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शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

श्रमिक कर्मचारी आखिर कब तक चुप रह सकेंगे?


किसी भी अर्थ व्यवस्था में पुराने उद्योगों का बन्द होना और नए उद्योगों की स्थापना एक सतत प्रक्रिया है।  कोई भी उद्योग ऐसा नहीं जो हमेशा चलता रह सके।  समय के साथ साथ हर उद्योग की प्रोद्योगिकी पुरानी होती जाती है।  उस से प्रतियोगिता करने वाली नयी प्रोद्योगिकी आती रहती है।  पुराने उद्योग नए उद्योगों से प्रतियागिता नहीं कर पाते।  समय समय पर पुराने उद्योगों में नई प्रोद्योगिकी का प्रयोग कर उनकी उम्र बढ़ाई जा सकती है।  लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब उद्योग में नयी प्रोद्योगिकी का प्रयोग संभव नहीं रह जाता है।  तब उसे बन्द करना पड़ता है।  समय के साथ कुछ उत्पादनों का सामाजिक उपयोग लगभग समाप्त प्रायः हो जाता है।  एक समय था जब देश के पिक्चर ट्यूब उद्योग श्वेत-श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाया करते थे।  लेकिन धीरे धीरे इन का उपयोग लगभग समाप्त हो गया।  उन का स्थान रंगीन पिक्चर ट्यूबों ने ले लिया।  श्वेत श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाने के कारखानों ने अपनी प्रोद्योगिकी में परिवर्तन किया और रंगीन पिक्चर ट्यूबें बनाना आरंभ कर दिया।  लेकिन प्रोद्योगिकी लगातार विकसित होती है।  पिक्चर ट्यूब का स्थान एलसीडी, एलईडी, और अब प्लाज्मा डिस्प्ले ले रहे हैं।  जल्दी ही वह समय आएगा जब भारी भरकम पिक्चर ट्यूबें इतिहास का हिस्सा हो कर संग्रहालयों मे सिमट जाएंगी।  इस तरह पिक्चर ट्यूबें बनाने वाले वर्तमान उद्योग भी गायब हो लेंगे।


श्वेत-श्याम से रंगीन पिक्चर ट्यूब, फिर एलसीडी, एलईडी और अब प्लाज्मा डिस्प्ले सभी को अच्छा लगता है।  हर कोई चाहता है कि वह नई से नई तकनीक का उपयोग करे।  लेकिन जब पुरानी प्रोद्योगिकी वाले कारखाने बंद होते हैं तो वे समाज में बड़ी हलचल उत्पन्न करते हैं।  इन कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों की नौकरियाँ चली जाती हैं।  उन्हें नये नियोजन तलाशने पड़ते हैं।  इन में से अनेक लोग ऐसे होते हैं जो 45-50 की उम्र में पहुँच चुके होते हैं और उन के लिए नया नियोजन तलाश करना दुष्कर और अक्सर असंभव काम होता है।  जीवन के मध्यकाल में जब लोगों को अपने जीवन के सब से महत्वपूर्ण दायित्व पूरे करने होते हैं तभी यह उद्योग बंदी उन्हें जबरन सेवानिवृत्त लोगों की श्रेणी में खड़ा कर देती है।   बच्चों का अध्ययन चल रहा होता है,  संतानें विवाह योग्य हो चुकी होती हैं, वृद्ध माता-पिता का दायित्व उन पर होता है।  हर कोई समझ सकता है कि इस आयु में नौकरी जाने का अर्थ क्या होता है?  परिवार के एक व्यक्ति की नौकरी जाती है लेकिन पूरा परिवार असहाय हो कर खड़ा हो जाता है।


ब कारखाने बंद होते हैं तो इन कर्मचारियों की छँटनी की जाती है।  छँटनी के लिए कानून बना है कि किस तरह छँटनी की जाएगी।  कर्मचारियों को छँटनी किए जाने के साथ ही उन्हें नोटिस या नोटिस वेतन दिया जाएगा, उन्हें उद्योग में उन के सेवाकाल के आधार पर छँटनी का मुआवजा और पाँच वर्ष का सेवा काल पूर्ण कर लेने वाले कर्मचारियों को ग्रेच्यूटी दी जाएगी।  लेकिन अक्सर ऐसे समय में अधिकांश उद्योग छँटनी होने वाले कर्मचारियों को यह नाम मात्र की सहायता राशि देने से भी इन्कार कर देते हैं।  वे किसी न किसी प्रकार कर्मचारियों को इन कानूनी अधिकारों से वंचित कर अपनी पूँजी बचाने के फेर में रहते हैं।   सभी कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की है।  जब भी छँटनी के समय कर्मचारियों और उद्योग के बीच विवाद उत्पन्न होता है तो श्रमिक श्रम विभाग की शरण प्राप्त करते हैं।  हमारे श्रम विभाग इतने कमजोर हैं कि वे कर्मचारियों को छँटनी के समय उन के कानूनी अधिकार दिलाने में अक्षम साबित होते हैं।  


