पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। मेरे लिए यह शमशेर और उन के साहित्य को समझने का सुअवसर था। मैं ने उस का लाभ उठाया। यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का पूर्वार्ध प्रस्तुत है ...
शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शील, अज्ञेय, फैज अहमद फैज और शमशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष को एक साथ पा कर आश्चर्य होता है कि इतने सारे महत्वपूर्ण कवि-साहित्यकार एक साथ कैसे पैदा हो गए। वस्तुतः यह कोई संयोग नहीं था। अपितु इन सब के जन्म के बाद का वह काल और उस काल की भारत की परिस्थितियाँ थीं जिस ने इन सब को महत्वपूर्ण बनाया। निश्चित ही उनके महत्वपूर्ण होने में उन के स्वयं के परिश्रम के योगदान को कमतर नहीं कहा जा सकता। इन सब को, और इन के रचना कर्म को समझने के लिए हमें उन के काल को समझना होगा। यदि हम उस परिप्रेक्ष्य में इन्हें समझने का प्रयत्न करें तो चीजें जो जटिल अथवा संश्लिष्ट दिखाई पड़ती हैं वे यकायक स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं जैसे हम उन्हें किसी सूक्ष्मदर्शी पर परख रहे हों। शमशेर बहादुर सिंह पर यह काम ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच, कोटा और राजस्थान साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में 12-13 फरवरी को कोटा में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘काल से होड़ लेता सृजन में हुआ।
मशाल प्रज्वलित कर संगोष्ठी का शुभारंभ |
उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार और दूरदर्शन जयपुर के पूर्व निदेशक नन्द भारद्वाज ने यह स्पष्ट किया कि शमशेर बहादुर सिंह को प्रेम और सौंदर्य का कवि भी कहा जाता है, लेकिन उन का प्रेम सारी मानवता और प्रकृति से, और उन का सौंदर्य प्रकृति और मानवीय गुणों का सौंदर्य था। उन्हें एक जटिल कवि माना जाता है, लेकिन उन की जटिलता वास्तव में संश्लिष्टता है जो उलझाती नहीं है अपितु जगत के जटिल व्यवहारों के संबंध में समझ पैदा करती है। वे काल से जिस होड़ की बात करते हैं वह उन की व्यक्तिगत नहीं है अपितु समस्त मनुष्य की होड़ है। शमशेर हर विद्या में अनूठे थे, उनका लेखन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व्याख्या चाहता है। उन के सभी समकालीन सभी श्रेष्ठ लेखकों ने उन के बारे में लिखा, उन की कविता और अन्य साहित्य के बारे में लिखा। लेकिन शमशेर का विस्तार इतना है कि अभी एक शताब्दी और उस के बाद भी उन के बारे में लिखा जाता रहेगा। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रमुख साहित्यकार और ‘अलाव’ के संपादक रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर अपने समकालीनों में सरोकार के स्तर पर सर्वोपरि दीख पड़ते हैं। उन की रचनाएँ स्वयं को और जन-मानस को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर हैं। वे समाज में उपस्थित तमाम अमानवीय ताकतों के विरुद्ध, और सताए हुए लोगों के साथ हैं। वे नए समाज की रचना चाहते हैं। इस के लिए वे जो कहना चाहते हैं, उस के लिए हर विधा का उपयोग पूरी कलात्मक श्रेष्ठता के साथ करते हैं, इसीलिए उन के लेखन में एक जादूगरी दिखाई पड़ती है। वे कलावादी नहीं हैं। वे कला का उपयोग सामाजिक सरोकारों के लिए करते हैं। बदलाव की गहरी आकांक्षा और चेतना उनके साहित्य में पग-पग पर मौजूद है। वे हमें आसान राह नहीं दिखाते क्यों कि मुक्ति कभी आसान नहीं होती। यह रोशनी की साधना है।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी का शुभारंभ करते नन्द भारद्वाज |
‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच के अखिल भारतीय महासचिव, कवि गीतकार और इस आयोजन के मुख्य सूत्रधार महेन्द्र ‘नेह’ ने सत्रारंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए ही स्पष्ट कर दिया था कि हम यहाँ दो दिन शमशेर के रचनाकर्म की गहराइयों में जाएंगे और जानेंगे कि वे कितने विलक्षण रचनाकार थे। उन्हें कलावादी और जनवादी दोनों अपना क्यों कहते हैं? हम पाएंगे कि वे जनता के कवि थे, उन की रचनाओं की मुख्य चिंता पीड़ित जन और उन की मुक्ति थी। विशिष्ट अतिथि कवि समीक्षक सुरेश ‘सलिल’ ने शमशेर के साहित्य और जीवन का परिचय दिया।इस सत्र का सफल संचालन कवि अम्बिकादत्त ने किया। उन्हों ने महेद्र ‘नेह’ की बात को और स्पष्ट कर दिया था कि शमशेर समय को समझने में हमारी मदद करते हैं, हमें इन दो दिनों में हम शमशेर के माध्यम से अपने समय को समझने का प्रयत्न करेंगे। इस सत्र का आरंभ नंद भारद्वाज ने 'विकल्प' की परंपरा के अनुरूप मशाल प्रज्वलित कर किया था और उस के तुरंत बाद रविकुमार के शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं पर बनाए गए पोस्टरों की प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया। संगोष्ठी स्थल पर जाने के पहले इस प्रदर्शनी से हर किसी को गुजरना होता था। इस प्रदर्शनी ने तथा सत्रारंभ के पूर्व जमनाप्रसाद ठाड़ा राही के प्रसिद्ध गीत ‘जाग जाग री बस्ती’ की शरद तैलंग द्वारा संगीतमय प्रस्तुति ने संगोष्ठी के विमर्श को वातावरण प्रदान करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
