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सोमवार, 4 जुलाई 2011

टल्ला मारने का तंत्र

भारत आबादी का देश है। एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा का। लेकिन सरकार में कर्मचारी तब अधिक दिखाई देते हैं जब सरकार को उन्हें वेतन देना होता है। आँकड़ा आता है कि बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारी ही निपटा जाते हैं, विकास के लिए कुछ नहीं बचता। तब वाकई लगने लगता है कि कर्मचारियों पर फिजूल ही खर्च किया जा रहा है। 

लेकिन किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। हर जगह कर्मचारी जरूरत से बहुत कम नजर आएंगे। अस्पताल में डाक्टरों की कमी है तो स्कूलों में अध्यापकों की। सरकारी विभागों में पद खाली पड़े रहते हैं। जब भी किसी अफसर से काम की कहें तो वह दफ्तर की रामायण छेड़ देता है। क्या करें साहब?  कैसे काम करें? दो साल से दफ्तर में स्टेनो नहीं है। केसे फाइलें निपटें। सरकार से कोई योजना आ जाती है उस में लगना पड़ता है। ज्यादातर योजनाएँ सरकार खुद नहीं बनाती सुप्रीमकोर्ट सरकारों को आदेश दे देता है और उन्हें करना पड़ता है। अब देखो श्रमविभाग में श्रमिक चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहे हैं कि उन्हें उन का मालिक न्यूनतम वेतन नहीं देता। श्रम विभाग का अधिकारी कहता है अभी फुरसत नहीं है अभी तो बाल श्रमिक तलाशने जाना है। पिछले चार-पाँच साल से श्रम विभाग युद्ध स्तर बाल श्रमिक तलाशने में लगा है। मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं पर बाल श्रमिक हैं कि ठीक श्रम विभाग के पीछे लगी चाय की गुमटी तक से कम नहीं होते। 

बाल श्रमिकों से फुरसत मिलती है तो उन्हें ठेकेदारों का पंजीयन करना है, उस के बाद सीधे मोटर वाहन मालिकों का पंजीयन का काम आ जाता है। उस के खत्म होते-होते अचानक राज्य सरकार की योजना आ गई है कि निर्माण श्रमिकों का पंजीयन करना है, उन के परिचय पत्र बनाने हैं। ऐसा करते करते साल पूरा हो जाता है तो दुकानों के पंजीयन के लिए केम्प चल रहे हैं। बेचारे न्यूनतम वेतन वाले चक्कर पर चक्कर लगाते रह जाते हैं। उन के साथ-साथ वे भी चक्कर लगा रहे हैं जिन्हें वेतन नहीं मिला है या उस में कटौती कर ली गई है। नौकरी पूरी होने के चार साल बाद तक भी एक मजदूर चक्कर काट रहा है कि उसे ग्रेच्युटी नहीं मिली है। बहुत सारे वे लोग हैं जो दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं  या फिर उन के आश्रित हैं जिन्हें अभी तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला है। अधिकारी कहता है कि काम चार गुना बढ़ गया है और पाँच सालों से एक चौथाई पद खाली पड़े हैं। सरकार इन पदों को खत्म कर देगी कि जब इन के बिना काम चल रहा है तो इन पदों को बनाए रखने का फायदा क्या है? चक्कर लगाने वालों से कोई नहीं पूछता कि पद होने चाहिए या नहीं।

ब काम अधिक होता है और काम करने वाले कम तो एक नया तंत्र विकसित होने लगता है। अब दिन भर में काम तो दस ही होने हैं, अधिक हो नहीं सकते। फिर चालीस व्यक्ति चक्कर लगा रहे हों तो तीस को टहलाना होगा। उन्हें टहलाने का तंत्र विकसित कर लिया जाता है या अपने आप हो जाता है। आप को दर्ख्वास्त के साथ शपथ-पत्र लाना चाहिए था। आप शपथ पत्र बनवा कर लाइए। शपथ पत्र बन कर आ जाता है तो उस में स्टाम्प पूरा नहीं है, आप दोबारा बनवा कर लाइए। इस में चोकोर मोहर लगी है, गोल लगनी चाहिए थी। अच्छा ठीक है आप गोल मोहर भी लगवा लाए। अच्छा आप अपनी दर्ख्वास्त आमद में दे दीजिए, वहाँ से दर्ख्वास्त की नकल पर पावती ले लेना, सबूत रहेगा कि दर्ख्वास्त दी है। और नकल को संभाल कर रखना कहीं दफ्तर में खो गई तो दुबारा देनी पड़ सकती है। ये बहाने तो एक प्रतिशत से भी कम हैं। कोई शोध नहीं करता वरना इस के सौ गुना से भी अधिक की सूची बनाई जा सकती है। 

