सिम्पल अंकल,
सादर प्रणाम!
आखिर
आप ने पहली बार भारतवर्ष के विद्यार्थियों का दर्द समझा है। हम तो कब से
कहते थे कि हमारी शिक्षक बिरादरी उतनी पढ़ी लिखी नहीं, जितनी होनी चाहिए।
अब तक कोई समझता ही नहीं था। हम कुछ कहते तो हमारी बात को तो बच्चों की बात
समझ कर हवा कर दिया जाता। जब हम परेशान हो कर कुछ कर बैठते तो आप और आप के
भाई-बंद हमें ही दोष देने लगते। कहते, नई पीढ़ी बिगड़ती जा रही है, वह
अपने शिक्षकों का सम्मान करना तक भूलती जा रही है। अब नई पीढ़ी उन कम पढ़े
लिखे शिक्षकों का सम्मान भी करे तो कैसे करे? वे हमें वे सब सिखाने की
कोशिशें करते रहते हैं जिन की हमें बिलकुल जरूरत नहीं है। आखिर हम
स्टूडेंटस् का टाइम कोई खोटी करने के लिए थोड़े ही होता है।
सिम्पल अंकल! वैसे आपने बात बिलकुल
मैथेमेटिक्स के फारमूले की तरह कही है। जिसे रटा जा सकता है, लेकिन समझने
में पसीने छूटने लगते हैं। ये आपने क्या किया? आप को सारी बात खुलासा करनी
चाहिए थी। अब हम तो ये भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इस बात को कहने के पीछे
आप का इरादा क्या है? खैर¡ आप का इरादा भी पता लग ही जाएगा। अन्वेषण से हर
बात पता की जा सकती है। आप का इरादा कौन बड़ी चीज है?
शिक्षा प्रणाली ही तो ऐसी चीज है जिस के
बारे में कोई भी, कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कह देता है। जो मुहँ में आता है
वही पेल देता है। जैसे हम बच्चे, बच्चे न हुए एक्सपेरिमेंट का सबजेक्ट हो
गए। ये कोई आज की बात भी नहीं। कोई पौन सदी पहले कहानी उपन्यास लिखने वाले
कोई मुंशी जी भी ऐसे ही पेल गए थे ‘‘संसार में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली का व्यवहार हो रहा है, वह मनुष्य में ईर्ष्या, घृणा, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता आदि दुर्गुणों को पुष्ट करती है और यह क्रिया शैशव अवस्था से ही शुरू जो जाती है। सम्पन्न माता-पिता अपने बालक को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करके और बड़े होने पर उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी दशा में रखने की चेष्टा करके, उसे इतना निकम्मा बना देते हैं, और उसकी बुनियाद को इतना परिवर्तित कर देते हैं कि वह समाज का खून चूसने के सिवा और किसी काम का रह नहीं जाता।“
सिम्पल अंकल! आप ने भी मुंशी जी को जरूर
पढ़ा होगा। तभी तो आप को यह सब कहने की प्रेरणा मिली। आप उन्हें न पढ़ते तो
कैसे जान पाते कि मुंशी जी के जमाने में अच्छे विद्यार्थी स्कूलों,
कालेजों में किस तकनीक से ढाले जाते थे? देखिए तो उन्हों ने क्या कहा था -“उस सांचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करने वाला, पक्का उपयोगितावादी और घमंडी होकर रह जाता है।’’
हम ने भी मुंशी जी को न पढ़ा होता तो समझ
ही नहीं पाते कि आप का दर्द क्या है? और आप क्यों इतनी पीड़ा के साथ ये बात
कह रहे हैं? वो क्या है न, कि इन दिनों स्कूल कालेज से निकल कर बच्चे लोग
आप की वाली पार्टी में नहीं जा रहे, वे पिम्पल अंकल पार्टी में भी नहीं जा
रहे। वे स्कूल कालेज से निकलते हैं और सीधे अन्ना के आंदोलन में पहुँच
जाते हैं। आप के इस दर्द को हम बच्चे न समझेंगे तो कौन समझेगा?
