देश भर में 21 दिनों का लॉकडाउन आरंभ हो जाएगा। इस के पहले उन्होंने 19 मार्च की रात 8 बजे 22 मार्च की सुबह 7 से रात 9 बजे तक जनता कर्फ्यू रखे जाने का आव्हान किया था। जिसके दौरान शाम 5 बजे थाली, ताली, घण्टे बजा कर कोविद-19 से बचाव में लगे स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों का आभार व्यक्त करने का भी आव्हान किया था। 22 मार्च की कवायद एक तरह की मोक-ड्रिल थी जो इसलिए कराई गयी थी कि भौतिक-दूरी (कथित सोशल डिस्टेंस) बनाए रखने को आदत बनाने का आरंभ किया जाए।
22 मार्च की यह कवायद शाम पाँच बजे तक ठीक चली। लेकिन शाम पाँच बजते ही वह भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसद में विश्वास मत जीत लेने के जश्न में बदल गयी। उन के विश्वसनीय समर्थकों यहाँ तक कि उनकी पार्टी के जाने-माने नेताओँ और अनेक सरकारी अफसरों ने भौतिक-दूरी की इस कवायद की बैंड बजा दी। ये लोग जलूस के रूप में सड़क पर निकल आए। थालियाँ- तालियाँ और घंटे-झालरें बजाते हुए मोदी जी की जयजयकार करने लगे। मोदी जी ने आभार प्रकट करने के इस घन्टा-नाद का समय शाम 5 बजे का ही क्यों रखा यह आज तक समझ नहीं आया।
हम इसे समझने की कोशिश करें तो हमें बन्द के आवाहनों के ताजा इतिहास में जाना पड़ेगा। मेरे 65 वर्ष के जीवन में मैंने उत्तर भारत में जितने नगर, प्रान्त या भारत बंद देखे हैं, उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी, पूर्व जनसंघ या उसके बिरादर संगठनों के आव्हानों पर आयोजित हुए हैं। ये बन्द दिन भर के लिए होते हैं, और ज्यादातर तोड़-फोड़, मार-पीट और संपत्ति को हानि पहुँचने के भय से पूरे या पौने सफल भी हो जाते हैं। लेकिन शाम चार बजने के बाद धीरे-धीरे चहल-पहल बढ़ती है और शाम 5 बजते बजते बाजार आबाद हो जाते हैं। उसी समय आव्हान करने वाले कार्यकर्ता बंद की सफलता की आदिम प्रसन्नता अभिव्यक्त करने के लिए छोटे-मोटे जलूस निकालने लगते हैं। यह व्यवहार इन दक्षिणपंथी संगठनों की एक स्थायी आदत बन चुका है। इस आदत के चलते मुझे पहले ही लग रहा था कि ऐसा कुछ होने वाला है, और यह हुआ भी। भारतीय मीडिया ने जिसका अधिकांश पूरी तरह प्रधानमंत्री के समक्ष नतमस्तक है, जनता कर्फ्यू की सफलता को प्रधानमंत्री की जीत के रूप में अभिव्यक्त किया और विजय के विद्रूप प्रदर्शनों को छोटी-मोटी गलती बताया। बाद में प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के इन नेताओँ और समर्थकों के व्यवहार पर अपने ट्वीट में या अन्यथा किसी भी प्रकार कोई आपत्ति या नाराजगी व्यक्त नहीं की। इससे यही समझा जा सकता है कि वे इससे प्रसन्न थे और ऐसा होते देखना चाहते थे। मेरे जैसे लोगों ने और मीडिया के उंगलियों पर गिने जाने वाली इकाइयों ने इस पर आश्चर्य प्रकट किया भी तो वह नगाड़ों के शोर में तूती की आवाज सिद्ध हुई और इसे खिसियाना भी कहा गया।
जब 24 मार्च की शाम देश को लॉक-डाउन करने के आव्हान का प्रसारण हुआ तो लॉक-डाउन शुरू होने के पहले लोगों के पास केवल 4 घंटों का समय था। लॉक-डाउन में अत्यावश्यक सेवाओँ के सिवा सभी कुछ बन्द हो जाना था। सरकारी कार्यालय, बाजार, दुकानें, कारखाने, निर्माण कार्य वगैरा-वगैरा। इस घोषणा के बाद से ही मध्यवर्ग बाजारों में निकल पड़ा कि जैसे-तैसे महीने भर घर पर रहने का राशन-पानी इकट्ठा कर ले। बाजारों में बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और देखते ही देखते दुकानें सामानों से खाली नजर आने लगीं। यह तो मध्यवर्ग था जो इतना कुछ खरीद भी सकता था। लेकिन मजदूर वर्ग की रोज-मजूरी करने वाली आबादी के सामने भीषण संकट खड़ा हो गया था। अगले दिन से उन्हें कई दिनों तक रोजगार नहीं मिलने वाला था। यह महीने के बीच का समय था। रोज-मजूरों के जेबें लगभग खाली थीं। यदि वे खरीददारी के लिए निकलते भी तो अधिक से अधिक सप्ताह भर का राशन ही खऱीद सकते थे।