थाने में चले जाइए। अरे! कागज खत्म हो गए हैं, एक दस्ता कागज ले आइए, साथ में कार्बन और कोपिंग पेंसिल लाना न भूलिएगा। बस उलटे पैर चले आइए अभी रपट लिखी जाती है। इन सब को ले कर वापस पहुँचे तो पता लगा वहाँ सिर्फ मुंशी जी बैठे हैं। दरोगा जी तफ्तीश पर पधार गए हैं। अभी आते हैं घंटे भर में आप बैठिए। बैठिए कहाँ भला? टूटी हुई बैंच पर पहले ही दो लोग बैठे हैं। आप बाहर आ कर नीम की छाँह में जगह तलाशते हैं। डेढ़ घंटा गुजर गया है। दरोगा जी आए नहीं। मुंशी से पूछने पर बताता है उन का कोई भरोसा नहीं है। उधर छावनी ऐरिया में कहीं आग लग गई है सीधे वहीं चले गए हैं। ऐसा क्यों नहीं करते शाम को सात बजे आइए। उस समय वे यहीं रहते हैं। शाम को सात बजे दरोगा जी मिल जाते हैं। दो-तीन बदमाशों को पकड़ कर लाए हैं। एक की पट्टे से पिटाई हो रही है। दरोगा जी रौद्र रूप में हैं। अब इस रौद्र रूप में उन से रपट के लिए कहने की जुर्रत कौन करे। बस लौट आए की सुबह देखेंगे। 

दालतों की छटा और भी निराली है। वहाँ भी चौगुना काम है। अदालत के आज के मुकद्दमों की फेहरिस्त में सौ से ऊपर मुकदमे लगे हैं। जज को सिर्फ बीस निपटाने हैं। अस्सी को टल्ला मारना है। चालीस को रीडर निपटा चुका है। चालीस और हैं। एक दर्ख्वास्त पर बहस सुननी है। जज कहता है आज तो सीट पर से उठा तक नहीं हूँ। सुबह बैठा था। लंच में बैंक जा कर आया हूँ, चाय तक नहीं पी है। आप अगली पेशी पर बहस सुनाइएगा। वह तारीख दे देता है। तीन चार फाइलें उधर दफ्तर से ही नहीं निकली हैं, मुवक्किल दफ्तर के बाबू से भिड़े हैं कि उन की फाइल निकल जाए तो कुछ काम हो। पर चार बजे फाइल निकलती है तब तक साहब चैंबर में बैठ कर फैसला लिखाने लगे हैं। अब तो वहाँ घुसने में चपरासी भी कतरा रहा है। मुवक्किल रीडर से तारीख ले कर खिसक लेते हैं। एक मुकदमा दो साल पहले से चल रहा है उस में अभी तक विपक्षी ने जवाब नहीं दिया है। रीडर तारीख लगा देता है। कहता है अगली पेशी पर जरूर ले लेंगे। उसी अदालत में ताजा मुकदमा आया है, एक जज साहब फरियादी हैं। उस में जवाब के लिए पहली तारीख है। रीडर को सभी कायदे कानून  स्मरण हो गए हैं। वकील को कहता है आज जवाब ले आइये वरना जवाब बंद कर दिया जाएगा। देखते नहीं जज साहब का मुकदमा है। कुछ और भी मुकदमे हैं जो सीधे राजधानी में सफर कर रहे हैं। रीडर को उस का भरपूर ईनाम मिल रहा है। 
मारे पास कम पुलिस है, कम अदालतें हैं, कम स्कूल और कम शिक्षक हैं, कम डाक्टर और कम अस्पताल हैं। नगर पालिका के पास कम सफाई कर्मचारी हैं। जो हैं उन्हों ने टल्ला मारने का तंत्र विकसित कर लिया है। यदि न करते तो सरकारें कैसे चलतीं?

14 टिप्‍पणियां:

  1. गुरुवर जी, आपने 100 प्रतिशत सत्य लिखा है.आपका उपरोक्त लेख अव्यवस्था पर एक करारा प्रहार है.अंतिम पैराग्राफ समस्त अव्यवस्था की कहानी दोहराता है कि-हमारे पास कम पुलिस है, कम अदालतें हैं, कम स्कूल और कम शिक्षक हैं, कम डाक्टर और कम अस्पताल हैं। नगर पालिका के पास कम सफाई कर्मचारी हैं। जो हैं उन्होंने टल्ला मारने का तंत्र विकसित कर लिया है। यदि न करते तो सरकारें कैसे चलतीं?

