मुझे पिताजी के साथ बहुत कम रहने का अवसर मिला। हुआ यूँ कि वे अध्यापक हुए तो बाराँ में उन का पदस्थापन हुआ। मुझे पता नहीं कि जब मैं पैदा हुआ तो उन का पदस्थापन कहाँ था। पर उस साल वे कुल 22 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापक थे। चाचा जी बारां में रह कर पढ़ते थे इसलिए माँ को बाराँ ही रहना पड़ता था। छह वर्ष में बाराँ जाना पहचाना नगर हो चुका था। वे अकेले ही कस्बे में रहते और साप्ताहिक अवकाश के दिन बाराँ आ जाते। जिस रात मेरा जन्म हुआ वे मेरी दादी को लेने गाँव गए हुए थे और माँ और चाचाजी अकेले थे। जब मैं दो ढाई वर्ष का हुआ तो एक मंदिर में पुजारी चाहिए था। मंदिर के मालिकान दादा जी को गाँव से ले आए, दादी और बुआ भी वहीं आ गईं। दादाजी का सारा परिवार वहीं आ गया था। मंदिर का काम पुजारी के अकेले के बस का न था। सारा परिवार उसी में जुटा रहता। पिताजी अक्सर नौकरी पर बाहर रहते। उन से सिर्फ अवकाशों में मुलाकात होती या फिर तब उन के साथ रहने का अवसर मिलता जब दीपावली के बाद वे माँ को और मुझे साथ ले जाते। गर्मी की छुट्टियाँ होते ही हम वापस बाराँ आ जाते। एक वर्ष वे शिक्षक प्रशिक्षण के लिए चले गए। कुछ वर्ष उन का पद स्थापन बाराँ में ही रहा तब उन के साथ रहने का अवसर मिला।
वे कर्मयोगी थे। हर काम खुद कर लेते। भोजन बनाने का इतना शौक था कि कहीं कोई नया पकवान खाने को मिलता तो विधि पूछ कर आते और तब तक बनाने का प्रयत्न करते जब तक उसे श्रेष्ठता तक पकाना न सीख जाते। अक्सर अवकाश पर जब वे घर होते तो उन के कुछ मित्र भोजन पर आमंत्रित रहते, वे पकाते, अम्माँ मदद करतीं। हम परोसने आदि का काम करते। जब मैं बारह वर्ष का हुआ तो उन्हों ने मुझे भोजन बनाना सिखाया। सब से मुश्किल काम एक-दम गोल चपाती बेलना था। जिसे वे बहुत खूबसूरती से करते थे। आटे का लोया चकले पर रखते और बेलन को ऐसा घुमाते कि एक बार में ही पूरी रोटी बेल देते, वह भी एकदम गोल। अम्माँ और घर की दूसरी महिलाएँ भी उतनी गोल चपाती न बेल पातीं। वे जिस भी विद्यालय में होते वहाँ सब से कनिष्ट होते हुए भी विद्यालय का सारा प्रशासन संभाल लेते। प्रधानाध्यापक प्रसन्न रहता, उसे कुछ करना ही न पड़ता। विद्यार्थी और उन के अभिभावक भी उन से प्रसन्न रहते। वे संस्कृत, गणित, अंग्रेजी, भूगोल के अच्छे शिक्षक होने के साथ वैद्य भी थे। विद्यालय में हमेशा एक प्राथमिक चिकित्सा का किट बना कर रखते और अक्सर उस का उपयोग करते। घर पर बहुत सी दवाएँ हमेशा रखते। परिजनों के साथ वे मित्रों आदि की चिकित्सा भी करते। दवाई की कीमत कभी न लेते। वे अच्छे स्काउट भी थे। अक्सर अपने क्षेत्र में लगने वाले प्रत्येक स्काउट केम्प के मुख्य संचालक होते।
अनुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त न थी। इस कारण मुझे उन से अनेक बार पिटना पड़ा। पिटाई करते समय वे बहुत बेरहम हो जाते। फिर भी मुझे कभी उन से शिकायत न हुई। उन की आँखों में जो प्रेम होता था, वह सब कुछ भुला देता था। पिताजी मेरा जन्मदिन हमेशा मनाते, शंकर जी का अभिषेक कराते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और उन के मित्रों को भी। मुझे भी कुछ न कुछ उपहार अवश्य ही मिलता था। कुछ बड़ा हुआ तो पिताजी के नौकरी पर बाहर रहने के कारण घर के बहुत से काम मुझे ही करने पड़ते। वे जब भी आते हमेशा दादी और दादाजी की सेवा में लगे रहते। मैं सोचता था कि पिताजी के सेवानिवृत्त हो जाने के उपरांत मैं भी पिताजी और अम्माँ की ऐसे ही सेवा करूंगा। लेकिन मुझे पिताजी के सेवानिवृत्त होने के पहले ही बाराँ छोड़ कर वकालत के लिए कोटा आना पड़ा। पिताजी ने मुझे ऐसा करने से रोका नहीं। बहुत बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि वे मेरे इस फैसले से खुश न थे। सेवानिवृत्त होने पर वे बाराँ रहने लगे। तब वे स्वैच्छिक काम करना चाहते थे। लेकिन उन के पूर्व विद्यार्थियों ने उन से आग्रह किया कि वे कम से कम उन की बेटियों को अवश्य पढ़ाएँ। वे फिर पढ़ाने लगे। लड़कियाँ घर पढ़ने आतीं। उन का घर बेटियों से भरा रहने लगा। एक रात मुझे खबर मिली कि वे हमें छोड़ कर चले गए। तब उन की उम्र बासठ वर्ष की ही रही होगी। मुझे हमेशा यह अवसाद रहेगा कि मुझे उन की सेवा का अवसर न मिला। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि माँ भी अभी तक मेरे साथ नहीं रह सकीं।
कुछ दिन पूर्व आयोजन में हाडौ़ती/हिन्दी के ख्यात कवि/गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से मुलाकात हुई। मैं जब भी उन से मिलता हूँ लगता है अपने पिताजी के सामीप्य में हूँ। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ था तब वे और पिताजी एक ही स्कूल में अध्यापक थे। वहाँ दोनों ने मिल कर अध्यापकों द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की प्रथा को तोड़ा था और वे दोनों विद्यार्थियों को अपने घर बुला कर निशुल्क पढ़ाने लगे थे। हाड़ा जी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में झालावाड़ से पधारे थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद उन्हें झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें अपनी कार में बस स्टेंड तक छोड़ने का प्रस्ताव किया। वे राजी हो गए। इस तरह मुझे कुछ घड़ी अपने पिता के एक साथी के साथ रहने का अवसर मिला। मुझे अहसास हुआ कि जैसे पिताजी भी कहीं समीप ही हैं।
आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया देश, दुनिया में रथयात्रा के रूप में मनाई जाती है। पिताजी का जन्म इसी दिन हुआ था। हम इस दिन को हमेशा पिताजी के जन्मदिन के रूप में मनाते। इस दिन घर में चावल, अमरस बनते और पूरा परिवार इकट्ठे हो कर भोजन करता। आज भी हम ने घर में चावल, अमरस बना है साथ में अरहर की दाल है। हम भोजन करते हुए पिताजी को स्मरण कर रहे हैं।
आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया देश, दुनिया में रथयात्रा के रूप में मनाई जाती है। पिताजी का जन्म इसी दिन हुआ था। हम इस दिन को हमेशा पिताजी के जन्मदिन के रूप में मनाते। इस दिन घर में चावल, अमरस बनते और पूरा परिवार इकट्ठे हो कर भोजन करता। आज भी हम ने घर में चावल, अमरस बना है साथ में अरहर की दाल है। हम भोजन करते हुए पिताजी को स्मरण कर रहे हैं।
यानि आज तीन बजे भोजन हुआ। नि:शुल्क पढ़ाने की बात हमारे आदर्श समाज में शामिल है। यह कदम बहुत अच्छा था। आप पिताजी को याद कर रहे हैं तो पिताजी पर एक पोस्ट यहाँ भी देख लें। http://blog.sureshchiplunkar.com/2007/01/blog-post_7058.html
जवाब देंहटाएंएक आदर्श अध्यापक को पिता के रूप में पाना अवश्य ही गौरव का विषय है। आपको बधाई और पिताजी को सादर प्रणाम। जन्मदिन पर उन्हें इस प्रकार याद करना बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंपिताजी के बारे में जानकार अच्छा लगा द्विवेदी जी ! कलमबद्ध करके हमेशा के लिए आपने अपने संस्मरण सुरक्षित कर लिए हैं !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (4-7-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
पिता जी के जन्म दिवस पर उनका पुण्य स्मरण इस तरह करना अच्छा लगा...हमारा नमन!!