कुछ वर्ष पूर्व जब देश में आर्थिक सुधार लागू किए गए थे तब यह समस्या भी सामने आई थी कि पुराने उद्योगों के नवीनीकरण और उन का बंदीकरण करने में उद्योगपतियों को श्रमिक प्रतिरोध की  समस्या का सामना करना पड़ता है और उस के लिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिस से यह समस्या उत्पन्न न हो।  इस के लिए सरकार का यह प्रस्ताव सामने आया था कि छँटनी के समय सेवाकाल के प्रत्येक वर्ष के लिए 15 दिन के वेतन के बराबर मिलने वाली मुआवजे की राशि को बढ़ा कर  45 दिन कर दिया जाए।  इस से कर्मचारियों के बीच छँटनी की स्वीकार्यता बढ़ जाएगी।  किन्तु सरकार का यह प्रस्ताव उद्योगपतियों को स्वीकार्य न हुआ और ठंडे बस्ते में चला गया।


पिछले दिनों एक मामला सामने आया जिस में उद्योग के प्रबंधन ने श्रमिकों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि या तो वे स्थानान्तरित हो कर नोएडा चले जाएँ या फिर वे छँटनी को स्वीकार करें।  कर्मचारी अल्पवेतनभोगी थे और उद्योग एक छोटे नगर में स्थापित था जहाँ आवास और अन्य जीवनोपयोगी सुविधाएँ सस्ती हैं।  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित नोएडा में उन्हीं सुविधाओं के लिए उन्हें दुगनी कीमत अदा करनी होती।  श्रमिकों ने प्रबंधन को प्रस्ताव दिया कि उन का वेतन उसी अनुपात में बढ़ा दिया जाए तो वे स्थानान्तरण स्वीकार कर लेंगे।  लेकिन प्रबंधन एक रुपया भी वेतन बढ़ाने को तैयार न था।  एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरण बिना श्रमिकों की अनुमति के किया नहीं जा सकता था।  प्रबंधन ने श्रमिकों को छँटनी का नोटिस दे दिया।  प्रबंधन श्रमिकों को नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी तो देने को तो तैयार था लेकिन मुआवजा देने से उसने हाथ खड़े कर दिए।  मामला श्रम विभाग के पास पहुँचा।  श्रम विभाग ने नियोजक को समझाया कि कानून के मुताबिक उसे श्रमिकों को मुआवजा और ग्रेच्यूटी दोनों ही देने पड़ेंगे।  प्रबंधन  किसी तरह तैयार न हुआ।  


श्रमिकों ने श्रम विभाग को यह भी प्रस्ताव दिया कि उन्हें नोटिस वेतन और मुआवजा दिला दिया जाए, वे ग्रेच्यूटी के लिए न्यायालय चले जाएंगे।  लेकिन इस के लिए नियोजक तैयार न था। वह चाहता था कि श्रमिक छँटनी के मुआवजे का अधिकार छोड़ दें तभी उन्हें अन्य लाभ भी दिए जाएँ अन्यथा वे सारे लाभों केलिए लड़ें।  तब श्रम विभाग श्रमिकों को ही समझाने लगा कि उन्हें नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी ले लेनी चाहिए।  वर्ना  उद्योगपति तो राज्य ही छोड़ कर चला जाएगा तो उन्हें इस से भी हाथ धोना पड़ेगा।  श्रम विभाग मामले को श्रम न्यायालय को प्रेषित करने की सिफारिश राज्य सरकार से करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता और यह तो सर्वविदित ही है कि श्रम विभाग में बीस वर्ष पुराने मुकदमे अभी भी लंबित चल रहे हैं।  श्रमिक इस के लिए तैयार न हुए।  छँटनी का यह मामला न्यायालय को संप्रेषित करने के लिए श्रम विभाग द्वारा राज्य सरकार को संप्रेषित कर दिया गया।  अब श्रमिकों को एक रुपया भी मिल सकेगा या नहीं यह कोई नहीं जानता।