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  2. बिल्कुल सही कह रहे हैं.... टल्ला मारने का तंत्र विकसित हो गया है.

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  3. पुलिस और दारोगा वाली बात बहुत अच्छी तरह से कही है। शानदार!

    बाल श्रमिक की बात पर पटना का बाल श्रमिक आयोग का कार्यालय याद आता है जो आयकर चौराहा के पास है और उसी के पास बाल श्रमिक काम करते होंगे, यह तय है।

    रेलवे स्टेशन भी याद आ रहा है जहाँ दस काउंटर हैं और तीन-चार ही खुलते हैं।

    यह तंत्र नहीं तंत्र(साधना वाला जिसमें साधक देवता के लिए कष्ट सहता है) हो गया है।

    भले सबकुछ कम हो लेकिन विकास का शोर मचाने का अहम तो है।

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  4. जब टल्ला मारने से ही काम चल जाता है तो काम करने की क्या जरुरत है , और जब तक किसी टल्ले के बहाने काम लटकायेंगे नहीं तब तक इन्हें मिलेगा भी क्या?

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  5. सबका अपना न्यूनतम-श्रम-तन्त्र विकसित हो गया है।

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  6. टल्ला मारने या गोली देने की एक वजह और भी है...

    मुर्गी जितनी बार आएगी, अंडा देगी...फिर उसे एक बार में ही चट करने से क्या फायदा...

    जय हिंद...

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  7. हर इंसान चहेता है,

    जो माल खिलाये |

    हर वो भैंस दुलारी है,

    जो दूध पिलाये ||

    साहब तो मगरूर है | दुनिया का दस्तूर है ||




    मुर्गी है तो अंडा दे--

    मुर्गा-बकरा कट जाये |

    किन्तु नहीं कुछ पल्ले तो-

    हट जाये, बस हट जाये--

    पद के मद में चूर है | दुनिया का दस्तूर है ||





    बहुत सुन्दर भाव ||


    बधाई |

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  8. इसी टल्ले से गल्ले भरे जा रहे हैं।

    अच्छी खबर ली आपने।

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  9. पूरी व्यवस्था का बेड़ा गर्क़ हो चुका है। चारों तरफ हताशा का ही माहौल है।

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  10. हम आज़ादी की लड़ाई तो जीत गए पर वही परतंत्र की व्यवस्था से काम चला रहे हैं, इसलिए आज भी हम मानसिक तौर पर गुलाम है और गुलाम तब तक काम नहीं करता जब तक पीछे कोई हंटर लेकर खडा न हो :(

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  11. प्रतिबद्धता सिरे सी ही गायब है...
    तो तंत्र का यह हाल होना ही था...

    जानबूझकर यह हाल बनाए रखा जाता है, ताकि समृद्धों के पास लूप-होल्स रहें...और मजबूर भ्रम में रहे कि कुछ हो सकता है...देर है पर अंधेर नहीं...

    और जिनकी चलनी है, उनकी गाड़ी चले जा रही है...

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  12. सुना है एक तंत्र वो भी विकसित हो रहा है जिसमें सरकारी कर्मचारी अपने काम के लिए किसी और को नियुक्त कर खुद कुछ और करता है. !

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  13. जिस तरह आप अदालतों और न्यायिक सेवाओं की कमी की बात बताते रहते हैं वह बात सरकारी सेवाओं पर लागू तो नहीं होती पर यह सही है की सरकारी सेवकों का बड़ा तबका अक्षम और अयोग्य है. इन लोगों में पुराने लोगों की तादाद ज्यादा है. मेरे सामने पिछले दस सालों में जो युवा जन दफ्तर में आये हैं वे प्रतिभावान और कर्मठ हैं. पुराने लोग सीखना नहीं चाहते और उनके पास काम को टालने के कई बहाने होते हैं. सेवानिवृत्ति के करीब पहुँच चुके ऐसे लोगों से काम लेना खासा मुश्किल है.

    किसी ऐसे विभाग में जाएँ जहाँ पब्लिक डीलिंग नहीं होती या कम होती है. वहां आपको ज्यादातर लोग शांति से काम करते ही दिखेंगे.

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