अपरान्ह सत्र का विषय ‘हिन्दी ग़ज़ल में शमशेरियत’ था। सत्र का मुख्य पत्रवाचन करते हुए रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर की ग़ज़लों में भाषाई द्वैत नहीं है। वस्तुतः उन की ग़जलें हिन्दी में लिखी गई उर्दू ग़ज़लें हैं। वे उर्दू और हिन्दी के द्वैत को तोड़ कर हिन्दुस्तानी बोली और भारत की गंगा-जमुनी तहजीब तक जाती हैं। प्रयोगवादी और प्रगतिशील दोनों ही उन्हें अपना मानते हैं। यह सही है कि उन्हों ने अपनी रचनाओं में प्रयोग किए हैं, इतने, कि सभी प्रयोगवादी पीछे छूट जाते हैं। लेकिन शमशेर का आधार जनवाद है। वे जनता के दर्द को, उसकी वजहों को बखूबी बयाँ करते हैं। वे एंद्रीयबोध और वस्तुगत परिस्थितियों में एक संतुलन उत्पन्न करते हैं, वे कला पर विजय प्राप्त कर के खम ठोकते हुए अपनी बात कहते हैं, कला उन के कथ्य पर हावी नहीं होती, उन का कथ्य नए कला रूपों को उत्पन्न करता है। सत्र का दूसरे पत्र में प्रो. हितेष व्यास ने प्रमाणित किया कि शमशेर के लिए हिन्दी और उर्दू दो भाषाएँ नहीं थीं अपितु एक जान दो शरीर थे। वे भाषा का प्रयोग पूरी कलात्मक सूक्ष्मता के साथ अपनी बात कहने के लिए करते थे।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी |
इसी सत्र में शायर पुरुषोत्तम यक़ीन ने कहा कि शमशेर ने अपने समकालीनों पर खूब लिखा और समकालीनों ने उन पर, इस से उस समय के साहित्य और रचनाकारों को विकास का अवसर प्राप्त हुआ, हमें इस परंपरा का अनुसरण करना चाहिए। सलीम खाँ फरीद ने अपने पत्र में बताया कि शमशेर सूक्ष्म सौंदर्यबोध के कवि थे जो उन की ग़ज़लों में भी पूरी तरह स्पष्ट है। डॉ. हुसैनी बोहरा को अगले दिन शमशेर के गद्य पर पत्रवाचन करना था लेकिन अगले दिन उपलब्ध न होने के कारण उन्हों ने मुख्यतः उन के निबंध संग्रह ‘दोआब’ पर अपना पत्रवाचन करते हुए कहा कि उन की सम्वेदना मनुष्य के प्रति थी, वे हिन्दी और उर्दू के साहित्य का अलग अलग मूल्यांकन कर के देखने के विरोधी थे। उन का मानना था कि हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग कर के देखना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीति थी। जब कि शमशेर के लिए दोनों भारत की जुबानें ऐसी जुबानें थीं जिन की आधारभूमि एक ही है। उन का कहना था कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में शमशेर का गद्य सर्वश्रेष्ठ है, वे साहित्य को मानवता का औजार मानते थे।
संगोष्ठी मंच |
सत्र की अध्यक्षता कर रहे डॉ. हरेप्रकाश गौड़ ने कहा कि शमशेर के आजादी पूर्व के साहित्य की चिंता राष्ट्रीय आंदोलन था। उन के साहित्य को समझने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन और उस की जटिलताओं को समझना होगा। वे आरंभ में रोमांस के कवि थे, रोमांस से आरंभ हो कर वे जनता के दुख-दर्द और उससे मुक्ति के साथ प्रतिबद्धता की ओर बढ़े। उन्हों ने जनता को बाँटने वाली कट्टरपंथी धार्मिकता के विरुद्ध और गरीब श्रमजीवी जनता के पक्ष में अपना रचनाकर्म किया। निराला ने ग़ज़ल को जनसंघर्ष से जोड़ा और शमशेर ने उस परंपरा को आगे बढ़ाया। वे एक मौलिक आलोचक थे। सभी वक्ताओं और पत्रवाचकों में तारतम्य बनाये रखते हुए इस सत्र का सफल संचालन शायर शकूर ‘अनवर’ ने किया। इसी दिन रात्रि को कविसम्मेलन-मुशायरा आयोजित किया गया, जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती कवियों के अतिरिक्त अतिथि कवियों ने कवितापाठ किया।
जहां तक मेरी जानकारी है निराला और त्रिलोचन का जन्म 1911 में नहीं हुआ था। निराला 1907 तथा त्रिलोचन 1917 में जन्मे थे। अतः यह इन कवियों का शताब्दी वर्ष नहीं है।
जवाब देंहटाएंder se hi shi lekin blog ki duniya men bhtrin riporting dekr is duniya ko apane sjaa diya bdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएं@ Rangnath Singh
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए धन्यवाद! आप की सूचनाएँ सही हैं। उस के अनुरूप आलेख को संशोधित कर दिया है।
आभार इस रपट के लिए.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन, ज्ञानवर्धन करती हुई रपट.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट ,! शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंACHHI RAPAT....
जवाब देंहटाएंPRANAM.
विस्तृत और ज्ञानपरक रिपोर्ट।
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