स तरह के मामलों में राज्य सरकार चाहे तो त्वरित कार्यवाही कर के श्रमिकों को उन के कानूनी अधिकार दिला सकती है।  वह पर्याप्त संख्या में श्रम न्यायालयों की स्थापना कर के ऐसे विवादों का निपटारा छह माह से एक वर्ष की अवधि में होना सुनिश्चित कर सकती है।  तब तक वह नियोजक की संपत्ति को कुर्क रख सकती है जिस से श्रमिकों को उन का धन मिलना सुनिश्चित हो सके।  लेकिन राज्य और केन्द्र सरकारें इस मामले में असहाय श्रमिकों के स्थान पर कानून की पालना न करने की इच्छा रखने वाले नियोजकों के साथ ही खड़ी नजर आती हैं।  निश्चित रूप से इस का मुख्य कारण है कि 1980 के बाद से देश में श्रमिक आंदोलन और श्रम संगठन कमजोर होते गए हैं।  लेकिन समाज में मेहनत करने वालों की इस तरह की लगातार उपेक्षा श्रमिक आंदोलन और श्रमसंगठनों को एक बार फिर से उठ खड़े होने के लिए वातावरण प्रदान कर रही है।  आखिर कब तक वे चुप रह सकेंगे?

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपने अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण, चिन्‍तनीय और आधारभूत बात उठाई है।

    मेरा निजी अनुभव है कि श्रमिक-हितों की रक्षा तथा श्रमिकों की बेहतरी के लिए बनाई गई व्‍यवस्‍था, श्रमिकों के बजाय 'मालिकों' की रक्षा करती है क्‍योंकि 'मालिक' तो व्‍यवस्‍था के आर्थिक हित साध देते हैं जबकि श्रमिकों के लिए ऐसा कर पाना असम्‍भवप्राय: ही होता है।

    आपने कानूनी समस्‍याऍं और उनके निदान के उपाय बताऍं हैं। किन्‍तु मुझे तो इससे भी पहले और इससे बडी समस्‍या यह लगती है कि रखवाले ही डाका डाल रहे हैं। बागड ही खेत खा रही है।

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  2. एकदम सही व हकीकत मुद्दा उठाया है आपने|
    अक्सर मेरे सामने भी ऐसे मामले आते रहते है जब दिल्ली की कोई कंपनी महज इसलिए नोयडा जा रही होती है कि वहां जायेंगे तो जितनी स्थायी लेबर है उसकी छंटनी हो जायेगी और नोयडा में ठेके पर मजदूर रख लिए जायेंगे|
    दिल्ली की कंपनियों का पलायन का सबसे बड़ा कारण यह है कि दिल्ली में न्यूनतम वेतन यूपी व हरियाणा से बहुत ज्यादा है इसलिय अक्सर दिल्ली की कंपनियां पलायन करती है|
    कुछ अच्छे लोग भी है जो स्थान परिवर्तन के समय अपने श्रमिकों को उनका पुरा हक भी देते है|
    आज से नौ साल पहले मैं जिस कंपनी में काम करता था वह भी दिल्ली से नोयडा गयी, कुछ श्रमिकों ने विवाद किया और ज्यादा मांग की|
    मालिक ने सिर्फ यही कहा कि- अपने वकील को ले आयें और वह हमें आप जो मांग रहे है वह लिखा कानून कहीं भी दिखा दें वो हम दे देंगे|
    आखिर मैंने भी उन श्रमिकों को समझाया उनकी समझ में आ गया मालिक ने उन्हें सरकारी कानूनों से ज्यादा ही दिया साथ ही नोयडा में नौकरी भी दी|

    पर ज्यादातर लोग ऐसे मौकों पर छंटनी करने का ही मौका तलासते है वो भी बिना कुछ दिए|

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  3. 'किन्तु सरकार का यह प्रस्ताव उद्योगपतियों को स्वीकार्य न हुआ और ठंडे बस्ते में चला गया।'

    यही तो मुद्दा है... हालाँकि सरकार का उद्देश्य भी लगभग वही है, जो उद्योगपतियों का है।

    जरूरी सवाल...

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  4. बड़ी विषम परिस्थितयां हैं , न्याय मिलना आसान नहीं !
    एक उपयोगी लेख ...
    आभार आपका !

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  5. जब तक बाजार शासन करेगा, न्याय बाधित रहेगा..

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