जवाब देंहटाएं'उन का पदस्थापन हुआ।' सामान्यतः 'उनकी पदस्थापना हुई' लिखा जाता है.
जवाब देंहटाएंपिताजी को नमन
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंपिता जी के जन्म दिवस पर नमन ||
is avsar par shrrdhaa ke saath naman ..akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आप का पिता प्रेम देख कर और आपके पिता जी के बारे मैं जान के.
जवाब देंहटाएंजीवन का यह कोमल पक्ष सदा ही अनकहा रहता है, आपको संस्कार में उनके सारे ही गुण मिले हैं।
जवाब देंहटाएंआत्मा वै जायते पुत्रः
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके पिता जी के बारे में पढ़ कर यह तो आपके लिए गौरव की बात है ऐसे योग्य व्यक्ति आपके पिता जी है |
जवाब देंहटाएंपुण्यात्मा को हमारा भी नमन.
जवाब देंहटाएंपिताजी हमेशा उन सभी अध्यापकों में दिखेंगे जो नि:शुल्क पढ़ाते हों..उन्हें नतमस्तक प्रणाम...
जवाब देंहटाएंआपके और आपके परिवार के बारें में अभी कोई चार-पांच दिन पहले ही "शब्दों का सफर" ब्लॉग पर पढ़ा था.पढकर मुझे भी अहसास हुआ था.कहीं न कहीं कोई अनछुई कोई बात रह गई है.आज इस पोस्ट में बात पढकर मालूम हुआ.आपकी उपरोक्त पोस्ट को पढकर मुझे अपने पिताजी याद आ गए.
जवाब देंहटाएंमुझे भी अपने पिता की कुछ सेवा करने का अवसर लगभग 6 साल पहले प्राप्त हुआ था.जब उनकी गिरने से गर्दन की हड्डी टूट गई थी.काफी इलाज के बाद भी ठीक नहीं हुई.तब हम तीनों भाइयों को सेवा करने का अवसर मिला था.जहाँ एक ओर डाक्टरों ने जवाब दें दिया था वहीँ हमारी सेवा करने से दुबारा चलने-फिरने लग गए थें और उसके बाद 26 महीने तक उनका हमें मार्गदर्शन मिलता रहा था.आज पुरे 40 महीने हो चुके हैं हमारे पिता के डेथ हुए मगर आज भी नहीं लगता है कि हमारे पिता साथ नहीं है.इतने मेहनती थें कि-अपनी 60 साल की उम्र में चाय के झूठे कपों को धो-धोकर हमारा पालन पोषण किया और अधिक से अधिक मेहनत करने की प्रेरणा दी.जब उनकी डेथ हुई थीं तब उनकी आयु 89 साल थी.
नमन पिता जी को, उनके जनमदिन पर
जवाब देंहटाएंपिताजी के जन्मदिवस पर उन्हें नमन...
जवाब देंहटाएंmaine bas sar jhuka diya hai
जवाब देंहटाएंपिताजी को नमन ...
जवाब देंहटाएंकल ही बच्चों को बता रही थी की मारवाड़ में अमरस और चावल विशेष पकवान के रूप में बनाये जाते हैं !
पिताजी के जन्मदिवस पर उन्हें नमन...
जवाब देंहटाएंpitaji ko hardik naman.....
जवाब देंहटाएंpranam.
माता पिता की सेवा न कर पाना जिन्दगी भर सालता रहता है। अच्छा लगा जान कर कि आप के पिता भी अध्यापक थे, मुझे भी अपने पिता की याद आ गयी उन्हों ने भी मरते दम तक पढ़ाना नहीं छोड़ा या यूं कहूँ कि जिस दिन लगा की अब पढ़ाने के लिए शरीर साथ नहीं देगा उन्हों ने शरीर को ही छोड़ना बेहतर समझा।
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