एक आकलन के अनुसार देश में लगभग 45 करोड़ लोग रोज-मजदूरी पर निर्भर हैं। यह भारत की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा है। जीवन के उनके अपने अनुभव हैं। मैंने खुद देखा है, अनेक बार ठेकेदार एक दो सप्ताह या महीने भर काम कराने के बाद उनकी मजदूरी देने से मना कर देते हैं। देश के किसी राज्य में ऐसी व्यवस्था नहीं कि उनकी बकाया मजदूरी तत्काल या महीने-दो महीने तो क्या साल भर में भी दिला सके। कानूनी व्यवस्था ऐसी है कि बकाया मजदूरी वसूलने में एडियाँ घिस जाती हैं, वकीलों को फीस देनी पड़ती है और बरस लग जाते हैं। फिर भी मजदूरी नहीं मिलती। अब रोज-मजदूर बकाया मजूदूरी के लिए बरसों चलने वाली लड़ाई लड़े या जहाँ उसे मजदूरी मिलती हो वहाँ जा कर मजदूरी करे। अधिकतर मामलों में वह सरकारी दफ्तरों में शिकायत करने और उनके चक्कर काट-काट कर थक जाने के बाद मजदूरी को डूबी मान कर अपना रास्ता देखता है।
लॉक-डाउन की घोषणा के साथ ही आबादी के इस हिस्से पर भीषण गाज गिर पड़ी थी। अपने अनुभव से वह जान चुका था कि 21 दिन तो आरंभ है। पड़ौसी देश चीन और दूसरे देशों से आ रही खबरें भी उनके कानों तक पहुँच ही रही थीं। इन से वह समझ गया था कि यह लॉक-डाउन महीनों चल सकता है। इसके समाप्त हो जाने पर भी गतिविधियाँ कई चरणों में आरंभ होंगी। इस कारण कम से कम अगले छह माह संकट में गुजरने वाले हैं। नगरों और महानगरों में जीना दूभर हो जाएगा। वहाँ काम मिलने में समय लगेगा। 
रोज-मजूरों के इस वर्ग एक हिस्सा ऐसा है जिनके परिवारों के पास कुछ न कुछ खेती की जमीनें हैं और परिवार के अधिकांश सदस्य मजदूरी के लिए नगरों-महानगरों को निकल जाते हैं। जब कि कुछ गाँव में बने रहते हैं जो उस नाम मात्र की पारिवारिक स्वामित्व की जमीन पर तथा ग्रामीण मजदूरी पर निर्भर करते हैं। गाँव में उनके पास रहने के लिए स्थान की कमी नहीं। कम से कम उसके लिए किराया नहीं देना पड़ता। रोज-मजूरों का दूसरा हिस्सा पूरी तरह भू-विहीन है। उसे भी पता था कि इस समय जब शहर में काम बन्द हो गया है, तब गाँवो में फसलें खड़ी हैं और इस बार यातायात के साधन बन्द हो जाने से फसलों की कटाई से ले कर उसे तैयार करने के लिए बाहर का मजदूर नहीं आएगा। लगभग हर गाँव में इस समय कम से कम 15 से 35 दिनों की मजदूरी उसे अवश्य ही मिल जाएगी, जो कुछ नकद होगी और कुछ अनाज के रूप में। इस से उनकी प्राण रक्षा हो सकेगी।
निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 1996 में बनाए गए कानून के अंतर्गत जरूर कुछ उपाय पिछली मनमोहन सरकार के दौरान आरंभ किए गए थे। इस योजना में पंजीकृत मजदूरों के लिए तो कुछ सुविधाएँ मिलने की संभावना थी लेकिन अन्य मजदूरों के लिए किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। ऐसी सुविधा जिस से वे कुछ दिनों या महीनों के संकट में कुछ मदद की आशा कर सकें। ऐसे में उनके पास एक ही मार्ग था कि वे अपने घरों की ओर निकल पड़ें। इन रोज-मजूरों को अपने जीवन का तात्कालिक आश्रय अपने-अपने गाँवों में दिखाई पड़ा। उसे जैसे समझ पड़ा वह उसी रात, या अगले 1-2 दिनों में जैसे बन पड़ा गाँव के लिए निकल पड़ा। रोज-मजूरों के पास सामाजिक सुरक्षा का यही अभाव देश व्यापी नगर से गाँव की ओर पलायन का मुख्य कारण बना। जिस से आजादी के समय हुए देश के बँटवारे के समय हुए पलायन के बाद का सब से बड़ा पलायन देश को देखने को मिला। बहुत हृदय विदारक दृश्य देखने को मिले। इस पलायन से कोविद-19 को देश भर में फैल जाने का खतरा बढ़ गया।
इस तरह हम देखते हैं कि परिस्थितियों का सम्यक मूल्यांकन किए बिना जल्दबाजी में और बिना समय तथा अवसर प्रदान किए किया गया लॉक-डाउन ही इस वृहत-पलायन का आधार बना। यह बहुत जरूरी था लेकिन इस की तैयारी पहले से की जानी चाहिए थी।                    .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- लॉक-डाउन के बाद भी संक्रमण कैसे फैला?

1 टिप्पणी:

  1. मेरे 65 वर्ष के जीवन में मैंने उत्तर भारत में जितने नगर, प्रान्त या भारत बंद देखे हैं, उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी, पूर्व जनसंघ या उसके बिरादर संगठनों के आव्हानों पर आयोजित हुए हैं। ये बन्द दिन भर के लिए होते हैं, और ज्यादातर तोड़-फोड़, मार-पीट और संपत्ति को हानि पहुँचने के भय से पूरे या पौने सफल भी हो जाते हैं।

    ये गजब बात कह दी आपने सर। आरक्षण को लेकर ,जितने आंदोलन हुए सब एक विशेष जाति या समूह द्वारा आयोजित किये जाते रहे हैं। फिर अन्य सारे दलों के प्रति उदारता भी दिख रही है पोस्ट में। बाकि विश्लेषण तो आपका हमेशा से ही गजब रहा है

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