वैसे आप से पहले भी हम बच्चों के दर्द को
बड़े लोग कभी कभी समझ लिया करते थे। कोई पच्चीस साल पहले राजीव अंकल ने
हमारे दर्द को समझा था और अमरीका के हावर्ड विश्वविद्यालय में जा कर कहा था
‘‘मैं नहीं समझता कि साक्षरता लोकतंत्र की कुंजी है...हमने देखा है...और मैं सिर्फ भारत की ही बात नहीं कर रहा हूं...कि कभी-कभी साक्षरता दृष्टि को संकुचित बना देती है, उसे विस्तृत नहीं बनाती।’’
अब आप तो उन्हीं की पार्टी के हैं, आप को
तो राजीव अंकल का पुख्ता लोकतंत्र का सपना भी पूरा करना है। नहीं करेंगे तो
सोनिया आन्टी नाराज नहीं हो जाएंगी? उन्हों ने खोज निकाला था कि लोगों के
दृष्टि संकुचन के लिए ये कम पढ़े लिखे शिक्षक ही जिम्मेदार हैं, जो बस
उन्हें साक्षर कर छोड़ देते हैं। राजीव अंकल को अनहोनी ने हम से छीन लिया,
वरना वे जरूर हमारे लिए कुछ करते। उन के बाद हमारे बारे में किसी ने सोचा
ही नहीं। वो बीच में एक अटल अंकल आए थे, उन्हों ने तो हाथ ही खड़े कर दिए
थे, कहा था ‘‘सरकार के लिए सभी भारतीयों को शिक्षित करना सम्भव नहीं। अतः गैर सरकारी संस्थान आगे आए और देश को पूर्ण शिक्षित करें।’’
अब ये भी कोई बात हुई? बच्चों को इस तरह गैर सरकारी लोगों के भरोसे छोड़
दिया जाएगा तो यही तो होगा न कि वे आप की पार्टी में आना बंद कर देंगे।
सिम्पल अंकल¡ आप को ज्यादा परेशान नहीं
होना चाहिए। ये समस्याएँ तो चलती रहती हैं। इन दिनों मन और प्रण अंकल भी कम
परेशान नहीं हैं। मन अंकल की बेटी कुमारी अर्थव्यवस्था उन के काबू में नही
आ रही है। प्रण अंकल भी उन की मदद नहीं कर पा रहे हैं, इस से मन अंकल उन
से खासे नाराज हैं। आप भी न ज्यादा परेशान न हों। बस डेढ़-दो बरस की बात और
है उस के बाद तो आप को वैसे भी इन सब परेशानियों से पब्लिक मुक्ति देने
वाली है। आप फिर से बिंदास हो कर वकालत कर सकेंगे। आप बेफालतू परेशान हो
रहे हैं। आप को तो अपना दफ्तर और लायब्रेरी संभालनी चाहिए और उसे अपडेट
करना चाहिए।
- हम हैं आप के बच्चे!
दर्द के साथ दवा भी मिले..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
ईश्वर बचाए हमारे बच्चों को....इसकी पकड़ से....
जवाब देंहटाएंशिक्षा प्रणाली ही तो ऐसी चीज है जिस के बारे में कोई भी, कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कह देता है। जो मुहँ में आता है वही पेल देता है।...
जवाब देंहटाएंबेहतर...
शिक्षा के क्षेत्र में हम थॉमस मैकाले की व्यवस्था का अनुकरण कर रहे हैं. साथ ही सुनिश्चित कर रहे हैं कि साक्षरता आए लेकिन जो आए उसकी उपयोगिता सस्ते श्रम के लिए हो.
जवाब देंहटाएंअच्छा व्यंग.
सिम्पल अंकल का सुनने वाला कान ख़राब है
जवाब देंहटाएंकाजल कुमार जी,
जवाब देंहटाएंबच्चा लोग बहुत शातिर है। उन को ये सब पता है। आखों के लिए सिम्पल अंकल के पास चश्मा है। इसी लिए बच्चा लोगों ने चिट्ठी लिखी, फोन नहीं किया।
सिंपल अंकल तो अब चेहरे पर एक पिंपल के समान लग रहे हैं सर । ताज्जुब है कि काबलियत का उपयोग सिर्फ़ शातिरपने के लिए ही किया जा रहा है या शायद आज की राज़नीति का यही तकाज़ा है । आपकी चिट्टी टेलीग्राम की तरह सर पे फ़टने वाली सी लगी
जवाब देंहटाएंबेहद मजेदार! सही कहा आपने - "आप बेफालतू परेशान हो रहे हैं।"
जवाब देंहटाएंकाजल कुमार जी, सुनने वाला कान खराब और उमेठने वाला?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर